विकिपुस्तक hiwikibooks https://hi.wikibooks.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A4%AA%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0 MediaWiki 1.39.0-wmf.23 first-letter मीडिया विशेष वार्ता सदस्य सदस्य वार्ता विकिपुस्तक विकिपुस्तक वार्ता चित्र चित्र वार्ता मीडियाविकि मीडियाविकि वार्ता साँचा साँचा वार्ता सहायता सहायता वार्ता श्रेणी श्रेणी वार्ता रसोई रसोई वार्ता विषय विषय चर्चा TimedText TimedText talk Module Module talk गैजेट गैजेट वार्ता गैजेट परिभाषा गैजेट परिभाषा वार्ता पाश्चात्य काव्यशास्त्र/लोंजाइनस की उदात्त संबंधी अवधारणा 0 5941 78650 75239 2022-08-12T10:30:07Z आदेश यादव 12961 /* उदात्त के विरोधी तत्व */ wikitext text/x-wiki {{BookCat}} ===भूमिका=== लोंजाइनस के विषय में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। लोंगिनुस जन्म से यूनानी थे। उनका समय ईसा की प्रथम या तृतीय शताब्दी माना जाता है। लोंगिनुस के प्रसिध्द ग्रंथ 'पेरी हुप्सुस' जिसका प्रकाशन 1554 में रोबेरतेल्लो ने किया। इसके कई अनुवाद मिलते हैं। यथा- 'हाइट ऑफ इलोक्वेंस' (वाणी की पराकाष्ठा),(1662), 'लाफ्टीनेस ऑर एलीगेंसी ऑफ स्पीच' (भाषा का लालित्य या उत्तुंगता) आदि। इसी के अनुरूप हिन्दी में 'काव्य में उदात्त तत्व' डॉ. नगेन्द्र एवं नैमिचंद जैन की पुस्तकों में भी मिलती है।'पेरि हुप्सुस' पत्र के रूप में पोस्तुमिउस तेरेन्तियानुस नामक एक रोमी युवक को संबोधित है, जो लोंगिनुस का मित्र या शिष्य रहा होगा। वस्तुत: पुनर्जागरण युग में 16वीं सदी में जब पहली बार 'पेरीइप्सुस' कृति सामने आई तब यह मत प्रचलित हुआ कि लोंजाइनस शास्त्रवाद से प्रभावित, तीसरी सदी में पालचीरा की महारानी जे़नोविया के अत्यंत विश्वासपात्र यूनानी मंत्री थे। जिन्हें बाद में महारानी के लिए मृत्यु का वरण करना पडा़। 1928 में स्काट-जेम्स ने इस मत को पुन:स्थापित करते हुए उन्हें 'पहला स्वच्छंदतावादी आलोचक' कहा है। पश्चिम में लोंजाइनस से पूर्व काव्यशास्त्रीय चिंतन की एक सुदृढ़ परम्परा का विकास प्लेटो तथा अरस्तू से ही माना जाता है। लोंजाइनस ने इन दोनों की अवधारणाओं को आत्मसात् करके एक नए काव्यशास्त्रीय विचार प्रस्तुत किए। जहाँ प्लेटो के लिए साहित्य 'उत्तेजक', अरस्तू के लिए 'विरेचक' वहीं लोंजाइनस के लिए 'उदात्त' था। उनकी यह अवधारणा इतनी युगांतकारी सिध्द हुई कि आगे चलकर उसे शास्त्रवाद, स्वच्छंदतावाद, आधुनिकतावाद और यथार्थवाद से जोड़कर देखा गया। लोंजाइनस से पूर्व काव्य की महत्ता दो रूपों में मूल्यांकित की जाती थी- १) शिक्षा प्रदान करना २) आनंद प्रदान करना। 'एरिस्टोफेनिस' सुधारवाद का पक्षधर था, और 'होमर' मनोरंजन का। अत: साहित्य (काव्य और गध) दोनों का आधार था- "To instruct, to delight, to persuade" अर्थात् शिक्षा देना, आह्लादित करना और प्रोत्साहित करना उस समय तक काव्य में आलंकारिक, चमत्कारिक और आडम्बरपूर्ण भाषा-शैली को महत्व दिया गया था, भाव तत्व को नहीं लोंजाइनस ने इस ओर ध्यान केंद्रित किया। ===लोंजाइनस का उदात्त-तत्व=== लोंजाइनस ने उदात्त तत्व की स्वतंत्र एवं व्यापक व्याख्या नहीं की है, उसे एक स्वत: स्पष्ट तथ्य मानकर छोड़ दिया है। उनका मत है कि उदात्तता साहित्य के सब गुणों में महान है; यह वह गुण है जो अन्य छोटी-मोटी त्रुटियों के बावजूद साहित्य को सच्चे अर्थों में प्रभावपूर्ण बना देता है। उदात्त को परिभाषित करते हुए लोंगिनुस कहते हैं- '''"अभिव्यक्ति की विशिष्टता और उत्कर्ष ही औदात्य है। ( Sublimity is always an eminence and excellence in language.)" या "उदात्त अभिव्यंजना का अनिर्वचनीय प्रकर्ष और वैशिष्ट्य है।"''' यही वह साधन है जिसकी सहायता से महान कवियों या इतिहासकारों ने ख्याति और कीर्ति अर्जित की है। उनका कहना है कि उदात्त का प्रभाव श्रोताओं के अनुनयन (मनोरंजन)(persuasion)में नहीं, बल्कि सम्मोहन (entrancement) में दृष्टिगोचर होता है। जो केवल हमारा मनोरंजन करता है, उसकी अपेक्षा वह निश्चय ही अधिक श्रेष्ठ है, जो हमें विस्मित कर सर्वदा और सर्वथा सम्मोहित कर लेता है। अनुनयन (मनोरंजन) हमारे अधिकार की चीज है, अर्थात् अनुनीत (मनोरंजीत) होना या न होना हमारे हाथ में है, किंतु उदात्त तो प्रत्येक श्रोता को अप्रतिरोध्य शक्ति (irresistible force) से प्रभावित कर अपने वश में कर लेता है। सर्जनात्मक कौशल और वस्तुविन्यास पूरी रचना में आधंत वर्तमान रहते हैं और क्रमश: शनै: शनै: पर उभरते हैं, किंतु बिजली की कौंध की तरह सही समय पर उदात्त की एक कौंध, पूरे विषय को उद्भासित कर देती है। वे कहते हैं कि कला में उदात्त किसी विशेष भाव या विचार के कारण नहीं, बल्कि अनेक 'विरूध्दों के सामंजस्य' अथवा भावों के संघात से उत्पन्न होता है। लोंगिनुस उदात्त की उत्पति के लिए केवल प्रतिभा को ही पर्याप्त नहीं मानते, उसके साथ ज्ञान (व्युत्पति) को भी आवश्यक बताते हैं। तात्पर्य यह है कि उदात्त नैसर्गिक ही नहीं, उत्पाध भी है; प्रतिभा के अतिरिक्त ज्ञान और श्रम से भी उसकी सृष्टि संभव है। ===उदात्त-तत्व के स्त्रोत=== लोंजाइनस ने उदात्त तत्व के विवेचन में पाँच तत्वों को आवश्यक ठहराया है। १) विचार की महत्ता २) भाव की तीव्रता ३) अलंकार का समुचित प्रयोग ४) उत्कृष्ट भाषा ५) रचना की गरिमा। इनमें से प्रथम दो जन्मजात (अंतरंग पक्ष) तथा शेष तीन कलागत (बहिरंग पक्ष) के अन्तर्गत आते हैं। उन्होंने अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए उन तत्वों का भी उल्लेख किया है जो औदात्य के विरोधी हैं। इस प्रकार उनके उदात्त के स्वरूप-विवेचन के तीन पक्ष हो जाते हैं- १) अन्तरंग तत्व २ बहिरंग तत्व ३) विरोधी तत्व। ====विचार की महत्ता==== लोंजाइनस उदात्त के तत्वों में विचार की महत्ता का सबसे प्रमुख स्थान देते है। विचार की महत्ता तब तक संभव नहीं है, जब तक वक्ता या लेखक की आत्मा भी महान न हो, वे कहते है-''' "औदात्य महान आत्मा की प्रतिध्वनि" ''' है। महान आत्मा का अर्थ, व्यक्ति के चरित्र, आचार, व्यवहार सभी महान हों। इसके लिए प्राचीन, श्रेष्ठ रचनाओं का ज्ञान आवश्यक है। उत्तम आदर्शों के अनुकरण से अनुकर्ता का पथ प्रशस्त तथा आलोकित होता है। अनुकरण बाहरी नकलमात्र नहीं है, बल्कि पूर्वजों की दिव्य भव्यता को अपने में समाहित करने का प्रयास है। वह उदात्त विचारों के लिए कल्पना और प्राचीन काव्यानुशीलन को आवश्यक मानते है। वह श्रेष्ठ रचना के लिए उसके विषय का विस्तारपूर्ण होना आवश्यक समझते हैं। उनका मत है कि विषय में ज्वालामुखी के समान असाधारण शक्ति और वेग होना चाहिए तथा ईश्वर का सा ऐश्वर्य और वैभव भी। ====भाव की तीव्रता==== 'पेरिहुप्सुस' के विभिन्न प्रसंगों में लोंगिनुस के कथनों से ज्ञात होता है कि उदात्त के लिए वे भाव की तीव्रता या प्रबलता को आवश्यक मानते हैं। भाव की तीव्रता के कारण ही वे होमर के 'इलियट' को 'ओदिसी' से श्रेष्ठ बताते हैं। भाव की भव्यता में भाव की सत्यता भी अंतर्भूत है। इसलिए लोंगिनुस भाव के अतिरेक से बचने की राय देते हैं, जिससे भाव अविश्वसनीय (असत्य) न हो जाये। अविश्वसनीयता आह्लाद में बाधक बनाती है। ध्यान में रखने की दूसरी चीज, भाव का प्रयोग उचित स्थल पर होनी चाहिए। लोंगिनुस अपना अभिप्राय प्रस्तुत करते है-''' "मैं विश्वासपूर्वक कहना चाहता हूं कि उचित स्थल पर भव्य भाव के समावेश से बढ़कर उदात्त की सिध्दि का और कोई साधन नहीं है। वह (भाव) वक्ता के शब्दों में एक प्रकार का रमणीय उन्माद भर देता है और उसे दिव्य अंत:प्रेरणा से समुच्छ्वासित कर देता है।" ''' ====अलंकार का समुचित प्रयोग==== लोंजाइनस ने अलंकार का सम्बन्ध मनोविज्ञान से जोडा़ और मनोवैज्ञानिक प्रभावों को व्यक्त करने के निमित्त ही अलंकारों को उपयोगी ठहराया। केवल चमत्कार-प्रदर्शन के लिए अलंकारों का प्रयोग उन्हें मान्य न था। वह अलंकार को तभी उपयोगी मानते थे जब