विकिपुस्तक hiwikibooks https://hi.wikibooks.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A4%AA%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0 MediaWiki 1.39.0-wmf.25 first-letter मीडिया विशेष वार्ता सदस्य सदस्य वार्ता विकिपुस्तक विकिपुस्तक वार्ता चित्र चित्र वार्ता मीडियाविकि मीडियाविकि वार्ता साँचा साँचा वार्ता सहायता सहायता वार्ता श्रेणी श्रेणी वार्ता रसोई रसोई वार्ता विषय विषय चर्चा TimedText TimedText talk Module Module talk गैजेट गैजेट वार्ता गैजेट परिभाषा गैजेट परिभाषा वार्ता क्रिकेट/प्रकार 0 4367 78852 73427 2022-08-21T07:42:45Z 171.51.172.66 wikitext text/x-wiki {{संचरण|पिछला=पहनावा|अगला=नियम}} क्रिकेट कई प्रकार का होता है। जैसे एक दिवसीय, टेस्ट, विश्व कप, टी20 आदि। इसके अलावा कई घरेलू मैच भी होते हैं। ==प्रकार== ===विश्व कप=== इसमें कई देश एक दूसरे के साथ मैच खेलते हैं। इनमें केवल एक ही टीम विजेता बनती है। यह चार वर्षों में एक बार ही होता है। जिससे लोगों में इसे देखने के लिए दिलचस्पी भी जागे। इससे इन्हें बहुत लाभ होता है, क्योंकि हर दर्शक यही चाहता है कि उसका टीम ही जीते और जीतने हुए देखना भी काफी अच्छा ===आईपीएल=== यह भारत का एक घरेलू मैच है, जिसमें भारत के अलावा कई अन्य देशों के लोगों को भी खेलने के लिए बुलाया जाता है। इसमें कोई भी टीम किसी खिलाड़ी को पैसे देकर अपने टीम में जोड़ सकती है। इसके लिए निम्नतम रुपये दस लाख रखा गया है। इसमें मैच बहुत जल्दी जल्दी होता है और कई लोग दूसरे खिलाड़ियों के साथ अपने देश के खिलाड़ियों को खेलते देखना भी पसंद करते हैं। o3xok1xoapyc658w4i91416fetfesrr भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/संसार की भाषाओं का वर्गीकरण 0 5804 78848 78778 2022-08-20T16:41:36Z Saurmandal 13452 /* पारिवारिक वर्गीकरण */ wikitext text/x-wiki {{BookCat}} संसार में जितनी भाषाएँ बोली जाती हैं उनकी निश्चित संख्या ज्ञात नहीं हैं, किन्तु अनुमान किया जाता है कि 3,000 के लगभग भाषाएँ हैं। वस्तुतः भाषाओं की निश्चित संख्या बताना असंभव है, क्योंकि यह वही बता सकता है जो सारी भाषाओं को जानता हो और एक भाषा से दूसरी भाषा के अन्तर से परिचित हो। वर्गीकरण से किसी वस्तु के अध्ययन में सहायता मिलती है। संसार की भाषाओं के वर्गीकरण के कई आधार हो सकते हैं, किन्तु भाषा-विज्ञान की दृष्टि से दो ही आधार माने गये हैं: 1. आकृतिमूलक और 2. पारिवारिक। == आकृतिमूलक वर्गीकरण == आकृतिमूलक वर्गीकरण का सम्बन्ध अर्थ से नहीं होता; उसका सम्बन्ध शब्द की केवल बाह्म आकृति या रूप या रचना-प्रणाली से होता है। इसलिए इस वर्गीकरण में उन भाषाओं को एक साथ रखा जाता है जिनके पदों या वाक्यों की रचना का ढंग एक होता है। पद या वाक्य की रचना को ध्यान में रखकर इस वर्गीकरण को पदात्मक या वाक्यात्मक भी कहते है। अंग्रेजी में इसे "morphological" कहते हैं। आकृतिमूलक के दो प्रमुख भेद हैं: 1. अयोगात्मक और 2. योगात्मक। === अयोगात्मक === अयोगात्मक भाषा उसे कहते हैं जिसमें प्रकृति-प्रत्यय जैसी कोई चीज़ नहीं होती है और न शब्दों में कोई परिवर्तन होता है। प्रत्येक शब्द की स्वतंत्र सत्ता होती है और वाक्य में प्रयुक्त होने पर भी वह सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है। इसलिए इस वर्ग की भाषा में शब्दों का व्याकरणिक विभाजन नहीं होता अर्थात् संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रियाविशेषण, आदि कोटियाँ नहीं होती। उदाहरण: : '''Ram beats Shyam.<br/>Shyam beats Ram.''' इन दोनों वाक्यों के शब्दों में कोई अंतर नहीं है; केवल स्थान बदल दिया गया है। पहले वाक्य में "Ram" कर्ता और "Shyam" कर्म है, मगर दूसरे वाक्य में केवल स्थान बदल जाने से ही "Shyam" कर्ता और "Ram" कर्म हो गया है। === योगात्मक === योगात्मक शब्द से स्पष्ट है, इस वर्ग की भाषाओं में प्रकृति-प्रत्यय के योग से शब्दों की निष्पति होती है। योगात्मक के तीन प्रमुख भेद हैं: * अश्लिष्ट योगात्मक * श्लिष्ट योगात्मक * प्रश्लिष्ट योगात्मक इन्हें विस्तार में देखते हैं: # '''अश्लिष्ट योगात्मक''': अश्लिष्ट योगात्मक भाषाओं में अर्थतत्व के साथ रचनातत्व का योग होता है। इस वर्ग की भाषा तुर्की है। # '''श्लिष्ट योगात्मक''': श्लिष्ट योगात्मक वर्ग में वे भाषाएँ आती हैं जिनमें रचनात्मक के योग से अर्थातत्व वाले अंश में कुछ परिवर्तन हो जाता है, जैसे: "नीति", "वेद"। # '''प्रश्लिष्ट योगात्मक''': प्रश्लिष्ट योगात्मक भाषा वह है जो जिसमें अर्थातत्व और रचनातत्व का ऐसा मिश्रण हो जाता है कि उनका पृथक्करण सम्भव नहीं होता। इस वर्ग की भाषाओं में अनेक अर्थतत्वों का थोड़ा-थोड़ा अंश काटकर एक शब्द बन जाता है। जैसे "जिगमिषति" = "वह जाना चाहता है"। === सन्दर्भ === # भाषाविज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा। दीपि्त शर्मा। पृष्ठ: 93-104 == पारिवारिक वर्गीकरण == भाषाओं का एक अंतरंग संबंध भी है जो केवल बाह्म रचना तक ही सीमित नहीं, बल्कि अर्थ को आधार बनाकर चलता है। जिस प्रकार एक पूर्वज से उत्पन्न सभी मनुष्य एक गोत्र के माने जाते हैं, उसी प्रकार एक भाषा से कालांतर में अनेक सगोत्र भाषाओं की उत्पत्ति भी होती है जो एक परिवार में रखी जाती हैं। अतः यहाँ उत्पत्ति का अर्थ सहसा आविर्भाव नहीं, बल्कि क्रमिक विकास समझना चाहिए। हमने देखा है कि केवल रचनातत्व के आधार पर भाषा का जो वर्गीकरण होता है वह आकृतिमूलक वर्गीकरण है, पर रचनातत्व और अर्थतत्व के सम्मिलित आधार पर किया गया वर्गीकरण पारिवारिक वर्गीकरण कहलाता है। भाषाओं के परिवार-निधारण के लिए इन बातों पर विचार करना होता है: (क) ध्वनि; (ख) पद-रचना; (ग) वाक्य-रचना; (घ) अर्थ; (ङ) शब्द-भण्डार; (च) स्थानिक निकटता। इन छः आधारों पर भाषाओं की परिक्षण करने पर कहा जा सकता है कि वे एक परिवार की हैं या नहीं। विश्व में जो भाषाएँ अधिकृत रूप से जानी जाती हैं, उन्हें मुख्यतः बारह परिवारों में विभाजित किया गया है: # '''सेमेटिक कुल''': हजरत नोह के सबसे बड़े पुत्र 'सैम' के नाम के अनुसार इस परिवार का नामाभिधान हुआ है। इस कुल की भाषाओं का क्षेत्र फ़िलिस्तीन, अरब, इराक़, मध्य एशिया तथा मिस्र, इथियोपिया, अल्जीरिया, मोरोक्को तक माना जाता है। यहूदियों की प्राचीन भाषा हिब्रू तथा अरबी इसी परिवार की भाषाएँ हैं। # '''हेमेटिक परिवार''': हामी परिवार को ही हेमेटिक परिवार कहा जाता है। इस परिवार की प्रमुख भाषाओं में कुशीन, लीबीयन, सोमाली तथा हौसा, आदि शामिल हैं। # '''तिब्बती-चीनी कुल''': नाम से ही स्पष्ट है कि तिब्बत तथा चीन में इसकी प्रधानता है। जापान को छोड़कर दूसरे सभी बौध्य धर्मावलम्बी देश: चीन, बर्मा, थाईलैंड में इस परिवार की भाषाएँ बोली जाती है। # '''युराल-अल्ताई परिवार''': इस भाषा परिवार का लोगों के युराल तथा अल्ताई पवतों में निवास करने के कारण यह नामाभिधान हुआ है। इस परिवार की भाषाएँ चीन के उत्तर में मंचूरिया, मंगोलिया, साइबेरिया आदि। तुर्की, तातारी, मंचू, मंगोली, और किर्गिज़, प्रमुख भाषाएँ हैं। # '''द्रविड़ परिवार''': द्रविड़ जाति द्वारा बोली जाने वाली समस्त भाषाओं का सामूहिक नाम द्रविड़ परिवार है। इस कुल की भाषाएँ बोलने वाले मुख्य रूप से दक्षिण भारत तथा लक्षद्वीप के निवासी हैं। इस कुल की मुख्य भाषाएँ &mdash; तमिल, मलयालम, तेलुगु तथा कन्नड़। # '''ऑस्ट्रोनेशियाई कुल''': इस परिवार की प्रमुख भाषाओं में शामिल हैं इंडोनेशिया तथा मलयशिया की मलय, फ़ीजी की फ़ीजीयन, जावा की जावानीज़ तथा न्यू ज़ीलैण्ड की माओरी, आदि। # '''बाँटु परिवार''': बाँटु का अर्थ है "मनुष्य।" 'बाँटु' अफ्रिकी खण्ड का भाषा परिवार है। इस परिवार की मुख्य भाषाओं में ज़ुलु, काफ़िर, सेंसतों, स्वाहिली, आदि। # '''कौकेशीय कुल''': कैस्पियन सागर के मध्य कौकेशस पहाड़ के निकटवर्ती प्रदेश इस कुल की भाषाएँ हैं। इसकी मुख्य भाषा जार्जियन है। # '''अमेरिकी भाषा-परिवार''': इसमें उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका के मूल निवासियों की करीब चार सौ भाषाएँ आती हैं, कुकूचुला और गुअर्नी प्रमुख हैं। # '''फ़िनो-यूग्रिक कुल''': यह क्षेत्र हंगेरी, फिनलैण्ड, एस्टोनिया, लेयलैण्ड आदि प्रमुख भाषाएँ फ़िनिश, हंगोरियन हैं। # '''एस्किमो भाषा कुल''': ग्रीनलैंड तथा एलुशियन द्वीपमाला का प्रदेश आते है। जिसका सम्बन्ध उत्तरी अमेरिका से जड़ा है। # '''हिन्द-यूरोपीय परिवार''': यह परिवार भारत से यूरोप तक फैला है। इसलिए इसे हिन्द-यूरोपीय, परिवार कहा गया है। इस परिवार को 'आर्य परिवार' तथा 'इण्डो-यूरोपियन' परिवार के नामों से भी जाना जाता है। यह परिवार विश्व के सभी भाषा-परिवारों से अधिक बड़ा होने के साथ अत्यंत समृद्ध एवं उन्नत मानी जाती हैं। समस्त यूरोप, अफ़्ग़ानिस्तान, ईरान, नेपाल, रूस तथा दक्षिण भारत को छोड़कर शेष सभी भारतवर्ष में बोली जाती हैं। यूनानी, अवस्ता, लैटिन, पाली, संस्कृत आदि प्रसिद्ध भाषाएँ इस परिवार की हैं। === सन्दर्भ === # भाषाविज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा। दीपि्त शर्मा। पृष्ठ: 105, 106 # प्रयोजनमूलक हिन्दी: सिद्धांत और प्रयोग &mdash; दंगल झाल्टे। '''वाणी प्रकाशन''', आवृति: 2018, पृष्ठ: 17, 18 4epu3o64vj0iyss3y8hapv1s583dhfs 78868 78848 2022-08-21T10:30:23Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/संसार की भाषाओं का वर्गीकरण]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/संसार की भाषाओं का वर्गीकरण]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} संसार में जितनी भाषाएँ बोली जाती हैं उनकी निश्चित संख्या ज्ञात नहीं हैं, किन्तु अनुमान किया जाता है कि 3,000 के लगभग भाषाएँ हैं। वस्तुतः भाषाओं की निश्चित संख्या बताना असंभव है, क्योंकि यह वही बता सकता है जो सारी भाषाओं को जानता हो और एक भाषा से दूसरी भाषा के अन्तर से परिचित हो। वर्गीकरण से किसी वस्तु के अध्ययन में सहायता मिलती है। संसार की भाषाओं के वर्गीकरण के कई आधार हो सकते हैं, किन्तु भाषा-विज्ञान की दृष्टि से दो ही आधार माने गये हैं: 1. आकृतिमूलक और 2. पारिवारिक। == आकृतिमूलक वर्गीकरण == आकृतिमूलक वर्गीकरण का सम्बन्ध अर्थ से नहीं होता; उसका सम्बन्ध शब्द की केवल बाह्म आकृति या रूप या रचना-प्रणाली से होता है। इसलिए इस वर्गीकरण में उन भाषाओं को एक साथ रखा जाता है जिनके पदों या वाक्यों की रचना का ढंग एक होता है। पद या वाक्य की रचना को ध्यान में रखकर इस वर्गीकरण को पदात्मक या वाक्यात्मक भी कहते है। अंग्रेजी में इसे "morphological" कहते हैं। आकृतिमूलक के दो प्रमुख भेद हैं: 1. अयोगात्मक और 2. योगात्मक। === अयोगात्मक === अयोगात्मक भाषा उसे कहते हैं जिसमें प्रकृति-प्रत्यय जैसी कोई चीज़ नहीं होती है और न शब्दों में कोई परिवर्तन होता है। प्रत्येक शब्द की स्वतंत्र सत्ता होती है और वाक्य में प्रयुक्त होने पर भी वह सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है। इसलिए इस वर्ग की भाषा में शब्दों का व्याकरणिक विभाजन नहीं होता अर्थात् संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रियाविशेषण, आदि कोटियाँ नहीं होती। उदाहरण: : '''Ram beats Shyam.<br/>Shyam beats Ram.''' इन दोनों वाक्यों के शब्दों में कोई अंतर नहीं है; केवल स्थान बदल दिया गया है। पहले वाक्य में "Ram" कर्ता और "Shyam" कर्म है, मगर दूसरे वाक्य में केवल स्थान बदल जाने से ही "Shyam" कर्ता और "Ram" कर्म हो गया है। === योगात्मक === योगात्मक शब्द से स्पष्ट है, इस वर्ग की भाषाओं में प्रकृति-प्रत्यय के योग से शब्दों की निष्पति होती है। योगात्मक के तीन प्रमुख भेद हैं: * अश्लिष्ट योगात्मक * श्लिष्ट योगात्मक * प्रश्लिष्ट योगात्मक इन्हें विस्तार में देखते हैं: # '''अश्लिष्ट योगात्मक''': अश्लिष्ट योगात्मक भाषाओं में अर्थतत्व के साथ रचनातत्व का योग होता है। इस वर्ग की भाषा तुर्की है। # '''श्लिष्ट योगात्मक''': श्लिष्ट योगात्मक वर्ग में वे भाषाएँ आती हैं जिनमें रचनात्मक के योग से अर्थातत्व वाले अंश में कुछ परिवर्तन हो जाता है, जैसे: "नीति", "वेद"। # '''प्रश्लिष्ट योगात्मक''': प्रश्लिष्ट योगात्मक भाषा वह है जो जिसमें अर्थातत्व और रचनातत्व का ऐसा मिश्रण हो जाता है कि उनका पृथक्करण सम्भव नहीं होता। इस वर्ग की भाषाओं में अनेक अर्थतत्वों का थोड़ा-थोड़ा अंश काटकर एक शब्द बन जाता है। जैसे "जिगमिषति" = "वह जाना चाहता है"। === सन्दर्भ === # भाषाविज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा। दीपि्त शर्मा। पृष्ठ: 93-104 == पारिवारिक वर्गीकरण == भाषाओं का एक अंतरंग संबंध भी है जो केवल बाह्म रचना तक ही सीमित नहीं, बल्कि अर्थ को आधार बनाकर चलता है। जिस प्रकार एक पूर्वज से उत्पन्न सभी मनुष्य एक गोत्र के माने जाते हैं, उसी प्रकार एक भाषा से कालांतर में अनेक सगोत्र भाषाओं की उत्पत्ति भी होती है जो एक परिवार में रखी जाती हैं। अतः यहाँ उत्पत्ति का अर्थ सहसा आविर्भाव नहीं, बल्कि क्रमिक विकास समझना चाहिए। हमने देखा है कि केवल रचनातत्व के आधार पर भाषा का जो वर्गीकरण होता है वह आकृतिमूलक वर्गीकरण है, पर रचनातत्व और अर्थतत्व के सम्मिलित आधार पर किया गया वर्गीकरण पारिवारिक वर्गीकरण कहलाता है। भाषाओं के परिवार-निधारण के लिए इन बातों पर विचार करना होता है: (क) ध्वनि; (ख) पद-रचना; (ग) वाक्य-रचना; (घ) अर्थ; (ङ) शब्द-भण्डार; (च) स्थानिक निकटता। इन छः आधारों पर भाषाओं की परिक्षण करने पर कहा जा सकता है कि वे एक परिवार की हैं या नहीं। विश्व में जो भाषाएँ अधिकृत रूप से जानी जाती हैं, उन्हें मुख्यतः बारह परिवारों में विभाजित किया गया है: # '''सेमेटिक कुल''': हजरत नोह के सबसे बड़े पुत्र 'सैम' के नाम के अनुसार इस परिवार का नामाभिधान हुआ है। इस कुल की भाषाओं का क्षेत्र फ़िलिस्तीन, अरब, इराक़, मध्य एशिया तथा मिस्र, इथियोपिया, अल्जीरिया, मोरोक्को तक माना जाता है। यहूदियों की प्राचीन भाषा हिब्रू तथा अरबी इसी परिवार की भाषाएँ हैं। # '''हेमेटिक परिवार''': हामी परिवार को ही हेमेटिक परिवार कहा जाता है। इस परिवार की प्रमुख भाषाओं में कुशीन, लीबीयन, सोमाली तथा हौसा, आदि शामिल हैं। # '''तिब्बती-चीनी कुल''': नाम से ही स्पष्ट है कि तिब्बत तथा चीन में इसकी प्रधानता है। जापान को छोड़कर दूसरे सभी बौध्य धर्मावलम्बी देश: चीन, बर्मा, थाईलैंड में इस परिवार की भाषाएँ बोली जाती है। # '''युराल-अल्ताई परिवार''': इस भाषा परिवार का लोगों के युराल तथा अल्ताई पवतों में निवास करने के कारण यह नामाभिधान हुआ है। इस परिवार की भाषाएँ चीन के उत्तर में मंचूरिया, मंगोलिया, साइबेरिया आदि। तुर्की, तातारी, मंचू, मंगोली, और किर्गिज़, प्रमुख भाषाएँ हैं। # '''द्रविड़ परिवार''': द्रविड़ जाति द्वारा बोली जाने वाली समस्त भाषाओं का सामूहिक नाम द्रविड़ परिवार है। इस कुल की भाषाएँ बोलने वाले मुख्य रूप से दक्षिण भारत तथा लक्षद्वीप के निवासी हैं। इस कुल की मुख्य भाषाएँ &mdash; तमिल, मलयालम, तेलुगु तथा कन्नड़। # '''ऑस्ट्रोनेशियाई कुल''': इस परिवार की प्रमुख भाषाओं में शामिल हैं इंडोनेशिया तथा मलयशिया की मलय, फ़ीजी की फ़ीजीयन, जावा की जावानीज़ तथा न्यू ज़ीलैण्ड की माओरी, आदि। # '''बाँटु परिवार''': बाँटु का अर्थ है "मनुष्य।" 'बाँटु' अफ्रिकी खण्ड का भाषा परिवार है। इस परिवार की मुख्य भाषाओं में ज़ुलु, काफ़िर, सेंसतों, स्वाहिली, आदि। # '''कौकेशीय कुल''': कैस्पियन सागर के मध्य कौकेशस पहाड़ के निकटवर्ती प्रदेश इस कुल की भाषाएँ हैं। इसकी मुख्य भाषा जार्जियन है। # '''अमेरिकी भाषा-परिवार''': इसमें उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका के मूल निवासियों की करीब चार सौ भाषाएँ आती हैं, कुकूचुला और गुअर्नी प्रमुख हैं। # '''फ़िनो-यूग्रिक कुल''': यह क्षेत्र हंगेरी, फिनलैण्ड, एस्टोनिया, लेयलैण्ड आदि प्रमुख भाषाएँ फ़िनिश, हंगोरियन हैं। # '''एस्किमो भाषा कुल''': ग्रीनलैंड तथा एलुशियन द्वीपमाला का प्रदेश आते है। जिसका सम्बन्ध उत्तरी अमेरिका से जड़ा है। # '''हिन्द-यूरोपीय परिवार''': यह परिवार भारत से यूरोप तक फैला है। इसलिए इसे हिन्द-यूरोपीय, परिवार कहा गया है। इस परिवार को 'आर्य परिवार' तथा 'इण्डो-यूरोपियन' परिवार के नामों से भी जाना जाता है। यह परिवार विश्व के सभी भाषा-परिवारों से अधिक बड़ा होने के साथ अत्यंत समृद्ध एवं उन्नत मानी जाती हैं। समस्त यूरोप, अफ़्ग़ानिस्तान, ईरान, नेपाल, रूस तथा दक्षिण भारत को छोड़कर शेष सभी भारतवर्ष में बोली जाती हैं। यूनानी, अवस्ता, लैटिन, पाली, संस्कृत आदि प्रसिद्ध भाषाएँ इस परिवार की हैं। === सन्दर्भ === # भाषाविज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा। दीपि्त शर्मा। पृष्ठ: 105, 106 # प्रयोजनमूलक हिन्दी: सिद्धांत और प्रयोग &mdash; दंगल झाल्टे। '''वाणी प्रकाशन''', आवृति: 2018, पृष्ठ: 17, 18 4epu3o64vj0iyss3y8hapv1s583dhfs भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/भाषाविज्ञान के अंग 0 5805 78870 75279 2022-08-21T10:30:37Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/भाषाविज्ञान के अंग]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/भाषाविज्ञान के अंग]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} ===भाषाविज्ञान के अंग या मुख्य शाखाएँ=== भाषा कहने से सामान्यत: चार तत्वों का बोध होत है-- ध्वनि , शब्द (पद) , वाक्य और अर्थ । पहले ध्वनि का उच्चारण होता है; फिर अनेक ध्वनियों से एक पद का निर्माण होता है; अनेक पदों से वाक्य संघटित होता है और उससे अर्थ की प्रतिति होती है। ध्वनि से अर्थ तक का क्रम अनवरत चलता रहता है। इसमें प्रत्येक की सीमा इतनी विस्तृत और व्यापक हो गयी है कि इनके विवेचन के लिए स्वतन्त्र शास्त विकसित हो गये हैं जिन्हें क्रमश: ध्वनिविज्ञान , पदविज्ञान , वाक्यविज्ञान , एवं अर्थविज्ञान कहते हैं। १. [[/ध्वनिविज्ञान/ ]] भाषा का आरम्भ ध्वनि से होता है। ध्वनि के अभाव में भाषा की कल्पना नहीं की जा सकती है और हमने देखा है, भाषाविज्ञान का विषय ध्वन्यात्मक भाषा ही है। इसलिए सवप्रथम ध्वनि का विवेचन आवश्यक है। ध्वनि के तीन पक्ष हैं-- १) उत्पादन ; २) संवहन ; और ३) ग्रहण । इनमें उत्पादन और ग्रहण का सम्बन्ध शरीर से है और संवहन का वायु- तरंगों से । वक्ता के मुख से नि:सृत ध्वनि क्षोता के कान तक पहुँचते है। ध्वनि के उत्पादन के लिए वक्ता जितना आवश्यक है, उतना ही उसके ग्रहण के लिए क्षोत्रा आवश्यक है, किन्तु वक्ता और क्षोत्रा के बीच यदि ध्वनि के संवहन का कोई माध्यम न हो तो उत्पन ध्वनि भी निरर्थक हो जायेगी । यह कार्य वायु-तंरगों के द्दारा सिध्द होता है। ध्वनि का उत्पादन या ग्रहण कैसे होता है, इसे अच्छी तरह समझने के लिए शरीर का थोडा-बहुत ज्ञान आवश्यक है। ध्वनि का संवहन वाला पक्ष भी तब तक अच्छी तरह नहीं समझा जा सकता जब तक भौतिकी का थोडा-बहुत ज्ञान न हो । शरीरविज्ञान की दृषि्ट से मानव-शरीर निम्नलिखित तन्त्रों में विभाजित किया जाता है-- १. असि्थ-तन्त्र २. पेशी-तंन्त्र ३. श्वसन-तंन्त्र ४) पाचन-तन्त्र ५. परिसंचरण-तन्त्र ६.उत्सर्जन-तन्त्र ७. तनि्त्रका-तन्त्र ८. अन्त:स्त्रावी-तन्त्र ९. जनन-तन्त्र इन तन्त्रों के कार्यों पर ध्यान देने से दो ही तन्त्र ऐसे दीखते हैं जिनका सम्बन्ध भाषण से है वे हैं श्वसन-तन्त्र तथा पाचन-तन्त्र । २. [[ / पदविज्ञान/]] उच्चारण की दृषि्ट से भाषा की लघुतम इकाई ध्वनि है और सार्थकता की दृषि्ट से शब्द । ध्वनि सार्थक हो ही , यह आवश्यक नहीं है; जैसे -- अ, क, च, ट, त, प आदि ध्वनियाँ तो हैं, किन्तु सार्थक नहीं । किन्तु , अब, कब चल आदि शब्द हैं, क्योकि इनमें सार्थकता है,अर्थात् अर्थ देने की क्षमता है। पदविज्ञान में पदों के रूप और निर्माण का विवेचन होता है। सार्थक हो जाने से ही शब्द में प्रयोग-योग्यता नहीं आ जाती । कोश में हजारों-हजार शब्द रहते हैं, पर उसी रूप में उनका प्रयोग भाषा में नहीं होता । उनमें कुछ परिवतन करना होता है। उदाहरणार्थ कोश में ' पढना ' शब्द मिलता है और वह सार्थक भी है, किन्तु प्रयोग के लिए 'पढना' रूप ही पयाप्त नहीं है, साथ ही उसका अर्थ भी स्पष्ट नहीं होता । 'पढना' के अनेक अर्थ हो सकते है; जैसे पढता है, पढ रहा है, पढ रहा होगा 'पढना' के ये अनेक रूप जिस प्रक्रिया से सिध्द होते हैं, उसी का अध्ययन पदविज्ञान का विषय है। संसकृत के वैयाकरणों ने शब्द के दो भेद किये हैं-- शब्द और पद । शब्द से उनका तात्पर्य विभकि्तहीन शब्द से है जिसे प्रातिपादित भी कहते हैं। पद शब्द का प्रयोग वैसे शब्द के लिए किया जाता है जिसमें विभकि्त लगी हो। पद -रचना की चार पध्दतियाँ दृषि्टगोचर होती हैं-- १) अयोगात्मक २) अशि्लष्ट योगात्मक ३) शि्लष्ट योगात्मक ४) प्रशि्लष्ट योगात्मक ३. [[/वाक्यविज्ञान /]] वाक्यविज्ञान भाषाविज्ञान की वह शाखा है, जिसमे पदों के पारस्परिक सम्बन्ध का विचार किया जाता है। हमने पहले देखा है कि ध्वनि का सम्बन्ध भाषा के उच्चारण से है, जो मुख्यता: शरीरिक व्यापार है। ध्वनि- समूह में जब सार्थकता का समावेश हो जाता है तो उसे पद कहते हैं। पद ध्वनि और वाक्य के बीच की संयोजक कडी है क्योंकि उसमें उच्चारण और सार्थकता दोनों का योग रहता है, किन्तु न तो ध्वनि की तरह वह उच्चारण है और न वाक्य की तरह पूणत: सार्थक । पदविज्ञान में पदों की रचना का विचार होता है, अर्थात संज्ञा , क्रिया , विशे्षण , कारक, लिंग , वचन , पुरूष , काल , आदि के वाचक शब्द कैसे बनते हैं, किन्तु उन पदों का कहाँ , कैसे प्रयोग होता है, यह वाक्यविज्ञान का विषय हैं। अभिहितान्वयाद के अनुसार पदों के योग से वाक्य बनती है, किन्तु उसके लिए तीन चीजें अपेक्षित हैं-- १. आकांक्षा , २. योग्यता , ३. आसत्ति । ४. [[/अर्थविज्ञान/]] अर्थविज्ञान के विवेच्य विषय हैं-- अर्थ क्या है? अर्थ का ज्ञान कैसे होता है? शब्द और अर्थ में क्या सम्बन्ध है? अनेकार्थक शब्द के अर्थ का निणय कैसे किया जाता है? अर्थ में परिवतन क्यों कैसे होता है? आदि । हम पहले देख चुके हैं कि मानव-भाषा का अन्यतम लक्षण उसकी सार्थकता है। अत: बिना अर्थ का विचार किये भाषा का विवेचन अधूरा रहेगा । हमारे यहाँ अर्थ का महत्व प्राचिन काल से माना जाता रहा है। यास्क ने कहा है कि जिस प्रकार बिना अगि्न के शुष्क ईंधन प्रज्वलित नहीं हो सकता , उसी प्रकार बिना अर्थ समझे जो शब्द दुहराया जाता है, वह कभी अभिपि्सत विषय को प्रकाशित नहीं कर सकता । उसी प्रसंग में उन्होंने फिर कहा है-- जो बिना अर्थ जाने वेदों का अध्ययन करता है, वह केवल भार ढोता है। अर्थ को जानने वाला ही समस्त कल्याणों का भागी होता है और ज्ञान की ज्योति से समस्त दोषों को दूर कर ब्रहम्त्व को प्राप्त करता है। कहने का तात्पर्य यह कि अर्थ के अभाव में भाषा का कोई महत्व नहीं है। शब्द तो अर्थ की अभिव्यकि्त का माध्यम है। इसको ऐसे भी कह सकते हैं कि शब्द शरीर है तो अर्थ आत्मा । जिस तरह शरीर की सहायता से ही आत्मा का प्रत्यक्षीकरण होता है, उसी प्रकार शब्द की सहायता से ही अर्थ का बोध होता है। अर्थबोध या संकेतग्रह के आठ साधन माने गये हैं--- १. व्यवहार ; २. आप्तवाक्य ; ३. उपमान; ४. वाक्यशेष (प्रकरण) ; ५. विवृति (व्याख्या ) ; ६. प्रसिध्द पद का सानि्नध्य ; ७. व्याकरण ; ८. कोश । ५. [[/प्रोक्तिविज्ञान/]] किसी बात को कहने के लिए प्रयुक्त वाक्यों का उस समुच्चय को प्रोक्ति कहते हैं जिसमें एकाधिक वाक्य आपस में सुसंबध्द होकर अर्थ और संरचना की दृष्टि में एक इकाई बन गए है। अंग्रेजी का एक पुराना शब्द 'डिस्कोर्स' है। उसी को अब अंग्रेजी में इस अर्थ का शब्द मान लिया गया हैं। इसी ने एक प्रतिशब्द रूप हिन्दी में 'प्रोक्ति'शब्द हो रहा हैं। समाजभाषाविज्ञान के विकास के कारण इस ओर लोगों का ध्यान गया है। अर्थ और संरचना आदि सभी दृष्टियों से विचार करने पर प्रोक्ति ही भाषा की मूलभूत सहज इकाई ठहरती है और क्योंकि समाज में विचार विनिमय के लिए उसी (प्रोक्ति) का प्रयोग किया जाता है तथा वाक्य उसी का विश्लेषण करने पर प्राप्त होते हैं अतः वाक्य मूलत: भाषा की सहज इकाई नहीं हो सकते। जैसे- युध्द में रावण-पक्ष के काफी लोग मारे गए या राम ने रावण को बाण से मारा आदि। ये सभी वाक्य आपस में सुसंबद्ध है। प्रोक्ति भाषाविज्ञान में एककालिक, कालक्रमिक, तुलनात्मक, व्यतिरेकी तथा सैध्दांतिक रूप में अध्ययन करते हैं। ===संदर्भ=== १. भाषाविज्ञान की भूमिका--- आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा । दीप्ति शर्मा। पृष्ठ-- १८०-१८७ २. भाषा विज्ञान --- डाँ० भोलानाथ तिवारी। प्रकाशक--किताब महल,पुर्नमुद्रण--२०१७,पृष्ठ-३० ===भाषाविज्ञान के गौण शाखाएँ=== १. [[मनोविज्ञान-भाषाविज्ञान]] भाषा का सम्बन्ध विचारों या भावों से है, अर्थात भाषा विचारों या भावों की अभिव्यक्ति का साधन है। व्यक्ति पर्यावरण अथवा परिस्थिति से प्रभावित होता है और उस प्रभाव की अभिव्यक्ति प्रतिक्रिया के रूप में होती है। वह प्रतिक्रिया मानसिक, शरीरिक अथवा वाचिक हो सकती है। जैसे, अप्रिय बात देखने या सुनने पर हमारा मन क्षुब्ध और खिन्न हो जाता है। जो हमारी मानसिक प्रतिक्रिया का परिणाम है। कहीं हमारे पैर पर यदि आग का एक कण आ गिरे तो हम अविलम्ब पैर हटा लेते है। तात्पर्य यह है कि जब तक कोई विचार या भाव मन में नहीं उठे तब तक भाषा का उच्चारण हो ही नहीं सकता ।अत: विचार या भाव का सम्बन्ध मन (मस्तिष्क) से है जिसका अध्ययन मनोविज्ञान से है। २. [[इतिहास-भाषाविज्ञान]] इतिहास और भाषाविज्ञान एक-दूसरे के लिए बहुत उपादेय और सहायक हैं। इतिहास के निर्माण में भाषाविज्ञान से बहुत सहायता मिलती है। प्राचीन अभिलेख, शिलालेख, सिक्के आदि के पढ़ने पर ऐसे तथ्य सामने आते हैं जो इतिहास निर्माण का आधार प्रस्तुत करते हैं या इतिहस की टूटी कडि़याँ जोड़ने में सहायक होते हैं। उदाहरणार्थ , उत्तरी सीरिया में प्राप्त 'हित्ती' की कीलाक्षर लेखपटि्टयों को पढ़ने के बाद यह निश्चय हो गया कि 'हित्ती' भारत-यूरोपीय परिवार की भाषा है। ३. [[भूगोल-भाषाविज्ञान]] जिस प्रकार इतिहास से भाषाविज्ञान का निकट सम्बन्ध है, उसी प्रकार भूगोल से भी। संसार की हजारों भाषाओं का सीमा-निर्धारण भूगोल की सहायता से ही किया जा सकता है। यदि भूगोल का ज्ञान न हो तो किसी भाषा की सीमा कहाँ तक मानेंगे, यह कहना कठिन है। जहाँ भाषाओं की सीमाएँ थोड़ी दूर पर बदलती हैं, वहाँ तो यह कार्य और कठिन हो जाता है। सीमावर्ती भाषाओं में दो-दो, तीन-तीन भाषाओं के लक्षण दिखने लगते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें किसके अन्तर्गत रखें, यह निर्णय करने के लिए भौगोलिक भाषावैज्ञानिक साधनों को काम में लाया जाता है। ४. [[समाजविज्ञान-भाषाविज्ञान]] समाजविज्ञान में समाज का अध्ययन होता है, अर्थात् सामाजिक प्राणी के रूप में मनुष्य के आचार, विचार, व्यवहार आदि का विश्लेषण किया जाता है। व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध, व्यक्ति पर समाज का प्रभाव, समाज के निर्माण में व्यक्ति का प्रभाव आदि विषयों की चर्चा समाजविज्ञान करते है। भाषा भी सामाजिक सम्पति है। वह समाज में ही उत्पन्न और समाज में ही विकसित होती है। मनुष्य के आचार-विचार आदि में भाषा का कभी प्रत्यक्ष और कभी अप्रत्यक्ष प्रभाव रहता है। इस तरह भाषाविज्ञान समाजविज्ञान के बहुत समीप आ जाता है। जैसे, ब्राह्मण किसी दिन पंडित हुआ करते थे और क्षत्रिय किसी दिन ठाकुर। आज दोनों ज्ञान और अधिकार से वंचित हो गये हैं, फिर भी पुराने नाम ढोये जा रहे हैं। सामान्यत: शिष्टाचार से लेकर क्रान्तिकारी परिवर्तन तक भाषा के द्दारा ही सम्पन्न होता है। ===संदर्भ=== २. भाषाविज्ञान की भूमिका --- आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा । दीपि्त शर्मा पृष्ठ--१७४,१८९, २२२,२४१,२५३ 2baub734l7n6vjj1tcnqbu6eohotm1m भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/भाषा की विशेषताएँ और प्रवृत्तियाँ 0 5815 78872 78820 2022-08-21T10:30:55Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/भाषा की विशेषताएँ और प्रवृत्तियाँ]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/भाषा की विशेषताएँ और प्रवृत्तियाँ]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} भाषा-संबंधी कुछ ऐसी विशेषताएँ और प्रवृत्तियाँ हैं, जो सभी भाषाओं में समान रूप से पायी जाती हैं। व्याकरण के नियम किसी भाषा-विशेष में लागू होते हैं, मगर जिन विशेषताओं और प्रवृत्तियों की चर्चा आगे की जाएगी उनका संबंध भाषा-मात्र से है। == भाषा सामाजिक वस्तु है == भाषा की उत्पत्ति समाज से होती है और उसका विकास भी समाज में ही होता है। प्रारंभिक पाठ माता ही पढ़ाती है, क्योंकि जन्म के बाद जितना संबंध उससे होता है, उतना समाज के किसी और प्राणी से नहीं। इसलिए उसके ऋण या आभार को स्वीकार करने के लिए मातृभाषा शब्द का प्रयोग कर दिया जाता है। किंतु जिस भाषा को वह सिखाती है वह समाज की ही संपत्ति है, जिसे स्वयं उसने अपनी माता से प्राप्त करता है। अतः समाज को छोड़कर भाषा की कल्पना हो ही नहीं सकती। सच पूछिए तो भाषा की उत्पत्ति प्रधानतः सामाजिकता के निर्वाह के लिए ही हुई है। == भाषा का प्रवाह अविच्छिन्न है == मनुष्य के समान भाषा की भी धारा सतत प्रवहमान है। जिस प्रकार उदगम-स्थल से लेकर समुद्र-पर्यंत नदी की धारा अविच्छिन्न होती है, वह कहीं भी सूखती या टूटती नहीं, उसी प्रकार जब से भाषा आरंभ हुई तब से आज तक चली आ रही है और जब तक मानव-समाज रहेगा तब तक इसी प्रकार चलती रहेगी। व्यक्ति उसे अर्जित कर सकता है, उसमें थोडा-बहुत परिवर्तन भी कर सकता है, मगर न तो उसे उत्पन्न कर सकता है और न ही समाप्त कर सकता है। == भाषा सर्व-व्यापक है == मनुष्य का समस्त कार्य-कलाप भाषा से परिचालित होता है। व्यक्ति-व्यक्ति का संबंध या व्यक्ति-समाज का संबंध भाषा के बिना अकल्पनीय है। संस्कृत के महान भाषाविज्ञानी भर्तृहरि ने कहा है, "संसार में कोई ऐसा प्रत्यय नहीं है जो भाषा के बिना संभव हो।" == भाषा संप्रेषण का मौखिक साधन है == हमने पहले देखा है, संप्रेषण के सांकेतिक, आंगिक, लिखित, आदि अनेक रुप हैं, अर्थात् इनमें से किसी के द्दारा व्यक्ति अपना अभिप्राय दूसरों से प्रकट कर सकता है। यद्यपि उसके लिखित रूप में आरोह-अवरोह आदि का कोई निर्देश नहीं होता। तो भाषा का सर्वप्रमुख माध्यम यही है कि उसे बोलकर पारस्परिक संप्रेषण का काम लिया जाए अर्थात् अपना अभिप्राय दूसरों तक पहुँचाया जाए। == भाषा अर्जित वस्तु है == मनुष्य जिस प्रकार आँख, कान, नाक, मुँह आदि लेकर उत्पन्न होता है, उसी प्रकार भाषा लेकर नहीं, तात्पर्य कि भाषा जन्मजात वस्तु नहीं है। मनुष्य में पशुओं की अपेक्षा इतनी विलक्षणता और विशिष्टता होती है कि वह भाषा सीख सकता है, पशु नहीं अतः भाषा के अर्जन का अर्थ यही है कि उसे अपने चारों ओर के वातावरण से सीखना पड़ता है। == भाषा परिवर्तनशील है == सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के समान भाषा भी परिवर्तित होने वाली वस्तु है। किसी देश और किसी युग की भाषा ऐसी नहीं रही जो परिवर्तित न हुई हो। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण परिवर्तन में मात्रा का अंतर भले ही हो, परिवर्तन का क्रम अनिवार्य है। यह परिवर्तन भाषा के सभी तत्वों में पाया जाता है। ध्वनि, शब्द, व्याकरण, अर्थ &mdash; इनमें कोई अपरिवर्तित नहीं रहता, परिवर्तन का क्रम ऐसा है जो चतुर्वेदी और उपाध्याय की ज्ञान-गरिमा को भी कुछ नहीं समझता और उन्हें तोड़-मरोड़ देता है। == प्रत्येक भाषा का ढाँचा स्वतंत्र होता है == प्रत्येक भाषा की बनावट ही नहीं, ढाँचा भी दूसरी भाषा से भिन्न होता है। इसके अनेक कारण हैं, जिनकी चर्चा यहाँ अनपेक्षित है। हिन्दी में दो लिंग हैं, गुजराती में तीन ; हिन्दी में भूतकाल के छः भेद हैं, रूसी में केवल दो; हिन्दी में दो वचन हैं, संस्कृत में तीन। कुछ भाषाओं में कुछ ध्वनियों का संयोग संभव है, पर दूसरी भाषाओं में नहीं। उदाहरणार्थ, अंग्रेजी में स्, ट्, र, जैसे स्टेटा, स्ट्रीट आदि पर जापानी में संभव नहीं। रूसी भाषा में "ह" नहीं होता, "ख" होता है, अतः "नेहरू" को "नेख़रू" ही लिख सकते है। == भाषा भौगोलिक रूप से स्थानीयकृत होती है == प्रत्येक भाषा की भौगोलिक सीमा होती है अर्थात एक स्थान से दूसरे स्थान में भेद होना अनिर्वाय है। 'चार कोस पर पानी बदले आठ कोस पर बानी' वाली कहावत में चरितार्थ है। इसी से भाषा में भाषा या बोली का प्रश्न उठता है। यह भाषा का स्वरूपगत भेद भौगोलिक भेद के आधार पर ही हुआ करता है। == सन्दर्भ == # भाषाविज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा। दीपि्त शर्मा। पृष्ठ: 38-44 m5q06xxs8ok7ejd6urgefsiugemj9ok भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/भाषा के विकास-सोपान 0 5816 78874 78821 2022-08-21T10:31:08Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/भाषा के विकास-सोपान]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/भाषा के विकास-सोपान]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} == आंगिक भाषा == विकासवाद के अनुसार मनुष्य भी एक दिन अन्य पशुओं की कोटि का ही जीव थ।