वह जहाँ प्रयुक्त हुआ है, वहाँ अर्थ को उत्कर्ष प्रदान करे, लेखक के भावावेग से उत्पन्न हुआ हो, पाठक को आनन्द प्रदान करे, उसे केवल चमत्कृत न करे। भाव यदि अलंकार के अनुरूप नहीं है, तो कविता-कामिनी का श्रृंगार न कर उसका बोझ बन जाएगा। वे कहते है- ''' 'प्रत्येक वाक्य में अलंकार की झंकार व्यर्थ का आडम्बर होगा।' ''' इसलिए अलंकारों का प्रयोग वहीं होना चाहिए जहाँ आवश्यक हो और उचित हो। आगे वे कहते हैं कि भव्यता के आलोक में अलंकारों को उसी तरह छिप जाना चाहिए जैसे सूर्य के आगे आसपास के मध्दिम प्रकाश में छिप जाते हैं। ====उत्कृष्ट भाषा==== उत्कृष्ट भाषा के अन्तर्गत लोंजाइनस ने शब्द-चयन और भाषा-सज्जा को लिया है। उन्होंने विचार और पद-विन्यास को एक-दूसरे के आश्रित माना है, अत: उदात्त विचार क्षुद्र या साधारण शब्दावली द्वारा अभिव्यक्त न होकर गरिमामयी भाषा में ही अभिव्यक्त हो सकते हैं। तुच्छ वस्तुओं की अभिव्यक्ति के लिए विशिष्ट शब्दावली वैसे ही अनुप्रयुक्त होती है जैसे '''किसी छोटे बच्चे के मुंह पर रखा विशाल मुखौटा।''' लोंजाइनस का मानना है कि सुंदर शब्द ही वास्तव में विचार को विशेष प्रकार का आलोक प्रदान करते हैं। यह तभी सम्भव है जब उचित स्थान, उचित प्रसंग में उचित शब्दों का प्रयोग हो। ====रचना की गरिमा==== उदात्त का पंचम स्त्रोत है- रचना की गरिमा। जिसका लक्षण है- उचित क्रम में शब्दों का विन्यास। वे कहते है ''' जिस तरह अंग अलग-अलग रहकर शोभाजनक नहीं होते, अपने-अपने स्थान पर आनुपातिक रूप से जुड़कर ही वे सौंदर्य की सृष्टि करते हैं।''' यही स्थिति उदात्त के निष्पादक तत्वों की भी है। कैसे विचार के साथ कैसे भाव का मिश्रण उचित होगा; उसमें कौन-से अलंकार उपयुक्त होगे; किस तरह के पद, किस क्रम से विन्यस्त होकर अभिष्ट प्रभाव उत्पन्न करेंगे; इन बातों का ठीक-ठाक आकलन किये बिना रचना में गरिमा नहीं आ सकती। उनकी दृष्टि में रचना का प्राण-तत्व हैं सामजस्य, जो उदात्त शैली के लिए अनिवार्य है। ===उदात्त के विरोधी तत्व=== लोंजाइनस ने उदात्त शैली के विरोधी तत्वों की चर्चा भी उदात्त के तत्वों के साथ ही की है। वे कहते हैं कि रूचिहीन, वाक् स्फीति, भावाडम्बर, शब्दाडम्बर, आदि उदात्त-विरोधी हैं। लेखक अशक्तता और शुष्कता से बचने के प्रयास में शब्दाडंबर के शिकार हो जाते हैं। शब्दाडंबर उदात्त के अतिक्रमण की इच्छा से उत्पन्न होता है, किन्तु उदात्त का अतिक्रमण करने के बदले वह उसके प्रभाव को ही नष्ट कर देता है। बालिशता (बचकानापन) भव्यता का विलोम है। यह दोष तब आता है, जब लेखक रचना को असाधारण या आकर्षक या भड़कदार बनाना चाहता है, पर हाथ लगती है केवल कृत्रिमता और प्रदर्शनप्रियता। भावांडबर या मिथ्याभाव तीसरा दोष है। जहाँ भाव के बदले संयम की आवश्यकता है, वहां जब लेखक भाव की अमर्यादित अभिव्यक्ति में प्रवृत होता है तो भावाडंबर आ जाता है। अत: यह मानना पडे़गा कि उदात्त का विश्लेषण और समग्र विवेचन भारतीय काव्यशास्त्र में उतना नहीं जितना लोंजाइनस के 'पेरि इप्सुस' में। उसकी सबसे बडी़ देन यह है कि उसने दोषपूर्ण महान कृति को निर्दोंष साधारण कृति से ऊँचा माना है, क्योंकि महान कृति में ही दोषों की सम्भावना हो सकती हैं। ===संदर्भ=== १. पाश्चात्य काव्यशास्त्र---देवेन्द्रनाथ शर्मा। प्रकाशक--मयूर पेपरबैक्स, पंद्रहवां संस्करण: २०१६, पृष्ठ--८६-१२२ २. भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र---डाँ. सत्यदेव चौधरी, डाँ. शन्तिस्वरूप गुप्त। अशोक प्रकाशन, नवीन संस्करण-२०१८, पृष्ठ--२१५-२१८ ३. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र की पहचान---प्रो. हरिमोहन । वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-२०१३,पृष्ठ--११८-१२२ 2b5yk1zahmz2ri8i87ciewe5l45dfgp पाश्चात्य काव्यशास्त्र/अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत 0 5948 78651 75228 2022-08-12T10:34:35Z आदेश यादव 12961 /* अनुकरण-सिद्धांत */ wikitext text/x-wiki {{BookCat}} ===भूमिका=== [[चित्र:AT 13766 Aristotle - Rössner -Roof figure at the Naturhistorisches Museum, Vienna 8928-Bearbeitet.jpg|thumb|right|अरस्तु]] अरस्तू (Aristotiles) का जन्म मकदूनिया के स्तगिरा नामक नगर में 384 ई. पू. में हुआ था। उनके पिता सिकंदर के पितामह (अमिंतास) के दरबार में चिकित्सक थे। अत: प्रतिष्ठित परिवार में जन्में दार्शनिक अरस्तू बाल्यकाल से ही अत्यंत मेधावी और कुशाग्र बुध्दि के थे। वे प्लेटो के परमप्रिय शिष्य, जिन्हें प्लेटो अपने वीधापीठ का मस्तिष्क कहा करते थे। उन्हें सिकंदर महान का गुरू होने का भी गौरव प्राप्त है। ज्ञान-विज्ञान के लगभग सभी क्षेत्रों पर उनका समान अधिकार था। यही कारण है कि अरस्तू को पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की विधाओं का आदि आचार्य माना जाता है। उनकी कृतियों की संख्या 400 मानी गई है, किन्तु उनकी प्रतिष्ठा के लिए दो ही ग्रंथ उपलब्ध है- 'तेख़नेस रितेरिकेस' जो भाषण कला से सम्बन्धित है। इसका अनुवाद 'भाषण कला' (Rhetoric) किया गया, दूसरा 'पेरिपोइतिकेस' जो काव्यशास्त्र से सम्बन्धित है। जिसका अनुवाद 'काव्यशास्त्र' (poetics) किया गया हालांकि 'काव्यशास्त्र' का यह ग्रंथ वृहत् ग्रंथ न होकर एक छोटी-सी पुस्तिका मात्र है, जिसमें कोई व्यवस्थित विस्तृत काव्य शास्त्रीय सिध्दांत निरूपण नहीं है। माना जाता है कि इसमें उनके द्वारा अपने विधापीठ में पढा़ने के लिए तैयार की नई समाग्री को उनके विषयों ने एकत्र कर दिया जो एक अत्यंत महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ बन पडा़ है। 'काव्यशास्त्र' की रचना के मूल में अरस्तू के दो उद्देश्य रहे हैं- एक तो अपनी दृष्टि से यूनानी काव्य का वस्तुगत विवेचन-विश्लेषण; दूसरा अपने गुरू प्लेटो द्वारा काव्य पर किये गये आक्षेपों को समाधान। किंतु इस प्रसंग में अरस्तू ने न तो कहीं प्लेटो का नाम लिया है, न खंडनात्मक तेवर अपनाया है और न गुरू के विचारों की तुलना में अपने विचारों को श्रेष्ठ ठहराने की अशालीनता प्रदर्शित की है, बल्कि उन्होंने प्लेटो के काव्य विषयक विचारों की दृढ़तापूर्वक और प्रतिभायुक्त समीक्षा की है। अरस्तू ने जिन काव्यशास्त्रीय सिध्दांतो का प्रतिपादन किया, उनमें से तीन सिध्दांत विशेष महत्व रखते हैं- १) अनुकरण सिध्दांत २) त्रासदी-विवेचन ३) विरेचन सिध्दांत।। ===अनुकरण-सिद्धांत=== 'इमिटेशन' जो यूनानी के 'मिमेसिस' (Mimesis) का अंग्रेजी अनुवाद है, और हिन्दी में अनुकरण। अरस्तू ने प्लेटो द्वारा प्रयुक्त 'mimesis' शब्द तो स्वीकार करते है लेकिन उसे एक नवीन अर्थ में। प्लेटो ने 'अनुकरण' शब्द का प्रयोग हू-ब-हू नकल मानते है जबकि अरस्तू ने उसको एक सीमित तथा निश्चित अर्थ दिया। अरस्तू ने कला को 'प्रकृति की अनुकृति' माना है। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि अनुकरण उनके यहाँ 'बाह्यरूप की अनुकृति' नहीं है, जैसी कि प्लेटो की धारणा थी। बल्कि वे कहते हैं कि अनुकरण प्रकृति के बाह्यरूपों का नहीं, उसकी सर्जन-प्रक्रिया का है। कलाकार बाह्यजगत् से सामग्री चुनता है और उसे अपने तरीके से छाँटकर और तराशकर इस प्रकार पुन: संयोजित करता है कि वह कलाकृति कलात्मक अनुभूति को जन्म देती है। प्रकृति में जो कुछ अपूर्णता रह जाती है, उसे कलाकार पूर्ण करने की चेष्टा करता है। इस सम्बन्ध में एबरक्रोम्बे का मत उल्लेखनिय है। उन्होंने लिखा है कि अरस्तू का तर्क था कि '''यदि कविता प्रकृति का केवल दर्पण होती, तो वह हमें उससे कुछ अधिक नहीं दे सकती थी जो प्रकृति देती है;''' पर तथ्य यह है कि हम कविता का आस्वादन इसलिए करते हैं कि वह हमें वह प्रदान करती है जो प्रकृति नहीं दे सकती। कवि की कल्पना में जो वस्तु-रूप प्रस्तुत होता है, उसी को वह भाषा में प्रस्तुत करता है। यह पुन:प्रस्तुतीकरण ही अनुकरण है। अरस्तू के अनुसार कलाकार तीन प्रकार की वस्तुओं में