, अर्थात् उसकी कोशिशें पशुओं-जैसी ही होती थीं। भाषा नाम की वस्तु उसे उपलब्ध नहीं थी और वह आंगिक कोशिशों या इंगितों की सहायता से अपनी बात अपनी योनि के दूसरे सदस्यों तक पहुँचता था। मनुष्य अपनी प्रारंभिक अवस्था में अन्य पशुओं की अपेक्षा अधिक बुद्धि-संपन्न था, इसमें कोई संदेह नहीं। बंदर आनंद के समय किलकारी भरते हैं, क्रोध के समय किटकिटाते हैं, मनुष्य भी ऐसे कोशिशें करता होगा, क्योंकि तब तक उसमें वाणी का विकास नहीं हुआ था। आंगिक कोशिशें भाव के घातक रहे हैं, क्योंकि वह जीवन-निवाह के सीमित था। == वाचिक भाषा == आंगिक भाषा से आगे बढ़कर वाचिक भाषा तक पहुँचना मानव-इतिहास की क्रांतिकारी उपलब्धि थी। जहाँ आंगिक भाषा इने-गिने स्थूल-इंगितों तक ही सीमित थी, वहाँ वाचिक भाषा भाव और विचार के संप्रेषण की असीम संभावनाओं से संपन्न थी। मनुष्य की वृतियों केवल खाने-पीने तक सीमित नहीं रहीं वह भाषा की सहायता से सूक्ष्म-से सूक्ष्म बातें दूसरों तक पहुँचाने में समर्थ हो गया; उसके चिंतन और विचार की परिधि इतनी विस्तृत हो गई कि उसमें भूगोल, खगोल, सब अँट गए। == लिखित भाषा == साहित्य, विज्ञान, कला के क्षेत्र में मनुष्य की समस्त बौद्धिक उपलब्धियों का सबसे बड़ा आधार लिपि या भाषा का लिखित रूप है। वाचिक भाषा कान की भाषा थी, किंतु लिपि के अविष्कार के बाद आँख की भी एक भाषा बन गयी अब तो लिपि का विकास नेत्र की सीमा पार कर गया और नेत्रहीनों के लिए ब्रेल लिपि बन गई। लिपि के कारण ही, आज हजारों वर्ष पहले आविभूत व्यास, वाल्मीकि, कालिदास, आदि की रचनाएँ हमें उपलब्ध हैं। किंतु मनुष्य लिपि की इस क्रांतिकारी उपलब्धि से भी तृप्त नहीं हुआ। == यांत्रिक भाषा == लिपि में स्थायित्व भले ही हों, उसकी सबसे बड़ी सीमा यह थी कि भाषा का रूप उसमें निर्जीव हो जाता है। आज बहुत बार यह इच्छा होती है कि कालिदास, विधापति या सूर के मुख से ही हम उनकी कविता का पाठ सुन पाते, किंतु लिपि उनकी वाणी को प्रस्तुत करने में अक्षम है। भाषा की इस निर्जीवता को दूर करने के प्रयास से यांत्रिक भाषा का प्रादुभाव हुआ। आज नाना प्रकार के रिकाडिंग यंत्रों के द्वारा हम किसी की ध्वनि को अनंत काल तक के लिए सुरक्षित रख सकते हैं। महात्मा गाँधी को दिवंगत हुए बावन वर्ष हो गए, किंतु आज भी उनकी वाणी टेपरिकाडर, आदि की सहायता से उसी रूप में हमारे कानों में गूँज उठती है जिस रूप में उनके जीवन-काल में गूँजती थी। == संदर्भ == # भाषाविज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा। दीप्ति शर्मा। पृष्ठ: 27-30 jf6h7tkofvxn1u43o1jpqg6lhqjf9et 78876 78874 2022-08-21T10:31:23Z Saurmandal 13452 wikitext text/x-wiki {{BookCat}} == आंगिक भाषा == विकासवाद के अनुसार मनुष्य भी एक दिन अन्य पशुओं की कोटि का ही जीव थ, अर्थात् उसकी कोशिशें पशुओं-जैसी ही होती थीं। भाषा नाम की वस्तु उसे उपलब्ध नहीं थी और वह आंगिक कोशिशों या इंगितों की सहायता से अपनी बात अपनी योनि के दूसरे सदस्यों तक पहुँचता था। मनुष्य अपनी प्रारंभिक अवस्था में अन्य पशुओं की अपेक्षा अधिक बुद्धि-संपन्न था, इसमें कोई संदेह नहीं। बंदर आनंद के समय किलकारी भरते हैं, क्रोध के समय किटकिटाते हैं, मनुष्य भी ऐसे कोशिशें करता होगा, क्योंकि तब तक उसमें वाणी का विकास नहीं हुआ था। आंगिक कोशिशें भाव के घातक रहे हैं, क्योंकि वह जीवन-निवाह के सीमित था। == वाचिक भाषा == आंगिक भाषा से आगे बढ़कर वाचिक भाषा तक पहुँचना मानव-इतिहास की क्रांतिकारी उपलब्धि थी। जहाँ आंगिक भाषा इने-गिने स्थूल-इंगितों तक ही सीमित थी, वहाँ वाचिक भाषा भाव और विचार के संप्रेषण की असीम संभावनाओं से संपन्न थी। मनुष्य की वृतियों केवल खाने-पीने तक सीमित नहीं रहीं वह भाषा की सहायता से सूक्ष्म-से सूक्ष्म बातें दूसरों तक पहुँचाने में समर्थ हो गया; उसके चिंतन और विचार की परिधि इतनी विस्तृत हो गई कि उसमें भूगोल, खगोल, सब अँट गए। == लिखित भाषा == साहित्य, विज्ञान, कला के क्षेत्र में मनुष्य की समस्त बौद्धिक उपलब्धियों का सबसे बड़ा आधार लिपि या भाषा का लिखित रूप है। वाचिक भाषा कान की भाषा थी, किंतु लिपि के अविष्कार के बाद आँख की भी एक भाषा बन गयी अब तो लिपि का विकास नेत्र की सीमा पार कर गया और नेत्रहीनों के लिए ब्रेल लिपि बन गई। लिपि के कारण ही, आज हजारों वर्ष पहले आविभूत व्यास, वाल्मीकि, कालिदास, आदि की रचनाएँ हमें उपलब्ध हैं। किंतु मनुष्य लिपि की इस क्रांतिकारी उपलब्धि से भी तृप्त नहीं हुआ। == यांत्रिक भाषा == लिपि में स्थायित्व भले ही हों, उसकी सबसे बड़ी सीमा यह थी कि भाषा का रूप उसमें निर्जीव हो जाता है। आज बहुत बार यह इच्छा होती है कि कालिदास, विधापति या सूर के मुख से ही हम उनकी कविता का पाठ सुन पाते, किंतु लिपि उनकी वाणी को प्रस्तुत करने में अक्षम है। भाषा की इस निर्जीवता को दूर करने के प्रयास से यांत्रिक भाषा का प्रादुभाव हुआ। आज नाना प्रकार के रिकाडिंग यंत्रों के द्वारा हम किसी की ध्वनि को अनंत काल तक के लिए सुरक्षित रख सकते हैं। महात्मा गाँधी को दिवंगत हुए बावन वर्ष हो गए, किंतु आज भी उनकी वाणी टेपरिकाडर, आदि की सहायता से उसी रूप में हमारे कानों में गूँज उठती है जिस रूप में उनके जीवन-काल में गूँजती थी। == संदर्भ == # भाषाविज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा। दीप्ति शर्मा। पृष्ठ: 27-30 61em7dv0m2m5mzu9l9vdzavimkpvyzo 78877 78876 2022-08-21T10:31:33Z Saurmandal 13452 wikitext text/x-wiki {{BookCat}} == आंगिक भाषा == विकासवाद के अनुसार मनुष्य भी एक दिन अन्य पशुओं की कोटि का ही जीव था, अर्थात् उसकी कोशिशें पशुओं-जैसी ही होती थीं। भाषा नाम की वस्तु उसे उपलब्ध नहीं थी और वह आंगिक कोशिशों या इंगितों की सहायता से अपनी बात अपनी योनि के दूसरे सदस्यों तक पहुँचता था। मनुष्य अपनी प्रारंभिक अवस्था में अन्य पशुओं की अपेक्षा अधिक बुद्धि-संपन्न था, इसमें कोई संदेह नहीं। बंदर आनंद के समय किलकारी भरते हैं, क्रोध के समय किटकिटाते हैं, मनुष्य भी ऐसे कोशिशें करता होगा, क्योंकि तब तक उसमें वाणी का विकास नहीं हुआ था। आंगिक कोशिशें भाव के घातक रहे हैं, क्योंकि वह जीवन-निवाह के सीमित था। == वाचिक भाषा == आंगिक भाषा से आगे बढ़कर वाचिक भाषा तक पहुँचना मानव-इतिहास की क्रांतिकारी उपलब्धि थी। जहाँ आंगिक भाषा इने-गिने स्थूल-इंगितों तक ही सीमित थी, वहाँ वाचिक भाषा भाव और विचार के संप्रेषण की असीम संभावनाओं से संपन्न थी। मनुष्य की वृतियों केवल खाने-पीने तक सीमित नहीं रहीं वह भाषा की सहायता से सूक्ष्म-से सूक्ष्म बातें दूसरों तक पहुँचाने में समर्थ हो गया; उसके चिंतन और विचार की परिधि इतनी विस्तृत हो गई कि उसमें भूगोल, खगोल, सब अँट गए। == लिखित भाषा == साहित्य, विज्ञान, कला के क्षेत्र में मनुष्य की समस्त बौद्धिक उपलब्धियों का सबसे बड़ा आधार लिपि या भाषा का लिखित रूप है। वाचिक भाषा कान की भाषा थी, किंतु लिपि के अविष्कार के बाद आँख की भी एक भाषा बन गयी अब तो लिपि का विकास नेत्र की सीमा पार कर गया और नेत्रहीनों के लिए ब्रेल लिपि बन गई। लिपि के कारण ही, आज हजारों वर्ष पहले आविभूत व्यास, वाल्मीकि, कालिदास, आदि की रचनाएँ हमें उपलब्ध हैं। किंतु मनुष्य लिपि की इस क्रांतिकारी उपलब्धि से भी तृप्त नहीं हुआ। == यांत्रिक भाषा == लिपि में स्थायित्व भले ही हों, उसकी सबसे बड़ी सीमा यह थी कि भाषा का रूप उसमें निर्जीव हो जाता है। आज बहुत बार यह इच्छा होती है कि कालिदास, विधापति या सूर के मुख से ही हम उनकी कविता का पाठ सुन पाते, किंतु लिपि उनकी वाणी को प्रस्तुत करने में अक्षम है। भाषा की इस निर्जीवता को दूर करने के प्रयास से यांत्रिक भाषा का प्रादुभाव हुआ। आज नाना प्रकार के रिकाडिंग यंत्रों के द्वारा हम किसी की ध्वनि को अनंत काल तक के लिए सुरक्षित रख सकते हैं। महात्मा गाँधी को दिवंगत हुए बावन वर्ष हो गए, किंतु आज भी उनकी वाणी टेपरिकाडर, आदि की सहायता से उसी रूप में हमारे कानों में गूँज उठती है जिस रूप में उनके जीवन-काल में गूँजती थी। == संदर्भ == # भाषाविज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा। दीप्ति शर्मा। पृष्ठ: 27-30 8hwn5q2xtbh2y3jiicgvrw50tu09686 भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/भाषा के विभिन्न रूप 0 5824 78878 78822 2022-08-21T10:31:50Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/भाषा के विभिन्न रूप]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/भाषा के विभिन्न रूप]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} जितने व्यक्ति हैं, उतनी भाषाएँ है; कारण किन्हीं दो व्यक्तियों के बोलने का ढंग एक नहीं होता। वस्तुतः प्रेमचंद की भाषा प्रसाद से भिन्न है और पंत की निराला से। हिन्दी का प्रयोग तो यों सभी करते है; फिर यह अंतर क्यों? यह इसलिए कि उस भाषा के पीछे उनका व्यक्तित्व है। व्यक्तित्व का प्रभाव शिक्षित व्यक्तियों की ही भाषा में नहीं, बल्कि अशिक्षितों की भाषा में पाया जाता है। अतः वक्ता के भेद से भाषा के अनेक रूप हो जाते हैं। उदाहरणार्थ: शिक्षा, संस्कृति, व्यवसाय, वातावरण, पर्यावरण आदि। हमने देखा भाषा के तीन रूप होते हैं &mdash; वाणी, भाषा, अधिभाषा; किंतु दो व्यवहारिक है उन पर विचार किया जा सकता है। == परिनिष्ठित भाषा == भाषा का आदर्श रूप वह है जिसमें वह एक वृहत्तर समुदाय के विचार-विनिमय का माध्यम बनती है, अर्थात् उसका प्रयोग शिक्षा, शासन, और साहित्य-रचना के लिए होता है। हिन्दी, अंग्रेजी, रूसी, फ्रांसीसी इसी श्रेणी की भाषाएँ हैं। भाषा के इस रूप को मानक, आदर्श या परिनिष्ठित कहते हैं, जो अंग्रेज़ी के मानक शब्द का रूपांतर है। परिनिष्ठित भाषा विस्तृत क्षेत्र में प्रयुक्त और व्याकरण से नियंत्रित होती है। == विभाषा (बोली) == एक परिनिष्ठित भाषा के अंतर्गत अनेक विमाताएँ या बोलियाँ हुआ करती हैं। भाषा के स्थानीय भेद से प्रयोग-भेद में जो अन्तर पड़ता है, उसी के आधार पर विभाषा का निर्माण होता है। ऐसी स्थिति में यह असंभव है कि बहुत दूर तक भाषा की एकरूपता कायम रखी जा सके । स्वभावतः एक भाषा में भी कुछ दूरी पर भेद दिखायी देने लगता है। यह स्थानीय भेद, जो मुख्यतः भौगोलिक कारणों से होता है। उदाहरणार्थ: <center>खड़ी बोली &mdash; जाता हूँ। ब्रजभाषा &mdash; जात हौं। भोजपुरी &mdash; जात हईं।</center> अतः स्थानीय भेद को विभाषा कहते हैं। == अपभाषा == भाषा में ही जब सामाजिक दृष्टि से ऐसे प्रयोग आ जाते हैं, जो शिष्ट रूचि को अग्राह्म प्रतीत होतें हैं तो उनको अपभाषा कहतें हैं। अंग्रेजी में स्लैंग कहते हैं। नवीनता, विनोद, उच्छृंखलता, संस्कारहीनता आदि अनेक अभाषा हैं। साधारणतः अपभाषा शिष्ट भाषा में ग्रहण नहीं होता है, किंतु कोई प्रयोग बहुत चल पड़ता है तो वह शिष्ट भाषा बन जाती है। == विशिष्ट (व्यावसायिक) == समाज कोई अरूप वस्तु नहीं है। व्यक्ति सामाजिक प्राणी कहा जाता है तो समाज के किसी विशिष्ट रूप को ध्यान में रखकर। समाज में उसकी कोई-न-कोई स्थिति होती है, वह कोई-न-कोई काम करता है। व्यवसाय के अनुसार अनेक श्रेणियाँ बन जाती है; जैसे &mdash; किसान, लोहार, बढ़ई, जुलाहा, दर्जी, कुम्हार, डॉक्टर, वकील आदि। इन सभी व्यवसायों की अलग-अलग शब्दावली होती है। और उनका व्यवसाय उसी की शब्दावली में चलती है। आप किसी की भाषा सुनकर आसानी से निर्णय कर सकते है। == कूटभाषा == भाषा की साधारणतः विशेषता अपनी बात को दूसरों तक पहुँचाने का माध्यम है अर्थात् भाषा का प्रयोग अभिव्यंजन के लिए होता है, किंतु भाषा का एक और उपयोग संसार में जितना मिथ्या-भाषण होता है, वह सब किसी-न-किसी बात को छिपाने के लिए, अगर छिपना उद्देश्य नहीं होता तो मिथ्या-भाषण की कोई आवश्यकता न थी। कूट-भाषा के दो प्रमुख प्रयोजन हैं &mdash; 1. मनोरंजन 2. गोपन। कविता में कूट भाषा का प्रयोग मनोरंजन के लिए और अपराधी, चोर, विद्रोही, या गुप्तचर गोपन के लिए करते है। == कृत्रिम भाषा == कृत्रिम भाषा उसे कहते हैं जो स्वाभाविक रूप से विकसित नहीं होता बल्कि गढ़कर बनाया जाता है। संसार में भाषाओं की अधिकता के कारण बोधग्यता में में बड़ी बाधा पड़ती है और जब तक एक-दूसरे की भाषाएँ जाने परस्पर बात करना असंभव है। राजनीति, वाणिज्य, व्यवसाय, भ्रमण जैसी असुविधाओं को दूर कर अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार के लिए एक सामान्य भाषा प्रस्तुत करना ही कृत्रिम भाषा के आविष्कार का उद्देश्य है। अतः कृत्रिम भाषा को अंतर्राष्ट्रीय भाषा भी कहते है। एसपेरांतो, संसार की एक कृत्रिम भाषा है। == मिश्रित भाषा == हलके-फुलके व्यापारिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनेकत्रित मिश्रित भाषा का उपयोग होता है। उदाहरणार्थ, पिजिन (pidgin) अंग्रेज़ी का प्रयोग चीन में होता है। पिजिन अंग्रेज़ी में शब्द अंग्रेजी के रहते हैं, किंतु ध्वनि-प्रक्रिया और व्याकरण चीनी है। == सन्दर्भ == # भाषाविज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा। दीप्ति शर्मा। पृष्ठ: 45-52 nvv2lhnbc3smyaerd6b1bg1hds21hcf भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/भाषा की उत्पत्ति 0 5826 78880 75274 2022-08-21T10:32:01Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/भाषा की उत्पति]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/भाषा की उत्पति]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} ===भाषा की उत्पति=== भाषा की उत्पत्ति से दो बातें पाता चलता है। १) ध्वनन अर्थात् बोलने की शकि्त से २) उच्चारित ध्वनि तथा अर्थ संयोग से । जहाँ तक ध्वनन (ध्वनि उत्पन्न करने ) का प्रश्न है , अणगिनत पशु-पक्षियों में भी पाया जाता है; जैसे -- कुत्ता भौं-भौं करता है, बिल्ली म्याऊँ-म्याऊँ, कोयल कू-कू ।इस ध्वनि में सार्थकता का अभाव है, इसलिए यह उस अर्थ में भाषा नहीं है जो मनुष्य में पायी जाती है। आज से लाखों साल पहले की सि्थति बताने का कोई साधन नहीं था कि भाषा की उत्पति कैसे हुई , यह प्रश्न लगभग वैसा ही है जैसे मनुष्य की उत्पति अत: अब तक कोई समुचित और स्विकार्य समाधान नहीं मिलने से आधुनिक भाषाविज्ञान ने इस समस्या पर विचार करना बन्द कर दिया है।कई विद्दानों ने इस बिषय पर विचार किया है उनका सिध्दान्तों का ऐतिहासिक महत्व है; कम-से-कम इतना तो पता चलता है कि भाषोउत्पति के सम्बन्ध में उन्होनें क्या सोचा है। १.[[ दिव्योत्पति ( डिवाइन ) सिध्दान्त]] ईश्वरवादी प्रत्येक कार्य-कलाप ,यहाँ तक सृषि्ट का भी सम्बन्ध दिव्य शकि्त से मानते है। उनका मानना है कि ईश्वर मनुष्य को उत्पन्न कर सकता है तो भाषा क्यों नहीं मनुष्य जब भी उत्पन्न हुआ होगा तो अपनी सम्पूण विशेषताओं के साथ इसलिए वह अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक शरीरिक सौष्ठव , आंगिक स्वच्छन्दता और विकसित चेतना है। '''समीक्षा''':- इस सिध्दान्त में आपत्ति यह है कि यदि मानव-भाषा ईश्वर-प्रदत्त है तो उसमें इतना भेद क्यों अन्य पशुओं की भाषा तो संसार में एक ही है। सभी देशों के कुत्ते एक-सा भूँकते है; घोडे एक समान ही हिनहिनाते है; अन्य पशु-पक्षियों की बोली में भी एकरूपता दीखती है; फिर , वह एकरूपता मनुष्य की बोली में क्यों नहीं पायी जाती है। अत: स्पष्ट है कि यह मत वैज्ञानिक दृषि्ट से अग्राह्म है। २.[[संकेत (सिम्बल) सिध्दान्त]] कुछ विद्दानों का मत है कि आरम्भ में मनुष्य भी पशुओं के समान सिर , आँख , हाथ , पैर आदि अंगों को चलाकर अपना अभिप्राय व्यक्त किया करता करता था , किन्तु इससे उसका अभिप्राय पूर्णत: व्यक्त नहीं हो पाता था इस असुविधा को दूर करने के लिए मनुष्य ने पारस्परिक विचार-विनिमय द्दारा ध्वन्यात्मक भाषा को जन्म दिया। '''समीक्षा''':- यह सिध्दान्त मान लेता है कि एक समय ऐसा था जब मनुष्य को भाषा नहीं मिली थी तो उसकी आवश्यकता का अनुभव मनुष्य को कैसे हुआ? आज भी बन्दरों या बैलों को उसकी आवश्यकता का अनुभव कहाँ हो रहा है? यदि होता तो वे भी कोई महासभा करके अपने लिए एक भाषा बना लेता और अपने विचारों को अधिक पूर्णता से व्यक्त कर पाते। अत: अनेक शंकाएँ हैं जिनका समाधान इस सिध्दान्त से नहीं होता। ३. [[ रणन (डिड्-डांङ् ) सिध्दान्त ]] इस सिध्दान्त की ओर सर्वप्रथम संकेत प्लेटो ने किया था, किन्तु इसको पल्लवित मैक्समूलर ने। रणन-सिध्दान्त के अनुसार शब्द और अर्थ में एक प्रकार का रहास्यात्मक नैसर्गिक सम्बन्ध है। संसार में प्रत्येक वस्तु की अपनी विशिष्ट ध्वनि हुआ करती है जो किसी वस्तु से आहत होने पर व्यक्त हो जाती है। उदाहरणार्थ - यदि हथौडे से किसी धातु , लकडी , ईंट , पत्थर , शीशे आदि पर आघात करने पर विभिन्न प्रकार की ध्वनियाँ उत्पन्न होंगी जिसे सुनकर कोई भी पहचान सकता है। '''समीक्षा''':- यह सिध्दान्त शब्द और अर्थ में नैसर्गिक सम्बन्ध मानता है जो तर्कसंगत से अधिक रहस्यात्मक है। जैसे जादूगर अपनी जादू से पलक मारते कुछ कर दिखता है,वैसे ही बाह्म वस्तुओं से सम्पर्क होते ही मनुष्य शब्द बनता चला गया और सारे शब्द निष्पन हो गये , वैसे उसकी शकि्त भी समाप्त हो गया अत: कहने की आवश्यकता नहीं कि इसमें वैज्ञानिकता का बिल्कुल अभाव है। ४. [[श्रमध्वनि ( यो-हे-हो ) सिध्दान्त ]] शारीरिक श्रम करते समय स्वभावत: श्वास-प्रश्वास की गति तीव्र हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप पेशियों का ही नहीं स्वर-तनि्त्रयों का भी आकुंचन-प्रसारण होने लगता है और उनका कम्पन बढ जाता है। अत: कुछ ध्वनियाँ अनायास निकलने लगती हैं। उदाहरणार्थ - कपङा धोते समय धोबी 'छियो-छियो' इसी तरह पालकी ढोते समय कहार, नाव खेते समय मल्लाह, रोलर खींचते मजदूर किसी-न-किसी प्रकार की ध्वनि करते है। '''समीक्षा''':- आवेगबोधक ध्वनियों के समान इन ध्वनियों में सार्थकता का अभाव है। छियो-छियो , हो-हो से कोई अर्थ नहीं निकलता । आवेगबोधक ध्वनियों का सम्बन्ध भाव की तीव्रता से और श्रमध्वनियों का शारीरिक क्रिया से, अन्यथा तात्विक दृष्टि से दोनों का अर्थ शून्य है। निरर्थक ध्वनियों से सार्थक भाषा की उत्पति की कल्पना अयुकि्तसंगत है। ५. [[ अनुकरण ( बोउ-वोउ ) सिध्दान्त]] बोउ-वोउ, भों-भों का अंग्रेजी रूपान्तर है। इस सिध्दान्त का नाम मैक्समूलर ने विनोद में रख दिया इस सिध्दान्त का वास्ताविक नाम 'अनोमेटोपीक थियरी' है। हिन्दी में इसके लिए शब्दानुकरणमूलतावाद चला है। इस सिध्दान्त के अनुसार वस्तुओं का नामकरण उतपन्न होने वाली प्राकृतिक ध्वनियों के आधार पर हुआ है। अर्थात जिस वस्तु से जैसी ध्वनि उत्पन्न हुई उसी के अनुकरण पर नाम रख दिया गया । जैसे - का-का रटने वाले को काक, कू-कू कूकने वाली को कोकिल आदि । '''समीक्षा''':- यह सिध्दात मनुष्य को वाणी-विहीन मान लेता है और उसकी भाषा का आरम्भ पशु-पक्षियों या प्राकृतिक वस्तुओं की ध्वनियों के अनुकरण पर सिध्द करता है। परिणमस्वरूप मनुष्य पशु-पक्षियों से हीन कोटि का जीव सिध्द होता है। जिसमें ध्वनि उत्पन्न करने की सम्भावनाएँ ही नहीं वह ध्वन्यात्मक अनुकरण करने में कैसे समर्थ हो सकता है। ६. [[ संगीत ( सिंग-सांग ) सिध्दान्त ]] आदिम मानव भावुकता के क्षणों में संगीतात्मक ध्वनियाँ उत्पन्न करता रहा होगा बाद में इन्हीं संगीतात्मक ध्वनियों से अर्थ का योग हुआ होगा और उससे भाषा का विकास ¡ येस्पर्सन ने गाने के खेल ( singing sport ) से उच्चारण के अवयवों के द्दारा उच्चारण के अभ्यास की बात कहकर समर्थन किया है। '''समीक्षा''':- भावुक क्षणों में मनुष्य की संगीतात्मक प्रवृति का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता तो फिर गुनगुनाने से अक्षर और शब्द तथा बाद में भाषा कैसे विकसित हुई । कहना नहीं होगा कि संगीत सिध्दान्त भी भाषा की उत्पति के प्रश्न के अन्य कल्पनाओं के समान एक कल्पना है। इसमें वैज्ञानिकता या तर्कपूण विवेचन का सर्वथा अभाव है। '''निष्कर्ष''':- इन सिध्दान्तों को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने के बाद स्पष्ट हो जाता है कि इनके उपस्थापकों ने तथ्यान्वेषण से अधिक कल्पना से काम लिया है। यह समस्या कब सुलझेगी, यह सन्दिग्ध है। इसलिए आधुनिक भाषाविज्ञान इस पर विचार-विमर्श करना भी समय का अपव्यय मानता है। ===संदर्भ=== १.भाषाविज्ञान की भूमिका -- आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा । दीप्ति शर्मा । पृष्ठ-- ६५-७६ jkujn84xinddfvttmf71y0n73p54uej 78882 78880 2022-08-21T10:32:28Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/भाषा की उत्पति]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/भाषा की उत्पत्ति]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} ===भाषा की उत्पति=== भाषा की उत्पत्ति से दो बातें पाता चलता है। १) ध्वनन अर्थात् बोलने की शकि्त से २) उच्चारित ध्वनि तथा अर्थ संयोग से । जहाँ तक ध्वनन (ध्वनि उत्पन्न करने ) का प्रश्न है , अणगिनत पशु-पक्षियों में भी पाया जाता है; जैसे -- कुत्ता भौं-भौं करता है, बिल्ली म्याऊँ-म्याऊँ, कोयल कू-कू ।इस ध्वनि में सार्थकता का अभाव है, इसलिए यह उस अर्थ में भाषा नहीं है जो मनुष्य में पायी जाती है। आज से लाखों साल पहले की सि्थति बताने का कोई साधन नहीं था कि भाषा की उत्पति कैसे हुई , यह प्रश्न लगभग वैसा ही है जैसे मनुष्य की उत्पति अत: अब तक कोई समुचित और स्विकार्य समाधान नहीं मिलने से आधुनिक भाषाविज्ञान ने इस समस्या पर विचार करना बन्द कर दिया है।कई विद्दानों ने इस बिषय पर विचार किया है उनका सिध्दान्तों का ऐतिहासिक महत्व है; कम-से-कम इतना तो पता चलता है कि भाषोउत्पति के सम्बन्ध में उन्होनें क्या सोचा है। १.[[ दिव्योत्पति ( डिवाइन ) सिध्दान्त]] ईश्वरवादी प्रत्येक कार्य-कलाप ,यहाँ तक सृषि्ट का भी सम्बन्ध दिव्य शकि्त से मानते है। उनका मानना है कि ईश्वर मनुष्य को उत्पन्न कर सकता है तो भाषा क्यों नहीं मनुष्य जब भी उत्पन्न हुआ होगा तो अपनी सम्पूण विशेषताओं के साथ इसलिए वह अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक शरीरिक सौष्ठव , आंगिक स्वच्छन्दता और विकसित चेतना है। '''समीक्षा''':- इस सिध्दान्त में आपत्ति यह है कि यदि मानव-भाषा ईश्वर-प्रदत्त है तो उसमें इतना भेद क्यों अन्य पशुओं की भाषा तो संसार में एक ही है। सभी देशों के कुत्ते एक-सा भूँकते है; घोडे एक समान ही हिनहिनाते है; अन्य पशु-पक्षियों की बोली में भी एकरूपता दीखती है; फिर , वह एकरूपता मनुष्य की बोली में क्यों नहीं पायी जाती है। अत: स्पष्ट है कि यह मत वैज्ञानिक दृषि्ट से अग्राह्म है। २.[[संकेत (सिम्बल) सिध्दान्त]] कुछ विद्दानों का मत है कि आरम्भ में मनुष्य भी पशुओं के समान सिर , आँख , हाथ , पैर आदि अंगों को चलाकर अपना अभिप्राय व्यक्त किया करता करता था , किन्तु इससे उसका अभिप्राय पूर्णत: व्यक्त नहीं हो पाता था इस असुविधा को दूर करने के लिए मनुष्य ने पारस्परिक विचार-विनिमय द्दारा ध्वन्यात्मक भाषा को जन्म दिया। '''समीक्षा''':- यह सिध्दान्त मान लेता है कि एक समय ऐसा था जब मनुष्य को भाषा नहीं मिली थी तो उसकी आवश्यकता का अनुभव मनुष्य को कैसे हुआ? आज भी बन्दरों या बैलों को उसकी आवश्यकता का अनुभव कहाँ हो रहा है? यदि होता तो वे भी कोई महासभा करके अपने लिए एक भाषा बना लेता और अपने विचारों को अधिक पूर्णता से व्यक्त कर पाते। अत: अनेक शंकाएँ हैं जिनका समाधान इस सिध्दान्त से नहीं होता। ३. [[ रणन (डिड्-डांङ् ) सिध्दान्त ]] इस सिध्दान्त की ओर सर्वप्रथम संकेत प्लेटो ने किया था, किन्तु इसको पल्लवित मैक्समूलर ने। रणन-सिध्दान्त के अनुसार शब्द और अर्थ में एक प्रकार का रहास्यात्मक नैसर्गिक सम्बन्ध है। संसार में प्रत्येक वस्तु की अपनी विशिष्ट ध्वनि हुआ करती है जो किसी वस्तु से आहत होने पर व्यक्त हो जाती है। उदाहरणार्थ - यदि हथौडे से किसी धातु , लकडी , ईंट , पत्थर , शीशे आदि पर आघात करने पर विभिन्न प्रकार की ध्वनियाँ उत्पन्न होंगी जिसे सुनकर कोई भी पहचान सकता है। '''समीक्षा''':- यह सिध्दान्त शब्द और अर्थ में नैसर्गिक सम्बन्ध मानता है जो तर्कसंगत से अधिक रहस्यात्मक है। जैसे जादूगर अपनी जादू से पलक मारते कुछ कर दिखता है,वैसे ही बाह्म वस्तुओं से सम्पर्क होते ही मनुष्य शब्द बनता चला गया और सारे शब्द निष्पन हो गये , वैसे उसकी शकि्त भी समाप्त हो गया अत: कहने की आवश्यकता नहीं कि इसमें वैज्ञानिकता का बिल्कुल अभाव है। ४. [[श्रमध्वनि ( यो-हे-हो ) सिध्दान्त ]] शारीरिक श्रम करते समय स्वभावत: श्वास-प्रश्वास की गति तीव्र हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप पेशियों का ही नहीं स्वर-तनि्त्रयों का भी आकुंचन-प्रसारण होने लगता है और उनका कम्पन बढ जाता है। अत: कुछ ध्वनियाँ अनायास निकलने लगती हैं। उदाहरणार्थ - कपङा धोते समय धोबी 'छियो-छियो' इसी तरह पालकी ढोते समय कहार, नाव खेते समय मल्लाह, रोलर खींचते मजदूर किसी-न-किसी प्रकार की ध्वनि करते है। '''समीक्षा''':- आवेगबोधक ध्वनियों के समान इन ध्वनियों में सार्थकता का अभाव है। छियो-छियो , हो-हो से कोई अर्थ नहीं निकलता । आवेगबोधक ध्वनियों का सम्बन्ध भाव की तीव्रता से और श्रमध्वनियों का शारीरिक क्रिया से, अन्यथा तात्विक दृष्टि से दोनों का अर्थ शून्य है। निरर्थक ध्वनियों से सार्थक भाषा की उत्पति की कल्पना अयुकि्तसंगत है। ५. [[ अनुकरण ( बोउ-वोउ ) सिध्दान्त]] बोउ-वोउ, भों-भों का अंग्रेजी रूपान्तर है। इस सिध्दान्त का नाम मैक्समूलर ने विनोद में रख दिया इस सिध्दान्त का वास्ताविक नाम 'अनोमेटोपीक थियरी' है। हिन्दी में इसके लिए शब्दानुकरणमूलतावाद चला है। इस सिध्दान्त के अनुसार वस्तुओं का नामकरण उतपन्न होने वाली प्राकृतिक ध्वनियों के आधार पर हुआ है। अर्थात जिस वस्तु से जैसी ध्वनि उत्पन्न हुई उसी के अनुकरण पर नाम रख दिया गया । जैसे - का-का रटने वाले को काक, कू-कू कूकने वाली को कोकिल आदि । '''समीक्षा''':- यह सिध्दात मनुष्य को वाणी-विहीन मान लेता है और उसकी भाषा का आरम्भ पशु-पक्षियों या प्राकृतिक वस्तुओं की ध्वनियों के अनुकरण पर सिध्द करता है। परिणमस्वरूप मनुष्य पशु-पक्षियों से हीन कोटि का जीव सिध्द होता है। जिसमें ध्वनि उत्पन्न करने की सम्भावनाएँ ही नहीं वह ध्वन्यात्मक अनुकरण करने में कैसे समर्थ हो सकता है। ६. [[ संगीत ( सिंग-सांग ) सिध्दान्त ]] आदिम मानव भावुकता के क्षणों में संगीतात्मक ध्वनियाँ उत्पन्न करता रहा होगा बाद में इन्हीं संगीतात्मक ध्वनियों से अर्थ का योग हुआ होगा और उससे भाषा का विकास ¡ येस्पर्सन ने गाने के खेल ( singing sport ) से उच्चारण के अवयवों के द्दारा उच्चारण के अभ्यास की बात कहकर समर्थन किया है। '''समीक्षा''':- भावुक क्षणों में मनुष्य की संगीतात्मक प्रवृति का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता तो फिर गुनगुनाने से अक्षर और शब्द तथा बाद में भाषा कैसे विकसित हुई । कहना नहीं होगा कि संगीत सिध्दान्त भी भाषा की उत्पति के प्रश्न के अन्य कल्पनाओं के समान एक कल्पना है। इसमें वैज्ञानिकता या तर्कपूण विवेचन का सर्वथा अभाव है। '''निष्कर्ष''':- इन सिध्दान्तों को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने के बाद स्पष्ट हो जाता है कि इनके उपस्थापकों ने तथ्यान्वेषण से अधिक कल्पना से काम लिया है। यह समस्या कब सुलझेगी, यह सन्दिग्ध है। इसलिए आधुनिक भाषाविज्ञान इस पर विचार-विमर्श करना भी समय का अपव्यय मानता है। ===संदर्भ=== १.भाषाविज्ञान की भूमिका -- आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा । दीप्ति शर्मा । पृष्ठ-- ६५-७६ jkujn84xinddfvttmf71y0n73p54uej भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/भाषा की परिवर्तनशीलता और परिवर्तन के कारण 0 5827 78885 78841 2022-08-21T10:32:49Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/भाषा की परिवर्तनशीलता और परिवर्तन के कारण]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/भाषा की परिवर्तनशीलता और परिवर्तन के कारण]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} परिवर्तन सृष्टि की प्रत्येक वस्तु का नियम है। कोई भी वस्तु जिस रूप में उत्पन्न होती है, उसी रूप में सदा नहीं रहती। वस्तुतः परिवर्तन का ही नाम उत्पत्ति, विकास, या विनाश है; ये तीनों परिवर्तन के विभिन्न रूप है; किंतु परिवर्तन की गति सभी वस्तुओं में एक-जैसी नहीं होती। भाषा भी परिवर्तन के इस नियम का अपवाद नहीं है। आज कोई भाषा उसी रूप में नहीं बोली जाती जिस रूप में आज से एक हजार वर्ष पहले बोली जाती थी। यदि यह किसी प्रकार संभव होता कि सौ पीढ़ियों पहले के अपने पूर्वजों से हमारी भेंट हो पाती तो दोनों बड़ी उलझन और पशोपेश की स्थिति में मिलते। न तो हम उनकी बात समझ पाते और न वे हमारी। इस कथन में संदेह हो तो अपभ्रंश की कोई रचना उठाकर देख लीजिए। भाषा परिवर्तन-संबंधी कारणों को दो वर्गों में रख सकते है। (क) बाह्म कारण, (ख) आभ्यंतर कारण, जिनमें भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक प्रभाव आते है, इन्हें बाह्म कारण और परिवर्तन के कुछ कारण तो स्वयं भाषा में विधान रहते हैं, उन्हें आभ्यंतर कारण कहते है। == बाह्य कारण == === भौगोलिक प्रभाव === भाषा के परिवर्तन में भौगोलिक प्रभाव को महत्वपूर्ण माना है। उनके अनुसार जलवायु का प्रभाव मनुष्य के शारीरिक गठन पर ही नहीं, उसके चरित्र और ध्वनि-पध्दति पर भी पड़ता है। यदि यह कहें कि पहाड़ी भागों में रहने वालों की भाषा कोमल होती है। जैसे इटली के निवासियों की, और समतल मैदानों की भाषा पुरुष जैसे भोजपुरी बोलने वालों की। अतः भौगोलिक प्रभाव की व्यापकता संदिग्ध है, सभी परिस्थितियों में सही नहीं उतरता क्योंकि एक मात्र भूगोल का प्रभाव नहीं होता दूसरे प्रभाव समाहित होते है। भाषा के परिवर्तन में भौगोलिक प्रभाव नहीं है ऐसा कहना गलत होगा मात्र चाहे जितनी भी कम हो, उसके प्रभाव को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। === ऐतिहासिक प्रभाव === भाषा के परिवर्तन में भूगोल का प्रभाव अलक्षित होता ही है, किंतु इतिहास का बहुत स्पष्ट। ऐतिहासिक कारणों में विदेशी आक्रमण, राजनीतिक विप्लव, व्यापारिक आदि। हिन्दी में हजारों शब्द अरबी, फ़ारसी, तुर्की, अंग्रेजी आदि से आए है। इनमें कुछ तो इतने सहज और स्वाभाविक बन गए हैं उन्हें विदेशी कहना भी कठिन मालूम पड़ता है। इन शब्दों से हिन्दी में अनेक परिवर्तन हुए हैं&mdash;ध्वनि में, शब्द-भण्डार में, यहाँ तक वाक्य-विन्यास में भी। हिन्दी में पहले क़, ख़, ग़, ज़ ध्वनियाँ नहीं थी। ऐसे ही फ़ारसी के "हवा", "हुनर", "किताब" और अरबी के "कैंची", "चाकू", "दारोगा", अंग्रेज़ी के "स्कूल", "एजेंट", "गिलास", आदि शब्द आ गए है। === सांस्कृतिक प्रभाव === सांस्कृतिक प्रभाव की चर्चा इतिहास के अंतर्गत की जा सकती है। चूँकि वह भी ऐतिहासिक घटनाओं का ही एक अंग है। किंतु स्पष्टता के लिए पृथक विचार करना अच्छा है। भारत के स्वाधीनता-संग्राह के समय सांस्कृतिक जागरण हुआ। स्वामी दयानंद सरस्वती और उनके द्वारा संस्थापित समाज ने आर्य समाज ने, हिन्दी की महत्व घोषित कर उसके प्रसार के लिए उर्वर क्षेत्र तैयार किया। उर्दू के बदले हिन्दी के पठन-पाठन, और फारसी-अरबी शब्दों के बदले संस्कृत के तत्सम् शब्दों का प्रयोग किया। इस सांस्कृतिक जागरण के कारण भाषा के स्वरूप में बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। स्वाधीनता-संग्राम के फलस्वरूप 'सत्याग्रह', 'असहयोग-आंदोलन', आदि शब्द उत्पन्न हुए। === साहित्यिक प्रभाव === भाषा को परिवर्तित करने में कभी-कभी साहित्यिक प्रभाव भी महत्वपूर्ण सिद्ध होते है। मध्ययुग का भारतीय अथवा यूरोपीय इतिहास इसका प्रमाण है। भारत में संस्कृत का एकछत्र प्रभाव था। भक्ति-आन्दोलन के कारण जनरूचि में ऐसा परिवर्तन हुआ कि पाठक ही नहीं, लेखक भी संस्कृत से लोक-भाषाओं पर उतर आए उत्तर से लेकर दक्षिण तक सरंग भारत इस लहर में निमज्जित हो गया। कबीर, तुलसी, जायसी, सूर, आदि ने हिन्दी की विभिन्न बोलियों में अभिव्यंजन किया। अतः भाषा के इस क्रांतिकारी परिवर्तन ने भारत के साहित्यिक और सांस्कृतिक रूप में बदल दिया। === वैज्ञानिक प्रभाव === विज्ञान की विभिन्न शाखाओं ने विगत दो शताब्दियों से अकल्पनीय प्रगति की है जिसके कारण असंख्य नई वस्तुओं और नए तत्वों का आविष्कार हुआ है। उन वस्तुओं और तत्वों के नामकरण की आवश्यकता से हजारों-हजार नए शब्द गढ़ने पड़े हैं, जिसने भाषा अत्यधिक समृद्ध हुई है। यह वैज्ञानिक शब्दावली आधुनिक युग और विज्ञान की, देन है। अतः विज्ञान ने मनुष्य को ही नहीं, भाषा को भी रूपांतरित कर दिया। अतः साधारणतः बाह्म कारणों में ये ही आते है। प्रत्येक प्रभाव की मात्रा सदा एक समान नहीं होती कभी वह लक्षित तो कभी अलक्षित होती है। == आभ्यंतर कारण == प्रत्येक वस्तु के विकास में कुछ तो बाह्म कारणों और परिस्थितियों का हाथ तो कुछ कारण स्वयं उस वस्तु में अंतर्निहित होता हैं। एक ही वातावरण में पलने वाला मनुष्य कोई नाटा, कोई लंबा; कोई सबल होता है। इसका कारण स्वयं उस मनुष्य की अंतर्निहित शक्ति ही है। इसी प्रकार भाषा के विकास या परिवर्तन में बाह्म कारणों का तो प्रभाव रहता ही है, मगर स्वयं भाषा की प्रकृति भी उस परिवर्तन की भूमिका तैयार करती है। जो कारण भाषा की प्रकृति या स्वरूप से संबंध है, उन्हें आभ्यंतर कारण कहा जाता है। === प्रयंत-लाघव === भाषा में परिवर्तन करने वाले आभ्यंतर कारणों में सबसे महत्वपूर्ण है प्रयत्न-लाघव। प्रयत्न-लाघव का सीधा अर्थ होता है: श्रम की अल्पता अर्थात् अधिक श्रम न करना। मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है कि न्यूनतम श्रम से वह अधिकतम लाभ उठाना चाहता है। मज़दूर काम से जी चुरता है, हाथ-पैर हिलाने में ही नहीं जीभ हिलाने में भी मनुष्य संकोच करता है। उदाहरण: <poem> : तुम कब घर जाओगे? :: कल। : और लौटोगे कब? :: परसों। </poem> प्रयत्न-लाघव के अंतर्गत भाषा-संबंधी परिवर्तन की कई प्रक्रियाएँ आती हैं। आगम, लोप, विकार, विपर्यय, समीकरण, विषमीकरण, स्वर भक्ति। ==== आगम ==== कभी-कभी ऐसा होता है कि शब्द में ऐसे संयुक्ताक्षर आ जाते हैं जिनका उच्चारण आसानी से नहीं हो पाता। अतः किसी स्वर की सहायता लेकर उसका उच्चारण करना अधिक सुविधाजनक मालूम होता है। शब्द में नई ध्वनि का आ जाना आगम कहलाता है। आगम स्वर और व्यंजनों दोनों का हो सकता है। स्थान-भेद से आगम के तीन भेद हैं &mdash; आदि, मध्य, और अंत। उदाहरण: * स्वर आगम: "स्कूल", "स्तुति", "स्त्री" शब्दों का उच्चारण बहुत लोग "इस्कूल", "इस्तुति", और "इस्त्री" करते हैं। * व्यंजन आगम: शाप &rarr; श्राप। ==== लोप ==== जब दो संयुक्त ध्वनियों के उच्चारण में कठिनाई होती है तो उच्चारण-सौकार्य के लिए उनमें से एक का लोप कर दिया जाता है। जैसे &mdash; ज्येष्ठ &rarr; जेठ ; दूग्ध &rarr; दूध; स्टेशन &rarr; स्टेसन। ==== विकार ==== उच्चारण की सूविधा के लिए एक ध्वनि में परिवर्तित हो जाना विकार कहलाता है। जैसे&mdash; कृष्ण &rarr; कान्हा; स्तन &rarr; थन; हस्त &rarr; हाथ। ==== विपर्यय ==== विपर्यय का अर्थ है उलटना। कभी-कभी शब्द के वर्णों का क्रम उच्चारण में उलट जाता ह; इसे ही विपर्यय कहते है। जैसे&mdash; अमरूद &rarr; अरमूद; आदमी &rarr; आमदी। ==== समीकरण ==== जब दो भिन्न ध्वनियाँ पास रहने से सम हो जाती हैं तो उसे समीकरण कहते हैं। समीकरण के दो भेद हैं&mdash; 1. पुरोगामी, 2. पश्चगामी। जैसे&mdash; * पुरोगामी समीकरण: वार्ता &rarr; बात; कर्म &rarr; काम। * पश्चगामी समीकरण: अगि्न &rarr; आग; रात्रि &rarr; रात। ==== बिषमीकरण ==== जब दो निकटस्थ ध्वनियों के उच्चारण में कठिनाई का अनुभव होता है तो उसमें भेद कर दिया जाता है। भेद ला देने के कारण ही इस परिवर्तन को विषमीकरण कहते हैं। जैसे&mdash; कंकण &rarr; कंगन; मुकुट &rarr; मउर ; काक &rarr; काग। ==== स्वर-भक्ति ==== संयुक्त व्यंजनों के उच्चारण में जीभ को अधिक असुविधा होती है और वहाँ धक्का देकर जीभ को आगे बढ़ाना पड़ता है। उस असुविधा को दूर करने के लिए संयुक्त व्यंजनों के बीज जब कोई स्वर रख दिया जाता है तो उसे स्वर-भक्ति कहते हैं। जैसे&mdash; मूर्ति &rarr; मूरत; स्नान &rarr; सनान; कर्म &rarr; करम। === बल === बोलते समय किसी बात पर अधिक ज़ोर देने के लिए या उसे स्पष्ट करने के लिए शब्द या वाक्य के किसी अवयव का उच्चारण अधिक बल देकर किया जाता है। बोलने के क्रम में मेज़ पर हाथ पटकना या पंजों पर खड़ा हो जाना उसी बल को दृढ़ करने का साधन है। जैसे&mdash; "बैठे नहीं जाता बेकार"; "जाओगे ऊब, नदी में डूब", "दे न दो कहीं अपनी जान"। === भावातिरेक === प्रेम, क्रोध, शोक, आदि भावों में अतिरेक से भी शब्दों का रूप बदल जाता है। उदाहरण: "बाबू" का "बबुआ", "बच्चा" का "बचवा", "बेटी" की "बिटिया"। === अपूर्ण अनुकरण === किन्हीं दो व्यक्तियों का शारीरिक संघटन एक-जैसा नहीं होता जिसके कारण किसी की आवाज़ बड़ी सुरीली तो किसी की कर्कश। आंगिक संघटन के साथ मानसिक संघटन में भी अनुकरण का प्रभाव पड़ता है। जिस तरह सबकी आकृति एक नहीं होती उसी तरह प्रकृति भी एक नहीं होती। कोई तीव्र-बुद्धि का तो कोई मंद-बुद्धि का होता है। अतः ग्रहण करने की क्षमता उसी रूप में होती है। उदाहरण&mdash; पिता का अपूर्ण अनुकरण पुत्र ने किया; फिर उसका अपूर्ण अनुकरण उसके पुत्र ने किया। इस तरह कई पीढ़ियों के बाद अनुकरण की अपूर्णता काफ़ी व्यापक हो जाती है। जिसका अनिवार्य प्रभाव भाषा पर पड़ता है। === सादृश्य === किसी प्रयोग को देखकर उसके मूल जाने उसी आधार पर प्रयोग कर बैठना सादृश्य के अंतर्गत आता है। कुछ भाषा-विज्ञानी इसे मिथ्या-सादृश्य कहते है। जैसे&mdash; असुर का 'अ' भी अज्ञानमूलक परिवर्तन के कारण "अभि-" उपसर्ग का "अ" हिस्सा नय-वाची बन गया है अन्यथा वेदों में तो "असु" अर्थात् "प्राणों" की रक्षा करने वाले को असुर कहा गया है उसका अर्थ देव होता है। जो संस्कृत और हिन्दी दोनों में स्वीकृत हो चुका है। भाषा में परिवर्तन के ये मुख्य प्रयोजन हैं। == सन्दर्भ == १. भाषा-विज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा। दीप्ति शर्मा। पृष्ठ: 77-92 plstafyiix30ds3zckomo1y0ajd9pti भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/अर्थ-परिवर्तन के कारण और दिशाएँ 0 5837 78844 75267 2022-08-20T15:21:13Z Saurmandal 13452 wikitext text/x-wiki {{BookCat}} == अर्थ-परिवर्तन == अर्थ में सदा परिवर्तन होता रहता है। ध्वनि या पद के परिवर्तन की प्रक्रिया के समान अर्थ भी स्थायी और अपरिवर्तनीय वस्तु नहीं है। उसमें भी परिवर्तन होता रहता है। उदाहरण के लिए संस्कृत का शब्द आकाशवानी लें। संस्कृत में इसका अर्थ 'देववाणी' है। तुलसी के समय भी यही अर्थ था। अतः रामचरितमानस में कहा गया है&mdash;"भै अकासबानी तेहि काला"। अब आकाशवाणी का अर्थ परिवर्तन होकर (हिन्दी में) ऑल इण्डिया रेडियो हो गया है। अतः अर्थ में परिवर्तन हो जाना ही अर्थ-परिवर्तन है। == अर्थ-परिवर्तन के कारण == अर्थतत्व एक प्रकार से मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। अतः अर्थ-परिवर्तन-संबंधी सारी प्रक्रियाओं को लक्षणा और व्यजना का नाम दिया गया है। पाश्चात्य विद्दानों में टकर और मिशेल ब्रेल ने सर्वप्रथम अर्थ-तत्व पर विचार किया और आधुनिक युग में आग्डेन और रिचडर्स की देन है। टकर के आधार पर तारापुरवाला ने अर्थ-परिवर्तन के निंनलिखित कारण बताये हैं: === लाक्षणिक प्रयोग === भाषा का प्रमुख उपयोग भाव या विचार का संप्रेषण है, किंतु मनुष्य सहज रूप से सौंदर्य-प्रियता, जैसे कलाओं का उपयोग कर रहा है, बोलते समय प्रत्येक वक्ता की इच्छा रहती है कि उसकी अभिव्यज्जना सुन्दर और प्रभावोत्पादक हो। मगर भाषा अभिव्यंजना का बहुत अशक्त और असमर्थ माध्यम है। समस्त अनुभूतियों को शब्दों में बाँध देना असंभव है। यों कहें कि भाषा की अभिव्यज्जनात्मक त्रुटि को पूर्ण करने के लिए, अनेक साधन काम में लाये जाते है। लाक्षणिक प्रयोग भी उनमें से एक है। अतः उनमें शक्ति भरने के लिए अभिव्यंजना की नवीन भंगिमाएँ अपनानी पड़ती हैं जो नवीन शब्द-प्रयोग से ही संभव हो पाती है। उदाहरण: "नारियल की आँख", "घड़े का मुँह", "सरस कहानी", आदि। === परिवेश का परिवर्तन === ; भौगोलिक परिवर्तन : वेद में 'उष्ट्र' शब्द का प्रयोग 'भैंसे' के अर्थ में हुआ है, किंतु बाद में 'ऊँट' के लिए होने लगा। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आर्य जहाँ रहते थे वहाँ ऊँट नहीं थे,बाद में शीत भू-भाग से उष्ण-भाग की ओर आये और उन्हें एक नया जंतु मिला जिसका नाम ऊँट रखा जिसका प्रयोग भैंसे के लिए हुआ करता था। ; सामाजिक परिवर्तन : सामाज-भेद से एक ही शब्द के अर्थ में भेद आ जाता है और एक ही वस्तु के लिए भिन्न शब्दों का प्रयोग होने लगता है; जैसे अंग्रेजी में 'mother', 'father', 'brother', 'sister', आदि शब्दों का अर्थ का जो अर्थ परिवार है, वही रोमन कैथोलिक धार्मिक संगठन में नहीं। 'Sister' का अर्थ परिवार में 'बहन' लेकिन अस्पताल में 'नर्स'। 'भाई' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है&mdash;सहोदर, भ्राता, साला, बहनोई, आदि। ; भौतिक परिवर्तन : जैसे-जैसे भौतिक साधनों में परिवर्तन होता है, वैसे-वैसे वस्तुओं के नाम में जैसे पानी पीने का कोई बर्तन हमारे यहाँ रहा होगा पर आज उसका नाम कोई नहीं जानता आज 'गिलास' नाम प्रचलित है जो अंग्रेज़ी की देन है। ; विनम्रता-प्रदर्शन : विनम्रता सामाजिक शिष्टाचार का अभिन्न अंग है। भाषा से किसी व्यक्ति की शिक्षा, संस्कृति, आभिजात्य आदि पता लग जाता है। फ़ारसी तहज़ीब में तीन बातों पर ध्यान दिया जाता है: चलना, बोलना और बैठना। उदाहरण: "कैसे कृपा की?", "मैं निवेदन करना चाहता हूँ", आदि। अतः किसी की भाषा सुनकर ही यह जान लिया जा सकता कि वह किस तबके का व्यक्ति है। ; व्यंग्य : इस प्रसंग में व्यंग शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के 'आयरनी' का पर्याय है जिसका अर्थ आक्षेप करना। इसके लिए हमारे यहाँ 'विपरीत लक्षणा' शब्द का प्रयोग हुआ है। उदाहरण: 'ऊधौ, तुम अति चतुर सुजान' में गोपियों ने चतुर और सुजान शब्द विपरीत अर्थ में किया है, अर्थात तुम महा मुख और बुद्धिहीन हो जो हम-जैसी अबलाओं के सामने योग और निर्गुण ब्रह्म की चर्चा कर रहे हो। ; भावनात्मक बल : बौद्धिक उपयोग के साथ भाषा का भावात्मक उपयोग होता है। भावात्मक बल के कारण अनेक शब्दों के अर्थ में परिवर्तन हो जाता है। जैसे, बंगाल में एक मिठाई का नाम 'प्राणहरा' (प्राण लेने वाला) मिठाई का नाम 'प्राणहारा' उपयुक्त नहीं है लेकिन उनका लक्ष्य था मिठाई का अतिशय बताना। ; सामान्य के लिए विशेष प्रयोग : कभी-कभी पूरे वर्ग के लिए उसी वर्ग की एक वस्तु का प्रयोग किया जाता है। यह वस्तुतः अर्थ-विस्तार का ही एक रूप है। जैसे: 'सब्जी' शब्द का प्रयोग केवल (हरी) तरकारियों के लिए होना चाहिए, किंतु उससे सभी तरकारियों बोध हो जाता है; आलू, टमाटर, कद्दू आदि। ; अज्ञानता : असुर पहले देववाचक था, किंतु बाद में 'अ' निषेध (नय्) का अंश मान लिया गया और 'सुर' शब्द का प्रयोग देव के लिए होने लगा। फिर 'सुर' में 'अ' लगाकर 'असुर' से दानव का बोध कराया जाने लगा। क्रोध के लिए 'रंज' शब्द का प्रयोग अज्ञान का ही परिणाम है। ; एक शब्द के विभिन्न अर्थों में प्रयोग : ऐसा बहुत बार देखा जाता है कि किसी शब्द के तत्सम् और तद्भव रूपों में अर्थ भेद हो जाता है, जैसे: खाध &rarr; खाद, भद्र &rarr; भद्दा, श्रेष्ठ &rarr; सेठ आदि। अतः उपयुक्त चर्चा से स्पष्ट होता है कि अर्थ -परिवर्तन का कोई एक सुनिश्चित कारण नहीं आंतरिक, बाह्म, मानसिक, भौतिक आदि अनेक कारण है। == अर्थ-परिवर्तन की दिशाएँ == अर्थ परिवर्तन किन-किन दिशाओं में होता हैं, अथवा 'उसके' कितने प्रकार होते हैं, इस विषय पर सबसे पहले फ्रांसीसी भाषा-विज्ञानवेता 'ब्रील' ने विचार किया था। उन्होंने तीन दिशाओं की खोज की: अर्थ-विस्तार, अर्थ-संकोच,अर्थादेश। अभी तक ये मान्य है&mdash; १.'''अर्थ-विस्तार'''' कोई शब्द पहले सीमित अर्थ में प्रयुक्त होता है और बाद में उसका अर्थ व्यापक हो जाता है; इसे ही अर्थ-विस्तार कहते हैं। जैसे- 'प्रवीण' शब्द का अर्थ आरंभ में था-- अच्छी तरह वीणा बजानेवाला। किन्तु बाद में चलकर वह किसी भी काम में निपुणता का वाचक हो गया; जैसे&mdash; 'वह झाडू देने में प्रवीण है' या 'भोजन बनाने में प्रवीण है, आदि। २. '''अर्थ-संकोच''' जिस प्रकार अर्थ का विस्तार संभव है,उसी प्रकार संकोच भी। प्रायः ऐसा देखा गया है कि कोई शब्द पहले विस्तृत अर्थ का वाचक था लेकिन बाद में सीमित अर्थ का वाचक हो गया है। उदाहरणार्थ-- गं धातु से 'गो' शब्द निष्पन्न हुआ जिसका आरंभिक अर्थ 'चलानेवाला', परन्तु आज प्रत्येक चलनेवाले जन्तु को गो नहीं कहते; यह शब्द पशु-विशेष के लिए रूढ हो गया है। इसी तरह 'जगत्' शब्द का अर्थ 'खूब चलनेवाला' पर मोटर, रेल, हवाई जहाज को जगत् नहीं कहते, यह संसार का वाचक हो गया है। अर्थ-संकोच निंनलिखित कारणों से होता है-- (क) '''समास''':- नीलांबर,पीतांबर आदि शब्द बहुव्रीहि समास के कारण ही संकुचित अर्थ के वाचक हैं। जैसे- पीला वस्त्र धारण करनेवाला से -- बलराम या कृष्ण का बोध होता है। (ख)'''उपसर्ग''':- उपसर्ग शब्दों के अर्थ को संकुचित कर देता है। जैसे-- 'हार' शब्द विभिन्न अर्थों में होता है, जैसे - प्रहार,संहार,विहार,उपहार आदि। (ग) '''विशेषण''':- अर्थ-संकोच का एक बहुत बडा़ साधन विशेषण है। गुलाब शब्द से किसी भी रंग के गुलाब का बोध हो सकता है,किन्तु लाल गुलाब कह देने पर उजले, पीले,गुलाबी, हरी आदि का व्यवच्छेद हो जाता है। (घ) '''पारिभाषिकता''':- शब्दों का परिभाषिक रूप में प्रयोग हमेशा उनके अर्थ को संकुचित कर देता है। उदाहरण--'रस' शब्द का अनेक अर्थ हैं,किन्तु काव्यशास्त्र में उसका प्रयोग विभावादि के संयोग से उत्पन्न आनन्दानुभूति के लिए होता है। (ङ)'''प्रत्यय''':- प्रत्यय योग से भी अर्थ-संकोच होता है। एक ही धातु से निष्पन्न होने पर भी विभिन्न प्रत्ययों के कारण विभिन्न अर्थों के वाचक बन जाते हैं, जैसे--'मन्' धातु से मति, मत, मनन, मान आदि। ३.'''अर्थांदेश''' आदेश का अर्थ है परिवर्तन। अर्थादेश में अर्थ का विस्तार या संकोच नहीं होता, वह बिल्कुल बदल जाता है, जैसे-- वेद में 'असुर' शब्द देवता का वाचक था परन्तु बाद में दैत्य का वाचक बन गया।'आकाशवाणी' का अर्थ पहले देववाणी था; अब उसका प्रयोग अखिल भारतीय रेडियो के लिए हो रहा है। अतः अर्थादेश में दो बाते सामने आती हैं- १) अर्थोंत्कर्ष २) १)अर्थापकर्ष। कुछ शब्दों का अर्थ पहले बुरा रहता है। और बाद में अच्छा हो जाना अर्थोंत्कर्ष है; जैसे-- साहस संसकृत में अच्छा शब्द नहीं था लूट, हत्या, चोरी लेकिन अब साहस का अर्थ हिंमत होता है। २) कुछ शब्द पहले अच्छा रहता है और बाद में बुरा हो जाता है; जैसे-- पाखंड संन्यासियों के एक संप्रदाय का नाम था अशोक इनका बडा आदर करता, दान देता था। लेकिन आज 'पाखंड' ढो़ग का वाचक है। अतः अर्थ-परिवर्तन में उत्कर्ष की अपेक्षा अपकर्ष की प्रवृति अधिक पायी जाती है। == सन्दर्भ == # भाषाविज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्र नाथ शर्मा। दीप्ति शर्मा। पृष्ठ: 273-286 # भाषा विज्ञान &mdash; डॉ. भोलानाथ तिवारी। प्रकाशक: '''किताब महल''', पुर्नमुद्रण: 2017, पृष्ठ: 275, 279 j3z41uxls3ijhe63bdc6y9ic7us3ceb 78845 78844 2022-08-20T16:12:11Z Saurmandal 13452 /* अर्थ-परिवर्तन की दिशाएँ */ wikitext text/x-wiki {{BookCat}} == अर्थ-परिवर्तन == अर्थ में सदा परिवर्तन होता रहता है। ध्वनि या पद के परिवर्तन की प्रक्रिया के समान अर्थ भी स्थायी और अपरिवर्तनीय वस्तु नहीं है। उसमें भी परिवर्तन होता रहता है। उदाहरण के लिए संस्कृत का शब्द आकाशवानी लें। संस्कृत में इसका अर्थ 'देववाणी' है। तुलसी के समय भी यही अर्थ था। अतः रामचरितमानस में कहा गया है&mdash;"भै अकासबानी तेहि काला"। अब आकाशवाणी का अर्थ परिवर्तन होकर (हिन्दी में) ऑल इण्डिया रेडियो हो गया है। अतः अर्थ में परिवर्तन हो जाना ही अर्थ-परिवर्तन है। == अर्थ-परिवर्तन के कारण == अर्थतत्व एक प्रकार से मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। अतः अर्थ-परिवर्तन-संबंधी सारी प्रक्रियाओं को लक्षणा और व्यजना का नाम दिया गया है। पाश्चात्य विद्दानों में टकर और मिशेल ब्रेल ने सर्वप्रथम अर्थ-तत्व पर विचार किया और आधुनिक युग में आग्डेन और रिचडर्स की देन है। टकर के आधार पर तारापुरवाला ने अर्थ-परिवर्तन के निंनलिखित कारण बताये हैं: === लाक्षणिक प्रयोग === भाषा का प्रमुख उपयोग भाव या विचार का संप्रेषण है, किंतु मनुष्य सहज रूप से सौंदर्य-प्रियता, जैसे कलाओं का उपयोग कर रहा है, बोलते समय प्रत्येक वक्ता की इच्छा रहती है कि उसकी अभिव्यज्जना सुन्दर और प्रभावोत्पादक हो। मगर भाषा अभिव्यंजना का बहुत अशक्त और असमर्थ माध्यम है। समस्त अनुभूतियों को शब्दों में बाँध देना असंभव है। यों कहें कि भाषा की अभिव्यज्जनात्मक त्रुटि को पूर्ण करने के लिए, अनेक साधन काम में लाये जाते है। लाक्षणिक प्रयोग भी उनमें से एक है। अतः उनमें शक्ति भरने के लिए अभिव्यंजना की नवीन भंगिमाएँ अपनानी पड़ती हैं जो नवीन शब्द-प्रयोग से ही संभव हो पाती है। उदाहरण: "नारियल की आँख", "घड़े का मुँह", "सरस कहानी", आदि। === परिवेश का परिवर्तन === ; भौगोलिक परिवर्तन : वेद में 'उष्ट्र' शब्द का प्रयोग 'भैंसे' के अर्थ में हुआ है, किंतु बाद में 'ऊँट' के लिए होने लगा। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आर्य जहाँ रहते थे वहाँ ऊँट नहीं थे,बाद में शीत भू-भाग से उष्ण-भाग की ओर आये और उन्हें एक नया जंतु मिला जिसका नाम ऊँट रखा जिसका प्रयोग भैंसे के लिए हुआ करता था। ; सामाजिक परिवर्तन : सामाज-भेद से एक ही शब्द के अर्थ में भेद आ जाता है और एक ही वस्तु के लिए भिन्न शब्दों का प्रयोग होने लगता है; जैसे अंग्रेजी में 'mother', 'father', 'brother', 'sister', आदि शब्दों का अर्थ का जो अर्थ परिवार है, वही रोमन कैथोलिक धार्मिक संगठन में नहीं। 'Sister' का अर्थ परिवार में 'बहन' लेकिन अस्पताल में 'नर्स'। 'भाई' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है&mdash;सहोदर, भ्राता, साला, बहनोई, आदि। ; भौतिक परिवर्तन : जैसे-जैसे भौतिक साधनों में परिवर्तन होता है, वैसे-वैसे वस्तुओं के नाम में जैसे पानी पीने का कोई बर्तन हमारे यहाँ रहा होगा पर आज उसका नाम कोई नहीं जानता आज 'गिलास' नाम प्रचलित है जो अंग्रेज़ी की देन है। ; विनम्रता-प्रदर्शन : विनम्रता सामाजिक शिष्टाचार का अभिन्न अंग है। भाषा से किसी व्यक्ति की शिक्षा, संस्कृति, आभिजात्य आदि पता लग जाता है। फ़ारसी तहज़ीब में तीन बातों पर ध्यान दिया जाता है: चलना, बोलना और बैठना। उदाहरण: "कैसे कृपा की?", "मैं निवेदन करना चाहता हूँ", आदि। अतः किसी की भाषा सुनकर ही यह जान लिया जा सकता कि वह किस तबके का व्यक्ति है। ; व्यंग्य : इस प्रसंग में व्यंग शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के 'आयरनी' का पर्याय है जिसका अर्थ आक्षेप करना। इसके लिए हमारे यहाँ 'विपरीत लक्षणा' शब्द का प्रयोग हुआ है। उदाहरण: 'ऊधौ, तुम अति चतुर सुजान' में गोपियों ने चतुर और सुजान शब्द विपरीत अर्थ में किया है, अर्थात तुम महा मुख और बुद्धिहीन हो जो हम-जैसी अबलाओं के सामने योग और निर्गुण ब्रह्म की चर्चा कर रहे हो। ; भावनात्मक बल : बौद्धिक उपयोग के साथ भाषा का भावात्मक उपयोग होता है। भावात्मक बल के कारण अनेक शब्दों के अर्थ में परिवर्तन हो जाता है। जैसे, बंगाल में एक मिठाई का नाम 'प्राणहरा' (प्राण लेने वाला) मिठाई का नाम 'प्राणहारा' उपयुक्त नहीं है लेकिन उनका लक्ष्य था मिठाई का अतिशय बताना। ; सामान्य के लिए विशेष प्रयोग : कभी-कभी पूरे वर्ग के लिए उसी वर्ग की एक वस्तु का प्रयोग किया जाता है। यह वस्तुतः अर्थ-विस्तार का ही एक रूप है। जैसे: 'सब्जी' शब्द का प्रयोग केवल (हरी) तरकारियों के लिए होना चाहिए, किंतु उससे सभी तरकारियों बोध हो जाता है; आलू, टमाटर, कद्दू आदि। ; अज्ञानता : असुर पहले देववाचक था, किंतु बाद में 'अ' निषेध (नय्) का अंश मान लिया गया और 'सुर' शब्द का प्रयोग देव के लिए होने लगा। फिर 'सुर' में 'अ' लगाकर 'असुर' से दानव का बोध कराया जाने लगा। क्रोध के लिए 'रंज' शब्द का प्रयोग अज्ञान का ही परिणाम है। ; एक शब्द के विभिन्न अर्थों में प्रयोग : ऐसा बहुत बार देखा जाता है कि किसी शब्द के तत्सम् और तद्भव रूपों में अर्थ भेद हो जाता है, जैसे: खाध &rarr; खाद, भद्र &rarr; भद्दा, श्रेष्ठ &rarr; सेठ आदि। अतः उपयुक्त चर्चा से स्पष्ट होता है कि अर्थ -परिवर्तन का कोई एक सुनिश्चित कारण नहीं आंतरिक, बाह्म, मानसिक, भौतिक आदि अनेक कारण है। == अर्थ-परिवर्तन की दिशाएँ == अर्थ परिवर्तन किन-किन दिशाओं में होता हैं, अथवा 'उसके' कितने प्रकार होते हैं, इस विषय पर सबसे पहले फ्रांसीसी भाषा-विज्ञानवेता 'ब्रील' ने विचार किया था। उन्होंने तीन दिशाओं की खोज की: अर्थ-विस्तार, अर्थ-संकोच,अर्थादेश। अभी तक ये मान्य है&mdash; ; अर्थ-विस्तार : कोई शब्द पहले सीमित अर्थ में प्रयुक्त होता है और बाद में उसका अर्थ व्यापक हो जाता है; इसे ही अर्थ-विस्तार कहते हैं। जैसे- 'प्रवीण' शब्द का अर्थ आरंभ में था&mdash; अच्छी तरह वीणा बजाने वाला। किन्तु बाद में चलकर वह किसी भी काम में निपुणता का वाचक हो गया; जैसे&mdash; 'वह झाडू देने में प्रवीण है' या 'भोजन बनाने में प्रवीण है, आदि। ; अर्थ-संकोच : जिस प्रकार अर्थ का विस्तार संभव है, उसी प्रकार संकोच भी। प्रायः ऐसा देखा गया है कि कोई शब्द पहले विस्तृत अर्थ का वाचक था लेकिन बाद में सीमित अर्थ का वाचक हो गया है। उदाहरणार्थ-- गं धातु से 'गौ' शब्द निष्पन्न हुआ जिसका आरंभिक अर्थ 'चलाने वाला', परन्तु आज प्रत्येक चलने वाले जंतु को 'गौ' नहीं कहते; यह शब्द पशु-विशेष के लिए रूढ़ हो गया है। इसी तरह 'जगत' शब्द का अर्थ 'खूब चलने वाला' पर मोटर, रेल, हवाई जहाज को जगत नहीं कहते, यह संसार का वाचक हो गया है। अर्थ-संकोच निम्नलिखित कारणों से होता है&mdash; * '''समास''': नीलांबर, पीतांबर आदि शब्द बहुव्रीहि समास के कारण ही संकुचित अर्थ के वाचक हैं। जैसे, "पीला वस्त्र धारण करने वाला" से हिन्दू देवता बलराम या कृष्ण का बोध होता है। * '''उपसर्ग''': उपसर्ग शब्दों के अर्थ को संकुचित कर देता है। जैसे, 'हार' शब्द विभिन्न अर्थों में होता है, जैसे - प्रहार, संहार, विहार, उपहार आदि। * '''विशेषण''': अर्थ-संकोच का एक बहुत बड़ा साधन विशेषण है। गुलाब शब्द से किसी भी रंग के गुलाब का बोध हो सकता है, मगर लाल गुलाब कह देने पर उजले, पीले, गुलाबी, हरी आदि का व्यवच्छेद हो जाता है। * '''पारिभाषिकता''': शब्दों का परिभाषिक रूप में प्रयोग हमेशा उनके अर्थ को संकुचित कर देता है। उदाहरण: 'रस' शब्द का अनेक अर्थ हैं, किंतु काव्यशास्त्र में उसका प्रयोग विभावादी के संयोग से उत्पन्न आनंदानुभूति के लिए होता है। * '''प्रत्यय''': प्रत्यय योग से भी अर्थ-संकोच होता है। एक ही धातु से निष्पन्न होने पर भी विभिन्न प्रत्ययों के कारण विभिन्न अर्थों के वाचक बन जाते हैं, जैसे, 'मन्' धातु से मति, मत, मनन, मान, आदि। ; अर्थादेश : आदेश का अर्थ है परिवर्तन। अर्थादेश में अर्थ का विस्तार या संकोच नहीं होता, वह बिल्कुल बदल जाता है, जैसे&mdash; वेद में 'असुर' शब्द देवता का वाचक था परन्तु बाद में दैत्य का वाचक बन गया।'आकाशवाणी' का अर्थ पहले देववाणी था; अब उसका प्रयोग अखिल भारतीय रेडियो के लिए हो रहा है। अतः अर्थादेश में दो बाते सामने आती हैं&mdash; 1. अर्थोत्कर्ष 2. अर्थापकर्ष। ; अर्थोत्कर्ष : कुछ शब्दों का अर्थ पहले बुरा रहता है। और बाद में अच्छा हो जाना अर्थोत्कर्ष है; जैसे, 'साहस' संस्कृत में अच्छा शब्द नहीं था। "लूट", "हत्या", "चोरी" से लेकिन अब 'साहस' का अर्थ हिंमत होता है। ; अर्थापकर्ष : कुछ शब्द पहले अच्छा रहता है और बाद में बुरा हो जाता है; जैसे, पाखंड संन्यासियों के एक संप्रदाय का नाम था अशोक इनका बड़ा आदर करता, दान देता था। लेकिन आज 'पाखंड' ढो़ंग का वाचक है। अतः अर्थ-परिवर्तन में उत्कर्ष की अपेक्षा अपकर्ष की प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है। == सन्दर्भ == # भाषाविज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्र नाथ शर्मा। दीप्ति शर्मा। पृष्ठ: 273-286 # भाषा विज्ञान &mdash; डॉ. भोलानाथ तिवारी। प्रकाशक: '''किताब महल''', पुर्नमुद्रण: 2017, पृष्ठ: 275, 279 snes06dgykya7azog8loba86dg7whox 78846 78845 2022-08-20T16:13:35Z Saurmandal 13452 /* अर्थ-परिवर्तन के कारण */ wikitext text/x-wiki {{BookCat}} == अर्थ-परिवर्तन == अर्थ में सदा परिवर्तन होता रहता है। ध्वनि या पद के परिवर्तन की प्रक्रिया के समान अर्थ भी स्थायी और अपरिवर्तनीय वस्तु नहीं है। उसमें भी परिवर्तन होता रहता है। उदाहरण के लिए संस्कृत का शब्द आकाशवानी लें। संस्कृत में इसका अर्थ 'देववाणी' है। तुलसी के समय भी यही अर्थ था। अतः रामचरितमानस में कहा गया है&mdash;"भै अकासबानी तेहि काला"। अब आकाशवाणी का अर्थ परिवर्तन होकर (हिन्दी में) ऑल इण्डिया रेडियो हो गया है। अतः अर्थ में परिवर्तन हो जाना ही अर्थ-परिवर्तन है। == अर्थ-परिवर्तन के कारण == अर्थतत्व एक प्रकार से मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। अतः अर्थ-परिवर्तन-संबंधी सारी प्रक्रियाओं को लक्षणा और व्यंजना का नाम दिया गया है। पाश्चात्य विद्वनों में टकर और मिशेल ब्रेल ने सर्वप्रथम अर्थ-तत्व पर विचार किया और आधुनिक युग में आग्डेन और रिचडर्स की देन है। टकर के आधार पर तारापुरवाला ने अर्थ-परिवर्तन के निम्नलिखित कारण बताये हैं: === लाक्षणिक प्रयोग === भाषा का प्रमुख उपयोग भाव या विचार का संप्रेषण है, किंतु मनुष्य सहज रूप से सौंदर्य-प्रियता, जैसे कलाओं का उपयोग कर रहा है, बोलते समय प्रत्येक वक्ता की इच्छा रहती है कि उसकी अभिव्यंजना सुंदर और प्रभावोत्पादक हो। मगर भाषा अभिव्यंजना का बहुत अशक्त और असमर्थ माध्यम है। समस्त अनुभूतियों को शब्दों में बाँध देना असंभव है। यों कहें कि भाषा की अभिव्यंजनात्मक त्रुटि को पूर्ण करने के लिए, अनेक साधन काम में लाये जाते है। लाक्षणिक प्रयोग भी उनमें से एक है। अतः उनमें शक्ति भरने के लिए अभिव्यंजना की नवीन भंगिमाएँ अपनानी पड़ती हैं जो नवीन शब्द-प्रयोग से ही संभव हो पाती है। उदाहरण: "नारियल की आँख", "घड़े का मुँह", "सरस कहानी", आदि। === परिवेश का परिवर्तन === ; भौगोलिक परिवर्तन : वेद में 'उष्ट्र' शब्द का प्रयोग 'भैंसे' के अर्थ में हुआ है, किंतु बाद में 'ऊँट' के लिए होने लगा। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आर्य जहाँ रहते थे वहाँ ऊँट नहीं थे,बाद में शीत भू-भाग से उष्ण-भाग की ओर आये और उन्हें एक नया जंतु मिला जिसका नाम ऊँट रखा जिसका प्रयोग भैंसे के लिए हुआ करता था। ; सामाजिक परिवर्तन : सामाज-भेद से एक ही शब्द के अर्थ में भेद आ जाता है और एक ही वस्तु के लिए भिन्न शब्दों का प्रयोग होने लगता है; जैसे अंग्रेजी में 'mother', 'father', 'brother', 'sister', आदि शब्दों का अर्थ का जो अर्थ परिवार है, वही रोमन कैथोलिक धार्मिक संगठन में नहीं। 'Sister' का अर्थ परिवार में 'बहन' लेकिन अस्पताल में 'नर्स'। 'भाई' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है&mdash;सहोदर, भ्राता, साला, बहनोई, आदि। ; भौतिक परिवर्तन : जैसे-जैसे भौतिक साधनों में परिवर्तन होता है, वैसे-वैसे वस्तुओं के नाम में जैसे पानी पीने का कोई बर्तन हमारे यहाँ रहा होगा पर आज उसका नाम कोई नहीं जानता आज 'गिलास' नाम प्रचलित है जो अंग्रेज़ी की देन है। ; विनम्रता-प्रदर्शन : विनम्रता सामाजिक शिष्टाचार का अभिन्न अंग है। भाषा से किसी व्यक्ति की शिक्षा, संस्कृति, आभिजात्य आदि पता लग जाता है। फ़ारसी तहज़ीब में तीन बातों पर ध्यान दिया जाता है: चलना, बोलना और बैठना। उदाहरण: "कैसे कृपा की?", "मैं निवेदन करना चाहता हूँ", आदि। अतः किसी की भाषा सुनकर ही यह जान लिया जा सकता कि वह किस तबके का व्यक्ति है। ; व्यंग्य : इस प्रसंग में व्यंग शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के 'आयरनी' का पर्याय है जिसका अर्थ आक्षेप करना। इसके लिए हमारे यहाँ 'विपरीत लक्षणा' शब्द का प्रयोग हुआ है। उदाहरण: 'ऊधौ, तुम अति चतुर सुजान' में गोपियों ने चतुर और सुजान शब्द विपरीत अर्थ में किया है, अर्थात तुम महा मुख और बुद्धिहीन हो जो हम-जैसी अबलाओं के सामने योग और निर्गुण ब्रह्म की चर्चा कर रहे हो। ; भावनात्मक बल : बौद्धिक उपयोग के साथ भाषा का भावात्मक उपयोग होता है। भावात्मक बल के कारण अनेक शब्दों के अर्थ में परिवर्तन हो जाता है। जैसे, बंगाल में एक मिठाई का नाम 'प्राणहरा' (प्राण लेने वाला) मिठाई का नाम 'प्राणहारा' उपयुक्त नहीं है लेकिन उनका लक्ष्य था मिठाई का अतिशय बताना। ; सामान्य के लिए विशेष प्रयोग : कभी-कभी पूरे वर्ग के लिए उसी वर्ग की एक वस्तु का प्रयोग किया जाता है। यह वस्तुतः अर्थ-विस्तार का ही एक रूप है। जैसे: 'सब्जी' शब्द का प्रयोग केवल (हरी) तरकारियों के लिए होना चाहिए, किंतु उससे सभी तरकारियों बोध हो जाता है; आलू, टमाटर, कद्दू आदि। ; अज्ञानता : असुर पहले देववाचक था, किंतु बाद में 'अ' निषेध (नय्) का अंश मान लिया गया और 'सुर' शब्द का प्रयोग देव के लिए होने लगा। फिर 'सुर' में 'अ' लगाकर 'असुर' से दानव का बोध कराया जाने लगा। क्रोध के लिए 'रंज' शब्द का प्रयोग अज्ञान का ही परिणाम है। ; एक शब्द के विभिन्न अर्थों में प्रयोग : ऐसा बहुत बार देखा जाता है कि किसी शब्द के तत्सम् और तद्भव रूपों में अर्थ भेद हो जाता है, जैसे: खाध &rarr; खाद, भद्र &rarr; भद्दा, श्रेष्ठ &rarr; सेठ आदि। अतः उपयुक्त चर्चा से स्पष्ट होता है कि अर्थ -परिवर्तन का कोई एक सुनिश्चित कारण नहीं आंतरिक, बाह्म, मानसिक, भौतिक आदि अनेक कारण है। == अर्थ-परिवर्तन की दिशाएँ == अर्थ परिवर्तन किन-किन दिशाओं में होता हैं, अथवा 'उसके' कितने प्रकार होते हैं, इस विषय पर सबसे पहले फ्रांसीसी भाषा-विज्ञानवेता 'ब्रील' ने विचार किया था। उन्होंने तीन दिशाओं की खोज की: अर्थ-विस्तार, अर्थ-संकोच,अर्थादेश। अभी तक ये मान्य है&mdash; ; अर्थ-विस्तार : कोई शब्द पहले सीमित अर्थ में प्रयुक्त होता है और बाद में उसका अर्थ व्यापक हो जाता है; इसे ही अर्थ-विस्तार कहते हैं। जैसे- 'प्रवीण' शब्द का अर्थ आरंभ में था&mdash; अच्छी तरह वीणा बजाने वाला। किन्तु बाद में चलकर वह किसी भी काम में निपुणता का वाचक हो गया; जैसे&mdash; 'वह झाडू देने में प्रवीण है' या 'भोजन बनाने में प्रवीण है, आदि। ; अर्थ-संकोच : जिस प्रकार अर्थ का विस्तार संभव है, उसी प्रकार संकोच भी। प्रायः ऐसा देखा गया है कि कोई शब्द पहले विस्तृत अर्थ का वाचक था लेकिन बाद में सीमित अर्थ का वाचक हो गया है। उदाहरणार्थ-- गं धातु से 'गौ' शब्द निष्पन्न हुआ जिसका आरंभिक अर्थ 'चलाने वाला', परन्तु आज प्रत्येक चलने वाले जंतु को 'गौ' नहीं कहते; यह शब्द पशु-विशेष के लिए रूढ़ हो गया है। इसी तरह 'जगत' शब्द का अर्थ 'खूब चलने वाला' पर मोटर, रेल, हवाई जहाज को जगत नहीं कहते, यह संसार का वाचक हो गया है। अर्थ-संकोच निम्नलिखित कारणों से होता है&mdash; * '''समास''': नीलांबर, पीतांबर आदि शब्द बहुव्रीहि समास के कारण ही संकुचित अर्थ के वाचक हैं। जैसे, "पीला वस्त्र धारण करने वाला" से हिन्दू देवता बलराम या कृष्ण का बोध होता है। * '''उपसर्ग''': उपसर्ग शब्दों के अर्थ को संकुचित कर देता है। जैसे, 'हार' शब्द विभिन्न अर्थों में होता है, जैसे - प्रहार, संहार, विहार, उपहार आदि। * '''विशेषण''': अर्थ-संकोच का एक बहुत बड़ा साधन विशेषण है। गुलाब शब्द से किसी भी रंग के गुलाब का बोध हो सकता है, मगर लाल गुलाब कह देने पर उजले, पीले, गुलाबी, हरी आदि का व्यवच्छेद हो जाता है। * '''पारिभाषिकता''': शब्दों का परिभाषिक रूप में प्रयोग हमेशा उनके अर्थ को संकुचित कर देता है। उदाहरण: 'रस' शब्द का अनेक अर्थ हैं, किंतु काव्यशास्त्र में उसका प्रयोग विभावादी के संयोग से उत्पन्न आनंदानुभूति के लिए होता है। * '''प्रत्यय''': प्रत्यय योग से भी अर्थ-संकोच होता है। एक ही धातु से निष्पन्न होने पर भी विभिन्न प्रत्ययों के कारण विभिन्न अर्थों के वाचक बन जाते हैं, जैसे, 'मन्' धातु से मति, मत, मनन, मान, आदि। ; अर्थादेश : आदेश का अर्थ है परिवर्तन। अर्थादेश में अर्थ का विस्तार या संकोच नहीं होता, वह बिल्कुल बदल जाता है, जैसे&mdash; वेद में 'असुर' शब्द देवता का वाचक था परन्तु बाद में दैत्य का वाचक बन गया।'आकाशवाणी' का अर्थ पहले देववाणी था; अब उसका प्रयोग अखिल भारतीय रेडियो के लिए हो रहा है। अतः अर्थादेश में दो बाते सामने आती हैं&mdash; 1. अर्थोत्कर्ष 2. अर्थापकर्ष। ; अर्थोत्कर्ष : कुछ शब्दों का अर्थ पहले बुरा रहता है। और बाद में अच्छा हो जाना अर्थोत्कर्ष है; जैसे, 'साहस' संस्कृत में अच्छा शब्द नहीं था। "लूट", "हत्या", "चोरी" से लेकिन अब 'साहस' का अर्थ हिंमत होता है। ; अर्थापकर्ष : कुछ शब्द पहले अच्छा रहता है और बाद में बुरा हो जाता है; जैसे, पाखंड संन्यासियों के एक संप्रदाय का नाम था अशोक इनका बड़ा आदर करता, दान देता था। लेकिन आज 'पाखंड' ढो़ंग का वाचक है। अतः अर्थ-परिवर्तन में उत्कर्ष की अपेक्षा अपकर्ष की प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है। == सन्दर्भ == # भाषाविज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्र नाथ शर्मा। दीप्ति शर्मा। पृष्ठ: 273-286 # भाषा विज्ञान &mdash; डॉ. भोलानाथ तिवारी। प्रकाशक: '''किताब महल''', पुर्नमुद्रण: 2017, पृष्ठ: 275, 279 6ks8gjbsussd2j1yvh5t7mbs2683q8u 78889 78846 2022-08-21T10:33:24Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/अर्थ-परिवर्तन के कारण और दिशाँए]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/अर्थ-परिवर्तन के कारण और दिशाएँ]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} == अर्थ-परिवर्तन == अर्थ में सदा परिवर्तन होता रहता है। ध्वनि या पद के परिवर्तन की प्रक्रिया के समान अर्थ भी स्थायी और अपरिवर्तनीय वस्तु नहीं है। उसमें भी परिवर्तन होता रहता है। उदाहरण के लिए संस्कृत का शब्द आकाशवानी लें। संस्कृत में इसका अर्थ 'देववाणी' है। तुलसी के समय भी यही अर्थ था। अतः रामचरितमानस में कहा गया है&mdash;"भै अकासबानी तेहि काला"। अब आकाशवाणी का अर्थ परिवर्तन होकर (हिन्दी में) ऑल इण्डिया रेडियो हो गया है। अतः अर्थ में परिवर्तन हो जाना ही अर्थ-परिवर्तन है। == अर्थ-परिवर्तन के कारण == अर्थतत्व एक प्रकार से मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। अतः अर्थ-परिवर्तन-संबंधी सारी प्रक्रियाओं को लक्षणा और व्यंजना का नाम दिया गया है। पाश्चात्य विद्वनों में टकर और मिशेल ब्रेल ने सर्वप्रथम अर्थ-तत्व पर विचार किया और आधुनिक युग में आग्डेन और रिचडर्स की देन है। टकर के आधार पर तारापुरवाला ने अर्थ-परिवर्तन के निम्नलिखित कारण बताये हैं: === लाक्षणिक प्रयोग === भाषा का प्रमुख उपयोग भाव या विचार का संप्रेषण है, किंतु मनुष्य सहज रूप से सौंदर्य-प्रियता, जैसे कलाओं का उपयोग कर रहा है, बोलते समय प्रत्येक वक्ता की इच्छा रहती है कि उसकी अभिव्यंजना सुंदर और प्रभावोत्पादक हो। मगर भाषा अभिव्यंजना का बहुत अशक्त और असमर्थ माध्यम है। समस्त अनुभूतियों को शब्दों में बाँध देना असंभव है। यों कहें कि भाषा की अभिव्यंजनात्मक त्रुटि को पूर्ण करने के लिए, अनेक साधन काम में लाये जाते है। लाक्षणिक प्रयोग भी उनमें से एक है। अतः उनमें शक्ति भरने के लिए अभिव्यंजना की नवीन भंगिमाएँ अपनानी पड़ती हैं जो नवीन शब्द-प्रयोग से ही संभव हो पाती है। उदाहरण: "नारियल की आँख", "घड़े का मुँह", "सरस कहानी", आदि। === परिवेश का परिवर्तन === ; भौगोलिक परिवर्तन : वेद में 'उष्ट्र' शब्द का प्रयोग 'भैंसे' के अर्थ में हुआ है, किंतु बाद में 'ऊँट' के लिए होने लगा। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आर्य जहाँ रहते थे वहाँ ऊँट नहीं थे,बाद में शीत भू-भाग से उष्ण-भाग की ओर आये और उन्हें एक नया जंतु मिला जिसका नाम ऊँट रखा जिसका प्रयोग भैंसे के लिए हुआ करता था। ; सामाजिक परिवर्तन : सामाज-भेद से एक ही शब्द के अर्थ में भेद आ जाता है और एक ही वस्तु के लिए भिन्न शब्दों का प्रयोग होने लगता है; जैसे अंग्रेजी में 'mother', 'father', 'brother', 'sister', आदि शब्दों का अर्थ का जो अर्थ परिवार है, वही रोमन कैथोलिक धार्मिक संगठन में नहीं। 'Sister' का अर्थ परिवार में 'बहन' लेकिन अस्पताल में 'नर्स'। 'भाई' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है&mdash;सहोदर, भ्राता, साला, बहनोई, आदि। ; भौतिक परिवर्तन : जैसे-जैसे भौतिक साधनों में परिवर्तन होता है, वैसे-वैसे वस्तुओं के नाम में जैसे पानी पीने का कोई बर्तन हमारे यहाँ रहा होगा पर आज उसका नाम कोई नहीं जानता आज 'गिलास' नाम प्रचलित है जो अंग्रेज़ी की देन है। ; विनम्रता-प्रदर्शन : विनम्रता सामाजिक शिष्टाचार का अभिन्न अंग है। भाषा से किसी व्यक्ति की शिक्षा, संस्कृति, आभिजात्य आदि पता लग जाता है। फ़ारसी तहज़ीब में तीन बातों पर ध्यान दिया जाता है: चलना, बोलना और बैठना। उदाहरण: "कैसे कृपा की?", "मैं निवेदन करना चाहता हूँ", आदि। अतः किसी की भाषा सुनकर ही यह जान लिया जा सकता कि वह किस तबके का व्यक्ति है। ; व्यंग्य : इस प्रसंग में व्यंग शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के 'आयरनी' का पर्याय है जिसका अर्थ आक्षेप करना। इसके लिए हमारे यहाँ 'विपरीत लक्षणा' शब्द का प्रयोग हुआ है। उदाहरण: 'ऊधौ, तुम अति चतुर सुजान' में गोपियों ने चतुर और सुजान शब्द विपरीत अर्थ में किया है, अर्थात तुम महा मुख और बुद्धिहीन हो जो हम-जैसी अबलाओं के सामने योग और निर्गुण ब्रह्म की चर्चा कर रहे हो। ; भावनात्मक बल : बौद्धिक उपयोग के साथ भाषा का भावात्मक उपयोग होता है। भावात्मक बल के कारण अनेक शब्दों के अर्थ में परिवर्तन हो जाता है। जैसे, बंगाल में एक मिठाई का नाम 'प्राणहरा' (प्राण लेने वाला) मिठाई का नाम 'प्राणहारा' उपयुक्त नहीं है लेकिन उनका लक्ष्य था मिठाई का अतिशय बताना। ; सामान्य के लिए विशेष प्रयोग : कभी-कभी पूरे वर्ग के लिए उसी वर्ग की एक वस्तु का प्रयोग किया जाता है। यह वस्तुतः अर्थ-विस्तार का ही एक रूप है। जैसे: 'सब्जी' शब्द का प्रयोग केवल (हरी) तरकारियों के लिए होना चाहिए, किंतु उससे सभी तरकारियों बोध हो जाता है; आलू, टमाटर, कद्दू आदि। ; अज्ञानता : असुर पहले देववाचक था, किंतु बाद में 'अ' निषेध (नय्) का अंश मान लिया गया और 'सुर' शब्द का प्रयोग देव के लिए होने लगा। फिर 'सुर' में 'अ' लगाकर 'असुर' से दानव का बोध कराया जाने लगा। क्रोध के लिए 'रंज' शब्द का प्रयोग अज्ञान का ही परिणाम है। ; एक शब्द के विभिन्न अर्थों में प्रयोग : ऐसा बहुत बार देखा जाता है कि किसी शब्द के तत्सम् और तद्भव रूपों में अर्थ भेद हो जाता है, जैसे: खाध &rarr; खाद, भद्र &rarr; भद्दा, श्रेष्ठ &rarr; सेठ आदि। अतः उपयुक्त चर्चा से स्पष्ट होता है कि अर्थ -परिवर्तन का कोई एक सुनिश्चित कारण नहीं आंतरिक, बाह्म, मानसिक, भौतिक आदि अनेक कारण है। == अर्थ-परिवर्तन की दिशाएँ == अर्थ परिवर्तन किन-किन दिशाओं में होता हैं, अथवा 'उसके' कितने प्रकार होते हैं, इस विषय पर सबसे पहले फ्रांसीसी भाषा-विज्ञानवेता 'ब्रील' ने विचार किया था। उन्होंने तीन दिशाओं की खोज की: अर्थ-विस्तार, अर्थ-संकोच,अर्थादेश। अभी तक ये मान्य है&mdash; ; अर्थ-विस्तार : कोई शब्द पहले सीमित अर्थ में प्रयुक्त होता है और बाद में उसका अर्थ व्यापक हो जाता है; इसे ही अर्थ-विस्तार कहते हैं। जैसे- 'प्रवीण' शब्द का अर्थ आरंभ में था&mdash; अच्छी तरह वीणा बजाने वाला। किन्तु बाद में चलकर वह किसी भी काम में निपुणता का वाचक हो गया; जैसे&mdash; 'वह झाडू देने में प्रवीण है' या 'भोजन बनाने में प्रवीण है, आदि। ; अर्थ-संकोच : जिस प्रकार अर्थ का विस्तार संभव है, उसी प्रकार संकोच भी। प्रायः ऐसा देखा गया है कि कोई शब्द पहले विस्तृत अर्थ का वाचक था लेकिन बाद में सीमित अर्थ का वाचक हो गया है। उदाहरणार्थ-- गं धातु से 'गौ' शब्द निष्पन्न हुआ जिसका आरंभिक अर्थ 'चलाने वाला', परन्तु आज प्रत्येक चलने वाले जंतु को 'गौ' नहीं कहते; यह शब्द पशु-विशेष के लिए रूढ़ हो गया है। इसी तरह 'जगत' शब्द का अर्थ 'खूब चलने वाला' पर मोटर, रेल, हवाई जहाज को जगत नहीं कहते, यह संसार का वाचक हो गया है। अर्थ-संकोच निम्नलिखित कारणों से होता है&mdash; * '''समास''': नीलांबर, पीतांबर आदि शब्द बहुव्रीहि समास के कारण ही संकुचित अर्थ के वाचक हैं। जैसे, "पीला वस्त्र धारण करने वाला" से हिन्दू देवता बलराम या कृष्ण का बोध होता है। * '''उपसर्ग''': उपसर्ग शब्दों के अर्थ को संकुचित कर देता है। जैसे, 'हार' शब्द विभिन्न अर्थों में होता है, जैसे - प्रहार, संहार, विहार, उपहार आदि। * '''विशेषण''': अर्थ-संकोच का एक बहुत बड़ा साधन विशेषण है। गुलाब शब्द से किसी भी रंग के गुलाब का बोध हो सकता है, मगर लाल गुलाब कह देने पर उजले, पीले, गुलाबी, हरी आदि का व्यवच्छेद हो जाता है। * '''पारिभाषिकता''': शब्दों का परिभाषिक रूप में प्रयोग हमेशा उनके अर्थ को संकुचित कर देता है। उदाहरण: 'रस' शब्द का अनेक अर्थ हैं, किंतु काव्यशास्त्र में उसका प्रयोग विभावादी के संयोग से उत्पन्न आनंदानुभूति के लिए होता है। * '''प्रत्यय''': प्रत्यय योग से भी अर्थ-संकोच होता है। एक ही धातु से निष्पन्न होने पर भी विभिन्न प्रत्ययों के कारण विभिन्न अर्थों के वाचक बन जाते हैं, जैसे, 'मन्' धातु से मति, मत, मनन, मान, आदि। ; अर्थादेश : आदेश का अर्थ है परिवर्तन। अर्थादेश में अर्थ का विस्तार या संकोच नहीं होता, वह बिल्कुल बदल जाता है, जैसे&mdash; वेद में 'असुर' शब्द देवता का वाचक था परन्तु बाद में दैत्य का वाचक बन गया।'आकाशवाणी' का अर्थ पहले देववाणी था; अब उसका प्रयोग अखिल भारतीय रेडियो के लिए हो रहा है। अतः अर्थादेश में दो बाते सामने आती हैं&mdash; 1. अर्थोत्कर्ष 2. अर्थापकर्ष। ; अर्थोत्कर्ष : कुछ शब्दों का अर्थ पहले बुरा रहता है। और बाद में अच्छा हो जाना अर्थोत्कर्ष है; जैसे, 'साहस' संस्कृत में अच्छा शब्द नहीं था। "लूट", "हत्या", "चोरी" से लेकिन अब 'साहस' का अर्थ हिंमत होता है। ; अर्थापकर्ष : कुछ शब्द पहले अच्छा रहता है और बाद में बुरा हो जाता है; जैसे, पाखंड संन्यासियों के एक संप्रदाय का नाम था अशोक इनका बड़ा आदर करता, दान देता था। लेकिन आज 'पाखंड' ढो़ंग का वाचक है। अतः अर्थ-परिवर्तन में उत्कर्ष की अपेक्षा अपकर्ष की प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है। == सन्दर्भ == # भाषाविज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्र नाथ शर्मा। दीप्ति शर्मा। पृष्ठ: 273-286 # भाषा विज्ञान &mdash; डॉ. भोलानाथ तिवारी। प्रकाशक: '''किताब महल''', पुर्नमुद्रण: 2017, पृष्ठ: 275, 279 6ks8gjbsussd2j1yvh5t7mbs2683q8u 78892 78889 2022-08-21T10:33:48Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/अर्थ-परिवर्तन के कारण और दिशाएँ]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/अर्थ-परिवर्तन के कारण और दिशाएँ]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} == अर्थ-परिवर्तन == अर्थ में सदा परिवर्तन होता रहता है। ध्वनि या पद के परिवर्तन की प्रक्रिया के समान अर्थ भी स्थायी और अपरिवर्तनीय वस्तु नहीं है। उसमें भी परिवर्तन होता रहता है। उदाहरण के लिए संस्कृत का शब्द आकाशवानी लें। संस्कृत में इसका अर्थ 'देववाणी' है। तुलसी के समय भी यही अर्थ था। अतः रामचरितमानस में कहा गया है&mdash;"भै अकासबानी तेहि काला"। अब आकाशवाणी का अर्थ परिवर्तन होकर (हिन्दी में) ऑल इण्डिया रेडियो हो गया है। अतः अर्थ में परिवर्तन हो जाना ही अर्थ-परिवर्तन है। == अर्थ-परिवर्तन के कारण == अर्थतत्व एक प्रकार से मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। अतः अर्थ-परिवर्तन-संबंधी सारी प्रक्रियाओं को लक्षणा और व्यंजना का नाम दिया गया है। पाश्चात्य विद्वनों में टकर और मिशेल ब्रेल ने सर्वप्रथम अर्थ-तत्व पर विचार किया और आधुनिक युग में आग्डेन और रिचडर्स की देन है। टकर के आधार पर तारापुरवाला ने अर्थ-परिवर्तन के निम्नलिखित कारण बताये हैं: === लाक्षणिक प्रयोग === भाषा का प्रमुख उपयोग भाव या विचार का संप्रेषण है, किंतु मनुष्य सहज रूप से सौंदर्य-प्रियता, जैसे कलाओं का उपयोग कर रहा है, बोलते समय प्रत्येक वक्ता की इच्छा रहती है कि उसकी अभिव्यंजना सुंदर और प्रभावोत्पादक हो। मगर भाषा अभिव्यंजना का बहुत अशक्त और असमर्थ माध्यम है। समस्त अनुभूतियों को शब्दों में बाँध देना असंभव है। यों कहें कि भाषा की अभिव्यंजनात्मक त्रुटि को पूर्ण करने के लिए, अनेक साधन काम में लाये जाते है। लाक्षणिक प्रयोग भी उनमें से एक है। अतः उनमें शक्ति भरने के लिए अभिव्यंजना की नवीन भंगिमाएँ अपनानी पड़ती हैं जो नवीन शब्द-प्रयोग से ही संभव हो पाती है। उदाहरण: "नारियल की आँख", "घड़े का मुँह", "सरस कहानी", आदि। === परिवेश का परिवर्तन === ; भौगोलिक परिवर्तन : वेद में 'उष्ट्र' शब्द का प्रयोग 'भैंसे' के अर्थ में हुआ है, किंतु बाद में 'ऊँट' के लिए होने लगा। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आर्य जहाँ रहते थे वहाँ ऊँट नहीं थे,बाद में शीत भू-भाग से उष्ण-भाग की ओर आये और उन्हें एक नया जंतु मिला जिसका नाम ऊँट रखा जिसका प्रयोग भैंसे के लिए हुआ करता था। ; सामाजिक परिवर्तन : सामाज-भेद से एक ही शब्द के अर्थ में भेद आ जाता है और एक ही वस्तु के लिए भिन्न शब्दों का प्रयोग होने लगता है; जैसे अंग्रेजी में 'mother', 'father', 'brother', 'sister', आदि शब्दों का अर्थ का जो अर्थ परिवार है, वही रोमन कैथोलिक धार्मिक संगठन में नहीं। 'Sister' का अर्थ परिवार में 'बहन' लेकिन अस्पताल में 'नर्स'। 'भाई' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है&mdash;सहोदर, भ्राता, साला, बहनोई, आदि। ; भौतिक परिवर्तन : जैसे-जैसे भौतिक साधनों में परिवर्तन होता है, वैसे-वैसे वस्तुओं के नाम में जैसे पानी पीने का कोई बर्तन हमारे यहाँ रहा होगा पर आज उसका नाम कोई नहीं जानता आज 'गिलास' नाम प्रचलित है जो अंग्रेज़ी की देन है। ; विनम्रता-प्रदर्शन : विनम्रता सामाजिक शिष्टाचार का अभिन्न अंग है। भाषा से किसी व्यक्ति की शिक्षा, संस्कृति, आभिजात्य आदि पता लग जाता है। फ़ारसी तहज़ीब में तीन बातों पर ध्यान दिया जाता है: चलना, बोलना और बैठना। उदाहरण: "कैसे कृपा की?", "मैं निवेदन करना चाहता हूँ", आदि। अतः किसी की भाषा सुनकर ही यह जान लिया जा सकता कि वह किस तबके का व्यक्ति है। ; व्यंग्य : इस प्रसंग में व्यंग शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के 'आयरनी' का पर्याय है जिसका अर्थ आक्षेप करना। इसके लिए हमारे यहाँ 'विपरीत लक्षणा' शब्द का प्रयोग हुआ है। उदाहरण: 'ऊधौ, तुम अति चतुर सुजान' में गोपियों ने चतुर और सुजान शब्द विपरीत अर्थ में किया है, अर्थात तुम महा मुख और बुद्धिहीन हो जो हम-जैसी अबलाओं के सामने योग और निर्गुण ब्रह्म की चर्चा कर रहे हो। ; भावनात्मक बल : बौद्धिक उपयोग के साथ भाषा का भावात्मक उपयोग होता है। भावात्मक बल के कारण अनेक शब्दों के अर्थ में परिवर्तन हो जाता है। जैसे, बंगाल में एक मिठाई का नाम 'प्राणहरा' (प्राण लेने वाला) मिठाई का नाम 'प्राणहारा' उपयुक्त नहीं है लेकिन उनका लक्ष्य था मिठाई का अतिशय बताना। ; सामान्य के लिए विशेष प्रयोग : कभी-कभी पूरे वर्ग के लिए उसी वर्ग की एक वस्तु का प्रयोग किया जाता है। यह वस्तुतः अर्थ-विस्तार का ही एक रूप है। जैसे: 'सब्जी' शब्द का प्रयोग केवल (हरी) तरकारियों के लिए होना चाहिए, किंतु उससे सभी तरकारियों बोध हो जाता है; आलू, टमाटर, कद्दू आदि। ; अज्ञानता : असुर पहले देववाचक था, किंतु बाद में 'अ' निषेध (नय्) का अंश मान लिया गया और 'सुर' शब्द का प्रयोग देव के लिए होने लगा। फिर 'सुर' में 'अ' लगाकर 'असुर' से दानव का बोध कराया जाने लगा। क्रोध के लिए 'रंज' शब्द का प्रयोग अज्ञान का ही परिणाम है। ; एक शब्द के विभिन्न अर्थों में प्रयोग : ऐसा बहुत बार देखा जाता है कि किसी शब्द के तत्सम् और तद्भव रूपों में अर्थ भेद हो जाता है, जैसे: खाध &rarr; खाद, भद्र &rarr; भद्दा, श्रेष्ठ &rarr; सेठ आदि। अतः उपयुक्त चर्चा से स्पष्ट होता है कि अर्थ -परिवर्तन का कोई एक सुनिश्चित कारण नहीं आंतरिक, बाह्म, मानसिक, भौतिक आदि अनेक कारण है। == अर्थ-परिवर्तन की दिशाएँ == अर्थ परिवर्तन किन-किन दिशाओं में होता हैं, अथवा 'उसके' कितने प्रकार होते हैं, इस विषय पर सबसे पहले फ्रांसीसी भाषा-विज्ञानवेता 'ब्रील' ने विचार किया था। उन्होंने तीन दिशाओं की खोज की: अर्थ-विस्तार, अर्थ-संकोच,अर्थादेश। अभी तक ये मान्य है&mdash; ; अर्थ-विस्तार : कोई शब्द पहले सीमित अर्थ में प्रयुक्त होता है और बाद में उसका अर्थ व्यापक हो जाता है; इसे ही अर्थ-विस्तार कहते हैं। जैसे- 'प्रवीण' शब्द का अर्थ आरंभ में था&mdash; अच्छी तरह वीणा बजाने वाला। किन्तु बाद में चलकर वह किसी भी काम में निपुणता का वाचक हो गया; जैसे&mdash; 'वह झाडू देने में प्रवीण है' या 'भोजन बनाने में प्रवीण है, आदि। ; अर्थ-संकोच : जिस प्रकार अर्थ का विस्तार संभव है, उसी प्रकार संकोच भी। प्रायः ऐसा देखा गया है कि कोई शब्द पहले विस्तृत अर्थ का वाचक था लेकिन बाद में सीमित अर्थ का वाचक हो गया है। उदाहरणार्थ-- गं धातु से 'गौ' शब्द निष्पन्न हुआ जिसका आरंभिक अर्थ 'चलाने वाला', परन्तु आज प्रत्येक चलने वाले जंतु को 'गौ' नहीं कहते; यह शब्द पशु-विशेष के लिए रूढ़ हो गया है। इसी तरह 'जगत' शब्द का अर्थ 'खूब चलने वाला' पर मोटर, रेल, हवाई जहाज को जगत नहीं कहते, यह संसार का वाचक हो गया है। अर्थ-संकोच निम्नलिखित कारणों से होता है&mdash; * '''समास''': नीलांबर, पीतांबर आदि शब्द बहुव्रीहि समास के कारण ही संकुचित अर्थ के वाचक हैं। जैसे, "पीला वस्त्र धारण करने वाला" से हिन्दू देवता बलराम या कृष्ण का बोध होता है। * '''उपसर्ग''': उपसर्ग शब्दों के अर्थ को संकुचित कर देता है। जैसे, 'हार' शब्द विभिन्न अर्थों में होता है, जैसे - प्रहार, संहार, विहार, उपहार आदि। * '''विशेषण''': अर्थ-संकोच का एक बहुत बड़ा साधन विशेषण है। गुलाब शब्द से किसी भी रंग के गुलाब का बोध हो सकता है, मगर लाल गुलाब कह देने पर उजले, पीले, गुलाबी, हरी आदि का व्यवच्छेद हो जाता है। * '''पारिभाषिकता''': शब्दों का परिभाषिक रूप में प्रयोग हमेशा उनके अर्थ को संकुचित कर देता है। उदाहरण: 'रस' शब्द का अनेक अर्थ हैं, किंतु काव्यशास्त्र में उसका प्रयोग विभावादी के संयोग से उत्पन्न आनंदानुभूति के लिए होता है। * '''प्रत्यय''': प्रत्यय योग से भी अर्थ-संकोच होता है। एक ही धातु से निष्पन्न होने पर भी विभिन्न प्रत्ययों के कारण विभिन्न अर्थों के वाचक बन जाते हैं, जैसे, 'मन्' धातु से मति, मत, मनन, मान, आदि। ; अर्थादेश : आदेश का अर्थ है परिवर्तन। अर्थादेश में अर्थ का विस्तार या संकोच नहीं होता, वह बिल्कुल बदल जाता है, जैसे&mdash; वेद में 'असुर' शब्द देवता का वाचक था परन्तु बाद में दैत्य का वाचक बन गया।'आकाशवाणी' का अर्थ पहले देववाणी था; अब उसका प्रयोग अखिल भारतीय रेडियो के लिए हो रहा है। अतः अर्थादेश में दो बाते सामने आती हैं&mdash; 1. अर्थोत्कर्ष 2. अर्थापकर्ष। ; अर्थोत्कर्ष : कुछ शब्दों का अर्थ पहले बुरा रहता है। और बाद में अच्छा हो जाना अर्थोत्कर्ष है; जैसे, 'साहस' संस्कृत में अच्छा शब्द नहीं था। "लूट", "हत्या", "चोरी" से लेकिन अब 'साहस' का अर्थ हिंमत होता है। ; अर्थापकर्ष : कुछ शब्द पहले अच्छा रहता है और बाद में बुरा हो जाता है; जैसे, पाखंड संन्यासियों के एक संप्रदाय का नाम था अशोक इनका बड़ा आदर करता, दान देता था। लेकिन आज 'पाखंड' ढो़ंग का वाचक है। अतः अर्थ-परिवर्तन में उत्कर्ष की अपेक्षा अपकर्ष की प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है। == सन्दर्भ == # भाषाविज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्र नाथ शर्मा। दीप्ति शर्मा। पृष्ठ: 273-286 # भाषा विज्ञान &mdash; डॉ. भोलानाथ तिवारी। प्रकाशक: '''किताब महल''', पुर्नमुद्रण: 2017, पृष्ठ: 275, 279 6ks8gjbsussd2j1yvh5t7mbs2683q8u भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/ध्वनिविज्ञान और औच्चारणिक ध्वनि का विवेचन 0 5841 78847 75269 2022-08-20T16:31:41Z Saurmandal 13452 wikitext text/x-wiki {{BookCat}} भाषा का आरंभ ध्वनि से होता है। ध्वनि के अभाव में भाषा की कल्पना नहीं की जा सकती। ध्व-संस्कृत में ध्वनिविज्ञान का पुराना नाम 'शिक्षाशास्त्र' था। हिंदी में इस प्रसंग में 'फ़ोनेटिक्स' के लिए ध्वनिविज्ञान, ध्वनिशास्त्र, स्वनविज्ञान आदि तथा 'फ़ोनॉलॉजी' के लिए ध्वनि-प्रक्रिया, स्वन-प्रक्रिया, या स्वर्निमविज्ञान, आदि नाम प्रयुक्त हो रहे हैं। ध्वनि अध्ययन के तीन आधार है: (क) औच्चारणिक ध्वनि-विज्ञान, (ख) सांवहनिक ध्वनि-विज्ञान, (ग) श्रावणि ध्वनि-विज्ञान। इनमें उच्चारण और ग्रहण का सम्बन्ध शरीर से है और संवहन का वायु-तंरगों से। समय के मुख से निः सृत ध्वनि श्रोता के कान तक पहुँचती है। ध्वनि के उत्पादन के लिए वक्ता जितना आवश्यक है, उतना ही उसके ग्रहण के लिए श्रोता आवश्यक है, मगर वक्ता और श्रोता के बीच यदि ध्वनि के संवहन का कोई माध्यम न हो तो उत्पन्न ध्वनि भी निरर्थक हो जाएगी। यह कार्य वायु-तंरगों के द्वारा सिद्ध होता है। वागिंद्रियों की स्थिति और कार्य को ठीक से समझने के लिए शारीरिक रचना एवं क्रिया का थोड़ा-बहुत ज्ञान आवश्यक है। शरीर-विज्ञान की दृष्टि से मानव-शरीर निम्नलिखित तंत्रों में विभाजित किया जाता है: 1. अस्थि-तंत्र, 2. पेशी-तंत्र, 3. श्वसन-तंत्र, 4. पाचन-तंत्र, 5. परिसंचरण-तंत्र, 6. उत्सर्जन-तंत्र, 7. तंत्रिका-तंत्र, 8. अन्त:स्त्रावी-तंत्र, और 9. जनन-तंत्र। जिसमें से दो ही श्वसन-तंत्र और पाचन-तंत्र से संबंधित है। == औच्चारणिक ध्वनिविज्ञान == [[चित्र:Places of articulation.svg|thumb|right|200px]] ध्वनियों के उच्चारण वाग्यंत्र से होता है जिसे उच्चारण अवयव भी कहते है। ये वाग्य-यंत्र है&mdash; # '''स्वरयंत्र''': ध्वनि की उत्पत्ति का आरंभिक अवयव स्वरयंत्र ही है। श्वास-नली उसके ऊपरी भाग में स्थित होती है। घोषध्वनि के उच्चारण में स्वर यंत्र में कंपन होता है। # '''गलबिल''': यह स्वरतंत्री और नासारंध्र के बीच का रिक्त स्थान है। इसे उपलिजिह्वा भी कहते हैं, यहीं से जिह्वा का आरंभ होता है। # '''जिह्वा''': जिह्वा वाक्यंत्र का प्रमुख भाग है। इसके चार भाग होते हैं- पश्च भाग, मध्य भाग, अग्रभाग, दाँत को स्पर्श करने वाला भाग। इनसे विभिन्न ध्वनि उत्पन्न करने में सहायता मिलती है। # '''अलिजिहव''': अलिजिह्व को कौवा भी कहते हैं। कोमल तालु से लटकता हुआ मांसपिण्ड है। यह अरबी तथा फ़्रांसीसी ध्वनियाँ उत्पन्न करने में सहायक होता है। # '''मुख-विवर''': अलिजिह्व या कौवा के एक ओर नासिका विवर होता है तथा दूसरी ओर मुख-विवर होता है। इसी मुख-विवर में ही कोमल तालु, कठोर तालु, मूर्धा, वतर्स, जिह्वा, दाँत आदि स्थित होते हैं, जो ध्वनि-उच्चारण में सहायक होते हैं। # '''कोमलतालु''': मुख विवर के ऊपर के पिछले भाग को कोमल तालु कहते हैं। # '''कठोरतालु''': मुखविवर के गोलकार अगले भाग को कठोर तालु कहते हैं। यह स्थिर और कठोर होने के कारण कठोर तालु कहा जाता है। तालव्य ध्वनियों की उत्पत्ति में सहायक होता है। # '''मूर्धा''': कठोर तालु और कोमल तालु की संधि वाला भाग मूर्धा कहलाता है, इससे ट-वर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण) ध्वनियों का उच्चारण होता है। # '''वतर्स''': दंतमूल के पास स्थित ऊपरी मसूढ़े होते हैं, उन्हें वतर्स कहा जाता है। ये जीभ की सहायता से 'र' 'न्ह' आदि ध्वनियाँ उत्पन्न करने में सहायक होते हैं। # '''दाँत''': दंतमूल से ही दाँतों की पंक्तियाँ (ऊपर तथा निचली) निकलती हैं। यह विभिन्न ध्वनियों के उच्चारण में सहायक होते हैं। जिह्वाग्र की सहायता से त-वर्ग के उच्चारण (त, थ, द, ध, न) में सहायता मिलती है। # '''ओष्ठ''': मुखविवर के बाहरी भाग पर दंतपंक्तियों के समीप दो ढक्कनदार भाग स्थित होते हैं, वे ओष्ठ कहलाते हैं। इनकी सहायता से ओष्ठ्य ध्वनियाँ (प, फ, ब, भ, म) उच्चारित होती हैं। # '''नासिकाविवर''': मुख और नासिका के बीच जो खाली स्थान होता है, वह नासिका विवर कहलाता है। अनुनासिक ध्वनियों के उच्चारण में नासिका विवर सहायक होता है। अतः शरीरविज्ञान की दृष्टि से दो ही तंत्र आते हैं &mdash; 1. श्वसन-तंत्र, और 2. पाचन-तंत्र। वस्तुतः श्वसन-तंत्र और पाचन तंत्र बाहर और भीतर के छोरों पर एक-दूसरे से अलग हैं और बीच में (कंठ के पास) मिले हुए है। नासिका से भीतर गया भोजन कुछ दूर तक एक ही मार्ग से जाते हैं, मगर गले से उतरने पर उनके मार्ग भिन्न हो जाते हैं&mdash; श्वास-वायु श्वास-नली की सहायता से फेफड़ों में पहुँच जाती है और भोजन भोजन-नली की सहायता से आमाशय में। यदि धोखे से भोजन श्वास-नली में पहुँच जाए तो तत्काल मृत्यु हो सकती है। इसलिए प्रकृति ने भोजन-नली के द्वार पर एक आवरण दे रखा है जो भोजन निगलते समय श्वास-नली के मुख को बंद कर देता है। इससे भोजन श्वास-नली में न जाकर सीधे आमाशय में चला जाता है। जब कभी भूल से कोई कण श्वास-नली के द्वार पर पहुँचता है तो तत्क्षण भीतर से वायु उसे बाहर फेंकने का प्रयास करती है जिसे लोग 'सरकना' कहते है। श्वसन-तंत्र के अवयव-फेफड़े, स्वर-तंत्र, नासिका-विवर है। और पाचन-तंत्र के अवयव- मुखविवर और ग्रसनिका है। ध्वनियों के उत्पादन के लिए किससे क्या सहायता मिलती है इनका स्थूल परिचय आवश्यक है। १. '''फेफडा़''':- मनुष्य में श्वास-नि:श्वास की क्रिया निरन्तर चलती रहती है। नींद में बहुत सारे व्यापार बंद हो जाती है, फिर भी यह व्यापार बंद नहीं होता। प्रश्वास से आक्सीजन के द्दारा रक्त-शोधन होता है। और नि:श्वास से कार्बन डाइ-आक्साइड दूषित तत्व शरीर से निकाला जाता है। अत: कुछ देर तक आक्सीजन न मिले तो मनुष्य का प्राणान्त हो जाए। इस प्रकार नि:श्वास वाली दूषित या निरर्थक वायु से ही ध्वनि की उत्पति होती है। कहने का अभिप्राय यह है कि ध्वनि या भाषा श्वसन-क्रिया की उपजात (बाइ-प्रोडक्ट) है। इस प्रकार ध्वनि का उत्पति में फेफडो़ं का प्रत्यक्ष उपयोग तो नहीं किन्तु वही स्थान हैं जहाँ से बाहर निकलने वाली वायु का उपयोग ध्वनि के उत्पादन के लिए। २. '''स्वर-यंत्र''':- श्वास-नली के उपरिभाग में स्वर-यंत्र का एक अवयव है। फेफडे से निकलती वायु स्वर-यंत्र से होकर ही बाहर जाती है। स्वर-यंत्र के बीच होठों के आकार की दो मांसल झिल्लिया हैं जिन्हें स्वर-तंत्री कहते है। ये झिल्लिया आमने-सामने पीछे से आगे तक फैली हुई हैं जो काफी़ लचीली होती है। स्वर-तंत्रियों के बीच के छिद्रों को कंठ-द्दार या काकल कहते हैं। स्वर-तंत्रियों की मुख्यत: तीन अवस्थाएँ होती हैं-- (क)स्वर-तंत्रियों की सामान्य अवस्था जिसमें वे पृथक्, शिथिल, नि:स्पंद पड़ी रहती है। इस अवस्था में श्वास-निश्वास की क्रिया अविरत चलती रहती है,क्योकि बीच का छिद्र कंठ-द्दार (काकल) खुला होता है जिससे वायु फेफडो में आती-जाती रहती है। इसी अवस्था में अघोष ध्वनियों का उच्चारण होता है। (ख) स्वर-तंत्रियों की दूसरी अवस्था वह है जिसमें वे परस्पर निकट आकर सट जाती हैं और नि:श्वास-वायु के निकलने के समय उन में कम्पन उत्पन्न होता है। इस अवस्था में जिन ध्वनियों का उच्चारण होता हैं, उन्हें घोष कहते है। (ग) स्वर-तंत्रियों की एक अवस्था यह भी है कि वह पास आ जाती हैं,पर सटती नहीं और इस तरह वायु के आने-जाने का मार्ग अत्यन्त संकीर्ण हो जाता है। यह दोनों की मध्यवर्ती अवस्था है-न बिल्कुल खुली,न बिल्कुल सटी। इसी अवस्था में फुसफुसाइट वाली ध्वनियाँ उत्पन्न होती है। ३. [[ग्रासनिका]] ग्रासनिका का दूसरा और प्राचीन नाम गलबिल है जिसकी स्थित कंठछिद्र के ऊपर और मुख के नीचे है। आईने में मुख खोलकर देखने से गले की पिछली दीवार दिखायी देती है; वह ग्रसनिका की ही दीवार है। ध्वनि के उच्चारण में पहले ग्रसनिका का कोई महत्त नहीं माना जाता था,किन्तु अब माने जाने लगा है। ग्रसनिका के विभिन्न आकार ग्रहण करने से स्वरों के उच्चारण में,विशेषकर उनके तान में,अन्तर पड़ता है। ४.[[ मुख]] ध्वनियों के उत्पादन में मुख का सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण योग है। केवल मुख न कहकर इसे मुखविवर कहना अधिक उपयुक्त है। मुखविवर में ऊपर गोलाकार छत है और नीचे जिह्मा। छत के तीन भाग किये जा सकता हैं- सबसे पीछे कोमल तालु है जिससे एक छोटा-सा मांसपिंड लटकता दीखता है। इस मांसपिंड को अलिजिह्मा या काकल कहते हैं। कोमल तालु के आगे कठोर तालु है जो सम्पूर्ण तालु का मध्य भाग है। फिर दंतकूट मिलता है जो ऊपर के दाँतों के पीछे का खुरदरा हिस्सा है। इसे ही मूर्धा भी कहते है। मुख छत के तीन भागों से आगे बढ़ने पर दंत-पंक्तियाँ मिलती हैं और उनसे आगे ओष्ठ। ध्वनियों के उच्चारण में यदि किसी इंद्रिय का सबसे अधिक उपयोग होता है तो जिह्व का। जिह्वा के चार भाग है- जिह्वापश्च, जिह्वापृष्ठ, जिह्वाग्र, जिहाणि। मुखविवर की अनेक आकृतियों तथा कोमल तालु, जिह्वा, ओष्ठ, आदि के संचालन से अनेक ध्वनियाँ उत्पन्न होती है। ५. [[ नासिका-विवर]] नासिका और मुख की छत के बीच जो रिक्त स्थान है, उसे ही नासिका-विवर कहते हैं। कोमल तालु और अलिजिहा को ऊपर-नीचे करके नासिका-विवर को पूर्णत: खोला या बंद किया जा सकता है। नासिका का उपयोग अनुनासिक वर्णों के उच्चारण में होता है। ===सांवहनिक अथवा प्रसारणिक ध्वनिविज्ञान (Acoustic phonetic=== भाषा-विज्ञान में इसके अन्तर्गत इस बात का अध्ययन किया जाता है कि कैसे ध्वनि लहरों द्वारा वक्ता के मुंह से श्रोता के कान तक ले जाई जाती है। ऐसा होता है कि फेफड़े से चली हवा ध्वनि-यंत्रों की सक्रियता के कारण आंदोलित होकर निकलती है और बाहर की वायु में अपने आंदोलन के अनुसार एक विशिष्ट प्रकार के कम्पन में लहरे पैदा कर देती है। ये लहरें ही सुनने वाले के कान तक पहुंचाती है और वहां श्रवणेंद्रिय में कम्पन्न पैदा कर देती है। सामान्यतः इन ध्वनि-लहरों की चाल ११००-१२०० फीट प्रति सेकेंड होती हैं। ज्यों-ज्यों ये लहरें आगे बढ़ती जाती हैं, इनकी तीव्रता घटती जाती है। इसी कारण दूर के व्यक्ति को धीमी सुनाई पड़ती है। कायमोग्राफ, लोरिगोस्कोप, आॅसिलोग्राफ, एंडोस्कोप आदि अनेक यंत्रों के सहारे भौतिकशास्त्र में इन लहरों का बहुत गम्भीर अध्ययन किया जाता हैं। ===श्रावणिक ध्वनिविज्ञान (Auditory phonetics)=== इसमें इस बात का अध्ययन होता हैं कि हम कैसें सुनते है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए कान की बनावट को देख लेना होगा। हमारा कान तीन भागों में बंटा हैं। जो बाह्य कर्ण, मध्यकर्ण और अभ्यंतर कर्ण। बाह्य कर्ण के दो भाग पहला जो ऊपर टेढ़ा-मेढ़ा दिखाई देता है। यह भाग सुनने की क्रिया में अपना कोई विशेष महत्व नहीं रखता। दूसरा भाग छिद्र या कर्ण-नलिका के बाहरी भाग से आरम्भ होकर भीतर तक जाता है। इस भाग की कर्ण-नलिका की लम्बाई लगभग एक इंच होती है। मध्यवर्ती कर्ण एक छोटी-सी कोठरी है जीसमें तीन छोटी-छोटी अस्थियां होती है। इन अस्थियों का एक सिरा बाह्य कर्ण की झिल्ली से जुड़ा रहता है और दूसरी ओर इसका सम्बन्ध आभ्यन्तर कर्ण से। इस भाग में शंख के आकार का एक अस्थि-समूह होता है। इसके खोखलें भाग में इसी आकार की झिल्लियां होती है। इन दोनों के बीच एक प्रकार का द्रव पदार्थ भरा रहता है। इस भाग के भीतरी सिरे की झिल्ली से श्रावणी शिरा के तन्तु आरम्भ होते है जो मस्तिष्क से सम्बन्ध रहते हैं। ध्वनि की लहरों जब कान में पहुंचती हैं तो बाह्य कर्ण के भीतरी झिल्ली पर कम्पन्न उत्पन्न करती हैं। इस कम्पन्न का प्रभाव मध्यवर्ती कर्ण की अस्थियों द्वारा भीतरी कर्ण के द्रव पदार्थ पर पड़ता है और उसमें लहरे उठती हैं जिसकी सूचना श्रावणी तन्तुओं द्वारा मस्तिष्क में जाती है और हम सुन लेते हैं। ===सन्दर्भ=== १.भाषाविज्ञान की भूमिका --- आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा। दीप्ति शर्मा। पृष्ठ--१८९-१९४ २.भाषा विज्ञान -- र्डॉ० भोलानाथ तिवारी। प्रकाशक--किताब महल,पुर्नमुद्रण--२०१७,पृष्ठ--३०९,३१०, ३१८ ३.भाषा-विज्ञान के सिध्दान्त --- डाँ० मीरा दीक्षित। पृष्ठ-- ५२ d2z72t3jtz46eqf5lip37vcd2kr8dzi 78853 78847 2022-08-21T08:32:21Z Saurmandal 13452 wikitext text/x-wiki {{BookCat}} भाषा का आरंभ ध्वनि से होता है। ध्वनि के अभाव में भाषा की कल्पना नहीं की जा सकती। ध्व-संस्कृत में ध्वनिविज्ञान का पुराना नाम 'शिक्षाशास्त्र' था। हिंदी में इस प्रसंग में 'फ़ोनेटिक्स' के लिए ध्वनिविज्ञान, ध्वनिशास्त्र, स्वनविज्ञान आदि तथा 'फ़ोनॉलॉजी' के लिए ध्वनि-प्रक्रिया, स्वन-प्रक्रिया, या स्वर्निमविज्ञान, आदि नाम प्रयुक्त हो रहे हैं। ध्वनि अध्ययन के तीन आधार है: (क) औच्चारणिक ध्वनि-विज्ञान, (ख) सांवहनिक ध्वनि-विज्ञान, (ग) श्रावणि ध्वनि-विज्ञान। इनमें उच्चारण और ग्रहण का सम्बन्ध शरीर से है और संवहन का वायु-तंरगों से। समय के मुख से निः सृत ध्वनि श्रोता के कान तक पहुँचती है। ध्वनि के उत्पादन के लिए वक्ता जितना आवश्यक है, उतना ही उसके ग्रहण के लिए श्रोता आवश्यक है, मगर वक्ता और श्रोता के बीच यदि ध्वनि के संवहन का कोई माध्यम न हो तो उत्पन्न ध्वनि भी निरर्थक हो जाएगी। यह कार्य वायु-तंरगों के द्वारा सिद्ध होता है। वागिंद्रियों की स्थिति और कार्य को ठीक से समझने के लिए शारीरिक रचना एवं क्रिया का थोड़ा-बहुत ज्ञान आवश्यक है। शरीर-विज्ञान की दृष्टि से मानव-शरीर निम्नलिखित तंत्रों में विभाजित किया जाता है: 1. अस्थि-तंत्र, 2. पेशी-तंत्र, 3. श्वसन-तंत्र, 4. पाचन-तंत्र, 5. परिसंचरण-तंत्र, 6. उत्सर्जन-तंत्र, 7. तंत्रिका-तंत्र, 8. अंतःस्त्रावी-तंत्र, और 9. जनन-तंत्र। जिसमें से दो ही श्वसन-तंत्र और पाचन-तंत्र से संबंधित है। == औच्चारणिक ध्वनिविज्ञान == [[चित्र:Places of articulation.svg|thumb|right|200px]] ध्वनियों के उच्चारण वाग्यंत्र से होता है जिसे उच्चारण अवयव भी कहते है। ये वाग्य-यंत्र है&mdash; # '''स्वरयंत्र''': ध्वनि की उत्पत्ति का आरंभिक अवयव स्वरयंत्र ही है। श्वास-नली उसके ऊपरी भाग में स्थित होती है। घोषध्वनि के उच्चारण में स्वर यंत्र में कंपन होता है। # '''गलबिल''': यह स्वरतंत्री और नासारंध्र के बीच का रिक्त स्थान है। इसे उपलिजिह्वा भी कहते हैं, यहीं से जिह्वा का आरंभ होता है। # '''जिह्वा''': जिह्वा वाक्यंत्र का प्रमुख भाग है। इसके चार भाग होते हैं- पश्च भाग, मध्य भाग, अग्रभाग, दाँत को स्पर्श करने वाला भाग। इनसे विभिन्न ध्वनि उत्पन्न करने में सहायता मिलती है। # '''अलिजिहव''': अलिजिह्व को कौवा भी कहते हैं। कोमल तालु से लटकता हुआ मांसपिण्ड है। यह अरबी तथा फ़्रांसीसी ध्वनियाँ उत्पन्न करने में सहायक होता है। # '''मुख-विवर''': अलिजिह्व या कौवा के एक ओर नासिका विवर होता है तथा दूसरी ओर मुख-विवर होता है। इसी मुख-विवर में ही कोमल तालु, कठोर तालु, मूर्धा, वतर्स, जिह्वा, दाँत आदि स्थित होते हैं, जो ध्वनि-उच्चारण में सहायक होते हैं। # '''कोमलतालु''': मुख विवर के ऊपर के पिछले भाग को कोमल तालु कहते हैं। # '''कठोरतालु''': मुखविवर के गोलकार अगले भाग को कठोर तालु कहते हैं। यह स्थिर और कठोर होने के कारण कठोर तालु कहा जाता है। तालव्य ध्वनियों की उत्पत्ति में सहायक होता है। # '''मूर्धा''': कठोर तालु और कोमल तालु की संधि वाला भाग मूर्धा कहलाता है, इससे ट-वर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण) ध्वनियों का उच्चारण होता है। # '''वतर्स''': दंतमूल के पास स्थित ऊपरी मसूढ़े होते हैं, उन्हें वतर्स कहा जाता है। ये जीभ की सहायता से 'र' 'न्ह' आदि ध्वनियाँ उत्पन्न करने में सहायक होते हैं। # '''दाँत''': दंतमूल से ही दाँतों की पंक्तियाँ (ऊपर तथा निचली) निकलती हैं। यह विभिन्न ध्वनियों के उच्चारण में सहायक होते हैं। जिह्वाग्र की सहायता से त-वर्ग के उच्चारण (त, थ, द, ध, न) में सहायता मिलती है। # '''ओष्ठ''': मुखविवर के बाहरी भाग पर दंतपंक्तियों के समीप दो ढक्कनदार भाग स्थित होते हैं, वे ओष्ठ कहलाते हैं। इनकी सहायता से ओष्ठ्य ध्वनियाँ (प, फ, ब, भ, म) उच्चारित होती हैं। # '''नासिकाविवर''': मुख और नासिका के बीच जो खाली स्थान होता है, वह नासिका विवर कहलाता है। अनुनासिक ध्वनियों के उच्चारण में नासिका विवर सहायक होता है। अतः शरीरविज्ञान की दृष्टि से दो ही तंत्र आते हैं &mdash; 1. श्वसन-तंत्र, और 2. पाचन-तंत्र। वस्तुतः श्वसन-तंत्र और पाचन तंत्र बाहर और भीतर के छोरों पर एक-दूसरे से अलग हैं और बीच में (कंठ के पास) मिले हुए है। नासिका से भीतर गया भोजन कुछ दूर तक एक ही मार्ग से जाते हैं, मगर गले से उतरने पर उनके मार्ग भिन्न हो जाते हैं&mdash; श्वास-वायु श्वास-नली की सहायता से फेफड़ों में पहुँच जाती है और भोजन भोजन-नली की सहायता से आमाशय में। यदि धोखे से भोजन श्वास-नली में पहुँच जाए तो तत्काल मृत्यु हो सकती है। इसलिए प्रकृति ने भोजन-नली के द्वार पर एक आवरण दे रखा है जो भोजन निगलते समय श्वास-नली के मुख को बंद कर देता है। इससे भोजन श्वास-नली में न जाकर सीधे आमाशय में चला जाता है। जब कभी भूल से कोई कण श्वास-नली के द्वार पर पहुँचता है तो तत्क्षण भीतर से वायु उसे बाहर फेंकने का प्रयास करती है जिसे लोग 'सरकना' कहते है। श्वसन-तंत्र के अवयव-फेफड़े, स्वर-तंत्र, नासिका-विवर है। और पाचन-तंत्र के अवयव- मुखविवर और ग्रसनिका है। ध्वनियों के उत्पादन के लिए किससे क्या सहायता मिलती है इनका स्थूल परिचय आवश्यक है। == फेफड़ा == मनुष्य में श्वास-निःश्वास की क्रिया निरन्तर चलती रहती है। नींद में बहुत सारे व्यापार बंद हो जाती है, फिर भी यह व्यापार बंद नहीं होता। प्रश्वास से आक्सीजन के द्वारा रक्त-शोधन होता है। और निःश्वास से कार्बन डायॉक्साइड दूषित तत्व शरीर से निकाला जाता है। अतः कुछ देर तक आक्सीजन न मिले तो मनुष्य का प्राणांत हो जाए। इस प्रकार निःश्वास वाली दूषित या निरर्थक वायु से ही ध्वनि की उत्पत्ति होती है। कहने का अभिप्राय यह है कि ध्वनि या भाषा श्वसन-क्रिया की उपजात (बाय-प्रोडक्ट) है। इस प्रकार ध्वनि का उत्पत्ति में फेफड़ों का प्रत्यक्ष उपयोग तो नहीं किन्तु वही स्थान हैं जहाँ से बाहर निकलने वाली वायु का उपयोग ध्वनि के उत्पादन के लिए। == स्वर-यंत्र == श्वास-नली के ऊपरी भाग में स्वर-यंत्र का एक अवयव है। फेफड़े से निकलती वायु स्वर-यंत्र से होकर ही बाहर जाती है। स्वर-यंत्र के बीच होंठों के आकार की दो मांसल झिल्लियाँ हैं जिन्हें स्वर-तंत्री कहते हैं। ये झिल्लियाँ आमने-सामने पीछे से आगे तक फैली हुई हैं जो काफ़ी लचीली होती है। स्वर-तंत्रियों के बीच के छिद्रों को कंठ-द्दार या काकुल कहते हैं। स्वर-तंत्रियों की मुख्यतः तीन अवस्थाएँ होती हैं&mdash; # स्वर-तंत्रियों की सामान्य अवस्था जिसमें वे पृथक, शिथिल, निःस्पंद पड़ी रहती है। इस अवस्था में श्वास-निश्वास की क्रिया अविरत चलती रहती है, क्योंकि बीच का छिद्र कंठ-द्दार (काकुल) खुला होता है जिससे वायु फेफड़ों में आती-जाती रहती है। इसी अवस्था में अघोष ध्वनियों का उच्चारण होता है। # स्वर-तंत्रियों की दूसरी अवस्था वह है जिसमें वे परस्पर निकट आकर सट जाती हैं और निःश्वास-वायु के निकलने के समय उन में कंपन उत्पन्न होता है। इस अवस्था में जिन ध्वनियों का उच्चारण होता हैं, उन्हें घोष कहते है। # स्वर-तंत्रियों की एक अवस्था यह भी है कि वह पास आ जाती हैं, पर सटती नहीं और इस तरह वायु के आने-जाने का मार्ग अत्यन्त संकीर्ण हो जाता है। यह दोनों की मध्यवर्ती अवस्था है-न बिल्कुल खुली,न बिल्कुल सटी। इसी अवस्था में फ़ुसफ़ुसाहट वाली ध्वनियाँ उत्पन्न होती है। == ग्रासनिका == ग्रासनिका का दूसरा और प्राचीन नाम गलबिल है जिसकी स्थित कंठछिद्र के ऊपर और मुख के नीचे है। आईने में मुख खोलकर देखने से गले की पिछली दीवार दिखायी देती है; वह ग्रसनिका की ही दीवार है। ध्वनि के उच्चारण में पहले ग्रसनिका का कोई महत्व नहीं माना जाता था, मगर अब माने जाने लगा है। ग्रसनिका के विभिन्न आकार ग्रहण करने से स्वरों के उच्चारण में, विशेषकर उनके तान में, अंतर पड़ता है। == मुख == ध्वनियों के उत्पादन में मुख का सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण योग है। केवल मुख न कहकर इसे मुखविवर कहना अधिक उपयुक्त है। मुखविवर में ऊपर गोलाकार छत है और नीचे जिह्वा। छत के तीन भाग किए जा सकता हैं- सबसे पीछे कोमल तालु है जिससे एक छोटा-सा मांसपिंड लटकता दिखता है। इस मांसपिण्ड को अलिजिह्वा या काकुल कहते हैं। कोमल तालु के आगे कठोर तालु है जो सम्पूर्ण तालु का मध्य भाग है। फिर दंतकूट मिलता है जो ऊपर के दाँतों के पीछे का खुरदरा हिस्सा है। इसे ही मूर्धा भी कहते है। मुख छत के तीन भागों से आगे बढ़ने पर दंत-पंक्तियाँ मिलती हैं और उनसे आगे ओष्ठ। ध्वनियों के उच्चारण में यदि किसी इंद्रिय का सबसे अधिक उपयोग होता है तो जिह्वा का। जिह्वा के चार भाग है- जिह्वापश्च, जिह्वापृष्ठ, जिह्वाग्र, जिहाणि। मुखविवर की अनेक आकृतियों तथा कोमल तालु, जिह्वा, ओष्ठ, आदि के संचालन से अनेक ध्वनियाँ उत्पन्न होती है। == नासिका-विवर == नासिका और मुख की छत के बीच जो रिक्त स्थान है, उसे ही नासिका-विवर कहते हैं। कोमल तालु और अलिजिह्वा को ऊपर-नीचे करके नासिका-विवर को पूर्णतः खोला या बंद किया जा सकता है। नासिका का उपयोग अनुनासिक वर्णों के उच्चारण में होता है। == सांवहनिक अथवा प्रसारणिक ध्वनिविज्ञान == भाषा-विज्ञान में इसके अंतर्गत इस बात का अध्ययन किया जाता है कि कैसे ध्वनि लहरों द्वारा वक्ता के मुंह से श्रोता के कान तक ले जाई जाती है। ऐसा होता है कि फेफड़े से चली हवा ध्वनि-यंत्रों की सक्रियता के कारण आंदोलित होकर निकलती है और बाहर की वायु में अपने आंदोलन के अनुसार एक विशिष्ट प्रकार के कम्पन में लहरे पैदा कर देती है। ये लहरें ही सुनने वाले के कान तक पहुंचाती है और वहां श्रवणेंद्रिय में कंपन पैदा कर देती है। सामान्यतः इन ध्वनि-लहरों की चाल 1100-1200 फ़ुट प्रति सेकंड होती हैं। ज्यों-ज्यों ये लहरें आगे बढ़ती जाती हैं, इनकी तीव्रता घटती जाती है। इसी कारण दूर के व्यक्ति को धीमी सुनाई पड़ती है। कायमोग्राफ़, लोरिगोस्कोप, ऑसिलोग्राफ़, एंडोस्कोप, आदि अनेक यंत्रों के सहारे भौतिकशास्त्र में इन लहरों का बहुत गम्भीर अध्ययन किया जाता हैं। == श्रावणिक ध्वनिविज्ञान == इसमें इस बात का अध्ययन होता हैं कि हम कैसे सुनते है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए कान की बनावट को देख लेना होगा। हमारा कान तीन भागों में बंटा हैं। जो बाह्य कर्ण, मध्यकर्ण और अभ्यंतर कर्ण। बाह्य कर्ण के दो भाग पहला जो ऊपर टेढ़ा-मेढ़ा दिखाई देता है। यह भाग सुनने की क्रिया में अपना कोई विशेष महत्व नहीं रखता। दूसरा भाग छिद्र या कर्ण-नलिका के बाहरी भाग से आरम्भ होकर भीतर तक जाता है। इस भाग की कर्ण-नलिका की लंबाई लगभग एक इंच होती है। मध्यवर्ती कर्ण एक छोटी-सी कोठरी है जिसमें तीन छोटी-छोटी अस्थियां होती है। इन अस्थियों का एक सिरा बाह्य कर्ण की झिल्ली से जुड़ा रहता है और दूसरी ओर इसका सम्बन्ध आभ्यंतर कर्ण से। इस भाग में शंख के आकार का एक अस्थि-समूह होता है। इसके खोखले भाग में इसी आकार की झिल्लियां होती है। इन दोनों के बीच एक प्रकार का द्रव पदार्थ भरा रहता है। इस भाग के भीतरी सिरे की झिल्ली से श्रावणी शिरा के तंतु आरम्भ होते है जो मस्तिष्क से सम्बन्ध रहते हैं। ध्वनि की लहरों जब कान में पहुंचती हैं तो बाह्य कर्ण के भीतरी झिल्ली पर कंपन उत्पन्न करती हैं। इस कंपन का प्रभाव मध्यवर्ती कर्ण की अस्थियों द्वारा भीतरी कर्ण के द्रव पदार्थ पर पड़ता है और उसमें लहरे उठती हैं जिसकी सूचना श्रावणी तंतुओं द्वारा मस्तिष्क में जाती है और हम सुन लेते हैं। == सन्दर्भ == # भाषाविज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा। दीप्ति शर्मा। पृष्ठ: 189-194 # भाषा विज्ञान &mdash; डॉ. भोलानाथ तिवारी। प्रकाशक: '''किताब महल''', पुर्नमुद्रण: 2017, पृष्ठ: 309, 310, 318 # भाषा-विज्ञान के सिद्धांत &mdash; डॉ. मीरा दीक्षित। पृष्ठ: 52 cw9ie22z0ewqjj9iegzfxsl6kqwb6qe 78894 78853 2022-08-21T10:34:43Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/ध्वनिविज्ञान और औच्चारणिक ध्वनि का विवेचन]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/ध्वनिविज्ञान और औच्चारणिक ध्वनि का विवेचन]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} भाषा का आरंभ ध्वनि से होता है। ध्वनि के अभाव में भाषा की कल्पना नहीं की जा सकती। ध्व-संस्कृत में ध्वनिविज्ञान का पुराना नाम 'शिक्षाशास्त्र' था। हिंदी में इस प्रसंग में 'फ़ोनेटिक्स' के लिए ध्वनिविज्ञान, ध्वनिशास्त्र, स्वनविज्ञान आदि तथा 'फ़ोनॉलॉजी' के लिए ध्वनि-प्रक्रिया, स्वन-प्रक्रिया, या स्वर्निमविज्ञान, आदि नाम प्रयुक्त हो रहे हैं। ध्वनि अध्ययन के तीन आधार है: (क) औच्चारणिक ध्वनि-विज्ञान, (ख) सांवहनिक ध्वनि-विज्ञान, (ग) श्रावणि ध्वनि-विज्ञान। इनमें उच्चारण और ग्रहण का सम्बन्ध शरीर से है और संवहन का वायु-तंरगों से। समय के मुख से निः सृत ध्वनि श्रोता के कान तक पहुँचती है। ध्वनि के उत्पादन के लिए वक्ता जितना आवश्यक है, उतना ही उसके ग्रहण के लिए श्रोता आवश्यक है, मगर वक्ता और श्रोता के बीच यदि ध्वनि के संवहन का कोई माध्यम न हो तो उत्पन्न ध्वनि भी निरर्थक हो जाएगी। यह कार्य वायु-तंरगों के द्वारा सिद्ध होता है। वागिंद्रियों की स्थिति और कार्य को ठीक से समझने के लिए शारीरिक रचना एवं क्रिया का थोड़ा-बहुत ज्ञान आवश्यक है। शरीर-विज्ञान की दृष्टि से मानव-शरीर निम्नलिखित तंत्रों में विभाजित किया जाता है: 1. अस्थि-तंत्र, 2. पेशी-तंत्र, 3. श्वसन-तंत्र, 4. पाचन-तंत्र, 5. परिसंचरण-तंत्र, 6. उत्सर्जन-तंत्र, 7. तंत्रिका-तंत्र, 8. अंतःस्त्रावी-तंत्र, और 9. जनन-तंत्र। जिसमें से दो ही श्वसन-तंत्र और पाचन-तंत्र से संबंधित है। == औच्चारणिक ध्वनिविज्ञान == [[चित्र:Places of articulation.svg|thumb|right|200px]] ध्वनियों के उच्चारण वाग्यंत्र से होता है जिसे उच्चारण अवयव भी कहते है। ये वाग्य-यंत्र है&mdash; # '''स्वरयंत्र''': ध्वनि की उत्पत्ति का आरंभिक अवयव स्वरयंत्र ही है। श्वास-नली उसके ऊपरी भाग में स्थित होती है। घोषध्वनि के उच्चारण में स्वर यंत्र में कंपन होता है। # '''गलबिल''': यह स्वरतंत्री और नासारंध्र के बीच का रिक्त स्थान है। इसे उपलिजिह्वा भी कहते हैं, यहीं से जिह्वा का आरंभ होता है। # '''जिह्वा''': जिह्वा वाक्यंत्र का प्रमुख भाग है। इसके चार भाग होते हैं- पश्च भाग, मध्य भाग, अग्रभाग, दाँत को स्पर्श करने वाला भाग। इनसे विभिन्न ध्वनि उत्पन्न करने में सहायता मिलती है। # '''अलिजिहव''': अलिजिह्व को कौवा भी कहते हैं। कोमल तालु से लटकता हुआ मांसपिण्ड है। यह अरबी तथा फ़्रांसीसी ध्वनियाँ उत्पन्न करने में सहायक होता है। # '''मुख-विवर''': अलिजिह्व या कौवा के एक ओर नासिका विवर होता है तथा दूसरी ओर मुख-विवर होता है। इसी मुख-विवर में ही कोमल तालु, कठोर तालु, मूर्धा, वतर्स, जिह्वा, दाँत आदि स्थित होते हैं, जो ध्वनि-उच्चारण में सहायक होते हैं। # '''कोमलतालु''': मुख विवर के ऊपर के पिछले भाग को कोमल तालु कहते हैं। # '''कठोरतालु''': मुखविवर के गोलकार अगले भाग को कठोर तालु कहते हैं। यह स्थिर और कठोर होने के कारण कठोर तालु कहा जाता है। तालव्य ध्वनियों की उत्पत्ति में सहायक होता है। # '''मूर्धा''': कठोर तालु और कोमल तालु की संधि वाला भाग मूर्धा कहलाता है, इससे ट-वर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण) ध्वनियों का उच्चारण होता है। # '''वतर्स''': दंतमूल के पास स्थित ऊपरी मसूढ़े होते हैं, उन्हें वतर्स कहा जाता है। ये जीभ की सहायता से 'र' 'न्ह' आदि ध्वनियाँ उत्पन्न करने में सहायक होते हैं। # '''दाँत''': दंतमूल से ही दाँतों की पंक्तियाँ (ऊपर तथा निचली) निकलती हैं। यह विभिन्न ध्वनियों के उच्चारण में सहायक होते हैं। जिह्वाग्र की सहायता से त-वर्ग के उच्चारण (त, थ, द, ध, न) में सहायता मिलती है। # '''ओष्ठ''': मुखविवर के बाहरी भाग