से किसी एक का अनुकरण कर सकता है- १) प्रतीयमान रूप में, अर्थात् जो वस्तु जैसी है, वैसी ही दिखाई दे। २) सम्भाव्य रूप में, अर्थात् जो वस्तु जैसी नहीं है, किंतु वैसी हो सकती है। ३) आदर्श रूप में, अर्थात् किसी वस्तु को ऐसा होना चाहिए। इनमें पहली स्थिति यथातथ्यात्मक अनुकरण मानी जा सकती हैं। जबकि दूसरी एवं तीसरी स्थितियों में वास्तविक जगत् के अनुकरण से भिन्नता होती है। इन स्थितियों में कविता के संदर्भ में कहे तो, कवि बाह्य जगत् को आधार बनाता है किन्तु वह कल्पना तथा आदर्श भावना का आधार लेकर उस वस्तु का चित्रण कुछ इस प्रकार करता है कि वह बाह्य, इन्द्रियगोचर या भौतिक जगत् की सीमा से बहुत ऊपर उठ जाती है। अरस्तू का एक और विचार महत्वपूर्ण है। वह है इतिहास को लेकर। इतिहास और काव्य की तुलना करते हुए अरस्तू ने काव्य के सत्य को इतिहास के तथ्य से ऊँचा माना है। अरस्तू का मत है -'कवि और इतिहासकार में वास्तविक भेद यह है कि - १) इतिहास केवल घटित हो चुकी घटनाओं का उल्लेख करता है, जबकि काव्य में सम्भाव्य या घटित होनी वाली आदर्श स्थितियों का चित्रण होता है। २) इतिहास केवल बाह्य जगत् की विशिष्ट घटनाओं का उल्लेख एवं विवेचन प्रस्तुत करता है, जबकि काव्य का सत्य घटना विशेष तक ही सीमित नहीं होता, बल्कि 'सामान्य' होता है। ३) इतिहास वस्तुपरक होता है। इसके विपरीत काव्य में अनुभूति एवं विचार का सहारा लिया जाता है। श्रेष्ठ काव्य में तो दर्शन तत्व की भी प्रधानता होती है। समग्रत: अरस्तू अपनी 'अनुकरण' विषयक अवधारणा में इस तथ्य पर बल देते हैं कि काव्य में केवल बाह्य जगत् में प्रत्यक्ष जीवन का ही अनुकरण नहीं किया जाता, बल्कि सूक्ष्म, आंतरिक और अमूर्त जीवन का भी अनुकरण किया जाता है। इसके लिए कवि या कलाकार अनुभूति एवं कल्पना का आश्रय ग्रहण करता है। वे अनुकरण के तीन बिषय मानते हैं- १) प्रकृति २) इतिहास ३) कार्यरत मनुष्य। ===त्रासदी-विवेचन=== पश्चिम में त्रासदी का सर्वप्रथम विवेचन यूनान में हुआ। यधपि अरस्तू से पूर्व प्लेटो ने भी त्रासदी पर अपने विचार प्रकट किये थे, तथापि अरस्तू ने ही सबसे पहले त्रासदी का गम्भीर एवं विशद विवेचन किया। त्रासदी ग्रीक साहित्य की महत्वपूर्ण विधा रही है। यह मूलत: नृत्य-गीत परम्परा से विकसित नाट्यरूप था। जिसे एस्खिलुस और सोफो़क्लीज जैसे नाट्यकारों ने समृध्द किया। यों तो उस युग में कामदी, महाकाव्य और गीतिकाव्य जैसी साहित्यिक विधाएँ भी यूनान में खूब प्रचलित थीं, किन्तु अरस्तू ने अपनी पुस्तक'पेरिपोइतिकेस' (पोयटिक्स) में सर्वाधिक महत्व त्रासदी को ही दिया। त्रासदी, त्रास अर्थात् कष्ट देने वाली विधा को कह सकते हैं, किन्तु अरस्तू ने त्रासदी की परिभाषा देते हुए कहा है कि -''' "त्रासदी किसी गम्भीर स्वत:पूर्ण निश्चित आयाम से युक्त कार्य की अनुकृति है।" '''' अर्थात् त्रासदी में जीवन के किसी पक्ष का गंभीर चित्रण संवाद तथा अभिनय द्वारा होता है और वह दुखान्त होती है। उपर्युक्त परिभाषा के आधार पर हम त्रासदी की विशेषताओं को निम्न रूप में रेखांकित कर सकते हैं- १) त्रासदी 'कार्य की अनुकृति' है। व्यक्ति की अनुकृति नहीं। २) त्रासदी में वर्णित 'कार्य' गम्भीर तथा स्वत: पूर्ण होता है। इसका क्षेत्र तथा विस्तार निश्चित होता है। ३) इसमें जीवन व्यापार वर्णनात्मक रूप नहीं होता, बल्कि यह प्रदर्शन के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। ४) त्रासदी की शैली अलंकारपूर्ण होती है। ५) इसमें करूणा और त्रास का उद्रेक होता है। अरस्तू ने त्रासदी के छह तत्व माने हैं- १) कथानक (plot) २) चरित्र (character) ३) विचार (Thought) ४) पदविन्यास (Diction) ५) दृश्यविधान (Spectacle) ६) गीत (Song)। अरस्तू ने त्रासदी में सर्वाधिक महत्व कथानक को दिया। चरित्र को इतना महत्व नहीं दिया। यहाँ तक कि वे चरित्र के अभाव में भी त्रासदी की सत्ता स्वीकार करते है। ===विरेचन सिध्दांत=== यूनानी के शब्द 'Catharsis' का