पर दंतपंक्तियों के समीप दो ढक्कनदार भाग स्थित होते हैं, वे ओष्ठ कहलाते हैं। इनकी सहायता से ओष्ठ्य ध्वनियाँ (प, फ, ब, भ, म) उच्चारित होती हैं। # '''नासिकाविवर''': मुख और नासिका के बीच जो खाली स्थान होता है, वह नासिका विवर कहलाता है। अनुनासिक ध्वनियों के उच्चारण में नासिका विवर सहायक होता है। अतः शरीरविज्ञान की दृष्टि से दो ही तंत्र आते हैं &mdash; 1. श्वसन-तंत्र, और 2. पाचन-तंत्र। वस्तुतः श्वसन-तंत्र और पाचन तंत्र बाहर और भीतर के छोरों पर एक-दूसरे से अलग हैं और बीच में (कंठ के पास) मिले हुए है। नासिका से भीतर गया भोजन कुछ दूर तक एक ही मार्ग से जाते हैं, मगर गले से उतरने पर उनके मार्ग भिन्न हो जाते हैं&mdash; श्वास-वायु श्वास-नली की सहायता से फेफड़ों में पहुँच जाती है और भोजन भोजन-नली की सहायता से आमाशय में। यदि धोखे से भोजन श्वास-नली में पहुँच जाए तो तत्काल मृत्यु हो सकती है। इसलिए प्रकृति ने भोजन-नली के द्वार पर एक आवरण दे रखा है जो भोजन निगलते समय श्वास-नली के मुख को बंद कर देता है। इससे भोजन श्वास-नली में न जाकर सीधे आमाशय में चला जाता है। जब कभी भूल से कोई कण श्वास-नली के द्वार पर पहुँचता है तो तत्क्षण भीतर से वायु उसे बाहर फेंकने का प्रयास करती है जिसे लोग 'सरकना' कहते है। श्वसन-तंत्र के अवयव-फेफड़े, स्वर-तंत्र, नासिका-विवर है। और पाचन-तंत्र के अवयव- मुखविवर और ग्रसनिका है। ध्वनियों के उत्पादन के लिए किससे क्या सहायता मिलती है इनका स्थूल परिचय आवश्यक है। == फेफड़ा == मनुष्य में श्वास-निःश्वास की क्रिया निरन्तर चलती रहती है। नींद में बहुत सारे व्यापार बंद हो जाती है, फिर भी यह व्यापार बंद नहीं होता। प्रश्वास से आक्सीजन के द्वारा रक्त-शोधन होता है। और निःश्वास से कार्बन डायॉक्साइड दूषित तत्व शरीर से निकाला जाता है। अतः कुछ देर तक आक्सीजन न मिले तो मनुष्य का प्राणांत हो जाए। इस प्रकार निःश्वास वाली दूषित या निरर्थक वायु से ही ध्वनि की उत्पत्ति होती है। कहने का अभिप्राय यह है कि ध्वनि या भाषा श्वसन-क्रिया की उपजात (बाय-प्रोडक्ट) है। इस प्रकार ध्वनि का उत्पत्ति में फेफड़ों का प्रत्यक्ष उपयोग तो नहीं किन्तु वही स्थान हैं जहाँ से बाहर निकलने वाली वायु का उपयोग ध्वनि के उत्पादन के लिए। == स्वर-यंत्र == श्वास-नली के ऊपरी भाग में स्वर-यंत्र का एक अवयव है। फेफड़े से निकलती वायु स्वर-यंत्र से होकर ही बाहर जाती है। स्वर-यंत्र के बीच होंठों के आकार की दो मांसल झिल्लियाँ हैं जिन्हें स्वर-तंत्री कहते हैं। ये झिल्लियाँ आमने-सामने पीछे से आगे तक फैली हुई हैं जो काफ़ी लचीली होती है। स्वर-तंत्रियों के बीच के छिद्रों को कंठ-द्दार या काकुल कहते हैं। स्वर-तंत्रियों की मुख्यतः तीन अवस्थाएँ होती हैं&mdash; # स्वर-तंत्रियों की सामान्य अवस्था जिसमें वे पृथक, शिथिल, निःस्पंद पड़ी रहती है। इस अवस्था में श्वास-निश्वास की क्रिया अविरत चलती रहती है, क्योंकि बीच का छिद्र कंठ-द्दार (काकुल) खुला होता है जिससे वायु फेफड़ों में आती-जाती रहती है। इसी अवस्था में अघोष ध्वनियों का उच्चारण होता है। # स्वर-तंत्रियों की दूसरी अवस्था वह है जिसमें वे परस्पर निकट आकर सट जाती हैं और निःश्वास-वायु के निकलने के समय उन में कंपन उत्पन्न होता है। इस अवस्था में जिन ध्वनियों का उच्चारण होता हैं, उन्हें घोष कहते है। # स्वर-तंत्रियों की एक अवस्था यह भी है कि वह पास आ जाती हैं, पर सटती नहीं और इस तरह वायु के आने-जाने का मार्ग अत्यन्त संकीर्ण हो जाता है। यह दोनों की मध्यवर्ती अवस्था है-न बिल्कुल खुली,न बिल्कुल सटी। इसी अवस्था में फ़ुसफ़ुसाहट वाली ध्वनियाँ उत्पन्न होती है। == ग्रासनिका == ग्रासनिका का दूसरा और प्राचीन नाम गलबिल है जिसकी स्थित कंठछिद्र के ऊपर और मुख के नीचे है। आईने में मुख खोलकर देखने से गले की पिछली दीवार दिखायी देती है; वह ग्रसनिका की ही दीवार है। ध्वनि के उच्चारण में पहले ग्रसनिका का कोई महत्व नहीं माना जाता था, मगर अब माने जाने लगा है। ग्रसनिका के विभिन्न आकार ग्रहण करने से स्वरों के उच्चारण में, विशेषकर उनके तान में, अंतर पड़ता है। == मुख == ध्वनियों के उत्पादन में मुख का सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण योग है। केवल मुख न कहकर इसे मुखविवर कहना अधिक उपयुक्त है। मुखविवर में ऊपर गोलाकार छत है और नीचे जिह्वा। छत के तीन भाग किए जा सकता हैं- सबसे पीछे कोमल तालु है जिससे एक छोटा-सा मांसपिंड लटकता दिखता है। इस मांसपिण्ड को अलिजिह्वा या काकुल कहते हैं। कोमल तालु के आगे कठोर तालु है जो सम्पूर्ण तालु का मध्य भाग है। फिर दंतकूट मिलता है जो ऊपर के दाँतों के पीछे का खुरदरा हिस्सा है। इसे ही मूर्धा भी कहते है। मुख छत के तीन भागों से आगे बढ़ने पर दंत-पंक्तियाँ मिलती हैं और उनसे आगे ओष्ठ। ध्वनियों के उच्चारण में यदि किसी इंद्रिय का सबसे अधिक उपयोग होता है तो जिह्वा का। जिह्वा के चार भाग है- जिह्वापश्च, जिह्वापृष्ठ, जिह्वाग्र, जिहाणि। मुखविवर की अनेक आकृतियों तथा कोमल तालु, जिह्वा, ओष्ठ, आदि के संचालन से अनेक ध्वनियाँ उत्पन्न होती है। == नासिका-विवर == नासिका और मुख की छत के बीच जो रिक्त स्थान है, उसे ही नासिका-विवर कहते हैं। कोमल तालु और अलिजिह्वा को ऊपर-नीचे करके नासिका-विवर को पूर्णतः खोला या बंद किया जा सकता है। नासिका का उपयोग अनुनासिक वर्णों के उच्चारण में होता है। == सांवहनिक अथवा प्रसारणिक ध्वनिविज्ञान == भाषा-विज्ञान में इसके अंतर्गत इस बात का अध्ययन किया जाता है कि कैसे ध्वनि लहरों द्वारा वक्ता के मुंह से श्रोता के कान तक ले जाई जाती है। ऐसा होता है कि फेफड़े से चली हवा ध्वनि-यंत्रों की सक्रियता के कारण आंदोलित होकर निकलती है और बाहर की वायु में अपने आंदोलन के अनुसार एक विशिष्ट प्रकार के कम्पन में लहरे पैदा कर देती है। ये लहरें ही सुनने वाले के कान तक पहुंचाती है और वहां श्रवणेंद्रिय में कंपन पैदा कर देती है। सामान्यतः इन ध्वनि-लहरों की चाल 1100-1200 फ़ुट प्रति सेकंड होती हैं। ज्यों-ज्यों ये लहरें आगे बढ़ती जाती हैं, इनकी तीव्रता घटती जाती है। इसी कारण दूर के व्यक्ति को धीमी सुनाई पड़ती है। कायमोग्राफ़, लोरिगोस्कोप, ऑसिलोग्राफ़, एंडोस्कोप, आदि अनेक यंत्रों के सहारे भौतिकशास्त्र में इन लहरों का बहुत गम्भीर अध्ययन किया जाता हैं। == श्रावणिक ध्वनिविज्ञान == इसमें इस बात का अध्ययन होता हैं कि हम कैसे सुनते है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए कान की बनावट को देख लेना होगा। हमारा कान तीन भागों में बंटा हैं। जो बाह्य कर्ण, मध्यकर्ण और अभ्यंतर कर्ण। बाह्य कर्ण के दो भाग पहला जो ऊपर टेढ़ा-मेढ़ा दिखाई देता है। यह भाग सुनने की क्रिया में अपना कोई विशेष महत्व नहीं रखता। दूसरा भाग छिद्र या कर्ण-नलिका के बाहरी भाग से आरम्भ होकर भीतर तक जाता है। इस भाग की कर्ण-नलिका की लंबाई लगभग एक इंच होती है। मध्यवर्ती कर्ण एक छोटी-सी कोठरी है जिसमें तीन छोटी-छोटी अस्थियां होती है। इन अस्थियों का एक सिरा बाह्य कर्ण की झिल्ली से जुड़ा रहता है और दूसरी ओर इसका सम्बन्ध आभ्यंतर कर्ण से। इस भाग में शंख के आकार का एक अस्थि-समूह होता है। इसके खोखले भाग में इसी आकार की झिल्लियां होती है। इन दोनों के बीच एक प्रकार का द्रव पदार्थ भरा रहता है। इस भाग के भीतरी सिरे की झिल्ली से श्रावणी शिरा के तंतु आरम्भ होते है जो मस्तिष्क से सम्बन्ध रहते हैं। ध्वनि की लहरों जब कान में पहुंचती हैं तो बाह्य कर्ण के भीतरी झिल्ली पर कंपन उत्पन्न करती हैं। इस कंपन का प्रभाव मध्यवर्ती कर्ण की अस्थियों द्वारा भीतरी कर्ण के द्रव पदार्थ पर पड़ता है और उसमें लहरे उठती हैं जिसकी सूचना श्रावणी तंतुओं द्वारा मस्तिष्क में जाती है और हम सुन लेते हैं। == सन्दर्भ == # भाषाविज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा। दीप्ति शर्मा। पृष्ठ: 189-194 # भाषा विज्ञान &mdash; डॉ. भोलानाथ तिवारी। प्रकाशक: '''किताब महल''', पुर्नमुद्रण: 2017, पृष्ठ: 309, 310, 318 # भाषा-विज्ञान के सिद्धांत &mdash; डॉ. मीरा दीक्षित। पृष्ठ: 52 cw9ie22z0ewqjj9iegzfxsl6kqwb6qe भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/वाक्यविज्ञान और उसके भेद 0 5842 78856 75283 2022-08-21T08:57:16Z Saurmandal 13452 wikitext text/x-wiki {{BookCat}} == वाक्यविज्ञान == वाक्यविज्ञान भाषाविज्ञान की वह शाखा है, जिसमें पदों के पारस्परिक सम्बन्ध का विचार किया जाता है। ध्वनि का सम्बन्ध भाषा के उच्चारण से है, उसमें जब सार्थकता का समावेश हो जाता है तो वह परस्पर अन्वय का योग्य बन जाता है तो उसे पद कहते है। पद ध्वनि और वाक्य के बीच संयोजक कड़ी है क्योंकि उसमें उच्चारण और सार्थकता दोनों का योग होता है, मगर न तो ध्वनि की तरह वह केवल उच्चारण है और न ही पूर्णता सार्थक। पदविज्ञान में पदों की रचना पर विचार होता है, अर्थात- संज्ञा, क्रिया, विशेषण, कारक, लिंग, वचन, पुरुष, काल आदि लेकिन पदों का कहाँ, कैसे प्रयोग होगा इसका विषय वाक्यविज्ञान है। अतः पद और वाक्य के संबंध में दो सिद्धांत है, अभिताभिधान्वयवाद का कहना है कि पदों को जोड़ने से वाक्य बनता है जबकि अभिताभिधान्वयवाद का कहना है कि वाक्य को तोड़ने से पद बनते है। आधुनिक भाषाविज्ञान अभिताभिधान्वयवाद का समर्थक है उनका कहना है कि 'भाषा की न्यूनतम पूर्ण सार्थक इकाई वाक्य है। लेकिन अर्थ की दृष्टि से वाक्य कभी पूर्ण नहीं होता जैसे: "उसने उससे वह बात कह दी।" यह बात पूर्ण रूप अपनी बात कहने में असमर्थ है। फिर कामचलाऊ परिभाषा: "वाक्य भाषा की वह सहज इकाई है जिसमें एक या अधिक शब्द (पद) होते होते है तथा अर्थ की दृष्टि से पूर्ण हो या अपूर्ण, व्याकरणिक दृष्टि से अपने विशिष्ट संदर्भ में अवश्य पूर्ण होती है, साथ ही उसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कम-से-कम एक समापिका क्रिया अवश्य होती है। अतः वाक्य निष्पति के लिए तीन चीज़ें अपेक्षित हैं&mdash; 1. आकांक्षा, 2. योग्यता और 3. आसत्ति। == वाक्य के भेद == विभिन्न आधारों पर वाक्य के अनेक भेद होते हैं&mdash; === क्रिया के अनुसार === भाषा में क्रिया का स्थान प्रमुख है। वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में वाक्य में अवश्य वर्तमान रहती है। संस्कृत, लैटिन, आदि पुरानी भाषाओं में तथा बंगला, रूसी, आदि आधुनिक भाषाओं में बिना क्रिया के भी वाक्य मिलते है, किंतु साधारणतः वाक्य क्रियायुक्त होते हैं। इस प्रकार क्रिया के होने न होने के आधार पर दो प्रकार के होते है: 1. क्रियायुक्त, 2. क्रियाहीन। ==== क्रियायुक्त वाक्य ==== क्रियायुक्त वाक्य वे वाक्य हैं जिसमें क्रिया होते हैं। अधिकांश भाषाओं में वाक्य इसी प्रकार के होते है। * हिन्दी, अंग्रेज़ी, आदि में सहायक क्रिया के बिना काम नहीं चल सकता। हिन्दी या अंग्रेज़ी में बिना 'है' या 'is' का प्रयोग किए वाक्य अधूरा लगता है। जैसे कि, "यह मेरी पुस्तक" या "this my book" खटक जाता है। "यह मेरी पुस्तक है", या "this is my book" कहने पर आकांक्षा पूर्ण निवृत्ति होती है। * बहुत सारे मुहावरे ऐसे हैं जिनमें क्रिया का प्रयोग नहीं होता, जैसे "जिसकी लाठी उसकी भैंस", "जैसी करनी वैसी भरनी", आदि। * एक पद वाले वाक्यों में क्रिया का इस्तेमाल नहीं होता, जैसे: "साँप!", "भूकंप!", "आग!" * प्रश्न वाले वाक्यों में भी कुछ ऐसा ही होता है: जैसे कि, "तुम कहाँ जा रहे हो?"&mdash;"दिल्ली।" ==== रचना के अनुसार ==== रचना के अनुसार वाक्य के तीन भेद हैं: 1. सरल, 2. संयुक्त, और 3. मिश्र। ; सरल : जिसमें एक उद्देश्य और एक विधेय अर्थात एक संज्ञा और एक क्रिया होती है; जैसे: "लड़का पढ़ता है।" ; संयुक्त : इसमें अनेक प्रधान उपवाक्य होते हैं जिनके साथ अनेक आश्रित उपवाक्य रहते हैं; जैसे: "जिस दिन भगवान ने आलू का निर्माण किया होगा, उस दिन उसे यह गुमान भी नहीं हुआ होगा।" ; मिश्र : जिसमें एक मुख्य उपवाक्य रहता है, किंतु आश्रित उपवाक्य एक या अनेक हो सकते है; जैसे: "जो विद्दान होता है, उसका सर्वत्र सदा आदर होता है।" === अर्थ के अनुसार === अर्थ के अनुसार वाक्य के आठ भेद माने जाते हैं: <div style="column-count: 2"> # विधि वाक्य # निषेध-वाक्य # प्रश्न-वाक्य # अनुज्ञा-वाक्य # इच्छार्थक-वाक्य # सन्देहार्थक-वाक्य # संकेतार्थक-वाक्य # विस्मयादिबोधक-वाक्य </div> === शैली के अनुसार === शैली के अनुसार वाक्य के तीन भेद होते हैं- १) शिथिल २) समीकृत ३) आवर्तक। इन तीनों भेदों के बीच स्पष्ट विभाजक रेखा खींचना सम्भव नहीं है। फिर भी ये भेद व्यावहारिक उपयोग के हैं। १)''' शिथिल वाक्य''':- इसमें वक्ता एक के बाद दूसरी बात, उन्मुक्त भाव से कला का सहरा लिए कहता चलता है, जैसे- 'अयोध्या सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी थी। हम जिस समय के बात कह रहे हैं उस समय महाराज दशरथ अयोध्या के राजा थे।' २) '''समीकृत वाक्य''':- यह संगीत और संतुलन की नैसर्गिक, मानवीय इच्छा की पूर्ति करता है। जैसे - राजा,वैसी प्रजा ; जिसकी लाठी,उसकी भैंस आदि। ३.'''आवर्तक वाक्य''':- इसमें चरम सीमा अन्त में आती है। श्रोता या पाठक उत्सुकतापूर्वक प्रतिक्षा करता रहता है और तब उसके सामने वह बात आती है जो वक्ता या लेखक उसे बताना चाहता है, इस शैली के वाक्य वक्ताओं या नेताओं अधिक करते है। जैसे: "यदि हम चाहते हैं कि हमारी स्वतंत्रता सुरक्षित रहे, यदि हम चाहते हैं कि हमारी सीमा की ओर देखने की भी हिम्मत शत्रु को न हो आदि। अतः वाक्य का प्रयोग करते समय एक साथ चिन्तन, उपयुक्त पद का चयन, व्याकरणिक गठन और उच्चारण का ध्यान रखना पड़ता है। चूँकि वाक्य भाषा की प्रमुख इकाई है, इसलिए ध्यान भी उस पर सबसे अधिक देना उचित हैं। == सन्दर्भ == # भाषाविज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा। दीप्ति शर्मा। पृष्ठ: 241-252 # भाषा विज्ञान &mdash; डॉ. भोलानाथ तिवारी। प्रकाशक: '''किताब महल''', पुर्नमुद्रण: 2017, पृष्ठ: 233 8xjwnlwh6a6a9s6ld20t8xvdwz9d39u 78857 78856 2022-08-21T10:08:43Z Saurmandal 13452 /* शैली के अनुसार */ wikitext text/x-wiki {{BookCat}} == वाक्यविज्ञान == वाक्यविज्ञान भाषाविज्ञान की वह शाखा है, जिसमें पदों के पारस्परिक सम्बन्ध का विचार किया जाता है। ध्वनि का सम्बन्ध भाषा के उच्चारण से है, उसमें जब सार्थकता का समावेश हो जाता है तो वह परस्पर अन्वय का योग्य बन जाता है तो उसे पद कहते है। पद ध्वनि और वाक्य के बीच संयोजक कड़ी है क्योंकि उसमें उच्चारण और सार्थकता दोनों का योग होता है, मगर न तो ध्वनि की तरह वह केवल उच्चारण है और न ही पूर्णता सार्थक। पदविज्ञान में पदों की रचना पर विचार होता है, अर्थात- संज्ञा, क्रिया, विशेषण, कारक, लिंग, वचन, पुरुष, काल आदि लेकिन पदों का कहाँ, कैसे प्रयोग होगा इसका विषय वाक्यविज्ञान है। अतः पद और वाक्य के संबंध में दो सिद्धांत है, अभिताभिधान्वयवाद का कहना है कि पदों को जोड़ने से वाक्य बनता है जबकि अभिताभिधान्वयवाद का कहना है कि वाक्य को तोड़ने से पद बनते है। आधुनिक भाषाविज्ञान अभिताभिधान्वयवाद का समर्थक है उनका कहना है कि 'भाषा की न्यूनतम पूर्ण सार्थक इकाई वाक्य है। लेकिन अर्थ की दृष्टि से वाक्य कभी पूर्ण नहीं होता जैसे: "उसने उससे वह बात कह दी।" यह बात पूर्ण रूप अपनी बात कहने में असमर्थ है। फिर कामचलाऊ परिभाषा: "वाक्य भाषा की वह सहज इकाई है जिसमें एक या अधिक शब्द (पद) होते होते है तथा अर्थ की दृष्टि से पूर्ण हो या अपूर्ण, व्याकरणिक दृष्टि से अपने विशिष्ट संदर्भ में अवश्य पूर्ण होती है, साथ ही उसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कम-से-कम एक समापिका क्रिया अवश्य होती है। अतः वाक्य निष्पति के लिए तीन चीज़ें अपेक्षित हैं&mdash; 1. आकांक्षा, 2. योग्यता और 3. आसत्ति। == वाक्य के भेद == विभिन्न आधारों पर वाक्य के अनेक भेद होते हैं&mdash; === क्रिया के अनुसार === भाषा में क्रिया का स्थान प्रमुख है। वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में वाक्य में अवश्य वर्तमान रहती है। संस्कृत, लैटिन, आदि पुरानी भाषाओं में तथा बंगला, रूसी, आदि आधुनिक भाषाओं में बिना क्रिया के भी वाक्य मिलते है, किंतु साधारणतः वाक्य क्रियायुक्त होते हैं। इस प्रकार क्रिया के होने न होने के आधार पर दो प्रकार के होते है: 1. क्रियायुक्त, 2. क्रियाहीन। ==== क्रियायुक्त वाक्य ==== क्रियायुक्त वाक्य वे वाक्य हैं जिसमें क्रिया होते हैं। अधिकांश भाषाओं में वाक्य इसी प्रकार के होते है। * हिन्दी, अंग्रेज़ी, आदि में सहायक क्रिया के बिना काम नहीं चल सकता। हिन्दी या अंग्रेज़ी में बिना 'है' या 'is' का प्रयोग किए वाक्य अधूरा लगता है। जैसे कि, "यह मेरी पुस्तक" या "this my book" खटक जाता है। "यह मेरी पुस्तक है", या "this is my book" कहने पर आकांक्षा पूर्ण निवृत्ति होती है। * बहुत सारे मुहावरे ऐसे हैं जिनमें क्रिया का प्रयोग नहीं होता, जैसे "जिसकी लाठी उसकी भैंस", "जैसी करनी वैसी भरनी", आदि। * एक पद वाले वाक्यों में क्रिया का इस्तेमाल नहीं होता, जैसे: "साँप!", "भूकंप!", "आग!" * प्रश्न वाले वाक्यों में भी कुछ ऐसा ही होता है: जैसे कि, "तुम कहाँ जा रहे हो?"&mdash;"दिल्ली।" ==== रचना के अनुसार ==== रचना के अनुसार वाक्य के तीन भेद हैं: 1. सरल, 2. संयुक्त, और 3. मिश्र। ; सरल : जिसमें एक उद्देश्य और एक विधेय अर्थात एक संज्ञा और एक क्रिया होती है; जैसे: "लड़का पढ़ता है।" ; संयुक्त : इसमें अनेक प्रधान उपवाक्य होते हैं जिनके साथ अनेक आश्रित उपवाक्य रहते हैं; जैसे: "जिस दिन भगवान ने आलू का निर्माण किया होगा, उस दिन उसे यह गुमान भी नहीं हुआ होगा।" ; मिश्र : जिसमें एक मुख्य उपवाक्य रहता है, किंतु आश्रित उपवाक्य एक या अनेक हो सकते है; जैसे: "जो विद्दान होता है, उसका सर्वत्र सदा आदर होता है।" === अर्थ के अनुसार === अर्थ के अनुसार वाक्य के आठ भेद माने जाते हैं: <div style="column-count: 2"> # विधि वाक्य # निषेध-वाक्य # प्रश्न-वाक्य # अनुज्ञा-वाक्य # इच्छार्थक-वाक्य # सन्देहार्थक-वाक्य # संकेतार्थक-वाक्य # विस्मयादिबोधक-वाक्य </div> === शैली के अनुसार === शैली के अनुसार वाक्य के तीन भेद होते हैं: 1. शिथिल, 2. समीकृत, और 3. आवर्तक। इन तीनों भेदों के बीच स्पष्ट विभाजक रेखा खींचना सम्भव नहीं है। फिर भी ये भेद व्यावहारिक उपयोग के हैं। ; शिथिल वाक्य : इसमें वक्ता एक के बाद दूसरी बात, उन्मुक्त भाव से कला का सहारा लिए कहता चलता है, जैसे: "अयोध्या सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी थी। हम जिस समय के बात कह रहे हैं उस समय महाराज दशरथ अयोध्या के राजा थे।" ; समीकृत वाक्य : यह संगीत और संतुलन की नैसर्गिक, मानवीय इच्छा की पूर्ति करता है। जैसे - "जैसा राजा, वैसी प्रजा"; "जिसकी लाठी, उसकी भैंस", आदि। ; आवर्तक वाक्य : इसमें चरम सीमा अन्त में आती है। श्रोता या पाठक उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करता रहता है और तब उसके सामने वह बात आती है जो वक्ता या लेखक उसे बताना चाहता है, इस शैली के वाक्य वक्ताओं या नेताओं अधिक करते है। जैसे: "यदि हम चाहते हैं कि हमारी स्वतंत्रता सुरक्षित रहे, यदि हम चाहते हैं कि हमारी सीमा की ओर देखने की भी हिम्मत शत्रु को न हो आदि। अतः वाक्य का प्रयोग करते समय एक साथ चिंतन, उपयुक्त पद का चयन, व्याकरणिक गठन और उच्चारण का ध्यान रखना पड़ता है। चूँकि वाक्य भाषा की प्रमुख इकाई है, इसलिए ध्यान भी उस पर सबसे अधिक देना उचित हैं। == सन्दर्भ == # भाषाविज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा। दीप्ति शर्मा। पृष्ठ: 241-252 # भाषा विज्ञान &mdash; डॉ. भोलानाथ तिवारी। प्रकाशक: '''किताब महल''', पुर्नमुद्रण: 2017, पृष्ठ: 233 rtrfj6wcij5ccsaiosk76m19nlqmtiv 78896 78857 2022-08-21T10:34:53Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/वाक्यविज्ञान और उसके भेद]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/वाक्यविज्ञान और उसके भेद]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} == वाक्यविज्ञान == वाक्यविज्ञान भाषाविज्ञान की वह शाखा है, जिसमें पदों के पारस्परिक सम्बन्ध का विचार किया जाता है। ध्वनि का सम्बन्ध भाषा के उच्चारण से है, उसमें जब सार्थकता का समावेश हो जाता है तो वह परस्पर अन्वय का योग्य बन जाता है तो उसे पद कहते है। पद ध्वनि और वाक्य के बीच संयोजक कड़ी है क्योंकि उसमें उच्चारण और सार्थकता दोनों का योग होता है, मगर न तो ध्वनि की तरह वह केवल उच्चारण है और न ही पूर्णता सार्थक। पदविज्ञान में पदों की रचना पर विचार होता है, अर्थात- संज्ञा, क्रिया, विशेषण, कारक, लिंग, वचन, पुरुष, काल आदि लेकिन पदों का कहाँ, कैसे प्रयोग होगा इसका विषय वाक्यविज्ञान है। अतः पद और वाक्य के संबंध में दो सिद्धांत है, अभिताभिधान्वयवाद का कहना है कि पदों को जोड़ने से वाक्य बनता है जबकि अभिताभिधान्वयवाद का कहना है कि वाक्य को तोड़ने से पद बनते है। आधुनिक भाषाविज्ञान अभिताभिधान्वयवाद का समर्थक है उनका कहना है कि 'भाषा की न्यूनतम पूर्ण सार्थक इकाई वाक्य है। लेकिन अर्थ की दृष्टि से वाक्य कभी पूर्ण नहीं होता जैसे: "उसने उससे वह बात कह दी।" यह बात पूर्ण रूप अपनी बात कहने में असमर्थ है। फिर कामचलाऊ परिभाषा: "वाक्य भाषा की वह सहज इकाई है जिसमें एक या अधिक शब्द (पद) होते होते है तथा अर्थ की दृष्टि से पूर्ण हो या अपूर्ण, व्याकरणिक दृष्टि से अपने विशिष्ट संदर्भ में अवश्य पूर्ण होती है, साथ ही उसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कम-से-कम एक समापिका क्रिया अवश्य होती है। अतः वाक्य निष्पति के लिए तीन चीज़ें अपेक्षित हैं&mdash; 1. आकांक्षा, 2. योग्यता और 3. आसत्ति। == वाक्य के भेद == विभिन्न आधारों पर वाक्य के अनेक भेद होते हैं&mdash; === क्रिया के अनुसार === भाषा में क्रिया का स्थान प्रमुख है। वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में वाक्य में अवश्य वर्तमान रहती है। संस्कृत, लैटिन, आदि पुरानी भाषाओं में तथा बंगला, रूसी, आदि आधुनिक भाषाओं में बिना क्रिया के भी वाक्य मिलते है, किंतु साधारणतः वाक्य क्रियायुक्त होते हैं। इस प्रकार क्रिया के होने न होने के आधार पर दो प्रकार के होते है: 1. क्रियायुक्त, 2. क्रियाहीन। ==== क्रियायुक्त वाक्य ==== क्रियायुक्त वाक्य वे वाक्य हैं जिसमें क्रिया होते हैं। अधिकांश भाषाओं में वाक्य इसी प्रकार के होते है। * हिन्दी, अंग्रेज़ी, आदि में सहायक क्रिया के बिना काम नहीं चल सकता। हिन्दी या अंग्रेज़ी में बिना 'है' या 'is' का प्रयोग किए वाक्य अधूरा लगता है। जैसे कि, "यह मेरी पुस्तक" या "this my book" खटक जाता है। "यह मेरी पुस्तक है", या "this is my book" कहने पर आकांक्षा पूर्ण निवृत्ति होती है। * बहुत सारे मुहावरे ऐसे हैं जिनमें क्रिया का प्रयोग नहीं होता, जैसे "जिसकी लाठी उसकी भैंस", "जैसी करनी वैसी भरनी", आदि। * एक पद वाले वाक्यों में क्रिया का इस्तेमाल नहीं होता, जैसे: "साँप!", "भूकंप!", "आग!" * प्रश्न वाले वाक्यों में भी कुछ ऐसा ही होता है: जैसे कि, "तुम कहाँ जा रहे हो?"&mdash;"दिल्ली।" ==== रचना के अनुसार ==== रचना के अनुसार वाक्य के तीन भेद हैं: 1. सरल, 2. संयुक्त, और 3. मिश्र। ; सरल : जिसमें एक उद्देश्य और एक विधेय अर्थात एक संज्ञा और एक क्रिया होती है; जैसे: "लड़का पढ़ता है।" ; संयुक्त : इसमें अनेक प्रधान उपवाक्य होते हैं जिनके साथ अनेक आश्रित उपवाक्य रहते हैं; जैसे: "जिस दिन भगवान ने आलू का निर्माण किया होगा, उस दिन उसे यह गुमान भी नहीं हुआ होगा।" ; मिश्र : जिसमें एक मुख्य उपवाक्य रहता है, किंतु आश्रित उपवाक्य एक या अनेक हो सकते है; जैसे: "जो विद्दान होता है, उसका सर्वत्र सदा आदर होता है।" === अर्थ के अनुसार === अर्थ के अनुसार वाक्य के आठ भेद माने जाते हैं: <div style="column-count: 2"> # विधि वाक्य # निषेध-वाक्य # प्रश्न-वाक्य # अनुज्ञा-वाक्य # इच्छार्थक-वाक्य # सन्देहार्थक-वाक्य # संकेतार्थक-वाक्य # विस्मयादिबोधक-वाक्य </div> === शैली के अनुसार === शैली के अनुसार वाक्य के तीन भेद होते हैं: 1. शिथिल, 2. समीकृत, और 3. आवर्तक। इन तीनों भेदों के बीच स्पष्ट विभाजक रेखा खींचना सम्भव नहीं है। फिर भी ये भेद व्यावहारिक उपयोग के हैं। ; शिथिल वाक्य : इसमें वक्ता एक के बाद दूसरी बात, उन्मुक्त भाव से कला का सहारा लिए कहता चलता है, जैसे: "अयोध्या सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी थी। हम जिस समय के बात कह रहे हैं उस समय महाराज दशरथ अयोध्या के राजा थे।" ; समीकृत वाक्य : यह संगीत और संतुलन की नैसर्गिक, मानवीय इच्छा की पूर्ति करता है। जैसे - "जैसा राजा, वैसी प्रजा"; "जिसकी लाठी, उसकी भैंस", आदि। ; आवर्तक वाक्य : इसमें चरम सीमा अन्त में आती है। श्रोता या पाठक उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करता रहता है और तब उसके सामने वह बात आती है जो वक्ता या लेखक उसे बताना चाहता है, इस शैली के वाक्य वक्ताओं या नेताओं अधिक करते है। जैसे: "यदि हम चाहते हैं कि हमारी स्वतंत्रता सुरक्षित रहे, यदि हम चाहते हैं कि हमारी सीमा की ओर देखने की भी हिम्मत शत्रु को न हो आदि। अतः वाक्य का प्रयोग करते समय एक साथ चिंतन, उपयुक्त पद का चयन, व्याकरणिक गठन और उच्चारण का ध्यान रखना पड़ता है। चूँकि वाक्य भाषा की प्रमुख इकाई है, इसलिए ध्यान भी उस पर सबसे अधिक देना उचित हैं। == सन्दर्भ == # भाषाविज्ञान की भूमिका &mdash; आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा। दीप्ति शर्मा। पृष्ठ: 241-252 # भाषा विज्ञान &mdash; डॉ. भोलानाथ तिवारी। प्रकाशक: '''किताब महल''', पुर्नमुद्रण: 2017, पृष्ठ: 233 rtrfj6wcij5ccsaiosk76m19nlqmtiv भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/भाषाविज्ञान के अध्ययन क्षेत्र 0 5849 78858 75280 2022-08-21T10:18:54Z Saurmandal 13452 wikitext text/x-wiki {{BookCat}} भाषा विज्ञान के रूप के सम्बन्ध में विद्वानों का एक मत नहीं है। हिन्दी में भाषाविज्ञान की अनेक पुस्तकों में दो प्रकार के मत मिलते हैं&mdash; 1. ध्वनिविज्ञान, 2. पदविज्ञान, 3. वाक्यविज्ञान, 4. अर्थविज्ञान आदि को भाषाविज्ञान की शाखाएँ मानने वालों में डॉ. बाबूराम सक्सेना, डॉ. भोलानाथ तिवारी आदि तथा वर्णनात्मक, तुलनात्मक, ऐतिहासिक आदि को भाषाविज्ञान की शाखाएँ मानने वाले विद्वानों में डॉ. कपिलदेव द्विवेदी, डॉ. देवेंद्र शर्मा, डॉ. देवीशंकर द्विवेदी आदि हैं परन्तु वास्तव में ध्वनिविज्ञान, पदविज्ञान, वाक्यविज्ञान, अर्थविज्ञान आदि को भाषाविज्ञान का अंग तथा वर्णनात्मक, तुलनात्मक, ऐतिहासिक एवं संरचनात्मक भाषाविज्ञान को भाषाविज्ञान की शाखाएँ मानना अधिक विचारसंगत और वैज्ञानिक है और ये भाषाविज्ञान के मूर्धन्य आचार्यों द्वारा मान्य है। === वर्णनात्मक भाषाविज्ञान === वर्णनात्मक भाषाविज्ञान को समकालिक, या एककालिक भी कहते हैं। इस पद्धति द्वारा किसी एक भाषा का किसी एक काल की संरचनात्मक विशेषताओं का विवेचन-विश्लेषण किया जाता है। इसमें जीवित भाषा या बोली के लिए वर्णनात्मक भाषाविज्ञान की पद्धति को अपनाया जाता है। कथित भाषा सामग्री के अभाव लिखित सामग्री को विश्लेषण का आधार बनाया जा सकता है। इस दृष्टि से किसी भी समय के साहित्य का अथवा किसी साहित्यकार की रचना का भाषावैज्ञानिक विश्लेषण वर्णनात्मक पद्धति होता है। वर्णनात्मक भाषाविज्ञान के अंतर्गत वर्णनात्मक ध्वनिविज्ञान, वर्णनात्मक पदविज्ञान, वर्णनात्मक वाक्यविज्ञान, वर्णनात्मक अर्थविज्ञान आदि का विवेचन होता है। === तुलनात्मक भाषाविज्ञान === आधुनिक भाषा विज्ञान का प्रारम्भ ही तुलनात्मक भाषा विज्ञान से माना जाता है। 'तुलनात्मक' का अर्थ है दो या दो से अधिक भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन तथा इस पद्धति में अध्ययन एक या कई कालों की भाषाओं का हो सकता है। इसमें ऐतिहासिक भाषाविज्ञान से भी सहायता ली जाती है। एक, दो या अधिक भाषाओं या बोलियों के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा उस अज्ञात भाषा का स्वरूप ज्ञात किया जाता है, जिससे वे दोनों निकली है। इसे भाषा का पुनर्निर्माण कहते है। अठारहवीं उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोपीय विद्वानों ने प्राचीन लैटिन, यूनानी, ईरानी और ऋग्वेद भाषा का तुलनात्मक अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला कि किसी समय भारत से लेकर यूरोप तक के लोग एक ही मूल भाषा का व्यवहार करते थे। भारत में तुलनात्मक भाषाविज्ञान का आरम्भ डॉ. सुनिति कुमार चैटर्जी, डॉ. सुकुमार सेन आदि के प्रयत्नों से कलकत्ता विश्वविधालय में हुआ। आज इसका क्षेत्र बहुत विस्तृत है। === ऐतिहासिक भाषाविज्ञान === ऐतिहासिक भाषाविज्ञान को कालक्रमिक, या द्विकालिक भी कहते हैं। किसी भाषा में विभिन्न कालों में हुए परिवर्तन पर विचार करना एवं उन परिवर्तनों के सम्बन्ध में सिद्धांतों का निर्माण ऐतिहासिक भाषा विज्ञान के अंतर्गत आता है। वर्णनात्मक पद्धति तथा ऐतिहासिक पद्धति में मुख्य अन्तर यह है कि वर्णनात्मक भाषा विज्ञान में किसी भाषा के अध्ययन करते समय या काल से सम्बन्धित स्वरूप का विश्लेषण होता है। इसलिए इसे एककालिक कहा जाता है जबकि दूसरी ओर ऐतिहासिक भाषा विज्ञान में भाषा का कालक्रमिक या द्विकालिक अध्ययन होता है। भाषा के विभिन्न कालों में होने वाले परिवर्तनों को उसके विकास की प्रकिया के द्वारा देखा जाता है कि कोई भी भाषा अपने प्राचीन रूप से किन सोपानों को पार कर वर्तमान स्थिति तक पहुँची है। जैसे, भाषा में ध्वनियों, शब्दावली, व्याकरणिक रूप, वाक्य-रचना आदि परिवर्तन होते रहते हैं। इन्हीं परिवर्तनों का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करना ही 'ऐतिहासिक भाषाविज्ञान' कहलाता है। === संरचनात्मक भाषाविज्ञान === संरचनात्मक पद्धति वर्णनात्मक भाषाविज्ञान पद्धति की अगली कड़ी है। इसमें भाषा के विभिन्न तत्वों के पारस्परिक सम्बन्धों को लेकर अध्ययन किया जाता है। संरचनात्मक भाषाविज्ञान के विभिन्न तत्वों का पारस्परिक संबंध अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है, जबकि वर्णनात्मक भाषाविज्ञान भाषा की भीतरी व्यवस्था से निरपेक्ष अध्ययन प्रस्तुत करता है। 'संचनात्मक भाषाविज्ञान' के प्रवर्तक 'जैलिग हैरिस' (अमरीका) ने 'Methods in structural Linguistics' नामक ग्रन्थ में इस पद्धति का विकास किया। इसमें यांत्रिक उपकरणों को अधिक महत्व दिया जाता है जिससे अनुवाद करने में विशेष सुविधा होती है। == संदर्भ == # भाषा-विज्ञान के सिद्धांत &mdash; डॉ. मीरा दीक्षित। पृष्ठ: 45-47 00bi9ooeo4rxtvs3ixm4t0tgft61l09 78859 78858 2022-08-21T10:19:13Z Saurmandal 13452 wikitext text/x-wiki {{BookCat}} भाषा विज्ञान के रूप के सम्बन्ध में विद्वानों का एक मत नहीं है। हिन्दी में भाषाविज्ञान की अनेक पुस्तकों में दो प्रकार के मत मिलते हैं&mdash; 1. ध्वनिविज्ञान, 2. पदविज्ञान, 3. वाक्यविज्ञान, 4. अर्थविज्ञान आदि को भाषाविज्ञान की शाखाएँ मानने वालों में डॉ. बाबूराम सक्सेना, डॉ. भोलानाथ तिवारी आदि तथा वर्णनात्मक, तुलनात्मक, ऐतिहासिक आदि को भाषाविज्ञान की शाखाएँ मानने वाले विद्वानों में डॉ. कपिलदेव द्विवेदी, डॉ. देवेंद्र शर्मा, डॉ. देवीशंकर द्विवेदी आदि हैं परन्तु वास्तव में ध्वनिविज्ञान, पदविज्ञान, वाक्यविज्ञान, अर्थविज्ञान आदि को भाषाविज्ञान का अंग तथा वर्णनात्मक, तुलनात्मक, ऐतिहासिक एवं संरचनात्मक भाषाविज्ञान को भाषाविज्ञान की शाखाएँ मानना अधिक विचारसंगत और वैज्ञानिक है और ये भाषाविज्ञान के मूर्धन्य आचार्यों द्वारा मान्य है। == वर्णनात्मक भाषाविज्ञान == वर्णनात्मक भाषाविज्ञान को समकालिक, या एककालिक भी कहते हैं। इस पद्धति द्वारा किसी एक भाषा का किसी एक काल की संरचनात्मक विशेषताओं का विवेचन-विश्लेषण किया जाता है। इसमें जीवित भाषा या बोली के लिए वर्णनात्मक भाषाविज्ञान की पद्धति को अपनाया जाता है। कथित भाषा सामग्री के अभाव लिखित सामग्री को विश्लेषण का आधार बनाया जा सकता है। इस दृष्टि से किसी भी समय के साहित्य का अथवा किसी साहित्यकार की रचना का भाषावैज्ञानिक विश्लेषण वर्णनात्मक पद्धति होता है। वर्णनात्मक भाषाविज्ञान के अंतर्गत वर्णनात्मक ध्वनिविज्ञान, वर्णनात्मक पदविज्ञान, वर्णनात्मक वाक्यविज्ञान, वर्णनात्मक अर्थविज्ञान आदि का विवेचन होता है। == तुलनात्मक भाषाविज्ञान == आधुनिक भाषा विज्ञान का प्रारम्भ ही तुलनात्मक भाषा विज्ञान से माना जाता है। 'तुलनात्मक' का अर्थ है दो या दो से अधिक भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन तथा इस पद्धति में अध्ययन एक या कई कालों की भाषाओं का हो सकता है। इसमें ऐतिहासिक भाषाविज्ञान से भी सहायता ली जाती है। एक, दो या अधिक भाषाओं या बोलियों के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा उस अज्ञात भाषा का स्वरूप ज्ञात किया जाता है, जिससे वे दोनों निकली है। इसे भाषा का पुनर्निर्माण कहते है। अठारहवीं उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोपीय विद्वानों ने प्राचीन लैटिन, यूनानी, ईरानी और ऋग्वेद भाषा का तुलनात्मक अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला कि किसी समय भारत से लेकर यूरोप तक के लोग एक ही मूल भाषा का व्यवहार करते थे। भारत में तुलनात्मक भाषाविज्ञान का आरम्भ डॉ. सुनिति कुमार चैटर्जी, डॉ. सुकुमार सेन आदि के प्रयत्नों से कलकत्ता विश्वविधालय में हुआ। आज इसका क्षेत्र बहुत विस्तृत है। == ऐतिहासिक भाषाविज्ञान == ऐतिहासिक भाषाविज्ञान को कालक्रमिक, या द्विकालिक भी कहते हैं। किसी भाषा में विभिन्न कालों में हुए परिवर्तन पर विचार करना एवं उन परिवर्तनों के सम्बन्ध में सिद्धांतों का निर्माण ऐतिहासिक भाषा विज्ञान के अंतर्गत आता है। वर्णनात्मक पद्धति तथा ऐतिहासिक पद्धति में मुख्य अन्तर यह है कि वर्णनात्मक भाषा विज्ञान में किसी भाषा के अध्ययन करते समय या काल से सम्बन्धित स्वरूप का विश्लेषण होता है। इसलिए इसे एककालिक कहा जाता है जबकि दूसरी ओर ऐतिहासिक भाषा विज्ञान में भाषा का कालक्रमिक या द्विकालिक अध्ययन होता है। भाषा के विभिन्न कालों में होने वाले परिवर्तनों को उसके विकास की प्रकिया के द्वारा देखा जाता है कि कोई भी भाषा अपने प्राचीन रूप से किन सोपानों को पार कर वर्तमान स्थिति तक पहुँची है। जैसे, भाषा में ध्वनियों, शब्दावली, व्याकरणिक रूप, वाक्य-रचना आदि परिवर्तन होते रहते हैं। इन्हीं परिवर्तनों का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करना ही 'ऐतिहासिक भाषाविज्ञान' कहलाता है। == संरचनात्मक भाषाविज्ञान == संरचनात्मक पद्धति वर्णनात्मक भाषाविज्ञान पद्धति की अगली कड़ी है। इसमें भाषा के विभिन्न तत्वों के पारस्परिक सम्बन्धों को लेकर अध्ययन किया जाता है। संरचनात्मक भाषाविज्ञान के विभिन्न तत्वों का पारस्परिक संबंध अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है, जबकि वर्णनात्मक भाषाविज्ञान भाषा की भीतरी व्यवस्था से निरपेक्ष अध्ययन प्रस्तुत करता है। 'संचनात्मक भाषाविज्ञान' के प्रवर्तक 'जैलिग हैरिस' (अमरीका) ने 'Methods in structural Linguistics' नामक ग्रन्थ में इस पद्धति का विकास किया। इसमें यांत्रिक उपकरणों को अधिक महत्व दिया जाता है जिससे अनुवाद करने में विशेष सुविधा होती है। == संदर्भ == # भाषा-विज्ञान के सिद्धांत &mdash; डॉ. मीरा दीक्षित। पृष्ठ: 45-47 1r3uffp5ltr7d8boq5j1alkvvanzd37 78898 78859 2022-08-21T10:35:04Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/भाषाविज्ञान के अध्ययन क्षेत्र]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/भाषाविज्ञान के अध्ययन क्षेत्र]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} भाषा विज्ञान के रूप के सम्बन्ध में विद्वानों का एक मत नहीं है। हिन्दी में भाषाविज्ञान की अनेक पुस्तकों में दो प्रकार के मत मिलते हैं&mdash; 1. ध्वनिविज्ञान, 2. पदविज्ञान, 3. वाक्यविज्ञान, 4. अर्थविज्ञान आदि को भाषाविज्ञान की शाखाएँ मानने वालों में डॉ. बाबूराम सक्सेना, डॉ. भोलानाथ तिवारी आदि तथा वर्णनात्मक, तुलनात्मक, ऐतिहासिक आदि को भाषाविज्ञान की शाखाएँ मानने वाले विद्वानों में डॉ. कपिलदेव द्विवेदी, डॉ. देवेंद्र शर्मा, डॉ. देवीशंकर द्विवेदी आदि हैं परन्तु वास्तव में ध्वनिविज्ञान, पदविज्ञान, वाक्यविज्ञान, अर्थविज्ञान आदि को भाषाविज्ञान का अंग तथा वर्णनात्मक, तुलनात्मक, ऐतिहासिक एवं संरचनात्मक भाषाविज्ञान को भाषाविज्ञान की शाखाएँ मानना अधिक विचारसंगत और वैज्ञानिक है और ये भाषाविज्ञान के मूर्धन्य आचार्यों द्वारा मान्य है। == वर्णनात्मक भाषाविज्ञान == वर्णनात्मक भाषाविज्ञान को समकालिक, या एककालिक भी कहते हैं। इस पद्धति द्वारा किसी एक भाषा का किसी एक काल की संरचनात्मक विशेषताओं का विवेचन-विश्लेषण किया जाता है। इसमें जीवित भाषा या बोली के लिए वर्णनात्मक भाषाविज्ञान की पद्धति को अपनाया जाता है। कथित भाषा सामग्री के अभाव लिखित सामग्री को विश्लेषण का आधार बनाया जा सकता है। इस दृष्टि से किसी भी समय के साहित्य का अथवा किसी साहित्यकार की रचना का भाषावैज्ञानिक विश्लेषण वर्णनात्मक पद्धति होता है। वर्णनात्मक भाषाविज्ञान के अंतर्गत वर्णनात्मक ध्वनिविज्ञान, वर्णनात्मक पदविज्ञान, वर्णनात्मक वाक्यविज्ञान, वर्णनात्मक अर्थविज्ञान आदि का विवेचन होता है। == तुलनात्मक भाषाविज्ञान == आधुनिक भाषा विज्ञान का प्रारम्भ ही तुलनात्मक भाषा विज्ञान से माना जाता है। 