हिन्दी रूपांतर 'विरेचन' होता है। जिस प्रकार 'Catharsis' शब्द यूनानी चिकित्सा-पध्दति से सम्बध्द है, उसी प्रकार 'विरेचन' शब्द भारतीय आयुर्वेद-शास्त्र से सम्बन्धित है। आयुर्वेद के अनुसार शरीर में वात, पित्त, कफ - ये तीन दोष (विकार) होते हैं। उपयुक्त औषधि के प्रयोग से शरीर के विकारों को निकाल बाहर कर राहत प्रदान करता है। इसका सबसे सटीक उदाहरण- पेट के कब्ज को साफ करना। वैध के पुत्र होने के कारण अरस्तू ने यह शब्द वैधक-शास्त्र से ग्रहण किया और काव्यशास्त्र में उसका लाक्षणिक प्रयोग किया। अरस्तू त्रासदी को सर्वश्रेष्ठ मानते थे। और त्रासदी को सर्वश्रेष्ठ मानने के कारणों में उनका विरेचन ('Catharsis') सिध्दान्त था। अर्थात् अरस्तू के अनुसार त्रासदी दर्शकों के मन में करूणा एवं त्रास (दु:ख) की भावनाओं को उकसाकर उनका विरेचन कर देती है। संगीत के क्षेत्र में यह और भी अधिक सटीक बैठती है। यह एक प्रकार से मनोविकारों को उभारकर शांत करने और करूण एवं त्रास से आवेशित व्यक्तियों को 'शुध्दि का अनुभव' प्रदान करने की प्रक्रिया है, जो अन्तत: आनंद प्रदान करती है। कलांतर में अरस्तू के 'विरेचन सिध्दांत' की तीन दृष्टियों से व्याख्या की गई- १) धर्मपरक २) नीतिपरक ३) कलापरक। विरेचन की यह प्रक्रिया भारतीय काव्य शास्त्र के अन्तर्गत साधारणीकरण की अवधारणा से मेल खाती है। ===संदर्भ=== १. पाश्चात्य काव्यशास्त्र---देवेन्द्रनाथ शर्मा। प्रकाशक--मयूर पेपरबैक्स, पंद्रहवां संस्करण: २०१६, पृष्ठ--२१,२६,५६ २. भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र---डाँ. सत्यदेव चौधरी, डाँ. शन्तिस्वरूप गुप्त। अशोक प्रकाशन, नवीन संस्करण-२०१८, पृष्ठ--१९०,१९१,१९५ ३. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र की पहचान---प्रो. हरिमोहन । वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-२०१३,पृष्ठ--११२-११७ eors5n6hu993q35rjz1ay9093hssicw 78652 78651 2022-08-12T10:35:07Z आदेश यादव 12961 /* विरेचन सिद्धांत */ wikitext text/x-wiki {{BookCat}} ===भूमिका=== [[चित्र:AT 13766 Aristotle - Rössner -Roof figure at the Naturhistorisches Museum, Vienna 8928-Bearbeitet.jpg|thumb|right|अरस्तु]] अरस्तू (Aristotiles) का जन्म मकदूनिया के स्तगिरा नामक नगर में 384 ई. पू. में हुआ था। उनके पिता सिकंदर के पितामह (अमिंतास) के दरबार में चिकित्सक थे। अत: प्रतिष्ठित परिवार में जन्में दार्शनिक अरस्तू बाल्यकाल से ही अत्यंत मेधावी और कुशाग्र बुध्दि के थे। वे प्लेटो के परमप्रिय शिष्य, जिन्हें प्लेटो अपने वीधापीठ का मस्तिष्क कहा करते थे। उन्हें सिकंदर महान का गुरू होने का भी गौरव प्राप्त है। ज्ञान-विज्ञान के लगभग सभी क्षेत्रों पर उनका समान अधिकार था। यही कारण है कि अरस्तू को पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की विधाओं का आदि आचार्य माना जाता है। उनकी कृतियों की संख्या 400 मानी गई है, किन्तु उनकी प्रतिष्ठा के लिए दो ही ग्रंथ उपलब्ध है- 'तेख़नेस रितेरिकेस' जो भाषण कला से सम्बन्धित है। इसका अनुवाद 'भाषण कला' (Rhetoric) किया गया, दूसरा 'पेरिपोइतिकेस' जो काव्यशास्त्र से सम्बन्धित है। जिसका अनुवाद 'काव्यशास्त्र' (poetics) किया गया हालांकि 'काव्यशास्त्र' का यह ग्रंथ वृहत् ग्रंथ न होकर एक छोटी-सी पुस्तिका मात्र है, जिसमें कोई व्यवस्थित विस्तृत काव्य शास्त्रीय सिध्दांत निरूपण नहीं है। माना जाता है कि इसमें उनके द्वारा अपने विधापीठ में पढा़ने के लिए तैयार की नई समाग्री को उनके विषयों ने एकत्र कर दिया जो एक अत्यंत महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ बन पडा़ है। 