'तुलनात्मक' का अर्थ है दो या दो से अधिक भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन तथा इस पद्धति में अध्ययन एक या कई कालों की भाषाओं का हो सकता है। इसमें ऐतिहासिक भाषाविज्ञान से भी सहायता ली जाती है। एक, दो या अधिक भाषाओं या बोलियों के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा उस अज्ञात भाषा का स्वरूप ज्ञात किया जाता है, जिससे वे दोनों निकली है। इसे भाषा का पुनर्निर्माण कहते है। अठारहवीं उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोपीय विद्वानों ने प्राचीन लैटिन, यूनानी, ईरानी और ऋग्वेद भाषा का तुलनात्मक अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला कि किसी समय भारत से लेकर यूरोप तक के लोग एक ही मूल भाषा का व्यवहार करते थे। भारत में तुलनात्मक भाषाविज्ञान का आरम्भ डॉ. सुनिति कुमार चैटर्जी, डॉ. सुकुमार सेन आदि के प्रयत्नों से कलकत्ता विश्वविधालय में हुआ। आज इसका क्षेत्र बहुत विस्तृत है। == ऐतिहासिक भाषाविज्ञान == ऐतिहासिक भाषाविज्ञान को कालक्रमिक, या द्विकालिक भी कहते हैं। किसी भाषा में विभिन्न कालों में हुए परिवर्तन पर विचार करना एवं उन परिवर्तनों के सम्बन्ध में सिद्धांतों का निर्माण ऐतिहासिक भाषा विज्ञान के अंतर्गत आता है। वर्णनात्मक पद्धति तथा ऐतिहासिक पद्धति में मुख्य अन्तर यह है कि वर्णनात्मक भाषा विज्ञान में किसी भाषा के अध्ययन करते समय या काल से सम्बन्धित स्वरूप का विश्लेषण होता है। इसलिए इसे एककालिक कहा जाता है जबकि दूसरी ओर ऐतिहासिक भाषा विज्ञान में भाषा का कालक्रमिक या द्विकालिक अध्ययन होता है। भाषा के विभिन्न कालों में होने वाले परिवर्तनों को उसके विकास की प्रकिया के द्वारा देखा जाता है कि कोई भी भाषा अपने प्राचीन रूप से किन सोपानों को पार कर वर्तमान स्थिति तक पहुँची है। जैसे, भाषा में ध्वनियों, शब्दावली, व्याकरणिक रूप, वाक्य-रचना आदि परिवर्तन होते रहते हैं। इन्हीं परिवर्तनों का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करना ही 'ऐतिहासिक भाषाविज्ञान' कहलाता है। == संरचनात्मक भाषाविज्ञान == संरचनात्मक पद्धति वर्णनात्मक भाषाविज्ञान पद्धति की अगली कड़ी है। इसमें भाषा के विभिन्न तत्वों के पारस्परिक सम्बन्धों को लेकर अध्ययन किया जाता है। संरचनात्मक भाषाविज्ञान के विभिन्न तत्वों का पारस्परिक संबंध अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है, जबकि वर्णनात्मक भाषाविज्ञान भाषा की भीतरी व्यवस्था से निरपेक्ष अध्ययन प्रस्तुत करता है। 'संचनात्मक भाषाविज्ञान' के प्रवर्तक 'जैलिग हैरिस' (अमरीका) ने 'Methods in structural Linguistics' नामक ग्रन्थ में इस पद्धति का विकास किया। इसमें यांत्रिक उपकरणों को अधिक महत्व दिया जाता है जिससे अनुवाद करने में विशेष सुविधा होती है। == संदर्भ == # भाषा-विज्ञान के सिद्धांत &mdash; डॉ. मीरा दीक्षित। पृष्ठ: 45-47 1r3uffp5ltr7d8boq5j1alkvvanzd37 भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/पदबंध की अवधारणा और उसके भेद 0 5850 78860 75270 2022-08-21T10:26:07Z Saurmandal 13452 wikitext text/x-wiki {{BookCat}} == पदबंध की अवधारणा == जब एक से अधिक पद (रूप), एक में बँधकर एक व्याकरणिक इकाई (जैसे: संज्ञा, विशेषण, क्रिया-विशेषण, आदि) का कार्य करें तो उस बँधी इकाई को पदबंध कहते हैं। उदाहरण: * वहाँ पेड़ हैं। * सौरभ के मकान के चारों ओर पेड़ हैं। पहले वाक्य में 'वहाँ ' एक क्रिया-विशेषण पद (स्थानवाचक) है, दूसरे वाक्य में, 'सौरभ के मकान के चारों ओर' यहाँ कई पदों की ऐसी इकाई है जो स्थानवाचक क्रिया-विशेषण का कार्य कर रही है, अतः यह क्रिया-विशेषण पद न होकर क्रिया-विशेषण पदबंध है। == पदबंध के भेद == साधारणतः पदबंध आठ प्रकार के हो सकते हैं: # '''संज्ञा-पदबंध'''&mdash; जैसे, "'''इतनी लगन से कला की साधना करने वाला कलाकार''' अवश्य सफल होगा।" # '''सर्वनाम-पदबंध'''&mdash; जैसे, "'''मौत से इतनी बार जूझकर बच जाने वाला मैं''' भला मर सकता हूँ।" # '''विशेषण-पदबंध'''&mdash; जैसे, "'''शरत पूनों के चाँद सा सुन्दर मुख''' किसको नहीं मोह लेता।" # '''क्रिया-पदबंध'''&mdash; जैसे, "उसकी बात अब तो '''मान ली जा सकती है।'''" # '''क्रिया-विशेषण-पदबंध'''&mdash; जैसे, "'''आगामी वर्ष के मध्य तक मेरा''' काम पूरा हो जाएगा।" # '''संबंधबोधक-पदबंध'''&mdash; जैसे, "इस मकान '''से बाहर की ओर''' कोई बोल रहा है।" # '''समुच्चयबोधक-पदबंध'''&mdash; "उसे मैं नहीं चाहता, '''क्योंकि''' वह झूठ बोलता है।" # '''विस्मयादिबोधक-पदबंध'''&mdash; "'''हाय रे किस्मत!''' यह प्रयास भी नाकाम रहा।" आजकल 'पद' शब्द के स्थान पर भी 'पदबंध' शब्द का प्रयोग विशेष संदर्भों में हो रहा है। == संदर्भ == # भाषा विज्ञान &mdash; डॉ. भोलानाथ तिवारी। प्रकाशक: '''किताब महल''', पुर्नमुद्रण: 2017, पृष्ठ: 239, 240 g59fonqrobl23ajsrr1amt29285kimw 78861 78860 2022-08-21T10:26:25Z Saurmandal 13452 wikitext text/x-wiki {{BookCat}} == पदबंध की अवधारणा == जब एक से अधिक पद (रूप), एक में बँधकर एक व्याकरणिक इकाई (जैसे: संज्ञा, विशेषण, क्रिया-विशेषण, आदि) का कार्य करें तो उस बँधी इकाई को पदबंध कहते हैं। उदाहरण: * वहाँ पेड़ हैं। * सौरभ के मकान के चारों ओर पेड़ हैं। पहले वाक्य में 'वहाँ ' एक क्रिया-विशेषण पद (स्थानवाचक) है, दूसरे वाक्य में, 'सौरभ के मकान के चारों ओर' यहाँ कई पदों की ऐसी इकाई है जो स्थानवाचक क्रिया-विशेषण का कार्य कर रही है, अतः यह क्रिया-विशेषण पद न होकर क्रिया-विशेषण पदबंध है। == पदबंध के भेद == साधारणतः पदबंध आठ प्रकार के हो सकते हैं: # '''संज्ञा-पदबंध'''&mdash; जैसे, "'''इतनी लगन से कला की साधना करने वाला कलाकार''' अवश्य सफल होगा।" # '''सर्वनाम-पदबंध'''&mdash; जैसे, "'''मौत से इतनी बार जूझकर बच जाने वाला मैं''' भला मर सकता हूँ।" # '''विशेषण-पदबंध'''&mdash; जैसे, "'''शरत पूनों के चाँद सा सुन्दर मुख''' किसको नहीं मोह लेता।" # '''क्रिया-पदबंध'''&mdash; जैसे, "उसकी बात अब तो '''मान ली जा सकती है।'''" # '''क्रिया-विशेषण-पदबंध'''&mdash; जैसे, "'''आगामी वर्ष के मध्य तक मेरा''' काम पूरा हो जाएगा।" # '''संबंधबोधक-पदबंध'''&mdash; जैसे, "इस मकान '''से बाहर की ओर''' कोई बोल रहा है।" # '''समुच्चयबोधक-पदबंध'''&mdash; "उसे मैं नहीं चाहता, '''क्योंकि''' वह झूठ बोलता है।" # '''विस्मयादिबोधक-पदबंध'''&mdash; "'''हाय रे किस्मत!''' यह प्रयास भी नाकाम रहा।" आजकल 'पद' शब्द के स्थान पर भी 'पदबंध' शब्द का प्रयोग विशेष संदर्भों में हो रहा है। == सन्दर्भ == # भाषा विज्ञान &mdash; डॉ. भोलानाथ तिवारी। प्रकाशक: '''किताब महल''', पुर्नमुद्रण: 2017, पृष्ठ: 239, 240 plgxctnh6gn8tjsida0drjhu40iw9pf 78900 78861 2022-08-21T10:35:14Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/पदबंध की अवधारणा और उसके भेद]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/पदबंध की अवधारणा और उसके भेद]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} == पदबंध की अवधारणा == जब एक से अधिक पद (रूप), एक में बँधकर एक व्याकरणिक इकाई (जैसे: संज्ञा, विशेषण, क्रिया-विशेषण, आदि) का कार्य करें तो उस बँधी इकाई को पदबंध कहते हैं। उदाहरण: * वहाँ पेड़ हैं। * सौरभ के मकान के चारों ओर पेड़ हैं। पहले वाक्य में 'वहाँ ' एक क्रिया-विशेषण पद (स्थानवाचक) है, दूसरे वाक्य में, 'सौरभ के मकान के चारों ओर' यहाँ कई पदों की ऐसी इकाई है जो स्थानवाचक क्रिया-विशेषण का कार्य कर रही है, अतः यह क्रिया-विशेषण पद न होकर क्रिया-विशेषण पदबंध है। == पदबंध के भेद == साधारणतः पदबंध आठ प्रकार के हो सकते हैं: # '''संज्ञा-पदबंध'''&mdash; जैसे, "'''इतनी लगन से कला की साधना करने वाला कलाकार''' अवश्य सफल होगा।" # '''सर्वनाम-पदबंध'''&mdash; जैसे, "'''मौत से इतनी बार जूझकर बच जाने वाला मैं''' भला मर सकता हूँ।" # '''विशेषण-पदबंध'''&mdash; जैसे, "'''शरत पूनों के चाँद सा सुन्दर मुख''' किसको नहीं मोह लेता।" # '''क्रिया-पदबंध'''&mdash; जैसे, "उसकी बात अब तो '''मान ली जा सकती है।'''" # '''क्रिया-विशेषण-पदबंध'''&mdash; जैसे, "'''आगामी वर्ष के मध्य तक मेरा''' काम पूरा हो जाएगा।" # '''संबंधबोधक-पदबंध'''&mdash; जैसे, "इस मकान '''से बाहर की ओर''' कोई बोल रहा है।" # '''समुच्चयबोधक-पदबंध'''&mdash; "उसे मैं नहीं चाहता, '''क्योंकि''' वह झूठ बोलता है।" # '''विस्मयादिबोधक-पदबंध'''&mdash; "'''हाय रे किस्मत!''' यह प्रयास भी नाकाम रहा।" आजकल 'पद' शब्द के स्थान पर भी 'पदबंध' शब्द का प्रयोग विशेष संदर्भों में हो रहा है। == सन्दर्भ == # भाषा विज्ञान &mdash; डॉ. भोलानाथ तिवारी। प्रकाशक: '''किताब महल''', पुर्नमुद्रण: 2017, पृष्ठ: 239, 240 plgxctnh6gn8tjsida0drjhu40iw9pf भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/शब्द और पद में अंतर और हिन्दी शब्द भण्डार के स्रोत 0 5874 78902 78669 2022-08-21T10:35:32Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/शब्द और पद में अन्तर और हिन्दी शब्द भंडार के स्रोत]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/शब्द और पद में अंतर और हिन्दी शब्द भण्डार के स्रोत]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} ===शब्द और पद में अन्तर=== 'रूप' और 'पद' दोनों समानार्थी हैं। वस्तुत: मूल या प्रातिपदिक शब्द एवं धातुओं में व्याकरणिक प्रत्ययों के संयोग से अनेक रूप बनते हैं, जो वाक्य में प्रयुक्त होने पर 'पद' (रूप) कहलाते हैं। उच्चारण की दृष्टि से भाषा की लघुतम इकाई ध्वनि है और सार्थकता की दृष्टि से शब्द। ध्वनि सार्थक हो ही, यह आवश्यक नहीं है; जैसे-- अ, क, च, ट, त, प आदि ध्वनियाँ तो हैं, किन्तु सार्थक नहीं । किन्तु, अब, कब, चल, पल आदि शब्द है; क्योकि इनमें सार्थकता है, अर्थात् अर्थ देने की क्षमता है। पदविज्ञान में पदों के रूप और निर्माण का विवेचन होता है। सार्थक हो जाने से ही शब्द में प्रयोग-योग्यता नहीं आ जाती। कोश में हजारों-हजार शब्द रहते हैं, पर उसी रूप में उनका प्रयोग भाषा में नहीं होता । उनमें कुछ परिवर्तन करना होता है। उदाहरणार्थ कोश में 'पढ़ना' शब्द मिलता है और वह सार्थक भी है, किन्तु प्रयोग के लिए 'पढ़ना' रूप ही पर्याप्त नहीं है, साथ ही उसका अर्थ भी स्पष्ट नहीं होता। 'पढ़ना' के अनेक अर्थ हो सकते हैं, जैसे- पढ़ता है, पढ़ रहा है, पढ़ रहा होगा आदि। 'पढ़ना' के ये अनेक रूप जिस प्रक्रिया से सिध्द होते हैं, उसी का अध्ययन पदविज्ञान का विषय है। अत: रूप के दो भेद किये हैं-- शब्द और पद। शब्द से उनका तात्पर्य विभक्तिहीन शब्द से है जिसे प्रातिपदिक भी कहते हैं। पद शब्द का प्रयोग वैसे शब्द के लिए किया जाता है जिसमें विभक्ति लगी हो। इस प्रकार शब्द और पद का भेदक तत्व विभक्ति है। जैसे पहले बताया जा चुका है, विभक्ति का अर्थ ही है विभाजन करनेवाला या बाँटनेवाला तत्व अर्थात् जिसकी सहायता से शब्दों का अर्थ विभक्त हो जाये। विभिक्ति की सहायता से ही 'मुझको', 'मुझसे' और 'मुझमें' के अर्थ परस्पर भिन्न हो जाते हैं। यह भिन्नता विभक्ति के कारण है, अन्यथा मूलरूप 'मुझ' सर्वत्र एक ही है। तात्पर्य कि विभक्तियों के योग से ही शब्दों में प्रयोग-योग्यता आती है, अर्थात् उनमें परस्पर अन्वय हो सकता है। ===संदर्भ=== १. भाषाविज्ञान की भूमिका --- आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा । दीपि्त शर्मा । पृष्ठ - २२२ ===हिन्दी शब्द भण्डार के स्रोत=== भाषा की समृद्धि तथा गत्यात्मक विकास के लिए उसका शब्द-समूह विशेष महत्व रखता है। भाषा-विकास के साथ उसकी अभिव्यक्ति शक्ति में भी वृध्दि होती है। इस प्रकार भाषा में नित्य परिवर्तन होता रहता है। भाषा का सम्बन्ध विश्व भर की भाषाओं से होता है। विभिन्न भाषा-भाषाओं के विचारों, भावों के आदान-प्रदान से भाषाओं के विशिष्ट शब्दों का भी विनिमय होता है। इस प्रकार भाषाओं के शब्द-भण्डार को उस भाषा का शब्द-समूह कहा जाता है। विश्व भर की अन्य भाषाओं की तरह हिन्दी के शब्द-समूह को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-- १) परम्परागत शब्द २) देशज(देशी) शब्द ३) विदेशी शब्द। १) '''परम्परागत शब्द''':- परम्परागत शब्द भाषा को विरासत में मिलते हैं। हिन्दी में ये शब्द संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश की परम्परा से आए हैं। ये शब्द तीन प्रकार के हैं- १)तत्सम शब्द, २)अर्द्ध तत्सम, ३)तद्भव शब्द। १) '''तत्सम शब्द''':- तत्सम शब्द का अर्थ संस्कृत के समान - समान ही नहीं , अपितु शुध्द संस्कृत के शब्द जो हिन्दी में ज्यों के त्यों प्रचलित हैं। हिन्दी में स्त्रोत की दृष्टि से तत्सम के चार प्रकार हैं-- १) संस्कृत से प्राकृत, अपभ्रंश से होते हुए हिन्दी में आये हुए तत्सम शब्द; जैसे- अचल, अध, काल, दण्ड आदि। २) संस्कृत से सीधे हिन्दी में भक्ति, आधुनिक आदि विभिन्न कालों के लिए गए शब्द; जैसे- कर्म, विधा, ज्ञान, क्षेत्र, कृष्ण, पुस्तक आदि। ३) संस्कृत के व्याकरिणक नियमों के आधार पर हिन्दी काल में निर्मित तत्सम शब्द; जैसे- जलवायु(आब हवा), वायुयान(ऐरोप्लेन),प्राध्यापक (Lecturer) आदि। ४) अन्य भाषा से आए तत्सम शब्द। इस वर्ग के शब्दों की संख्या अत्यल्प है। कुछ थोडे़ शब्द बंगाली तथा मराठी के माध्यम से हिन्दी में आए हैं। जैसे- उपन्यास, गल्प, कविराज, सन्देश, धन्यवाद आदि बंगाली शब्द है।, प्रगति, वाड्मय आदि मराठी शब्द है। २) '''अधर्द तत्सम शब्द''':- तत्सम और तद्भव के बीच की स्थिति के शब्द अर्थात् जो पूरी तरह तद्भव भी नहीं है और पूरी तरह से तत्सम भी। ऐसे शब्दों को डा. ग्रियर्सन, डा. चटर्जी आदि भाषाविदों ने 'अध्र्द तत्सम' की संज्ञा दी है; जैसे- 'कृष्ण' तत्सम शब्द है, कान्हा, कन्हैया उसके तध्दव रूप हैं, परन्तु किशुन, किशन न तो तत्सम है और न तद्भव; अत: इन्हें अध्र्द तत्सम कहा गया है। ३) '''तद्भव शब्द''':- तद्भव शब्द का अर्थ संस्कृत से उत्पन्न या विकसित शब्द, अनेक कारणों से संस्कृत, प्राकृत आदि की ध्वनियाँ घिस-पीट कर हिन्दी तक आते-आते परिवर्तित हो गयी है। परिणामत: पूवर्वती आर्य भाषाओं के शब्दों के जो रूप हमें प्राप्त हुए हैं, उन्हें तद्भव कहा जाता है। हिन्दी में प्राय: सभी तद्भव हैं। संज्ञापदों की संख्या सबसे अधिक है, किन्तु इनका व्यवहार देश, काल, पात्र आदि के अनुसार थोडा़ बहुत घटता-बढ़ता रहता है। जैसे- अंधकार से अंधेरा, अग्नि से आग, अट्टालिका से अटारी, रात्रि से रात, सत्य से सच आदि। २) [['''देशज(देशी)''']]:- देशी शब्द का अर्थ है अपने देश में, उत्पन्न जो शब्द न विदेशी है, न तत्सम हैं और न तद्भव हैं। देशज शब्द के नामकरण के विषय में विद्दानों में पर्याप्त मतभेद है। भरतमुनि ने इसे 'देशीमत' , चण्ड ने 'देशी प्रसिध्द' तथा मार्कण्डेय तथा हेमचन्द्र ने इसे 'देशा' या देशी कहा है। डा. शयामसुन्दरदास तथा डा. भोलानाथ तिवारी ने इसे 'अज्ञात व्युत्पत्तिक' कहा है। अत: देशज शब्द दो प्रकार के हैं-- १) एक वे जो अनार्य भाषाओं(द्रविड़ भाषाओं) से अपनाये गये हैं और दूसरे २) वे जो लोगों ने ध्वनियों की नकल में गढ़ लिये गए हैं। (क) द्रविड़ भाषाओं से-- उड़द, ओसारा, कच्चा, कटोरा कुटी आदि। (ख) अपनी गठन से-- अंडबंड, ऊटपटाँग, किलकारी, भोंपू आदि। ३) [['''विदेशी शब्द''']]:- जो शब्द हिन्दी में विदेशी भाषाओं से लिये गये हैं अथवा आ गये हैं, वे विदेशी शब्द कहलाते हैं। मुस्लिम तथा अंग्रेज शासकों के कारण उनकी भाषाओं के शब्द हिन्दी में अत्याधिक मात्रा में आये हैं। फारसी, अरबी तथा तुर्की शब्द भी हिन्दी में अपनाये गये हैं। वाणिज्य, व्यवसाय, शासन, ज्ञान-विज्ञान तथा भौगोलिक सामिप्य आदि इसके कारण हो सकते हैं, साथ ही ऐतिहासिक,सांस्कृतिक, आर्थिक कारण भी हो सकते हैं। डा. धीरेन्द्र वर्मा ने ऐसे शब्दों के लिए 'उध्दत शब्द' का प्रयोग किया है। और डा. हरदेव बाहरी ने इन्हें 'आयात' शब्द कहा है। हिन्दी में इसके लिए 'विदेशी शब्द' संज्ञा बहुप्रयुक्त होती रही है, यह शब्द तुर्की, अरबी, फारसी आदि एशिया की भाषाओं से, और अंग्रेजी, फ्रेंच, पुर्तगाली आदि यूरोपीय भाषाओं से आये हैं। उदाहरण-- (क) '''तुर्की से''':- तुर्कीस्तान, विशेषत: पूर्वी प्रदेश से भी भारत का सम्बन्ध प्राचीन है। यह सम्बन्ध धर्म, व्यापार तथा राजनीति आदि स्तरों पर था। ई.स. १०० के बाद तुर्क बादशाहों के राज्यस्थापना के कारण हिन्दी में तुर्की से बहुत से शब्द आएँ। डा. चटर्जी, डा. वर्मा तुर्की शब्दों का प्राय: फारसी माध्यम से आया मानते हैं, किन्तु डा.भोलानाथ तिवारी जी तुर्की से आया मानते है। हिन्दी में तुर्की शब्द कितने हैं, इस सन्दर्भ में मतभेद हैं। डा. चटर्जी के अनुसार लगभग 100 है। जैसे- उर्दू, कालीन, काबू, कैंची, कुली, चाकू, चम्मच, चेचक, तोप, दरोगा, बारूद, बेगम, लाश, बहादुर आदि। (ख) '''अरबी से''':- १००० ई. के बाद मुसलमान शासकों के साथ फारसी भारत में आई और उसका अध्ययन-अध्यापन होने लगा। कचहरियों में भी स्थान मिला। इसी प्रकार उसका हिन्दी पर बहुत गहरा प्रभाव पडा़ । हिन्दी में जो फारसी शब्द आए, उनमें काफी शब्द अरबी के भी थे। अरब से कभी भारत का सीधा सम्बन्ध था, किन्तु जो शब्द आज हमारी भाषाओं के अंग बन चुके हैं, डा. भोलानाथ तिवारी के अनुसार छ: हजार शब्द फारसी के है जिनमें 2500 अरबी के है। जैसे-- अजब, अजीब, अदालत, अक्ल, अल्लाह, आखिर, आदमी, इनाम,एहसान, किताब, ईमान आदि। (ग) '''फ्रांसीसी से''':- भारत और ईरान के सम्बन्ध बहुत पुराने हैं। भाषा विज्ञान जगत इस बात से पूर्णत: अवगत है कि ईरानी और भारतीय आर्य भाषाएँ एक ही मूल भारत-ईरानी से विकसित है। यही कारण है कि अनेकानेक शब्द कुछ थोडे़ परिवर्तनों के साथ संस्कृत और फारसी दोनों में मिलते है; डा. भोलानाथ तिवारी के अनुसार हिन्दी में छ: हजार शब्द फारसी के माने है। अंग्रेजी के माध्यम से बहुत सारे फ्रांसीसी शब्द हिन्दी में आ गये हैं; जैसे- आबरू, आतिशबाजी, आमदनी, खत, खुदा, दरवाजा, जुकाम, मजबूर, फरिश्ता लैम्प, टेबुल आदि। (घ) '''अंग्रेजी से''':- लगभग ई.स. १५०० से यूरोप के लोग भारत में आते-जाते रहे हैं, किन्तु करीब तीन सौ वर्षों तक हिन्दी भाषी इनके सम्पर्क में नहीं आए, क्योकि यूरोपीय लोग समुद्र के रास्ते से भारत में आये थे; अत: इनका कार्यक्षेत्र प्रारम्भ में समुद्र तटवर्ती प्रदेशों में ही रहा है, लेकिन १८ वी. शती के उत्तराध्र्द से अंग्रेज समूचे देश में फैलने लगे। ई.स. १८०० के लगभग हिन्दी भाषा प्रदेश मुगलों के हाथ से निकलकर अंग्रेजी शासन में चला गया। तब से लेकर ई.स. १९४७ तक अंग्रेजों का शासन रहा। इस शासन काल के दौरान अंग्रेजी भाषा और सभ्यता को प्रधानता प्राप्त हुई। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी अंग्रेजी भाषा का महत्व कम नहीं हुआ। परिणामस्वरूप सभी भारतीय भाषा में अंग्रेजी के बेशुमार शब्दों का प्रयोग होता आ रहा है। यधपि डा. हरदेव बाहरी के अनुसार अंग्रेजी के हिन्दी में प्रचलित शब्दों की संख्या चार-पाँच सौ अधिक नहीं है, लेकिन वास्तव में यह संख्या तीन हजार से कम नहीं होगी। तकनीकी शब्दों को जोड़ने पर यह संख्या दुगुनी हो जायेगी। जैसे- अपील, कोर्ट, मजिस्टेट, जज, पुलिस, पेपर, स्कूल, टेबुल, पेन, मोटर, इंजिन आदि। इस प्रकार हिन्दी भाषा ने देश-विदेश की अनेक भाषाओं से शब्द ग्रहणकर अपने शब्द भण्डार में महत्वपूर्ण वृध्दि कर ली है। ===संदर्भ=== १. हिन्दी भाषा-- डा. हरदेव बाहरी। अभिव्यक्ति प्रकाशन, पुर्नमुद्रण--२०१७, पृष्ठ-- १३५ २. प्रयोजनमूलक हिन्दी: सिध्दान्त और प्रयोग-- दंगल झाल्टे। वाणी प्रकाशन, आवृति--२०१८, पृष्ठ-- ३४ ३. प्रयोजनमूलक हिन्दी--- माधव सोनटक्के । पृष्ठ-- २४०-२५३ 7e6p5dvprefykpjm6jcewrjeiwozohk भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ 0 5884 78904 75271 2022-08-21T10:36:03Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} ===पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ=== '''पश्चिमी हिन्दी''':- इस उपभाषा का क्षेत्र पश्चिम में अम्बला से लेकर पूर्व में कानपुर की पूर्वी सीमा तक, एवं उत्तर में जिला देहरादून से दक्षिण में मराठी की सीमा तक चला गया है। इस क्षेत्र के बाहर दक्षिण में महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल के प्राय: मुसलमानी घरों में पश्चिमी हिन्दी का ही एक रूप दक्खिनी हिन्दी व्याप्त है। इस उपभाषा के बोलने वालों की संख्या छह करोड़ से कुछ ऊपर है। साहित्यिक दृष्टि से यह उपभाषा बहुत संपन्न है। दक्खिन हिन्दी व्रजभाषा और आधुनिक युग में खडी़ बोली हिन्दी का विशाल साहित्य मिलता है। सूरदास, नन्ददास, भूषण, देव, बिहारी, रसखान आदि के नाम सर्वविदित हैं। खडी़ बोली की परम्परा भी लम्बी है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और उनके युग के साहित्यकारों, महावीर प्रसाद द्दिवेदी, छायावादी और प्रगतिवादी तथा तथा अधतन साहित्यकारों ने खडी़ बोली हिन्दी को विकसित करने में बहुमूल्य योगदान दिया। पश्चिमी हिन्दी में उच्चारणगत खडा़पन है, अर्थात तान में थोडा़ आरोह होता है। पश्चिमी हिन्दी की प्रकृति सामान्य भाषा हिन्दी अर्थात् खडी़ बोली के अनुरूप है। वास्तव में यही पश्चिमी हिन्दी भारत की सामान्य भाषा हो गई हैं। इसकी उपबोलियाँ हैं; १) खडी़ बोली(कौरवी), २) व्रजभाषा, ३) बुंदेली, ४) हरियाणी(बांगरू), ५) कन्नौजी। ===खडी़ बोली(कौरवी)=== दिल्ली से उत्तरपूर्व यमुना के बायें किनारे तराई तक फैला हुआ जितना विस्तृत प्रदेश है उसका कोई नाम ही नहीं है, यधपि उसकी अपनी एक विशिष्ट बोली है जिसके आधार पर आधुनिक हिन्दी का विस्तार और प्रचार-प्रसार हुआ है। इस बोली को हिन्दुस्तानी, सरहिन्दी, बोलचाल की हिन्दुस्तानी, खडी़ बोली आदि कई नाम दिये गए हैं। इन सबसे अच्छा और सही नाम 'कौरवी' है। यह वही प्रदेश है जिसे पहले कुरू जनपद कहते थे। खडी़ बोली तो मूलत: उसे कहते हैं जिसे सामान्य या मानक हिन्दी भी कहा जाता है। कौरवी रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, देहरादून के मैदानी भाग, अंबला(पूर्वी भाग) तथा पटियाला के पूर्वी भाग में बोली जाती है। इसका क्षेत्र हरियाणी, व्रज और पहाडी़ बोलियों के बीच में पड़ता है। लोकगीत और लोकवार्तायें मिलती हैं, परन्तु उच्च साहित्य मानक हिन्दी में ही मिलता है। बोलने वालों की संख्या डेढ़-दो करोड़ है। '''कौरवी भाषा की विशेषताएँ''':- पश्चिमी हिन्दी में उच्चारणगत खडा़पन है, अर्थात् तान में थोडा़ आरोह होता है। इसकी प्रधान विशेषताएँ हैं, १. इसमें कई शब्दों के आदि अक्षर में स्वरलोप होता है; जैसै- गूँठा (अंगूठा), साढ़ (असाढ़), कट्ठा (इकट्ठा), ठाना (उठाना) आदि। २. इसमें औ का ओ सुनाई देता है; जैसे- होर (और), नो (नौ), ओरत (औरत) आदि। ३. कौरवी में मूर्धन्य ध्वनियों की अधिकता है; जैसे- देणा, लेणा, कहाणी, चाल्ण आदि। ४. ड़ , ढ़ , के स्थान पर ड , ढ प्राय: सुनने में आता है; जैसे- बडा, डौढा, भोंडा आदि। ५. म्ह, न्ह, र्ह, ल्ह, व्ह आदि निराली ध्वनियाँ है; जैसे- म्हारा, तुम्हैं, न्हाना, सुन्हैरा, ल्हास(लाश), ल्हैर(लहर) आदि ६. महाप्राण के बदले अल्पप्राण का प्रयोग ,जैसे- सुराई (सुराही), बोज (बोझ), जीब (जीभ), पौदा (पौधा), मैंबी (मैं भी) गुच्चा (गुच्छा) आदि। ७. हिन्दी में स्त्रीलिंग कारक चिन्हों में विविधता है। इसमें धोबन, चमारन, ठकुरान- स्त्री रूप और घास, नाक-पुल्लिंग रूप है। कारकों में बहुवचन- ओ के बदल-े ऊं का प्रयोग होता है; जैसे- मरदों (मरदूँ), बेट्टियों (बेट्टयूँ) आदि। ८. इसमें उत्तम पुरूष और मध्यम पुरूष सर्वनामों के रूपों में कोई अन्तर नहीं है।बल्कि मुझ, तुझ का उच्चारण मुज और तुज तथा वह के स्थान पर ऊ, ओ पर यू, यो होता है। ९. इसमें संख्यावाचक विशेषणों का उच्चारण कुछ-कुछ भिन्न है; जैसे- ग्यारै, बारै, छयालिस, उणसठ, पिचासी, ठासी, आदि। ===व्रजभाषा=== व्रज का अर्थ है गोस्थली, वह क्षेत्र जहाँ गायें रहती हैं। रूढ़ अर्थ में मथुरा और उसके आस-पास 84 कोस तक के मंडल को व्रजमंडल कहते हैं। परन्तु भाषा की दृष्टि से यह क्षेत्र इससे अधिक विस्तृत है। मथुरा, आगरा, और अलीगढ़ जिलों में व्रजभाषा का शुध्द रूप मिलता है। बरेली, बदायूँ, एटा, मैनपुरी, गुडगाँव, भरतपुर,करौली, ग्वालियर तक व्रजभाषा के थोडे़-बहुत मिश्रण पाये जाते हैं, परन्तु प्रमुखत: बोली व्रजभाषा ही है। जनसंख्या तीन करोड़ के लगभग है। अत: व्रजभाषा का साहित्य अत्यंत विशाल है। '''व्रजभाषा की विशेषताएँ''':- १. व्रजभाषा हस्व ए और ओ अतिरिक्त ध्वनियाँ है। शब्दों के अंत में हस्व इ और उ होते है; जैसे- बहुरि, करि, किमि, बाघु, मनु, कालु आदि। २. हिन्दी में पद के अंत में जो ए , ओ होते है, उनके स्थान पर ऐ , औ पाये जाते हैं; जैसे- करै, घर मै, ऊधौ, साधु कौ आदि। ३. व्यंजन का अल्पप्राण में प्रयोग, जैसे- बारा (बारह), भूंका (भूखा), हात (हाथ) आदि। ४. ल और ड़ के स्थान पर' र 'में प्रयोग जैसे- परयो (पडा़), झगरो (झगडा़), पीरो (पीला), दूबरो (दूबला) । ५. बहुत से शब्दों के व्यंजन संयोग हैं परन्तु प्राय: संयोग को स्वरभक्ति से तोड़ देते हैं; जैसे- बिरज (व्रज), सबद (शब्द), बखत (वक्त) आदि। ६. इसमें प्राय: शब्द के बीच र का लोप हो जाता है तथा र के संयोगवाला दूसरा व्यजंन द्दित्व हो जाता है; जैसे- घत्ते (घर से), सद्दीन में (सर्दियों में), मदरसा (मदर्सा) आदि। ===बुंदेली=== बुंदेला राजपूतों का प्रदेश होने के कारण जिस क्षेत्र का नाम बुंदेलखंड पडा़, उसकी बोली को बुंदेलखंडी या बुंदेली कहते हैं। यह बोली उत्तर प्रदेश के झाँसी, उरई, जालौन, हमीरपुर और बाँदा (पशचिमी भाग) में, तथा मध्य प्रदेश के ओड़छा, पन्ना, दतिया, चरखारी, सागर, टीकमगढ़, छिंदवाडा़, होशंगाबाद और बालाघाट के अतिरिक्त ग्वालियर (पूर्वी भाग) और भोपाल में बोली जाती है। जनसंख्या डेढ़ करोड़ के लगभग है। बुंदेलखंड मध्यकाल में एक प्रसिध्द सांस्कृतिक और साहित्यिक केन्द्र रहा है। तुलसीदास, केशवदास, बिहारी, मतिराम, ठाकुर आदि कवि यहीं के रहने वाले थे। कतिपय विद्दानों का कहना है कि जिसे हम व्रजभाषा काव्य कहते हैं वह वस्तुत: बुंदेली का काव्य है। '''बुंदेली भाषा की विशेषताएँ''':- १. उच्चारण की दृष्टि से व्रजभाषा और बुंदेली में बहुत कम अन्तर है। महाप्राण व्यजंनों के अल्पप्राणीकरण की प्रवृति व्रजभाषा से अधिक हैं; जैसे- दई (दही), कंदा (कंधा), सूदो (सूधो), कइ (कही), लाब (लाभ), डाँडी़ (डाढी़)। २. संज्ञा के दो रूप मिलते हैं, जैसे- घोडो़, घुड़वा; बेटी, बेटिया; मालिन, मलिनिया; बैल, बैलवा, ठकुरान, ठकुराइन आदि। ३. इसमें शब्द के बीच में 'र' का लोप पाया जाता है, जैसे- साए (सारे), तुमाओ (तुम्हारा), गाई (गारी), भाई (भारी)। ४. सर्वनामों में कोई विशेष अन्तर दिखाई नहीं देता।' मैं ' की अपेक्षा 'हम' का प्रयोग अधिक होता है। ५. इसमें संख्यावाचक शब्दों का प्रयोग होता है, जैसे- गेरा (ग्यारह), चउदा (चौदा), सोरा (सोलह), पाँचमौं, छटमौं। ===हरयाणी (बांगरू)=== यह बोली हरयाणा, पटियाला, पंजाब के दक्षिणी भाग और दिल्ली के आस-पास के गाँवों में बोली जाती है। साहित्यिक दृष्टि से इसका कोई विशेष महत्व नहीं है। लोक-साहित्य तो सभी बोलियों में पाया जाता है। इसमें भी है '''हरियाणी भाषा की विशेषताएँ''':- १. हरयाणी की ध्वनियां वही हैं जो कौरवी की। संज्ञा के रूपों में तिर्यक् रूप बहुवचन आकारान्त होता है; जैसे- घरां से, छोहरियां ने आदि। २. इसमें 'न' के स्थान पर 'ण' का प्रयोग अधिक मिलता है। जैसे- कोण जावै से (कौन जाता है।) ३. इसमें सहायक क्रिया (हूँ, है, हैं) के स्थान पर सूँ , सै , सैं , का प्रयोग होता है। जैसे- करता है( करता सै), मिलते हैं ( मिलते सैं) । ४. पंजाबी में 'त' के स्थान पर 'द' का प्रयोग मिलता है। जैसे- करता सै (करदा सै), मिलते सैं (मिलदे सैं) । ===कन्नौजी=== कान्यकुब्ज या कन्नौज किसी युग में एक जनपद का नाम था। इसका पुराना नाम पांचाल था। कन्नौज ही इस बोली का केन्द्र है। पूर्व में कानपुर तक दक्षिण में यमुना नदी तक, और उत्तर में गंगा पार हरदोई, शाहजहाँपुर और पीलीभीत तक इसका क्षेत्र है। कन्नौजी और व्रजभाषा में बहुत ही कम अन्तर है। वास्तव में अवधी मिल जाने से इसमें थोडी़ भिन्नता आ गई है। कुछ विद्वान इसको तो व्रजभाषा से भिन्न बोली नहीं मानते है। ===संदर्भ=== १. हिन्दी भाषा--- डा. हरदेव बाहरी । अभिव्यक्ति प्रकाशन , २०१७ ,पृष्ठ--१७२-२०१ fwmlp014tzha8lkdkdt9nr1am76grd9 भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/पूर्वी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ 0 5885 78906 75272 2022-08-21T10:36:16Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/पूर्वी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/पूर्वी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} ===पूर्वी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ=== '''पूर्वी हिन्दी''':- पूर्वी हिन्दी का वही क्षेत्र है जो प्राचीन काल में उत्तर कोसल और दक्षिण कोसल था। यह क्षेत्र उत्तर से दक्षिण तक दूर-दूर तक चला गया है। इसके अन्तर्गत उत्तर प्रदेश में अवधी और मध्य प्रदेश में बघेली तथा छत्तीसगढी़ का सारा क्षेत्र आता है; अर्थात् कानपुर से मिर्जापुर तक (लगभग 240 कि०मि०) और लखीमपुर की उत्तरी सीमा से दुर्ग, बस्तर की सीमा तक (लगभग 900 कि०मी०) के क्षेत्र में पूर्वी हिन्दी बोली जाती है। बोलने वालों की संख्या पाँच करोड़ के लगभग है। अवधी में भरपूर साहित्य मिलता है। मंझन, जायसी, उस्मान, नुरमुहम्मद आदि सूफी़ कवियों का काव्य ठेठ अवधी में और तुलसी, मानदास, बाबा रामचरण दास, महाराज रघुराज सिंह आदि का रामकाव्य साहित्यिक अवधी में लिखा गया है। इस वर्ग की तीन बोलियाँ हैं- अवधी, बघेली और छत्तीसगढी़। सामान्यता की दृष्टि से जितना घनिष्ठ संबंध इनमें है, उतना हिन्दी के अन्य उपभाषाओं में नहीं है। ===अवधी=== अयोध्या नाम का एक बहुत प्राचीन राज्य था। अयोध्या से औध और औध से अवध नाम पड़ा। अवध की बोली अवधी है। अवध प्रान्त के अन्तर्गत लखीमपुर खीरी, बहराइच, गोंडा, बाराबंकी, लखनऊ, सीतापुर, उन्नाव, फै़जाबाद, सुलतानपुर, रायबरेली और हरदोई के जिले हैं। इनमें हरदोई जिले में अवधी नहीं बोली जाती। अवध के बाहर इलाहाबाद, फतहपुर, और जौनपुर तथा मिर्जापुर (पश्चिमी भाग) की बोली भी अवधी है। अवधी बोलने वालों की संख्या दो करोड़ से कुछ अधिक है। इसमें जायसी, उसमान, आदि सूफी़ कवियों और तुलसी, बाबा रामचरण दास, महाराज रघुराज सिंह आदि रामकवियों का प्रचुर साहित्य मिलता है। वर्तमान काल में रेडियों के माध्यम से बहुत से साहित्यकार सामने आये हैं। '''अवधी भाषा की विशेषताएँ''':- # अ, इ, उ के हस्व और अतिहस्व दो-दो रूप मिलते हैं।'