'काव्यशास्त्र' की रचना के मूल में अरस्तू के दो उद्देश्य रहे हैं- एक तो अपनी दृष्टि से यूनानी काव्य का वस्तुगत विवेचन-विश्लेषण; दूसरा अपने गुरू प्लेटो द्वारा काव्य पर किये गये आक्षेपों को समाधान। किंतु इस प्रसंग में अरस्तू ने न तो कहीं प्लेटो का नाम लिया है, न खंडनात्मक तेवर अपनाया है और न गुरू के विचारों की तुलना में अपने विचारों को श्रेष्ठ ठहराने की अशालीनता प्रदर्शित की है, बल्कि उन्होंने प्लेटो के काव्य विषयक विचारों की दृढ़तापूर्वक और प्रतिभायुक्त समीक्षा की है। अरस्तू ने जिन काव्यशास्त्रीय सिध्दांतो का प्रतिपादन किया, उनमें से तीन सिध्दांत विशेष महत्व रखते हैं- १) अनुकरण सिध्दांत २) त्रासदी-विवेचन ३) विरेचन सिध्दांत।। ===अनुकरण-सिद्धांत=== 'इमिटेशन' जो यूनानी के 'मिमेसिस' (Mimesis) का अंग्रेजी अनुवाद है, और हिन्दी में अनुकरण। अरस्तू ने प्लेटो द्वारा प्रयुक्त 'mimesis' शब्द तो स्वीकार करते है लेकिन उसे एक नवीन अर्थ में। प्लेटो ने 'अनुकरण' शब्द का प्रयोग हू-ब-हू नकल मानते है जबकि अरस्तू ने उसको एक सीमित तथा निश्चित अर्थ दिया। अरस्तू ने कला को 'प्रकृति की अनुकृति' माना है। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि अनुकरण उनके यहाँ 'बाह्यरूप की अनुकृति' नहीं है, जैसी कि प्लेटो की धारणा थी। बल्कि वे कहते हैं कि अनुकरण प्रकृति के बाह्यरूपों का नहीं, उसकी सर्जन-प्रक्रिया का है। कलाकार बाह्यजगत् से सामग्री चुनता है और उसे अपने तरीके से छाँटकर और तराशकर इस प्रकार पुन: संयोजित करता है कि वह कलाकृति कलात्मक अनुभूति को जन्म देती है। प्रकृति में जो कुछ अपूर्णता रह जाती है, उसे कलाकार पूर्ण करने की चेष्टा करता है। इस सम्बन्ध में एबरक्रोम्बे का मत उल्लेखनिय है। उन्होंने लिखा है कि अरस्तू का तर्क था कि '''यदि कविता प्रकृति का केवल दर्पण होती, तो वह हमें उससे कुछ अधिक नहीं दे सकती थी जो प्रकृति देती है;''' पर तथ्य यह है कि हम कविता का आस्वादन इसलिए करते हैं कि वह हमें वह प्रदान करती है जो प्रकृति नहीं दे सकती। कवि की कल्पना में जो वस्तु-रूप प्रस्तुत होता है, उसी को वह भाषा में प्रस्तुत करता है। यह पुन:प्रस्तुतीकरण ही अनुकरण है। अरस्तू के अनुसार कलाकार तीन प्रकार की वस्तुओं में से किसी एक का अनुकरण कर सकता है- १) प्रतीयमान रूप में, अर्थात् जो वस्तु जैसी है, वैसी ही दिखाई दे। २) सम्भाव्य रूप में, अर्थात् जो वस्तु जैसी नहीं है, किंतु वैसी हो सकती है। ३) आदर्श रूप में, अर्थात् किसी वस्तु को ऐसा होना चाहिए। इनमें पहली स्थिति यथातथ्यात्मक अनुकरण मानी जा सकती हैं। जबकि दूसरी एवं तीसरी स्थितियों में वास्तविक जगत् के अनुकरण से भिन्नता होती है। इन स्थितियों में कविता के संदर्भ में कहे तो, कवि बाह्य जगत् को आधार बनाता है किन्तु वह कल्पना तथा आदर्श भावना का आधार लेकर उस वस्तु का चित्रण कुछ इस प्रकार करता है कि वह बाह्य, इन्द्रियगोचर या भौतिक जगत् की सीमा से बहुत ऊपर उठ जाती है। अरस्तू का एक और विचार महत्वपूर्ण है। वह है इतिहास को लेकर। इतिहास और काव्य की तुलना करते हुए अरस्तू ने काव्य के सत्य को इतिहास के तथ्य से ऊँचा माना है। अरस्तू का मत है -'कवि और इतिहासकार में वास्तविक भेद यह है कि - १) इतिहास केवल घटित हो चुकी घटनाओं का उल्लेख करता है, जबकि काव्य में सम्भाव्य या घटित होनी वाली आदर्श स्थितियों का चित्रण होता है। २) इतिहास केवल बाह्य जगत् की विशिष्ट घटनाओं का उल्लेख एवं विवेचन प्रस्तुत करता है, जबकि काव्य का सत्य घटना विशेष तक ही सीमित नहीं होता, बल्कि 'सामान्य' होता है। ३) इतिहास वस्तुपरक होता है। इसके विपरीत काव्य में अनुभूति एवं विचार का सहारा लिया जाता है। श्रेष्ठ काव्य में तो दर्शन तत्व की भी प्रधानता होती है। समग्रत: अरस्तू अपनी 'अनुकरण' विषयक अवधारणा में इस तथ्य पर बल देते हैं कि काव्य में केवल बाह्य जगत् में प्रत्यक्ष जीवन का ही अनुकरण नहीं किया जाता, बल्कि सूक्ष्म, आंतरिक और अमूर्त जीवन का भी अनुकरण किया जाता है। इसके लिए कवि या कलाकार अनुभूति एवं कल्पना का आश्रय ग्रहण करता है। वे अनुकरण के तीन बिषय मानते हैं- १) प्रकृति २) इतिहास ३) कार्यरत मनुष्य। ===त्रासदी-विवेचन=== पश्चिम में त्रासदी का सर्वप्रथम विवेचन यूनान में हुआ। यधपि अरस्तू से पूर्व प्लेटो ने भी त्रासदी पर अपने विचार प्रकट किये थे, तथापि अरस्तू ने ही सबसे पहले त्रासदी का गम्भीर एवं विशद विवेचन किया। त्रासदी ग्रीक साहित्य की महत्वपूर्ण विधा रही है। यह मूलत: नृत्य-गीत परम्परा से विकसित नाट्यरूप था। जिसे एस्खिलुस और सोफो़क्लीज जैसे नाट्यकारों ने समृध्द किया। यों तो उस युग में कामदी, महाकाव्य और गीतिकाव्य जैसी साहित्यिक विधाएँ भी यूनान में खूब प्रचलित थीं, किन्तु अरस्तू ने अपनी पुस्तक'पेरिपोइतिकेस' (पोयटिक्स) में सर्वाधिक महत्व त्रासदी को ही दिया। त्रासदी, त्रास अर्थात् कष्ट देने वाली विधा को कह सकते हैं, किन्तु अरस्तू ने त्रासदी की परिभाषा देते हुए कहा है कि -''' "त्रासदी किसी गम्भीर स्वत:पूर्ण निश्चित आयाम से युक्त कार्य की अनुकृति है।" '''' अर्थात् त्रासदी में जीवन के किसी पक्ष का गंभीर चित्रण संवाद तथा अभिनय द्वारा होता है और वह दुखान्त होती है। उपर्युक्त परिभाषा के आधार पर हम त्रासदी की विशेषताओं को निम्न रूप में रेखांकित कर सकते हैं- १) त्रासदी 'कार्य की अनुकृति' है। व्यक्ति की अनुकृति नहीं। २) त्रासदी में वर्णित 'कार्य' गम्भीर तथा स्वत: पूर्ण होता है। इसका क्षेत्र तथा विस्तार निश्चित होता है। ३) इसमें जीवन व्यापार वर्णनात्मक रूप नहीं होता, बल्कि यह प्रदर्शन के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। ४) त्रासदी की शैली अलंकारपूर्ण होती है। ५) इसमें करूणा और त्रास का उद्रेक होता है। अरस्तू ने त्रासदी के छह तत्व माने हैं- १) कथानक (plot) २) चरित्र (character) ३) विचार (Thought) ४) पदविन्यास (Diction) ५) दृश्यविधान (Spectacle) ६) गीत (Song)। अरस्तू ने त्रासदी में सर्वाधिक महत्व कथानक को दिया। चरित्र को इतना महत्व नहीं दिया। यहाँ तक कि वे चरित्र के अभाव में भी त्रासदी की सत्ता स्वीकार करते है। ===विरेचन सिद्धांत=== यूनानी के शब्द 'Catharsis' का हिन्दी रूपांतर 'विरेचन' होता है। जिस प्रकार 'Catharsis' शब्द यूनानी चिकित्सा-पध्दति से सम्बध्द है, उसी प्रकार 'विरेचन' शब्द भारतीय आयुर्वेद-शास्त्र से सम्बन्धित है। आयुर्वेद के अनुसार शरीर में वात, पित्त, कफ - ये तीन दोष (विकार) होते हैं। उपयुक्त औषधि के प्रयोग से शरीर के विकारों को निकाल बाहर कर राहत प्रदान करता है। इसका सबसे सटीक उदाहरण- पेट के कब्ज को साफ करना। वैध के पुत्र होने के कारण अरस्तू ने यह शब्द वैधक-शास्त्र से ग्रहण किया और काव्यशास्त्र में उसका लाक्षणिक प्रयोग किया। अरस्तू त्रासदी को सर्वश्रेष्ठ मानते थे। और त्रासदी को सर्वश्रेष्ठ मानने के कारणों में उनका विरेचन ('Catharsis') सिध्दान्त था। अर्थात् अरस्तू के अनुसार त्रासदी दर्शकों के मन में करूणा एवं त्रास (दु:ख) की भावनाओं को उकसाकर उनका विरेचन कर देती है। संगीत के क्षेत्र में यह और भी अधिक सटीक बैठती है। यह एक प्रकार से मनोविकारों को उभारकर शांत करने और करूण एवं त्रास से आवेशित व्यक्तियों को 'शुध्दि का अनुभव' प्रदान करने की प्रक्रिया है, जो अन्तत: आनंद प्रदान करती है। कलांतर में अरस्तू के 'विरेचन सिध्दांत' की तीन दृष्टियों से व्याख्या की गई- १) धर्मपरक २) नीतिपरक ३) कलापरक। विरेचन की यह प्रक्रिया भारतीय काव्य शास्त्र के अन्तर्गत साधारणीकरण की अवधारणा से मेल खाती है। ===संदर्भ=== १. पाश्चात्य काव्यशास्त्र---देवेन्द्रनाथ शर्मा। प्रकाशक--मयूर पेपरबैक्स, पंद्रहवां संस्करण: २०१६, पृष्ठ--२१,२६,५६ २. भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र---डाँ. सत्यदेव चौधरी, डाँ. शन्तिस्वरूप गुप्त। अशोक प्रकाशन, नवीन संस्करण-२०१८, पृष्ठ--१९०,१९१,१९५ ३. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र की पहचान---प्रो. हरिमोहन । वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-२०१३,पृष्ठ--११२-११७ buyrw4x08fw0nedgh07xzdieqge2v06