अ' किसी शब्द के अन्त में नहीं आता। हस्व ए , ओ, पाये जाते हैं। ऐ, औ सामान्य हिन्दी के कारण आ रहे हैं सामान्य अवधी में नहीं हैं। # इसमें ण ध्वनि के स्थान पर न का प्रयोग होता है। # इसमें ड, ढ, शब्द शुरू में आते हैं, मध्य और अन्त में नहीं जबकि ड़ और ढ़ शब्द अन्त में आते है। # इसमें 'ल' के स्थान पर ' र ' का प्रयोग मिलता है। जैसे- अंजुरी, मूसर, फर, हर आदि। # इसमें महाप्राण ध्वनियाँ के रूप में ख, छ, ठ, थ, फ, के स्थान पर घ, झ, ढ, ध, भ का प्रयोग होता है। # इसमें संज्ञा के तीन रूप होते है; जैसे- घोरा, घोरवा, घोरउवा । # इसमें सर्वनाम जे- के लिए जउन, जेकर, जिनकर , से के लिए तउन, तेकर, तिनकर तथा को के लिए कउन, केका, किनकर आदि का प्रयोग होता है। # इसमें आकारान्त विशेषण बहुत कम है; जैसे- अच्छा, कुँआरा। ऐसे विशेषणों का रूप बहुवचन में एकारान्त और स्त्रीलिंग में ईकारान्त हो जाता है; जैसे- अच्छे, अच्छी, कुआँरे, कुआँरी। # संख्यावाचक कुछ विशेषणों का उच्चारण इस तरह है- दुइ, तीनि, पान, छा, एगारा, सोरा, ओनइस, एकइस, पंचावन, साठि, सवाउ आदि। # कुछ निराले शब्द भी है, जैसे- आँचर (स्तन), अकलंग (एक ओर), कांध (कंधा), खाँचि (टोकरी), गोड़ (पाँव), पातर (पतला), हाँड़ (हड्डी)। ===बघेली=== अवधी और छत्तीसगढी़ के मध्य में बघेली बोली जाती है। बघेलखंड में, बघेल राजाओं का राज्य था जिसकी राजधानी रीवा थी। रीवा के बाहर बघेली उत्तर प्रदेश की सीमा को छूती है और पश्चिम में दमोह और बाँदा की सीमा को। कुछ विद्वान इसे अवधी की उपबोली मानते हैं। '''बघेली भाषा की विशेषताएँ''':- # अवधी की अपेक्षा इसमें छत्तीसगढी़ की तरह ' व ' के स्थान पर ' ब ' का प्रयोग होता है; जैसे- आबा (आवा) । # कारकचिहों में क , के बदले ( का के , कहा को) तथा ते, के लिए ( से के , तार) आदि का प्रयोग होता है। # सर्वनामों के रूप में म्वा, मोहि (मुझे), त्वा, तोहि (तुझे), वाहि (उसको), याहि (इसको) के लिए प्रयोग होता है। # इसमें विशेषणों का निर्माण प्राय:' हा ' प्रत्यय जोडंकर होता है; जैसै- अधिकहा, नीकहा। # इसमें क्रियारूपों में भिन्नताएँ हैं, जैसे- चरामै का (चराने को), देखि कै (देखकर) आदि। ===छत्तीसगढी़=== जिसे इतिहास में दक्षिण कोसल कहा गया है वह वर्तमान समय में छत्तीसगढ़ भूखंड है। चेदि राजाओं के नाम पर इसका नाम चेदीशगढ़ पडा़। उसीसे छत्तीसगढ़ हो गया। इसके अन्तर्गत सरगुजा, कोरिया, बिलासपुर, रायपुर, रायगढ़, खैरागढ़, दुर्ग, नन्दगाँव और काँकर आते हैं। यह बोली अवधी से बहुत मिलती है। जनसंख्या एक करोड़ से ऊपर है। '''छत्तीसगढी़ भाषा विशेषताएँ''':- # ध्वनिगत विशेषताओं में महाप्राणीकरण की प्रवृति पाई जाती है; जैसे- धौड़ (दौड़), कछेरी (कचहरी), झन (जन), जाथै (जात है।) # इसमें ' स ' के स्थान पर कहीं-कहीं ' छ ' मिलता है; जैसे- छीता (सीता), छींचन (सींचना)। # कर्म-सम्प्रदान का 'ला' परसर्ग और करण-अपादान का 'ले' का प्रयोग, जैसे-ओ ओला कहिस (उसने उसको कहा) । # इसमें बहुवचन प्राय: 'मन' शब्द लगाने से बनता है; जैसे- टूटा मन (लड़के), हम मन (हम लोग) आदि। # इसमें शिष्ट और अशिष्ट प्रयोगों में भी अन्तर होता है; जैसे- हन (शिष्ट), हवन ( अशिष्ट) । ===संदर्भ=== १. हिन्दी भाषा-डॉ. हरदेव बाहरी, अभिव्यक्ति प्रकाशन, २०१७, पृ. १७३-२०२ 97l058znmeur68gdzngh1tlytgkrkpt भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/हिन्दी, हिन्दी प्रदेश और उसकी उपभाषाएँ 0 5886 78908 75287 2022-08-21T10:36:30Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/हिन्दी,हिन्दी प्रदेश और उसकी उपभाषाएँ]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/हिन्दी, हिन्दी प्रदेश और उसकी उपभाषाएँ]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} ===हिन्दी=== हिन्दी की भाषा का नाम हिन्दी है। इसी अर्थ में फिरदौसी और अलबरूनी (११वीं शती), अमीर खुसरो (१४वीं शती) और अबुल फ़जल (१७वीं शती), आदि ने हिन्दी शब्द को ग्रहण किया है। अमीर खुसरो ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि 'मैं' हिन्दुस्तानी तुर्क हूँ और हिन्दवी में बात करता हूँ। इस बात के अनेक प्रमाण मिलते हैं कि मध्य काल में हिन्दी या हिन्दवी को पूरे भारत की भाषा समझा जाता था; इसीलिए हिन्दी की बोलियों में देहलवी, बंगाली, मुल्तानी, मारवाडी़, सिन्धी, गुजराती, मरहट्टी, तिलंगी, कर्नाटकी, कशमीरी और विलोचिस्तानी गिनाई जाती रही है, बाद में जान पडा़ कि हिन्दी सार्वदेशिक भाषा नहीं है। तब हिन्दी शब्द का प्रयोग संकुचित अर्थ में अर्थात् मध्य भारत की भाषा के रूप में माना जाने लगा। ===हिन्दी प्रदेश=== हिन्दी ऐतिहासिक दृष्टि से युग-युग की मध्यप्रदेशीय भाषाओं- संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश आदि की उत्तराधिकारिणी है। इन सब की सम्पत्ति- शब्दावली, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, साहित्य और साहित्य की विविध विधाएँ इसी भाषा की विरासत में मिली हैं। ये भाषाएँ अपने-अपने यौवन-काल में मध्यदेशीय होते हुए भी देशव्यापी रही हैं। वस्तुत: हिन्दी भी सारे देश में व्याप्त है। व्यवहार में यह राष्ट्रभाषा अवश्य है- हिन्दी पूरे हिन्द की भाषा है; परन्तु देश के मध्य से दूर के कुछ लोगों के राजनीतिक स्वार्थों के कारण राज्यों द्दरा इसे राष्ट्रभाषा की मान्यता प्राप्त नहीं हो पाई। इसलिए अभी यह नहीं कहा जा सकता कि हिन्दी का क्षेत्र सारा भारत है। वह मध्यप्रदेश की भाषा है, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता। पश्चिम में हरियाणा और पंजाब की सीमा से लेकर पूर्व में बिहार और बंगाल के बीच की सीमा तथा उत्तर तिब्बत, चीन की दक्षिण सीमा से लेकर खंडवा, मध्यप्रदेश की दक्षिण सीमा तक हिन्दी बोली जाती है। इस लंबे-चौडे़ क्षेत्र के अन्तर्गत हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश और बिहार सम्मिलित है। इस पूरे क्षेत्र को ही हिन्दी प्रदेश कहते हैं। हिन्दी प्रदेश के बाहर भी, किन्हीं दूर-दराज के पहाडी़ और जंगली इलाकों को छोड़कर सारे भारत में, हिन्दी बोली-समझी जाती है। भारत की भाषाओं पर बहुत व्यापक और सर्वाधिक कार्य करने वाले विद्दान सर जार्ज ग्रियर्सन ने बिसवीं शताब्दीके शुरू में हिन्दी का क्षेत्र अम्बला, पंजाब से लेकर पूर्व में बनारस तक और उत्तर में नैनीताल की तलहटी से लेकर दक्षिण में बालाघाट(मध्य प्रदेश) तक निश्चित किया था। इधर पचास वर्षों में ये सम्बन्ध अधिक स्पष्ट और स्थायी हो गया कि बिहारी, राजस्थानी, और पहाडी़ बोलियाँ भी हिन्दी के अन्तर्गत हैं। आज यदि वे जिवित होते तो उन्हें यह स्वीकार करना पड़ता। धार्मिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों ने हिन्दी को एक बहुत बडे़ क्षेत्र में फैलने का अवसर दिया। इन क्षेत्रों में मारवाडी़-जयपुरी आदि(राजस्थान) में, मगही-मैथिली (बिहार) मे और कुमाउनी-गढ़वाली (उत्तर प्रदेश) बोलियाँ तो है- मारवाडी़ और मैथिली अत्यंत समृध्द भी हैं, किन्तु भाषाओं में इनका नाम नहीं गिना जाता- सब की भाषा हिन्दी ही है। इनकी अपनी कोई लिपि नहीं, साहित्य की कोई दीर्घ परम्परा नहीं, शासन द्दारा कोई मान्यता प्राप्त नहीं कोई मानक, स्वरूप नहीं, कोई सामान्य व्याकरण नहीं। अपनी पुस्तक 'राजस्थानी भाषा' में सुप्रसिध्द भाषा विज्ञानी डा. सुनीतिकुमार चटर्जी ने राजस्थानी को हिन्दी कहा है। किन्तु बिहारी के बारे में कारणवश मौन रहे। कलकत्ता के लोग, राजस्थानी को 'मारवाडी़ हिन्दी' कहते हैं और बम्बई तथा पंजाब में बिहारी का नाम 'पूर्बिया हिन्दी' प्रचलित है। पहाडी़ के बारे में ग्रियर्सन ने बहुत पहले कबूल किया था कि पहाडी़ नाम की कोई भाषा नहीं है, केवल वर्गीकरण की सुविधा के लिए यह नाम कल्पित किया गया है। लोकमत और व्यवहार की दृष्टि से मध्य पहाडी़- गढ़वाली और कुमाउनी- हिन्दी की बोलियाँ हैं। संविधान में भी राजस्थानी, बिहारी या पहाडी़ नाम की कोई 'भाषा' नहीं गिनाई गई। ===हिन्दी की उपभाषाएँ=== ऐतिहासिक और भौगोलिक दृष्टि से इस भूखण्ड में पाँच प्राकृतें थीं- अपभ्रंश, शौरसेनी, अर्धमागधी, मागधी और खस। इन्हीं प्राकृतों से पाँच अपभ्रंशों और फिर उनसे हिन्दी की पाँच उपभाषाओं- राजस्थानी हिन्दी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, बिहारी हिन्दी और पहाडी़ हिन्दी का विकास हुआ। १)'''राजस्थानी हिन्दी''':- यह उपभाषा सारे राजस्थान में, सिन्ध के कोने में और मलावा जनपद में बोली जाती है। वर्तमान समय में राजस्थानी बोलने वालों की संख्या चार करोड़ के लगभग है। एक युग में राजस्थानी साहित्य का बोलबाला था। चन्दबरदाई, दुरसाजी, बांकीदास, मुरारीदान, सूर्यमल्ल आदि बडे़-बडे़ प्रतिभाशाली कवियों के नाम प्रसिध्द हैं। बीसलदेव रासो के 'ढोला मारूरा दूहा और बेलि क्रिसन रूक्मिणी री' आदि गौरव ग्रंथ हैं। मीरा, दादू, चरण दास, हरिदास आदि संत कवियों की वाणियाँ भी भाषा की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। गध साहित्य में बचनिकाओं, ख्यातों की अपनी विशाल परम्परा हैं। अधिकतर साहित्य मारवाडी़ में लिखा गया है।थौडा़-बहुत जयपुरी में भी प्राप्त है। हिन्दी की तुलना में राजस्थानी व्याकरण की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं- पुंल्लिंग एकवचन ओकारांत जैसे- तारो, हुक्को, धारो; बहुवचन और तिर्यक् एकवचन आकारांत होता है जैसे- तारा(कई तारे), हुक्का(अनेक हुक्के), पुंल्लिंग और स्त्रीलिंग के बहुवचन के अंत में आँ होता है, जैसे- ताराँ, बादलाँ । हिन्दी 'को' के स्थान पर नै, से के स्थान पर सूँ और का, के, की के स्थान पर रो, रा, री होता है। २) ''''बिहारी''':- बिहारी की चार प्रमुख बोलियाँ हैं- भोजपुरी, मगही, मैथिली और अंगिका। इनका एक वर्ग मानकर उन्हें बिहारी नाम दिया गया है। इन बोलियों में वैषम्य अधिक और समानता कम है। इनमें जो सामान्य तत्व हैं भी, वे प्राय: सब पूर्वी हिन्दी में भी पाये जाते हैं, और जो भिन्न हैं वे बिहारी को एक अलग भाषा और एक सुगठित इकाई बनाने में बाधक हैं। मैथिली को छोड़कर बिहारी बोलियों का साहित्य प्रमुखत: लोक से सम्बन्ध है। कुछ वर्षो से भोजपुरी और आंगिका में साहित्यिक गतिविधि बढ़ने लगी है और अपनी-अपनी बोली के प्रति आस्था पनप रही है। बिहारी पूर्वी हिन्दी की अपेक्षा कुछ अधिक व्यंजनांत भाषा है; जैसे- घोडा़, भल, देखित। अक्षर के अंत में, कुछ विशिष्ट परिस्थितियों को छोड़कर संस्कृत की तरह अ उच्चारण होता है;जैसे- कमला= कमअ्ल ३)''''पहाडी़ हिन्दी'''':- इसके अन्तर्गत गढ़वाली और कुमाउनी हैं। इन बोलियों पर मूलत: तिब्बत, चीनी और खस जाति की अनार्य भाषाओं का प्रभाव रहा है। धीरे-धीरे इन पर व्रजभाषा और अन्य भारतीय आर्य भाषाओं का प्रभाव बढ़ता गया है और अनार्य तत्व क्षीण होते गये हैं। इसके फलस्वरूप ये बोलियाँ हिन्दी के अधिक निकट हो गयी हैं। पहाडी़ हिन्दी की कोई साहित्यिक परम्परा नहीं हैं। अत: इसे उपभाषा कहने में भी संकोच होता है, किन्तु यह हिन्दी का एक विशिष्ट उपवर्ग अवश्य है। कुल जनसंख्या पचास लाख से अधिक नहीं है। इस उपवर्ग की हिन्दी में सानुनासिक स्वरों की अधिकता है। सभी स्वर और व्यंजन ध्वनियाँ राजस्थानी से मिलती-जुलती हैं। व्याकरण की दृष्टि से ये ओकारबहुला बोलियाँ हैं, जैसे- संज्ञाशब्द घोड़ो, विशेषण कालो,क्रिया चल्यो। पुंल्लिंग एकवचन में ओ का बहुवचन आ अथवा कुमाउनी में न और गढ़वाली में ऊँ होता है, जैसे- घोडा़, घोड़न, घोडूँ। ४) '''पश्चिमी हिन्दी''':- इस उपभाषा का क्षेत्र पश्चिम में अम्बला से लेकर पूर्व में कानपुर की पूर्वी सीमा तक, एवं उत्तर में जिला देहरादून से दक्षिण में मराठी की सीमा तक चला गया है। इस क्षेत्र के बाहर दक्षिण में महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल के प्राय: मुसलमानी घरों में पश्चिमी हिन्दी का ही एक रूप दक्खिनी हिन्दी व्याप्त है। इस उपभाषा के बोलने वालों की संख्या छह करोड़ से कुछ ऊपर है। साहित्यिक दृष्टि से यह उपभाषा बहुत संपन्न है। दक्खिनी हिन्दी व्रजभाषा और आधुनिक युग में खडी़ बोली हिन्दी का विशाल साहित्य मिलता है। सूरदास, नन्ददास, भूषण, देव, बिहारी, रसखान, भारतेन्दु, और रत्नाकर आदि के नाम सर्वविदित हैं। खडी़ बोली की परम्परा भी लम्बी है। अमीर खुसरो से लेकर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और उनके युग के साहित्यकारों, महावीर प्रसाद द्दिवेदी, छायावादी और प्रगतिवादी तथा अधतन साहित्यकारों ने खडी़ बोली हिन्दी को विकसित करने में बहुमूल्य योगदान दिया । पश्चिमी हिन्दी में उच्चारणगत खडा़पन है, अर्थात् तान में थोडा़ आरोह होता है। अ विकृत है। ऐ, औ मूल स्वर है, जैसे- बैल,। ड़ की अपेक्षा ड और न की अपेक्षा ण अधिक बोला जाता है। ५) '''पूर्वी हिन्दी''':- पूर्वी हिन्दी का वही क्षेत्र है जो प्राचीन काल में उत्तर कोसल और दक्षिण कोसल था। यह क्षेत्र उत्तर से दक्षिण तक दूर-दूर तक चला गया है। इसके अन्तर्गत उत्तर प्रदेश में अवधी और मध्य प्रदेश में बघेली तथा छत्तीसगढी़ का सारा क्षेत्र आता है; अर्थात् कानपुर से मिर्जापुर तक और लखीमपुर की उत्तरी सीमा से दुर्ग, बस्तर की सीमा तक क्षेत्र में पूर्वी हिन्दी बोली जाती है। बोलने वालों की संख्या पाँच करोड़ के लगभग है। अवधी में भरपूर साहित्य मिलता है। मंझन, जायसी, उस्मान,नूरमुहम्मद आदि सूफी कवियों का काव्य ठेठ अवधी में और तुलसी, मानदास, बाबा रामचरण दास, महाराज रघुराज सिंह आदि का रामकाव्य साहित्यिक अवधी में लिखा गया है। इस वर्ग की तीन बोलियाँ है- अवधी, बघेली और छत्तीसगढी़। सामान्यता की दृष्टि से जितना घनिष्ठ संबंध इनमें है, उतना हिन्दी की अन्य उपभाषाओं में नहीं है। ण की जगह सदा न, और श,ष, की जगह सदा स बोला जाता है। और ल की स्थान पर र का प्रयोग होता है। ===संदर्भ=== १. हिन्दी भाषा---डा. हरदेव बाहरी। अभिव्यक्ति प्रकाशन, २०१७, पृष्ठ--१६८-१७३ tpbrvyy7durok0hm8cakvgii0m7m7e5 भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/आधुनिक हिन्दी का विकास क्रम 0 5890 78910 75268 2022-08-21T10:36:42Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/आधुनिक हिन्दी का विकास क्रम]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/आधुनिक हिन्दी का विकास क्रम]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} ===आधुनिक हिन्दी का विकास क्रम=== भाषा के आधार पर यदि संसार की जातियों का वर्गीकरण किया जाए तो कहा जा सकता है कि एक तो आर्य जातियाँ है और दूसरी अनार्य जातियाँ । आर्यों के पुर्वज पूरे यूरोप, ईरान, अफगानिस्तान और भारतीय उपमहाद्दीप (जिसके अन्तर्गत भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका) में फैल गए थे। यूरोप के १७ वी.-१८वी. शताब्दी में , अर्थात् साम्राज्यवादी युग में, लोग कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, आस्टे्लिया, न्यूजी़लैंड और दक्षिणी अफ्रीका में अपने उपनिवेश बनाकर रहने लगे। इन सब देशों के आदिवासियों पर यूरोपीय या आर्य परिवार की भाषाओं का इतना प्रभाव पडा़ है कि वहाँ की मूल भाषाएँ दब-सी गई हैं। अब इन देशों की सामान्य या मुख्य भाषाएँ आर्य परिवार की हैं। विद्दानों ने इस वृहत् परिवार का नाम भारत-यूरोपीय (भारोपीय) रखा है। संसार का सबसे बडा़ भाषा-परिवार यही है।भूमंडल की कुल 350 करोड़ जनसंख्या में इस भारोपीय(आर्य) परिवार की भाषाएँ बोलने वालों की संख्या 150 करोडं हैं। साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि से ये भाषाएँ अत्यंत प्रगतिशील, उत्कृष्ट और समृध्द हैं। अत: आर्य भाषा के दो वर्ग हैं--१) यूरोपीय आर्य भाषाएँ २) भारत-ईरानी आर्य भाषाएँ। भारत-ईरानी वर्ग की तीन शाखाएँ हैं--१)ईरानी(ईरान और अफगानिस्तान की भाषाएँ), २) दरद (कश्मीर और पामीर के पूर्व-दक्षिण की भाषाएँ), ३) भारतीय आर्य भाषाएँ । भारतीय आर्य भाषाओं का इतिहास लगभग साढे़ तीन हजार वर्षों का है। अर्थात् इनका इतिहास ईसा से लगभग पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व से प्रारम्भ होता है। धर्म, समाज, साहित्य, कला और संस्कृतिक की दृष्टि से तथा प्राचीनता गंभीरता और वैज्ञानिकता के विचार से भारतीय आर्यभाषा बहुत महत्वपूर्ण है। संसार का प्राचीनतम ग्रंथ-ऋग्वेद इसी भाषा में है। विकास क्रम के अनुसार भारतीय आर्यभाषा को तीन कालों में बाँटा जाता है--- १) प्राचिन काल (1500 ई.पू.-- 500) २) मध्य काल (500 ई.पू.-- 1000) ३) आधुनिक काल(1000 ई.--.....। १)'''प्राचीन काल''':- प्राचीन आर्यभाषा को दो भागों में बाँटा जाता हैं--१) वैदिक संस्कृत (1500 ई.पू. 1000) २) लौकिक संस्कृत (1000ई.पू.-- 500)प्राचीन भारतीय आर्य भाषाओं में वैदिक तथा संस्कृत्य प्रमुख मानी जाती है। ऋग्वेद से वैदिक भाषा का, वाल्मीकी रामायण से लौकिक संस्कृत का कवि माना गया है। इसका रूप ऋग्वेद में देखने को मिलता है। पाणिनी ने 500 ई.पू. इस भाषा में व्याकरणिक रूप 'अष्टाध्यायी' की रचना की थी। २)'''मध्य काल''':- मध्यकालीन आर्यभाषा को तीन भागों में बाटाँ गया हैं--१) पालि (500 ई.पू.-- 1000) २) प्राकृत (1000 ई.---500 ई.) ३) अपभ्रंश या अवहट्ट (500--1000 ई.) १) '''पालि''':- मध्यकालीन आर्यभाषाओं का युग पालि भाषा के उदय से आरंभ होता है। पालि शब्द की व्युत्पति 'पल्लि' (ग्रामीण भाषा के शब्द), 'पाटलि' (पाटलिपुत्र अर्थात् मगध की भाषा), पंक्ति, पालि को पालनेवाली (अर्थात् बौध्द साहित्य की रक्षा करनेवाली) आदि शब्द से माना गया है। लेकिन नाम से यह स्पष्ट नहीं होता कि यह किस प्रदेश की मूल भाषा थी। मगध सम्राट अशोक के पुत्र महाराजकुमार महेंद्र पालि साहित्य को तीन पिटारों (त्रिपिटक) में भरकर सिंहल(श्रीलंका) ले गए थे, अत: वहाँ के बौध्द मानते रहे हैं कि पालि मगध की भाषा है। परन्तु मागर्धी के जो लक्षण प्राकृत वैयाकरणों ने बताए हैं और अशोक के अभिलेखों में मिलते हैं, वे पालि से भिन्न हैं। यह पूर्व की भाषा नहीं जान पड़ती। विद्वानों ने मथुरा और उज्जैन के बीच के प्रदेश को इसका क्षेत्र माना है। यह भाषा इतनी व्यापक हो गई थीं कि अपना धर्म प्रचार करने के लिए भगवान बुध्द ने इसें अपना माध्यम बनाया; भले ही इस पर मागधी बोली का प्रभाव अवश्य पडा़ है। कोई बोली जब साहित्य में स्थान पाती है तो उसमें अपने साथ कई बोलियों के तत्व आ ही जाते हैं। पालि भाषा के अध्ययन के प्रमुख आधार है- त्रिपिटक (बुध्द वचन), टीका (अट्ठकथा), साहित्य,और वंश (ऐतिहासिक) साहित्य जो ११वीं शती तक बराबर लिखा जाता रहा है। अपने समय में पालि का प्रचार न केवल उत्तरी भारत में था अपितु बर्मा, लंका, तिब्बत, चीन की भाषाओं पर उसका बहुत गहरा प्रभाव पडा़ है। प्राचीन आर्यभाषा से आधुनिक आर्य भाषाओं के क्रमिक विकास की बीच की स्थितियों को समक्षने के लिए पालि का महत्व बहुत अधिक है। संस्कृत ध्वनियों का जनसाधारण में कैसा उच्चारण होता था, उसकी व्याकरणिक जटिलताओं को सुलझाने के लिए लोक में क्या प्रयत्न हो रहा था, इस सब की जानकारी पहले-पहल पालि में प्राप्त होती है। २) '''प्राकृत''':- 'प्रकृते: आगतं प्राकृतम्' अर्थात् जो भाषा मूल से चली आ रही है उसका नाम 'प्राकृत' है। उस समय मूल भाषा कौन थी, इसके बारे में मतभेद है। हेमचंद्र, मार्कंडेय, सिंहदेव, आदि आचार्यों ने मूल भाषा संस्कृत और उनसे उत्पन्न प्राकृत माने हैं। संस्कृत उस समय जन भाषा थी, वही विकसित-विकृत होते-होते प्राकृत प्रसिध्द हुई। दूसरा विचार यह है कि प्रकृति का अर्थ स्वभाव होता है, तो जो भाषा स्वभाव से सिध्द है, वह प्रकृत है। प्रकृति का एक अर्थ 'प्रजा' भी है। 'राजा' शब्द का निर्वचन करते हुए कालिदास ने लिखा है- राजा प्रकृतिरज्जनात् अर्थात् 'राजा' इसलिए कहलाता है कि वह प्रकृति (प्रजा) का रंजन करता है, अपनी प्रजा को प्रसन्न रखता है। प्राच्य भाषाओं के एक विद्वान, पिशल भी मानते हैं कि प्राकृत की जड़ जनता की बोलियों के भीतर है। जनसाधारण की बोलियाँ तो युग-युग से चली आ रही हैं। वेस (वेष), दूलभ (दुर्लभ), दूडम (दुर्दम), सुवर्ग (स्वर्ग) आदि वेद के ये शब्द प्राकृत के ही तो हैं। कोई भी भाषा पहले जनभाषा होती है, साहित्य में पड़कर और समाज तथा शासन से मान्यता पाकर भाषा हो जाती है। व्रजभाषा या खडी़ बोली कौरवी एक क्षेत्रीय बोली ही थी, साहित्य में आकर भाषा बन गई। जनभाषा ही मूल है, वही प्राकृत है। प्राकृत में प्रचुर साहित्य मिलता है- धार्मिक भी, लौकिक भी। बौध्द और जैन साहित्य प्रमुख रूप से मागधी और अर्धमागधी में, और लौकिक साहित्य शौरसेनी(गध) और महाराष्ट्री(पध) में प्राप्त है। गौडवहो और सेतुबंध जैसे महाकाव्य तथा गाथासप्तशती और वज्जालग्ग जैसे खंडकाव्य प्राकृत की बहुमूल्य संपत्ति हैं। एक समय कहा जाता था कि संस्कृत काव्य इसकी होड़ में पिछड़ गया है। इस साहित्य के आधार पर व्याकरण ग्रंथ लिखे गए जिनमें वररूचि कृत 'प्राकृत प्रकाश' और आचार्य हेमचंद्र का 'प्राकृत व्याकरण' प्रसिध्द हैं। व्याकरणों ने प्राकृत भाषा में वैसी ही जकड़न ला दी जैसी पाणिनि, कात्यायन आदि वैयाकरणों ने संस्कृत में। तब यह भाषा लोकभाषा नहीं रह गई, शिक्षित वर्ग की भाषा बन गई, तो इसका स्थान अपभ्रंश और अवहट्ट ने ले लिया। वररूचि ने चार प्राकृतों का नाम लिया है- शौरसेनी, माहाराष्ट्री, मागधी और पैशाची। परन्तु, इनमें अध्र्द मागधी का नाम जोड़ देना आवश्यक है- इसमें भी भरपूर साहित्य मिलता है। ३) '''अपभ्रंश''':- अपभ्रंश मध्यकालीन आर्यभाषा की तीसरी अवस्था का नाम है। व्याडि और महाभाष्यकार पंतजलि ने संस्कृत के मानक शब्दों से भिन्न संस्कारच्युत, भ्रष्ट और अशुध्द शब्दों को अपभ्रंश की संज्ञा दी। वाग्भट्ट और आचार्य हेमचन्द्र ने अपभ्रंश को ग्रामभाषा कहा है। कुछ विद्वानों ने इसे देशी भाषा कहा है। दण्डी ने इसे आभीरादि की भाषा कहा है। गुर्जर, आभीर, जाट आदि अनेक जातियाँ जो बाहर से आकर पश्चिमी भारत में बस गई थीं, आरम्भ में भारतीय संस्कृति में दीक्षित नहीं हो पाई थीं, इसलिए उनकी भाषा को अपभ्रष्ट समझा जाता था। धीरे-धीरे उन पर शौरसेनी प्राकृत का इतना गहरा प्रभाव पडा़ कि उनकी भाषा को मान्यता दी जानी लगी। राजसत्ता पाने के पर ये लोग 'राजपुत्र' कहलाने लगे। राजसत्ता के साथ अपभ्रंश का विस्तार भी हुआ और यह भाषा राजभाषा ही नहीं, साहित्य-भाषा और देशभाषा बन गई। सातवीं शती से लेकर ग्यारहवीं शती के अंत तक इसकी विशेष उन्नति हुई। मार्कण्डेय और इतर आचार्यों ने अपभ्रंश के कुल तीन भेद बताये हैं-- नागर (गुजरात की बोली), उपनागर (राजस्थान की बोली), व्राचड (सिंध की बोली)। इस प्रसंग में यह भी बताया गया है कि राजस्थानी अपभ्रंश की जेठी बेटी हैं। अपभ्रंश को आभीर-गुर्जर आदि की भाषा कहते आ रहे हैं। इससे भी सिध्द होता है कि यह उत्तर-पश्चिमी भूखंड की भाषा थी। यह सही है कि साहित्यिक भाषा बनने पर इसने विस्तार पाया और धीरे-धीरे आस-पास की प्राकृतों को प्रभावित किया, सबसे अधिक शौरसेनी को। इसी से माना जा सकता है कि हिन्दी के विकास में इसका विशेष योगदान है। कालिदास के नाटकों में कुछ पात्रों के कथन अपभ्रंश में हैं। आठवीं शती में सिध्दों के चर्यापदों में पूर्वी प्राकृत मिश्रित अपभ्रंश मिलती है। इसी समय के आस-पास चरित काव्य, प्रेमाख्यानक काव्य, रासो काव्य, खण्डकाव्य और स्फुट कविताएँ मिलती हैं। इनमें महापुरण, जसहर चरिउ, णायकुमार चरिउ, पाहुड़ दोहा आदि रचनाएँ हैं। ४) '''अवहट्ट''':- भाषा परिवर्तनशील है। कोई भाषा जब साहित्य का माध्यम होकर एक प्रतिष्ठित रूप ग्रहण करती है और व्याकरण के नियमों में बँध जाती है, तब वह जनभाषा से दूर हो जाती है। अपभ्रंश की भी यही गति हुई। अपभ्रंश के ही परिवर्तित रूप को अवहट्ट कहा गया है। ग्यारहवीं से लेकर चौदहवीं शताब्दी के अपभ्रंश कवियों ने अपनी भाषा को अवहट्ट कहा है। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ज्योतिरीश्वर ठाकुर ने अपने 'वर्ण रत्नाकर' में किया। 'प्राकृत पैंगलम' की भाषा को उसके टीकाकार वंशीधर ने अवहट्ट माना है। संदेशरासक के रचियता अब्दुररहमान ने भी अवहट्ट भाषा का उल्लेख किया है। मिथिला के विधापति ने अपनी कृति 'कीर्तिलता' की भाषा को अवहट्ट कहा है। इन सबने जिन भारतीय भाषाओं के नाम गिनाये हैं- सांस्कृत, प्राकृत, मागधी, शौरसेनी, पिशाची उनमें या तो अपभ्रंश नाम लिया या अवहट्ट। दोनों को एक साथ नहीं रखा। इससे लगता है कि अपभ्रंश और अवहट्ट में कोई भेद नहीं समझा गया। आधुनिक भाषाविज्ञानियों ने तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर अवहट्ट को उत्तरकालीन या परवर्ती अपभ्रंश माना है और बताया गया है कि निश्चय रूप से अवहट्ट में ध्वनिगत, रूपगत और शब्दसंबंधी बहुत से तत्व ऐसे हैं जो इसे पूर्ववर्ती अपभ्रंश से अलग करते हैं। संनेहरासय और कीर्तिलता के अतिरिक्त वर्णरत्नाकर और प्राकृतपैंगलम के कुछ अंश, नाथ और सिध्द साहित्य, नेमिनाथ चौपाई, बहुबलि रास, आदि अवहट्ट की प्रसिध्द रचनाएँ हैं। ३)'''आधुनिक काल''':- आधुनिक भारतीय भाषाओं के काल का प्रारम्भ दसवी. शताब्दी से माना जाता है। इन भाषाओं की उत्पत्ति प्राकृत से मानी जाती है तथा इनका सम्बन्ध किसी-न-किसी रूप में अपभ्रंश से जोडा़ जाता है: यथा- सांस्कृत>प्राकृत>अपभ्रंश>आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ । आधुनिक काल की भाषाएँ अनेक हैं, हिन्दी, बंगला, उडि़या, असमी, मराठी, गुजराती, पंजाबी, सिंधी।भाषाविदों के मत में उस समय के शोरसेनी, पेशाची, ब्राचड़, खस, महाराष्ट्री, अर्धमागधी तथा मागधी अपभ्रंशों से ही आधुनिक आर्य भाषाएँ विकसित हुई हैं। हिन्दी उनमें एक है जो सब भारतीय आर्य भाषाओं की बडी़ बहन है, और सबसे अधिक जनसमूह द्दारा बोली-समझी जाती है। हिन्दी की तीन कालक्रमिक स्थितियाँ हैं-- १) आदिकाल (सन् 1000 से 1500 ई.) २) मध्यकाल (सन् 1500 से 1800 ई.) ३) आधुनिक काल सन् 1800 से आज तक) १) '''आदिकाल''':- आधुनिक आर्यभाषा हिन्दी का आदिकाल अपभ्रंश तथा प्राकृत से अत्यधिक प्रभावित था। आदिकालीन नाथों और सिध्दों ने इसी भाषा में धर्म प्रचार किया था। इस काल में हिन्दी में मुख्य रूप से वही ध्वनियाँ मिलती हैं जो अपभ्रंश में प्रयुक्त होती थीं। अपभ्रंश के अलावा आदिकालीन हिन्दी में 'ड़' , 'ढ़' आदि ध्वनियाँ आई हैं। मुसलमान शासकों के प्रभाव से अरबी तथा फारसी के कुछ शब्दों के कारण भी कुछ नये व्यंजन- ख,ज, फ, आदि आ गये। ये व्यंजन अपभ्रंश में नहीं मिलते थे। अपभ्रंश के तीन लिंग थे। किन्तु प्राचीन हिन्दी में नपुंसक लिंग समाप्त हो गया । प्राचीन काल में चारण भाटों ने इसी भाषा में डिंगल साहित्य अर्थात् 'रासों' ग्रंथों का निर्माण किया। २) '''मध्यकाल''':- इस काल में अपभ्रंश का प्रभाव लगभग समाप्त हो गया और हिन्दी की तीन प्रमुख बोलियाँ विशेषकर अवधी, ब्रज तथा खडी़ बोली स्वतन्त्र रूप से प्रयोग में आने लगी । साहित्यिक दृष्टि से इस युग में मुख्यत: ब्रज और अवधी में साहित्य निर्माण हुआ। कृष्णभक्ति शाखा के संत कवियों ने ब्रज भाषा में अपने ग्रन्थों का निर्माण किया तथा रामभक्ति शाखा के कवियों ने अवधी भाषा में अपनी रचनाओं का निर्माण किया। इसके साथ ही प्रेमाश्रयी शाखा के सूफी कवियों ने भी अवधी में अपनी रचनाएँ लिखीं। ब्रज तथा अवधी के साथ-साथ खडी़ बोली का भी प्रयोग इस युग में काफी पनपा। मुसलमान शासकों के प्रभाव से खडी़ बोली में अरबी तथा फारसी शब्द प्रचलित हुए और उसके विकास का श्रीगणेश हुआ। ३) '''आधुनिक काल''':- अठारहवीं शती में ब्रज तथा अवधी भाषा की शक्ति तथा प्रभाव क्षीण होता गया और राजनीतिक परिवर्तनों के कारण उन्नीसवीं शती के प्रारम्भ से ही खडी़ बोली का मध्यप्रदेश की हिन्दी पर भारी प्रभाव पडा़। बोलचाल, राजकाज तथा साहित्य के क्षेत्र में खडी़ बोली हिन्दी का व्यापक पैमाने पर प्रयोग होने लगा था। भाषाविज्ञान की दृष्टि से हिन्दी भाषा के पाँच उपभाषा वर्ग माने गयेहैं- १) '''पश्चिमी हिन्दी'''--- इसके अन्तर्गत कौरवी(खडी़ बोली), बागरू (हरियाणवी),ब्रज, कन्नौजी एवं बुंदेली। २) '''पूर्वी हिन्दी'''-- इसके अन्तर्गत भोजपुरी,मैथिली,मगही आदि बोलियाँ। ३) '''बिहारी हिन्दी'''--इसके अन्तर्गत भोजपुरी, मैथिली, मगही बोलियाँ। ४) '''राजस्थानी हिन्दी'''--इसके अन्तर्गत मारवाडी़, जयपुरी (हाडो़ती), मेवाडी़, और मालवी आदि बोलियाँ आती हैं। ५) '''पहाडी़ हिन्दी'''--इसके अन्तर्गत मुख्य रूप से गढ़वाली तथा कुमाउँनी बोलियाँ आती हैं। ===संदर्भ=== १. हिन्दी भाषा--- डाँ. हरदेव बाहरी। अभिव्यक्ति प्रकाशन, २०१७, पृष्ठ--९,१०,१५,२१,३४,४२ २. प्रयोजनमूलक हिन्दी: सिध्दान्त और प्रयोग--- दंगल झाल्टे। वाणी प्रकाशन, आवृति २०१८, पृष्ठ--१९, २१, २२ e1syu1l4ku7q358yqubj593amx75pww भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/सामान्य भाषा और काव्यभाषा: संबंध और अंतर 0 5894 78912 75286 2022-08-21T10:37:11Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/सामान्य भाषा और काव्यभाषा अंत:संबध और अन्तर]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/सामान्य भाषा और काव्यभाषा: संबंध और अंतर]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} ===सामान्य भाषा और काव्यभाषा का अंत:संबध=== काव्यभाषा कवि की साहित्यिक भाषा है। इसमें व्याकरण का महत्व तो होता है पर इतना नहीं जितना निबध या नाटक की गध भाषा में,जैसे रामचरितमानस व सूरसागर और कामायनी में भी व्याकरणिक विचलन या विपथन के दोष मिलते हैं, काव्यभाषा में व्याकरण की अपेक्षा शब्दयोजना का, शब्दों के भावपूर्ण अर्थ का महत्व अधिक होता है। कवि साधारण भाषा को लेकर ही काव्यभाषा की रचना करता है कवि का उद्देश्य व्यक्तिगत प्रदर्शन करना नहीं बल्कि साधारणीकरण कर सारे समाज की भाषा करना होता है। कोई भी भाषा हो, वह बोली से ही उठती है। व्रज की बोली साहित्य में स्थान पाने पर अपने क्षेत्र से बाहर भी व्यवहत होने लगी तो भाषा बन गई। भाषा बनने के कारण उसमें बोलीपन आ जाता है और धीरे-धीरे वह अनेक बोलियों का महत्तमसमापवर्तक बन जाती है। खडी़ बोली मूलत: दिल्ली और मेरठ के आस-पास की बोली थी लेकिन दक्षिण में जां बसे मुसलमानों ने इसको साहित्य में प्रतिष्ठित किया, बाद में उत्तरी भारत में उर्दू और हिन्दी साहित्यों का माध्यम बन गई। 'बोली' नाम अब भी इसके साथ लगा हुआ है। यधपि आज यह सारे भारत में फैली हुई सबसे बडी़ भाषा है। बोली और भाषा में सदा अन्तर बना रहता है। प्रारंभिक अवधी के कवियों में, मुल्ला, दाऊद, मंझन आदि की काव्यभाषा जनभाषा के निकट थी। धीरे-धीरे उसमें इतने अधिक तत्सम शब्द और प्रयोग आने लगे कि वह तुलसी के हाथों में न पूर्णतया अवधी रही न कुछ और। वह बस काव्यभाषा बन गई, जनभाषा से दूर। अत: कोई बोली या भाषा जब प्रचलन से बाहर हो जाती है, तब भी उसका काव्यभाषा रूप चलता रहता है। अपभ्रंश-काल दसवीं शताब्दी तक माना जाता है, परन्तु अपभ्रंश काव्य १४ वीं शताब्दी तक लिखा जाता रहा। इतिहास के गुप्तकाल में संस्कृत बोलचाल की भाषा निश्चय नहीं रह गई थी, लेकिन यही संस्कृत साहित्य का स्वर्णयुग था। कलिदास इसी युग में हुए थे। ===भाषा और बोली में अन्तर=== १) '''बोधगम्यता''':- भाषा और बोली से पृथक् मानने की एक कसौटी है। यदि दो क्षेत्रों के अशिक्षित और अप्रभावित व्यक्ति एक-दूसरे की वाणी नहीं समझ सकते तो उनकी वाणियाँ दो भाषाएँ हैं, जैसे हरियाणी-भाषी पंजाबी-भाषी को काफी समझ लेता है, किन्तु अवधी भाषी उस सीमा तक नहीं समझ पाता, यधपि हरियाणी एवं अवधी हिन्दी भाषा की बोलियाँ हैं और पंजाबी एक स्वतंत्र भाषा है। २) '''सीमितता''':- बोली एक क्षेत्रविशेष या वर्गविशेष तक सीमित होती है और भाषा का क्षेत्र-विस्तार उससे बहुत अधिक होता है, अर्थात् भाषा का क्षेत्र अपेक्षाकृत बडा़ होता है तथा बोली का छोटा। जैसे हरियाणी केवल हरियाणा या उससे जुडे़ बहुत थोडे़ क्षेत्र में बोली जाती है, अथवा बिहार के जुलाहों की बोली उन्हीं के वर्ग तक सीमित होती है; हिन्दी भाषा है क्योंकि इसका क्षेत्र अपने मूल क्षेत्र से बहुत दूर तक फैला हुआ है। अंग्रेजी का क्षेत्र केवल इंग्लैंड तक सीमित नहीं है। ३) '''मान्यता''':- भाषा का बहुत भारी गुण या लक्षण यह है कि उसे शिक्षा, शासन और साहित्य में मान्यता प्राप्त रहती है। इसी से उसे प्रसार पाने का अवसर मिलता है और उसकी ग्राह्मता बढ़ती है। इसी बल पर आज हिन्दी बिहार और राजस्थान की 'भाषा' है, भले ही वहाँ मैथिली, मगही और भोजपुरी बोलियाँ विधमान हैं। ४) भाषा प्राय: साहित्य, शिक्षा तथा शासन के कार्यों में भी व्यवहत होती हैं, किन्तु बोली लोक-साहित्य और बोलचाल में ही। यधपि इसके अपवाद भी कम नहीं मिलते, विशेषत: साहित्य में। जैसे आधुनिक काल से पूर्व के हिन्दी का सारा साहित्य ब्रज, अवधी, राजस्थानी, मैथिली आदि तथाकथित बोलियों में ही लिखा गया है। ५) भाषा के साहित्य की परम्परा होती है। साहित्य बोलियों में भी हो सकता है, जैसे भोजपुरी में उपन्यास, काव्य, नाटक आदि लिखे जा रहे हैं, परन्तु भोजपुरी साहित्य की कोई परम्परा नहीं है। हिन्दी भाषा है क्योंकि इसके साहित्य की एक अटूट परम्परा है। ६) भाषा बोली की तुलना में अधिक प्रतिष्ठित होती है। अत: औपचारिक परिस्थितियों में प्राय: इसी का प्रयोग होता है। जैसे रेडियों, समाचारपत्र, डाक और तार, यातायात, राष्ट्रीय सेना और न्यायालयों का सामान्य माध्यम भाषा होती है, बोली का प्रयोग सीमित होता है। ७) भाषा का मानक रूप होता है, किन्तु बोली का नहीं। अर्थात् भाषा का रूप अपेक्षाकृत स्थिर होता है क्योंकि वह पढे़-लिखे लोगों के हाथ में पड़कर व्याकरणबध्द हो जाती है। बोली की परिवर्तनहीनता अधिक होती है। ८) बोली किसी भाषा से ही उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार भाषा बोली में माँ-बेटी का सम्बन्ध है। एक भाषा के अन्तर्गत एक या अधिक बोलियाँ हो सकती हैं। इसके विपरीत भाषा बोली के अन्तर्गत नहीं आती, अर्थात् किसी बोली में एक या अधिक भाषाएँ नहीं हो सकतीं। ९) बोली के व्याकरणगत रूपों में विविधता और अनेकरूपता अधिक होती है। उदाहरणस्वरूप अवधी में ही है, अहै, बाटे, बाडे़; क, का, के, केर को आदि एक-एक पद के अनेक रूप प्रचलित हैं। भाषा के रूप परिनिष्ठित (Standardized) होते रहते हैं। १०) बोली बोलने वाले भी अपने क्षेत्र के लोगों से तो बोली का प्रयोग करते हैं, किन्तु अपने क्षेत्र के बाहर के लोगों से भाषा का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार भाषा और बोली का अन्तर भाषा वैज्ञानिक न होकर समाजभाषा वैज्ञानिक हैं। ===संदर्भ=== १. हिन्दी भाषा---डाँ. हरदेव बाहरी। अभिव्यक्ति प्रकाशन,पुर्नमुद्रण--२०१७ पृष्ठ--२१०, २११ ,११४ २. भाषा विज्ञान---डाँ भोलानाथ तिवारी। प्रकाशक--किताब महल, पुर्नमुद्रण--२०१७, पृष्ठ--९५, ९६ 75hmq9d2ghkb00arpeo4n8rupdvj0ep भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/रूप-परिवर्तन के कारण और दिशाएँ 0 6129 78842 75281 2022-08-20T14:40:26Z Saurmandal 13452 wikitext text/x-wiki {{BookCat}} == रूप-परिवर्तन के कारण == भाषा का प्रमुख गुण हैं परिवर्तन। अतः उसके अवयव-ध्वनि, अर्थ, पद, वाक्य में विभिन्न परिस्थितियों के कारण समय-समय पर परिवर्तन लक्षित होते हैं। उन परिवर्तन के अनेक कारण होते हैं। ये कारण संक्षेप में निम्नांकित हैं&mdash; # '''एकरूपता''': यह प्रवृत्ति अनेक भाषाओं में मिलती हैं। संस्कृत में अक्रांत शब्द अधिक है। उक्रांत, इक्रांत तथा व्यंजनात्मक शब्द कम हैं। अक्रांत शब्द ही अधिक स्थिर व प्रभावशाली हैं। प्रकृत में अक्रांत शब्दों का बाहुल्य है। संस्कृत के 'अग्ने' के स्थान पर प्राकृत में 'अग्गिस्स' मिलता हैं। हिन्दी की बोलियों में भी एकरूपता की प्रवृत्ति पाई जाती हैं। # '''सादृश्य''': एकरूपता की इस प्रवृत्ति के मूल में सादृश्य की भावना है। अनेक समान शब्दों के रहते हुए असमान शब्दों का प्रयोग अनुचित होता हैं। मानव इस स्थिति से बचने के लिए सादृश्य का प्रयोग करता है। संस्कृत में नपुंसकलिंग था अप्रभंश काल में नपुंसकलिंग के रूप भी पुल्लिंग के समान बन गए। परिणाम यह हुआ कि नपुंसलिंग समाप्त हो गया। अरबी-फारसी के संपर्क के कारण हिन्दी के अनेक शब्द स्त्रीलिंग हो गए हैं, जैसे: "आय", "आयु", "आत्मा", आदि। # '''सरलता''': आज का मनुष्य सरलता का आग्रही हो गया है। मनुष्य कम-से-कम प्रयत्न में अधिकाधिक लाभ चाहता है। अतः अपने मुख की सुविधा के लिए वह अपवादों को निकालकर उनके स्थान पर नियम के अनुसार चलने वाले रूपों को याद रखना चाहता है। जिस प्रकार ध्वनियों के उच्चारण में प्रयत्न-लाघव काम करता है, उसी प्रकार रूप प्रयोग में चयन के अवसर पर सरलता का अधिक आग्रह करता है। जैसे: आदित्य, सूर, सूरज, सूर्य, भास्कर इत्यादि शब्दों में से सूर्य और सूरज सरलता के कारण अधिक ग्राह्य है। # '''अनेकरूपता''': इस प्रवृत्ति के कारण भी पद-परिवर्तन होता है। शब्दों की समानता भ्रम में डाल देती है। अतः इस भ्रमात्मक स्थिति के निराकरण के लिए अनेकरूपता का सहारा लेना पड़ता है। प्राकृत में ध्वनि-विकास के कारण 'पुत्राः' और 'पुत्राम्' से 'पुत्रा' बना। # '''नवीनता का आग्रह''': मनुष्य एक ओर यदि परम्परा-प्रमी है तो दूसरी ओर नवीनता का आग्रही भी। सदा परम्परा से लिपटे रहना उसे स्वीकार नहीं होता। यदि नवीनता का आग्रह न हो तो भाषा में ही क्या, किसी वस्तु में परिवर्तन नहीं हो सकेगा। उसी नवीनता के आग्रह के फलस्वरूप भाषा में नए पदों की रचना होती हैं। जैसे- कल्पना से परि-कल्पना, प्रयोग से संप्रयोग, रचना से संरचना आदि। # '''बल''': बल देने के प्रयास में भी रूपों में परिवर्तन हो जाता है और नए पदों का जन्म होता है। बल के कारण ही 'अनेक' शब्द आज बहुवचन रूप 'अनेकों' में और 'खालिस' के स्थान पर 'निखालिस' प्रयुक्त हो रहा है। # '''अज्ञान''':- अज्ञानता के कारण भी कभी-कभी नए रूपों का निर्माण हो जाता है। कभी लोग अज्ञानता के कारण शब्दों का प्रयोग करते हैं और प्रचलित हो जाने के कारण मूल रूप भूल जाते हैं। और जो परिवर्तित नया रूप सामने आता है वह चल पड़ता है। उदाहरणस्वरूप, 'फजूल' के स्थान पर 'बेफज़ुल', कृपणता के स्थान पर कृपणताई, और 'अभिज्ञ' के स्थान पर 'भिज्ञा' आदि। == रूप-परिवर्तन की दिशाएँ == रूप-परिवर्तन की तीन दिशाएँ मानी जाती हैं: पद का आगम, पद का लोप और पद का विपर्यय। # '''पद का आगम''': बोलते समय शब्द के आगे तो कभी पीछे कोई सार्थक व निरर्थक शब्द आ जाता है। कालांतर में ऐसे शब्द लेखन और व्यवहार में प्रयुक्त हो जाते हैं। जैसे&mdash;'कोलेज-वोलेज', 'रोटी-वोटी', 'लड़की-वड़की', आदि। # '''पद का लोप''': कभी उच्चारण में तो कभी लेखन में हम कतिपय पदों का लोप कर देते हैं। कृतियों के नामों और व्यक्तियों के नामों के साथ यह प्रवृति अधिक दिखाई देती है। यथा- 'इंदु शेखर' को 'इंदु' या 'शेखर' तथा 'पृथ्वीराज रासो' को 'रासों' नाम से कहने लगते हैं। # '''पद-विपर्यय''': इसमें पदों का भिन्न अर्थों में प्रयोग होता है। एक भाषा का शब्द उसी रूप में, पर दूसरे अर्थ में दूसरी भाषा में प्रयुक्त होते हैं तब विपर्यय कहते हैं। जैसे- अंग्रेजी का एक शब्द "glass" काँच को कहते हैं, पर हिन्दी में 'गिलास' काँच के बने पात्र को कहते हैं। आज तो हम स्टील या पीतल से बने पात्र को भी ग्लास कहने लगते हैं। 8wg5o3y2wem53g2h7xr6qtn98zct8wu 78843 78842 2022-08-20T14:40:44Z Saurmandal 13452 /* रूप-परिवर्तन की दिशाएँ */ wikitext text/x-wiki {{BookCat}} == रूप-परिवर्तन के कारण == भाषा का प्रमुख गुण हैं परिवर्तन। अतः उसके अवयव-ध्वनि, अर्थ, पद, वाक्य में विभिन्न परिस्थितियों के कारण समय-समय पर परिवर्तन लक्षित होते हैं। उन परिवर्तन के अनेक कारण होते हैं। ये कारण संक्षेप में निम्नांकित हैं&mdash; # '''एकरूपता''': यह प्रवृत्ति अनेक भाषाओं में मिलती हैं। संस्कृत में अक्रांत शब्द अधिक है। उक्रांत, इक्रांत तथा व्यंजनात्मक शब्द कम हैं। अक्रांत शब्द ही अधिक स्थिर व प्रभावशाली हैं। प्रकृत में अक्रांत शब्दों का बाहुल्य है। संस्कृत के 'अग्ने' के स्थान पर प्राकृत में 'अग्गिस्स' मिलता हैं। हिन्दी की बोलियों में भी एकरूपता की प्रवृत्ति पाई जाती हैं। # '''सादृश्य''': एकरूपता की इस प्रवृत्ति के मूल में सादृश्य की भावना है। अनेक समान शब्दों के रहते हुए असमान शब्दों का प्रयोग अनुचित होता हैं। मानव इस स्थिति से बचने के लिए सादृश्य का प्रयोग करता है। संस्कृत में नपुंसकलिंग था अप्रभंश काल में नपुंसकलिंग के रूप भी पुल्लिंग के समान बन गए। परिणाम यह हुआ कि नपुंसलिंग समाप्त हो गया। अरबी-फारसी के संपर्क के कारण हिन्दी के अनेक शब्द स्त्रीलिंग हो गए हैं, जैसे: "आय", "आयु", "आत्मा", आदि। # '''सरलता''': आज का मनुष्य सरलता का आग्रही हो गया है। मनुष्य कम-से-कम प्रयत्न में अधिकाधिक लाभ चाहता है। अतः अपने मुख की सुविधा के लिए वह अपवादों को निकालकर उनके स्थान पर नियम के अनुसार चलने वाले रूपों को याद रखना चाहता है। जिस प्रकार ध्वनियों के उच्चारण में प्रयत्न-लाघव काम करता है, उसी प्रकार रूप प्रयोग में चयन के अवसर पर सरलता का अधिक आग्रह करता है। जैसे: आदित्य, सूर, सूरज, सूर्य, भास्कर इत्यादि शब्दों में से सूर्य और सूरज सरलता के कारण अधिक ग्राह्य है। # '''अनेकरूपता''': इस प्रवृत्ति के कारण भी पद-परिवर्तन होता है। शब्दों की समानता भ्रम में डाल देती है। अतः इस भ्रमात्मक स्थिति के निराकरण के लिए अनेकरूपता का सहारा लेना पड़ता है। प्राकृत में ध्वनि-विकास के कारण 'पुत्राः' और 'पुत्राम्' से 'पुत्रा' बना। # '''नवीनता का आग्रह''': मनुष्य एक ओर यदि परम्परा-प्रमी है तो दूसरी ओर नवीनता का आग्रही भी। सदा परम्परा से लिपटे रहना उसे स्वीकार नहीं होता। यदि नवीनता का आग्रह न हो तो भाषा में ही क्या, किसी वस्तु में परिवर्तन नहीं हो सकेगा। उसी नवीनता के आग्रह के फलस्वरूप भाषा में नए पदों की रचना होती हैं। जैसे- कल्पना से परि-कल्पना, प्रयोग से संप्रयोग, रचना से संरचना आदि। # '''बल''': बल देने के प्रयास में भी रूपों में परिवर्तन हो जाता है और नए पदों का जन्म होता है। बल के कारण ही 'अनेक' शब्द आज बहुवचन रूप 'अनेकों' में और 'खालिस' के स्थान पर 'निखालिस' प्रयुक्त हो रहा है। # '''अज्ञान''':- अज्ञानता के कारण भी कभी-कभी नए रूपों का निर्माण हो जाता है। कभी लोग अज्ञानता के कारण शब्दों का प्रयोग करते हैं और प्रचलित हो जाने के कारण मूल रूप भूल जाते हैं। और जो परिवर्तित नया रूप सामने आता है वह चल पड़ता है। उदाहरणस्वरूप, 'फजूल' के स्थान पर 'बेफज़ुल', कृपणता के स्थान पर कृपणताई, और 'अभिज्ञ' के स्थान पर 'भिज्ञा' आदि। == रूप-परिवर्तन की दिशाएँ == रूप-परिवर्तन की तीन दिशाएँ मानी जाती हैं: पद का आगम, पद का लोप और पद का विपर्यय। # '''पद का आगम''': बोलते समय शब्द के आगे तो कभी पीछे कोई सार्थक व निरर्थक शब्द आ जाता है। कालांतर में ऐसे शब्द लेखन और व्यवहार में प्रयुक्त हो जाते हैं। जैसे&mdash;'कोलेज-वोलेज', 'रोटी-वोटी', 'लड़की-वड़की', आदि। # '''पद का लोप''': कभी उच्चारण में तो कभी लेखन में हम कतिपय पदों का लोप कर देते हैं। कृतियों के नामों और व्यक्तियों के नामों के साथ यह प्रवृति अधिक दिखाई देती है। यथा&mdash; 'इंदु शेखर' को 'इंदु' या 'शेखर' तथा 'पृथ्वीराज रासो' को 'रासों' नाम से कहने लगते हैं। # '''पद-विपर्यय''': इसमें पदों का भिन्न अर्थों में प्रयोग होता है। एक भाषा का शब्द उसी रूप में, पर दूसरे अर्थ में दूसरी भाषा में प्रयुक्त होते हैं तब विपर्यय कहते हैं। जैसे&mdash; अंग्रेज़ी का एक शब्द "glass" काँच को कहते हैं, पर हिन्दी में 'गिलास' काँच के बने पात्र को कहते हैं। आज तो हम स्टील या पीतल से बने पात्र को भी ग्लास कहने लगते हैं। he90a8mrshwb6yeov0aduevf05x1v75 78887 78843 2022-08-21T10:33:13Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/रूप-परिवर्तन के कारण और दिशाँए]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/रूप-परिवर्तन के कारण और दिशाएँ]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} == रूप-परिवर्तन के कारण == भाषा का प्रमुख गुण हैं परिवर्तन। अतः उसके अवयव-ध्वनि, अर्थ, पद, वाक्य में विभिन्न परिस्थितियों के कारण समय-समय पर परिवर्तन लक्षित होते हैं। उन परिवर्तन के अनेक कारण होते हैं। ये कारण संक्षेप में निम्नांकित हैं&mdash; # '''एकरूपता''': यह प्रवृत्ति अनेक भाषाओं में मिलती हैं। संस्कृत में अक्रांत शब्द अधिक है। उक्रांत, इक्रांत तथा व्यंजनात्मक शब्द कम हैं। अक्रांत शब्द ही अधिक स्थिर व प्रभावशाली हैं। प्रकृत में अक्रांत शब्दों का बाहुल्य है। संस्कृत के 'अग्ने' के स्थान पर प्राकृत में 'अग्गिस्स' मिलता हैं। हिन्दी की बोलियों में भी एकरूपता की प्रवृत्ति पाई जाती हैं। # '''सादृश्य''': एकरूपता की इस प्रवृत्ति के मूल में सादृश्य की भावना है। अनेक समान शब्दों के रहते हुए असमान शब्दों का प्रयोग अनुचित होता हैं। मानव इस स्थिति से बचने के लिए सादृश्य का प्रयोग करता है। संस्कृत में नपुंसकलिंग था अप्रभंश काल में नपुंसकलिंग के रूप भी पुल्लिंग के समान बन गए। परिणाम यह हुआ कि नपुंसलिंग समाप्त हो गया। अरबी-फारसी के संपर्क के कारण हिन्दी के अनेक शब्द स्त्रीलिंग हो गए हैं, जैसे: "आय", "आयु", "आत्मा", आदि। # '''सरलता''': आज का मनुष्य सरलता का आग्रही हो गया है। मनुष्य कम-से-कम प्रयत्न में अधिकाधिक लाभ चाहता है। अतः अपने मुख की सुविधा के लिए वह अपवादों को निकालकर उनके स्थान पर नियम के अनुसार चलने वाले रूपों को याद रखना चाहता है। जिस प्रकार ध्वनियों के उच्चारण में प्रयत्न-लाघव काम करता है, उसी प्रकार रूप प्रयोग में चयन के अवसर पर सरलता का अधिक आग्रह करता है। जैसे: आदित्य, सूर, सूरज, सूर्य, भास्कर इत्यादि शब्दों में से सूर्य और सूरज सरलता के कारण अधिक ग्राह्य है। # '''अनेकरूपता''': इस प्रवृत्ति के कारण भी पद-परिवर्तन होता है। शब्दों की समानता भ्रम में डाल देती है। अतः इस भ्रमात्मक स्थिति के निराकरण के लिए अनेकरूपता का सहारा लेना पड़ता है। प्राकृत में ध्वनि-विकास के कारण 'पुत्राः' और 'पुत्राम्' से 'पुत्रा' बना। # '''नवीनता का आग्रह''': मनुष्य एक ओर यदि परम्परा-प्रमी है तो दूसरी ओर नवीनता का आग्रही भी। सदा परम्परा से लिपटे रहना उसे स्वीकार नहीं होता। यदि नवीनता का आग्रह न हो तो भाषा में ही क्या, किसी वस्तु में परिवर्तन नहीं हो सकेगा। उसी नवीनता के आग्रह के फलस्वरूप भाषा में नए पदों की रचना होती हैं। जैसे- कल्पना से परि-कल्पना, प्रयोग से संप्रयोग, रचना से संरचना आदि। # '''बल''': बल देने के प्रयास में भी रूपों में परिवर्तन हो जाता है और नए पदों का जन्म होता है। बल के कारण ही 'अनेक' शब्द आज बहुवचन रूप 'अनेकों' में और 'खालिस' के स्थान पर 'निखालिस' प्रयुक्त हो रहा है। # '''अज्ञान''':- अज्ञानता के कारण भी कभी-कभी नए रूपों का निर्माण हो जाता है। कभी लोग अज्ञानता के कारण शब्दों का प्रयोग करते हैं और प्रचलित हो जाने के कारण मूल रूप भूल जाते हैं। और जो परिवर्तित नया रूप सामने आता है वह चल पड़ता है। उदाहरणस्वरूप, 'फजूल' के स्थान पर 'बेफज़ुल', कृपणता के स्थान पर कृपणताई, और 'अभिज्ञ' के स्थान पर 'भिज्ञा' आदि। == रूप-परिवर्तन की दिशाएँ == रूप-परिवर्तन की तीन दिशाएँ मानी जाती हैं: पद का आगम, पद का लोप और पद का विपर्यय। # '''पद का आगम''': बोलते समय शब्द के आगे तो कभी पीछे कोई सार्थक व निरर्थक शब्द आ जाता है। कालांतर में ऐसे शब्द लेखन और व्यवहार में प्रयुक्त हो जाते हैं। जैसे&mdash;'कोलेज-वोलेज', 'रोटी-वोटी', 'लड़की-वड़की', आदि। # '''पद का लोप''': कभी उच्चारण में तो कभी लेखन में हम कतिपय पदों का लोप कर देते हैं। कृतियों के नामों और व्यक्तियों के नामों के साथ यह प्रवृति अधिक दिखाई देती है। यथा&mdash; 'इंदु शेखर' को 'इंदु' या 'शेखर' तथा 'पृथ्वीराज रासो' को 'रासों' नाम से कहने लगते हैं। # '''पद-विपर्यय''': इसमें पदों का भिन्न अर्थों में प्रयोग होता है। एक भाषा का शब्द उसी रूप में, पर दूसरे अर्थ में दूसरी भाषा में प्रयुक्त होते हैं तब विपर्यय कहते हैं। जैसे&mdash; अंग्रेज़ी का एक शब्द "glass" काँच को कहते हैं, पर हिन्दी में 'गिलास' काँच के बने पात्र को कहते हैं। आज तो हम स्टील या पीतल से बने पात्र को भी ग्लास कहने लगते हैं। he90a8mrshwb6yeov0aduevf05x1v75 हिंदी कविता (छायावाद के बाद)/यह दीप अकेला 0 6200 78849 77568 2022-08-20T16:54:51Z Saurmandal 13452 wikitext text/x-wiki {{संचरण|अगला=कलगी बाजरे की}} <center><big>यह दीप अकेला</big><br>सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय</center> <poem> यह दीप अकेला स्नेह भरा है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो। यह जन है - गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा? पनडुब्बा - ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा? यह समिधा - ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा यह अद्वितीय-यह मेरा - यह मैं स्वयं विसर्जित इसको भी पंक्ति को दे दो। यह दीप अकेला स्नेह भरा है गर्व भरा मदमाता पर इसको भी पंक्ति को दे दो। यह मधु है - स्वयं काल की मौना का युगसंचय यह गोरस - जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय, यह अंकुर - फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय, यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुत: इसको भी शक्ति को दे दो। यह दीप अकेला स्नेह भरा है गर्व भरा मदमाता पर इसको भी पंक्ति को दे दो। यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा, वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा, कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र, उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा। जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय इस को भक्ति को दे दो- यह दीप अकेला स्नेह भरा है गर्व भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो। </poem> नई दिल्ली ('आल्प्स' कहवाघर में), 18 अक्टूबर, 1953 {{BookCat}} aa69xfhy0646l14oxzh1ev8larz9nhw भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/भाषा का स्वरूप 0 6222 78866 78775 2022-08-21T10:30:11Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/भाषा का स्वरूप]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/भाषा का स्वरूप]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} == भाषा का स्वरूप == मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज में रहने के नाते उसे आपस में संवाद के लिए विचार-विनिमय करना पड़ता है। कभी वह शब्दों या वाक्यों द्वारा अपने आपको प्रकट करता है तो कभी सिर हिलाने से उसका काम चल जाता है। समाज के उच्च और शिक्षित वर्ग में लोगों को निमंत्रित करने के लिए निमंत्रण-पत्र छपवाये जाते हैं तो देहात के अनपढ़ और निम्नवर्ग में निमंत्रित करने के लिए हल्दी, सुपारी या इलायची बांटना पर्याप्त समझा जाता है। रेलवे गार्ड और रेल-चालक का विचार-विनिमय झंडियों से होता है, तो बिहारी के पात्र 'भरे भवन में करते हैं नैनन ही सौं बात।' चोर अंधेरे में एक-दूसरे का हाथ छूकर या दबाकर अपने आपको प्रकट कर लिया करते हैं। इसी तरह हाथ से संकेत, करतल-ध्वनि, आँख टेढ़ी करना, मारना या दबाना, गाँसना, मुँह बिचकाना, तथा गहरी साँस लेना, आदि अनेक प्रकार के साधनों से हमारे विचार-विनिमय का काम चलता है। आशय यह कि गंध-इन्द्रिय, स्वाद-इंद्रिय, स्पर्श-इंद्रिय, दृग-इंद्रिय तथा कर्ण-इंद्रिय इन पाँचों ज्ञान-इन्द्रिय में किसी के भी माध्यम से अपनी बात कही जा सकती है। === परिभाषा === भाषा मानव के विचार-विनियम का ही साधन न होकर चिंतन-मनन तथा विचारादि का भी साधन माना जाता है। साधारणतः जिन ध्वनि-चिह्नों के माध्यम से मनुष्य परस्पर विचार-विनियम करता है, उनकी समष्टि को भाषा कहते हैं। 'भाषा' शब्द संस्कृत की भाषा' धातु से बना है जिसका अर्थ है&mdash;"बोलना" अथवा "कहना"। अर्थात जिसे बोला जाए या जिसके दारा कुछ कहा जाए, वह भाषा है। भाषा की अनेक परिभाषाएँ दी गई हैं: # '''प्लेटों के अनुसार''': प्लेटों ने 'सोफिस्ट' में विचार और भाषा के संबंध में लिखते हुए कहा है, "विचार और भाषा में थोड़ा ही अंतर है। 'विचार' आत्मा की मूक या अध्वन्यात्मक बातचीत है, पर वही जब ध्वन्यात्मक होकर होंठों पर प्रकट होती है तो उसे भाषा की संज्ञा देते हैं।" # '''स्वीट के अनुसार''': ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा विचारों को प्रकट करना ही भाषा है। # '''वेंद्रिए के अनुसार''': 'भाषा एक तरह का संकेत है। संकेत से आशय उन प्रतीकों से है जिनके द्वारा मानव अपने विचार दूसरों पर प्रकट करता है। ये प्रतीक कई प्रकार के होते हैं, जैसे- नेत्रग्राह्म, कर्णग्राह्म और स्पर्शग्राह्म। वस्तुतः भाषा की दृष्टि से कर्णग्राह्म प्रतीक ही सर्वश्रेष्ठ है। # '''डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार''': "भाषा उच्चारण-अवयवों से उच्चारित मूलतः प्रायः यादृच्छिक ध्वनि-चिह्नों की वह व्यवस्था है, जिसके दारा किसी भाषा-समाज के लोग आपस में विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। # संघटनात्मक भाषाविज्ञान के विचारकों ने भाषा की परिभाषा इस प्रकार दी है, "भाषा यादृच्छिक वाचिक प्रतिकों की वह संघटना है, जिसके माध्यम से एक मानव समुदाय परस्पर व्यवहार करता है। " व्यापक रूप में कहा जाय तो भाषा वह साधन हैं। जिसके माध्यम से हम सोचते हैं तथा विचारों या भावों को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। साधारणतः भाषा की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं: # भाषा एक सुव्यवस्थित योजना या संघटना है। # भाषा की दूसरी विशेषता है उसकी प्रतीकमयता। # तीसरी विशेषता है-- भाषा मानव समुदाय के परस्पर व्यवहार का महत्वपूर्ण माध्यम है। # भाषा में यादृच्छिक ध्वनि-प्रतीक होते हैं। # भाषा निश्चित प्रयत्न के फलस्वरूप मनुष्य के उच्चारण अवयवों से निकली ध्वनि समष्टि होती है। # भाषा का प्रयोग एक विशिष्ट मनुष्य-वर्ग अथवा मानव समाज में होता है। उसी में वह समझी और बोली जाती है। # भाषा में एक व्यवस्था होती है और व्याकरण में ऐसी व्यवस्था का विश्लेषण रहता है। इस प्रकार, मनुष्य के जीवन में भाषा एक अनिवार्य आवश्यकता के रुप में सर्वोपरी माना जाता है। भाषा का मूल सम्बन्ध बोलने से है और इस दृष्टि से वह मनुष्य जाति से अटूट नाते से जुड़ी हुई है। == सन्दर्भ == # भाषा विज्ञान &mdash; डॉ. भोलानाथ तिवारी। प्रकाशक: '''किताब महल''', पुनर्मुद्रण: 2017 # प्रयोजनमूलक हिन्दी: सिद्धांत और प्रयोग &mdash; दंगल झाल्टे, पृष्ठ: 15, 16 j9hv4u2rnt59e9dkzk3xm3r4bipac3z 78915 78866 2022-08-21T10:40:38Z Saurmandal 13452 /* परिभाषा */ wikitext text/x-wiki {{BookCat}} == भाषा का स्वरूप == मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज में रहने के नाते उसे आपस में संवाद के लिए विचार-विनिमय करना पड़ता है। कभी वह शब्दों या वाक्यों द्वारा अपने आपको प्रकट करता है तो कभी सिर हिलाने से उसका काम चल जाता है। समाज के उच्च और शिक्षित वर्ग में लोगों को निमंत्रित करने के लिए निमंत्रण-पत्र छपवाये जाते हैं तो देहात के अनपढ़ और निम्नवर्ग में निमंत्रित करने के लिए हल्दी, सुपारी या इलायची बांटना पर्याप्त समझा जाता है। रेलवे गार्ड और रेल-चालक का विचार-विनिमय झंडियों से होता है, तो बिहारी के पात्र 'भरे भवन में करते हैं नैनन ही सौं बात।' चोर अंधेरे में एक-दूसरे का हाथ छूकर या दबाकर अपने आपको प्रकट कर लिया करते हैं। इसी तरह हाथ से संकेत, करतल-ध्वनि, आँख टेढ़ी करना, मारना या दबाना, गाँसना, मुँह बिचकाना, तथा गहरी साँस लेना, आदि अनेक प्रकार के साधनों से हमारे विचार-विनिमय का काम चलता है। आशय यह कि गंध-इन्द्रिय, स्वाद-इंद्रिय, स्पर्श-इंद्रिय, दृग-इंद्रिय तथा कर्ण-इंद्रिय इन पाँचों ज्ञान-इन्द्रिय में किसी के भी माध्यम से अपनी बात कही जा सकती है। === परिभाषा === भाषा मानव के विचार-विनियम का ही साधन न होकर चिंतन-मनन तथा विचारादि का भी साधन माना जाता है। साधारणतः जिन ध्वनि-चिह्नों के माध्यम से मनुष्य परस्पर विचार-विनियम करता है, उनकी समष्टि को भाषा कहते हैं। 'भाषा' शब्द संस्कृत की भाषा' धातु से बना है जिसका अर्थ है&mdash;"बोलना" अथवा "कहना"। अर्थात जिसे बोला जाए या जिसके दारा कुछ कहा जाए, वह भाषा है। भाषा की अनेक परिभाषाएँ दी गई हैं: # '''प्लेटों के अनुसार''': प्लेटों ने 'सोफ़िस्ट' में विचार और भाषा के संबंध में लिखते हुए कहा है, "विचार और भाषा में थोड़ा ही अंतर है। 'विचार' आत्मा की मूक या अध्वन्यात्मक बातचीत है, पर वही जब ध्वन्यात्मक होकर होंठों पर प्रकट होती है तो उसे भाषा की संज्ञा देते हैं।" # '''स्वीट के अनुसार''': ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा विचारों को प्रकट करना ही भाषा है। # '''वेंद्रिए के अनुसार''': 'भाषा एक तरह का संकेत है। संकेत से आशय उन प्रतीकों से है जिनके द्वारा मानव अपने विचार दूसरों पर प्रकट करता है। ये प्रतीक कई प्रकार के होते हैं, जैसे- नेत्रग्राह्म, कर्णग्राह्म और स्पर्शग्राह्म। वस्तुतः भाषा की दृष्टि से कर्णग्राह्म प्रतीक ही सर्वश्रेष्ठ है। # '''डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार''': "भाषा उच्चारण-अवयवों से उच्चारित मूलतः प्रायः यादृच्छिक ध्वनि-चिह्नों की वह व्यवस्था है, जिसके दारा किसी भाषा-समाज के लोग आपस में विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। # संघटनात्मक भाषाविज्ञान के विचारकों ने भाषा की परिभाषा इस प्रकार दी है, "भाषा यादृच्छिक वाचिक प्रतीकों की वह संघटना है, जिसके माध्यम से एक मानव समुदाय परस्पर व्यवहार करता है। " व्यापक रूप में कहा जाए तो भाषा वह साधन हैं। जिसके माध्यम से हम सोचते हैं तथा विचारों या भावों को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। साधारणतः भाषा की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं: # भाषा एक सुव्यवस्थित योजना या संघटना है। # भाषा की दूसरी विशेषता है उसकी प्रतीकमयता। # तीसरी विशेषता है: भाषा मानव समुदाय के परस्पर व्यवहार का महत्वपूर्ण माध्यम है। # भाषा में यादृच्छिक ध्वनि-प्रतीक होते हैं। # भाषा निश्चित प्रयत्न के फलस्वरूप मनुष्य के उच्चारण अवयवों से निकली ध्वनि समष्टि होती है। # भाषा का प्रयोग एक विशिष्ट मनुष्य-वर्ग अथवा मानव समाज में होता है। उसी में वह समझी और बोली जाती है। # भाषा में एक व्यवस्था होती है और व्याकरण में ऐसी व्यवस्था का विश्लेषण रहता है। इस प्रकार, मनुष्य के जीवन में भाषा एक अनिवार्य आवश्यकता के रुप में सर्वोपरी माना जाता है। भाषा का मूल सम्बन्ध बोलने से है और इस दृष्टि से वह मनुष्य जाति से अटूट नाते से जुड़ी हुई है। == सन्दर्भ == # भाषा विज्ञान &mdash; डॉ. भोलानाथ तिवारी। प्रकाशक: '''किताब महल''', पुनर्मुद्रण: 2017 # प्रयोजनमूलक हिन्दी: सिद्धांत और प्रयोग &mdash; दंगल झाल्टे, पृष्ठ: 15, 16 4k75j7hft2n62lg5ml96p8eg49oelqx भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा 0 6596 78854 78839 2022-08-21T08:38:42Z Saurmandal 13452 करीब हो ही गया wikitext text/x-wiki यह पुस्तक हिंदी स्नातक स्तर पर भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा से संबंधित अवधारणाओं की सामान्य जानकारी के लिए लिखी गयी है। इस पुस्तक से पश्चिम बंग राज्य विश्वविद्यालय से संबद्ध महाविद्यालयों के साथ-साथ अन्य विश्वविद्यालय के स्नातक एवं परास्नातक कक्षाओं के विद्यार्थी भी लाभान्वित हो सकते हैं। == विषय सूची == * [[/लेखक/]] # [[/भाषा का स्वरूप/]] # [[/संसार की भाषाओं का वर्गीकरण/]] # [[/भाषाविज्ञान के अंग/]] # [[/भाषा की विशेषताएँ और प्रवृत्तियाँ/]] # [[/भाषा के विकास-सोपान/]] # [[/भाषा के विभिन्न रूप/]] # [[/भाषा की उत्पति/]] # [[/भाषा की परिवर्तनशीलता और परिवर्तन के कारण/]] # [[/रूप-परिवर्तन के कारण और दिशाँए/]] # [[/अर्थ-परिवर्तन के कारण और दिशाँए/]] # [[/ध्वनिविज्ञान और औच्चारणिक ध्वनि का विवेचन/]] # [[/वाक्यविज्ञान और उसके भेद/]] # [[/भाषाविज्ञान के अध्ययन क्षेत्र/]] # [[/पदबंध की अवधारणा और उसके भेद/]] # [[/शब्द और पद में अन्तर और हिन्दी शब्द भंडार के स्रोत/]] # [[/पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ/]] # [[/पूर्वी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ/]] # [[/हिन्दी,हिन्दी प्रदेश और उसकी उपभाषाएँ/]] # [[/आधुनिक हिन्दी का विकास क्रम/]] # [[/सामान्य भाषा और काव्यभाषा अंत:संबध और अन्तर/]] {{Shelves|हिंदी भाषा}} {{Alphabetical|भ}} {{स्थिति|75%}} f6vc2mxr3jcdhp4w2eucbwyqwgdlsxn 78855 78854 2022-08-21T08:39:25Z Saurmandal 13452 wikitext text/x-wiki यह पुस्तक हिंदी स्नातक स्तर पर भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा से संबंधित अवधारणाओं की सामान्य जानकारी के लिए लिखी गयी है। इस पुस्तक से पश्चिम बंग राज्य विश्वविद्यालय से संबद्ध महाविद्यालयों के साथ-साथ अन्य विश्वविद्यालय के स्नातक एवं परास्नातक कक्षाओं के विद्यार्थी भी लाभान्वित हो सकते हैं। == विषय सूची == * [[/लेखक/]] # [[/भाषा का स्वरूप/]] # [[/संसार की भाषाओं का वर्गीकरण/]] # [[/भाषाविज्ञान के अंग/]] # [[/भाषा की विशेषताएँ और प्रवृत्तियाँ/]] # [[/भाषा के विकास-सोपान/]] # [[/भाषा के विभिन्न रूप/]] # [[/भाषा की उत्पति/]] # [[/भाषा की परिवर्तनशीलता और परिवर्तन के कारण/]] # [[/रूप-परिवर्तन के कारण और दिशाँए/]] # [[/अर्थ-परिवर्तन के कारण और दिशाँए/]] # [[/ध्वनिविज्ञान और औच्चारणिक ध्वनि का विवेचन/]] # [[/वाक्यविज्ञान और उसके भेद/]] # [[/भाषाविज्ञान के अध्ययन क्षेत्र/]] # [[/पदबंध की अवधारणा और उसके भेद/]] # [[/शब्द और पद में अन्तर और हिन्दी शब्द भंडार के स्रोत/]] # [[/पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ/]] # [[/पूर्वी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ/]] # [[/हिन्दी,हिन्दी प्रदेश और उसकी उपभाषाएँ/]] # [[/आधुनिक हिन्दी का विकास क्रम/]] # [[/सामान्य भाषा और काव्यभाषा अंत:संबध और अन्तर/]] {{Shelves|हिंदी भाषा}} {{Alphabetical|भ}} {{स्थिति|75%}} 6il6oq4ypduirze7la40kxkh1nxpe88 78862 78855 2022-08-21T10:29:32Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki यह पुस्तक हिंदी स्नातक स्तर पर भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा से संबंधित अवधारणाओं की सामान्य जानकारी के लिए लिखी गयी है। इस पुस्तक से पश्चिम बंग राज्य विश्वविद्यालय से संबद्ध महाविद्यालयों के साथ-साथ अन्य विश्वविद्यालय के स्नातक एवं परास्नातक कक्षाओं के विद्यार्थी भी लाभान्वित हो सकते हैं। == विषय सूची == * [[/लेखक/]] # [[/भाषा का स्वरूप/]] # [[/संसार की भाषाओं का वर्गीकरण/]] # [[/भाषाविज्ञान के अंग/]] # [[/भाषा की विशेषताएँ और प्रवृत्तियाँ/]] # [[/भाषा के विकास-सोपान/]] # [[/भाषा के विभिन्न रूप/]] # [[/भाषा की उत्पति/]] # [[/भाषा की परिवर्तनशीलता और परिवर्तन के कारण/]] # [[/रूप-परिवर्तन के कारण और दिशाँए/]] # [[/अर्थ-परिवर्तन के कारण और दिशाँए/]] # [[/ध्वनिविज्ञान और औच्चारणिक ध्वनि का विवेचन/]] # [[/वाक्यविज्ञान और उसके भेद/]] # [[/भाषाविज्ञान के अध्ययन क्षेत्र/]] # [[/पदबंध की अवधारणा और उसके भेद/]] # [[/शब्द और पद में अन्तर और हिन्दी शब्द भंडार के स्रोत/]] # [[/पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ/]] # [[/पूर्वी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ/]] # [[/हिन्दी,हिन्दी प्रदेश और उसकी उपभाषाएँ/]] # [[/आधुनिक हिन्दी का विकास क्रम/]] # [[/सामान्य भाषा और काव्यभाषा अंत:संबध और अन्तर/]] {{Shelves|हिंदी भाषा}} {{Alphabetical|भ}} {{स्थिति|75%}} 6il6oq4ypduirze7la40kxkh1nxpe88 78914 78862 2022-08-21T10:39:03Z Saurmandal 13452 wikitext text/x-wiki यह पुस्तक हिंदी स्नातक स्तर पर भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा से संबंधित अवधारणाओं की सामान्य जानकारी के लिए लिखी गयी है। इस पुस्तक से पश्चिम बंग राज्य विश्वविद्यालय से संबद्ध महाविद्यालयों के साथ-साथ अन्य विश्वविद्यालय के स्नातक एवं परास्नातक कक्षाओं के विद्यार्थी भी लाभान्वित हो सकते हैं। == विषय सूची == === परिचय === * [[/लेखक/]] === पाठ === # [[/भाषा का स्वरूप/]] # [[/संसार की भाषाओं का वर्गीकरण/]] # [[/भाषाविज्ञान के अंग/]] # [[/भाषा की विशेषताएँ और प्रवृत्तियाँ/]] # [[/भाषा के विकास-सोपान/]] # [[/भाषा के विभिन्न रूप/]] # [[/भाषा की उत्पति/]] # [[/भाषा की परिवर्तनशीलता और परिवर्तन के कारण/]] # [[/रूप-परिवर्तन के कारण और दिशाएँ/]] # [[/अर्थ-परिवर्तन के कारण और दिशाएँ/]] # [[/ध्वनिविज्ञान और औच्चारणिक ध्वनि का विवेचन/]] # [[/वाक्यविज्ञान और उसके भेद/]] # [[/भाषाविज्ञान के अध्ययन क्षेत्र/]] # [[/पदबंध की अवधारणा और उसके भेद/]] # [[/शब्द और पद में अंतर और हिन्दी शब्द भण्डार के स्रोत/]] # [[/पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ/]] # [[/पूर्वी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ/]] # [[/हिन्दी, हिन्दी प्रदेश और उसकी उपभाषाएँ/]] # [[/आधुनिक हिन्दी का विकास क्रम/]] # [[/सामान्य भाषा और काव्यभाषा: संबंध और अंतर/]] {{Shelves|हिंदी भाषा}} {{Alphabetical|भ}} {{स्थिति|100%}} b0uk1kulu3w6aj0rnqpknnseqa2kxcq भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/लेखक 0 8201 78864 78773 2022-08-21T10:29:57Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/लेखक]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/लेखक]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki {{BookCat}} ; कन्हाई प्रसाद चौरसिया : स्नातक हिन्दी प्रतिष्ठा : हिन्दी विभाग : ऋषि बंकिम चंद्र कॉलेज, नैहाटी : उत्तरी 24 परगना, पश्चिम बंगाल - 783165 : पश्चिम बंग राज्य विश्वविद्यालय, बारासात bhwmg7eqtne1n1wd3savb0td4s92grh हिंदी भाषा और उसकी लिपि का इतिहास/देवनागरी लिपि की विशेषताएं 0 8579 78851 70503 2022-08-21T07:40:15Z 2405:205:128E:CA7E:9CE2:FA10:A7AB:7251 /* सन्दर्भ */ wikitext text/x-wiki {{संचरण|पिछला=देवनागरी लिपि का मानकीकरण|अगला=देवनागरी लिपि और कंप्यूटर}} <center><big></big>आदर्श लिपि के गुण और देवनागरी लिपि की विशेषताएं<br></center> ==आदर्श लिपि के गुण== किसी भी साधारण लिपि में आदर्श लिपि बनने के लिए निम्नलिखित गुण होने चाहिए।- '''१.''' लिपि में अक्षरों के नाम और उच्चारण समान तथा अभिन्न होने चाहिए। '''उदाहरण'''- देवनागरी लिपि में क, ख, ग, घ आदि का नाम और उच्चारण समान है इसके विपरीत रोमन में अक्षरों के नाम और उच्चारण में अंतर होता है। '''२.''' एक अक्षर एक ही ध्वनि का वाहक होना चाहिए। कभी-कभी ऐसे लिपि चिन्ह भी देखे जाते हैं जिनके उच्चारण का उन से प्रकट होने वाली ध्वनियों से कोई संबंध नहीं होता। '''उदाहरण'''- रोमन का W 'व' ध्वनि का वाहक है। '''३.''' आदर्श लिपि लेखन की दृष्टि से सरल होनी चाहिए प्रत्येक मौलिक उच्चारण के लिए विशिष्ट अक्षर अथवा लिपि चिन्ह होना चाहिए। '''४.''' आदर्श लिपि सीखने में सरल व सहज होने चाहिए। अक्षर एक दूसरे से मिलते जुलते नहीं होने चाहिए। जिससे एक अक्षर से दूसरे अक्षर में भ्रम पैदा ना हो। '''५.''' आदर्श लिपि में उच्चारण के लिए एक ही लिपि चिन्ह होना चाहिए। देवनागरी लिपि इस दृष्टि से अधिक वैज्ञानिक है। '''६.''' आदर्श लिपि में कम अक्षर होने चाहिए और वह भाषा को अभिव्यक्त करने में बिल्कुल सशक्त होने चाहिए। '''७.''' आदर्श लिपि में अनावश्यक चिन्ह नहीं होने चाहिए। '''८.''' एक आदर्श लिपि में सभी अक्षर समान ऊंचाई के होने चाहिए। इसके साथ साथ उसमें शीघ्र लेखन की भी विशेषता होनी चाहिए इस दृष्टि से नागरी लिपि में शिरोरेखा सबसे बड़ी बाधा है। '''९.''' एक आदर्श वर्णमाला में अक्षरों का क्रम सहज और उनके आकार के अनुसार होना चाहिए। ==देवनागरी लिपि की विशेषताएं== देवनागरी लिपि अनेक विशेषताओं की स्वामिनी है और वास्तव में यह विश्व की समस्त वर्तमान लिपियों से श्रेष्ठ और वैज्ञानिक है। देवनागरी लिपि में एक आदर्श लिपि होने के सभी गुण विद्यमान हैं। यह लिपि अक्षरात्मक है। भारत की अनेक भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि का प्रयोग लंबे समय से होता आ रहा है। '''विनोबा भावे''' ने अपने एक भाषण में कहा था- " यदि हम सारे देश के लिए देवनागरी लिपि को अपना लें तो हमारा देश बहुत मजबूत हो जाएगा।" फिर तो देवनागरी लिपि ऐसी रक्षा कवच सिद्ध हो सकती है जैसे कोई भी नहीं। यह लिपि हर संदर्भ एवं स्थिति में उपयुक्त है और इतनी लचीली है कि हर ढांचे में आसानी से ढल सकती है। देवनागरी लिपि की विभिन्न विशेषताएं निम्नलिखित हैं।- '''१.''' यह लिपि भाषा के अंतर्गत आने वाले अधिक से अधिक चिन्हों से संपन्न है। जिसमें परंपरागत रूप से 11 स्वर और 33 व्यंजन हैं। इसके अतिरिक्त ड़, ढ़, क़, ख़, ग़, ज़, फ़ इन ध्वनियों के लिए भी चिन्ह बने हैं। क्ष, त्र, ज्ञ, श्र संयुक्त व्यंजनों के लिए अलग चिन्ह है। '''२.''' यह लिपि समस्त प्राचीन भारतीय भाषाओं जैसे- संस्कृत, प्राकृत, पाली एवं अपभ्रंश की भी लिपि रही है। '''३.'''जो लिपि चिन्ह जिस ध्वनि का घोतक है उसका नाम भी वही है जैसे- आ, इ, क, ख आदि। इस दृष्टि से रोमन लिपि में पर्याप्त भ्रम की स्थिति विद्यमान है। जैसे - C, H, G, W आदि। '''४.''' हिंदी में ऋ - रि, श - ष, को छोड़कर शेष सभी ध्वनियों के लिए स्वतंत्र लिपि चिन्ह है। '''५.''' नागरी लिपि में उच्चारण की दृष्टि से समान लिपि चिन्हों में आकृति में भी समानता देखने को मिलती है। रोमन लिपि में यह गुण ना के बराबर है- P, y, g, a, b आदि। '''६.''' रोमन लिपि में कई बार वर्ण मूक रहते हैं, उनका उच्चारण नहीं किया जाता लेकिन उन्हें लिखा जाता है। जैसे- Know, Knife, Tsunami आदि लेकिन देवनागरी लिपि में यह दोष नहीं है। नागरी लिपि में प्रत्येक वर्ण का उच्चारण किया जाता है। '''७.''' देवनागरी लिपि में रोमन के समान कैपिटल लेटर और स्मॉल लेटर का झंझट नहीं है। वास्तव में आदर्श लिपि वही है जिसमें एकरूपता हो। '''८.''' देवनागरी लिपि में सभी नासिक्य ध्वनियों के लिए अलग-अलग चिन्ह है। जैसे रोमन में- ड़, ञ, ण, सभी को N से लिखा जाता है। भारतीय भाषाओं के तृष्णा, विष्णु और प्राणायाम जैसे शब्दों को रोमन में लिख पाना असंभव है। '''९.''' नागरी में अनुस्वार और चंद्रबिंदु की उपस्थिति इसकी ध्वनि वैज्ञानिक पूर्णता को प्रकाष्ठा पर पहुंचा देती है। '''१०.''' नागरी लिपि में अन्य भाषाओं की ध्वनियों को ग्रहण करने की अद्भुत क्षमता है। जैसे अंग्रेजी से- ऑ, क़, ग़, ज़, फ़ आदि। '''११.''' उत्तर भारत की सभी लिपियां नागरी के ही रूप भेद है, यह संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी, मराठी, नेपाली आदि अनेक भाषाओं की लिपि तो है ही साथ ही अन्य भाषा की लिपि होने का सामर्थ्य भी इसमें विद्यमान है। '''१२.''' देवनागरी लिपि सुपाठ्य एवं सुस्पष्ट है अर्थात इस लिपि का पाठ सुंदर रूप में किया जा सकता है। और यह अच्छे तरीके से स्पष्ट भी हो जाती है। देवनागरी लिपि में मुद्रण एवं टंकण के भी विशेष सुविधाएँ हैं। '''१३.''' देवनागरी लिपि की एक अन्य विशेषता यह है कि यह उत्तरी भारत मैं हिमालय से लेकर महाराष्ट्र और हरियाणा से लेकर बिहार और झारखंड तक फैली हुई है। '''१४.''' इस लिपि में भारत का विपुल साहित्य भंडार भी इसी लिपि में लिखित है। संस्कृत, पाली, प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य इसी लिपि में विद्यमान है। '''१५.''' देवनागरी लिपि में अंको को भी लेकर अनेक चमत्कार पूर्ण कविताएं लिखी गई हैं जो अन्य लिपियों के अंको में संभव नहीं है। '''१६.''' इसका वर्तमान रूप नेत्रों के लिए अत्यंत आकर्षक है। इसके साथ साथ यह लिपि वैज्ञानिक और कंप्यूटर की दृष्टि से भी उपयुक्त है। अतः इस प्रकार कहा जा सकता है कि नागरी लिपि में निश्चित रूप से विश्व का श्रेष्ठ ज्ञान है, और यह लिपि अनेक विशेषताओं की स्वामिनी है। ==सन्दर्भ== हिन्दी भाषा: विकास एवं व्यावहारिक प्रयोजन इसमें भाषाओं का ज्ञान होता है एवं इसमें बहुत सारी विशेषताएं होती हैं जैसे कि दाएं से बाएं रोम साम्राज्य एवं इसमें भाषाओं का ज्ञान होता है जिससे व्याख्या विज्ञान व शादी नकारात्मक एवं जय श्री कृष्ण सच्चा ज्ञान शब्द का ज्ञान एवं 0nunaazb3zdv8q16bgvvxmefhqi2myp हिंदी भाषा का व्यावहारिक व्याकरण/शब्दों के भेद 0 10757 78850 2022-08-20T17:13:58Z अनिकेत गिरी गोस्वामी 13846 इस विषय के तहत कोई भी सामग्री उपलब्ध नहीं थी, मैंने अपने ज्ञान के आधार पर इसमें एक विषय लिखा है । इसमें कुछ गलतियां भी हो सकती है जिसके लिए मुझे सुझाव भेज सकते हैं। wikitext text/x-wiki '''रचना या निर्माण के आधार पर शब्द -''' # '''रूढ़ – वह शब्द जिनकी ध्वनियों को अलग करके कोईअर्थ नहीं निकला जा सकता हैं या जिनकी व्युत्पति ज्ञात न हो। उदाहरणतः किताब,पेट इत्यादि''' # '''यौगिक – वह शब्द जो दो से अधिक शब्दों से मिलकर बने हो साथ ही जिनका अर्थ दोनों के जुड़ने से निर्धारित हो ।''' '''उदाहरणतः विद्यालय , पुस्तकालय''' # # '''योगरूढ़ – वह शब्द जो रचना की दृष्टि से तो यौगिक है किंतु जिनका अर्थ एक विशेष रूप में रूढ़ हो चुका हैं । उदाहरण के लिए पंकज का अर्थ है कीचड़ में जन्म लेने वाला । लेकिन इसका अर्थ कमल के लिए रूढ़ हो गया हैं जबकि कीचड़ में कमल के अतिरिक्त अन्य भी उगते हैं।''' # # 9n2dn8bmz2yte8m7qm3er0wkm0x2k8h भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा 0 10758 78863 2022-08-21T10:29:33Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki #पुनर्प्रेषित [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा]] nh1p9vonjkgbvykoxq0qjr6yces7z39 भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/लेखक 0 10759 78865 2022-08-21T10:29:57Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/लेखक]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/लेखक]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki #पुनर्प्रेषित [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/लेखक]] tajzijn0zmge8k5i9z8x5v8p6eukheq भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/भाषा का स्वरूप 0 10760 78867 2022-08-21T10:30:11Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/भाषा का स्वरूप]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/भाषा का स्वरूप]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki #पुनर्प्रेषित 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और हिन्दी भाषा/शब्द और पद में अंतर और हिन्दी शब्द भण्डार के स्रोत]] h3q8jqudigw6y9q104zawad9kc5dy5v भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ 0 10777 78905 2022-08-21T10:36:03Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki #पुनर्प्रेषित [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ]] ctxyxhrhqvomuc5zj7b7r8ng8dnaj3z भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/पूर्वी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ 0 10778 78907 2022-08-21T10:36:16Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/पूर्वी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/पूर्वी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki #पुनर्प्रेषित [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/पूर्वी हिन्दी की बोलियाँ और भाषागत विशेषताएँ]] acx6v1js2fhhvmstwusb0vy7ulexqkp भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/हिन्दी,हिन्दी प्रदेश और उसकी उपभाषाएँ 0 10779 78909 2022-08-21T10:36:30Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/हिन्दी,हिन्दी प्रदेश और उसकी उपभाषाएँ]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/हिन्दी, हिन्दी प्रदेश और उसकी उपभाषाएँ]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki #पुनर्प्रेषित [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/हिन्दी, हिन्दी प्रदेश और उसकी उपभाषाएँ]] gnxdlsmwysfpw8juuqzwf2wl6g2jc5k भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/आधुनिक हिन्दी का विकास क्रम 0 10780 78911 2022-08-21T10:36:42Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/आधुनिक हिन्दी का विकास क्रम]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/आधुनिक हिन्दी का विकास क्रम]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki #पुनर्प्रेषित [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/आधुनिक हिन्दी का विकास क्रम]] 7zf5lacajgiufy1n2zyalv14oal9kgn भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/सामान्य भाषा और काव्यभाषा अंत:संबध और अन्तर 0 10781 78913 2022-08-21T10:37:11Z Saurmandal 13452 Saurmandal ने [[भाषा विज्ञान और हिंदी भाषा/सामान्य भाषा और काव्यभाषा अंत:संबध और अन्तर]] पृष्ठ [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/सामान्य भाषा और काव्यभाषा: संबंध और अंतर]] पर स्थानांतरित किया wikitext text/x-wiki #पुनर्प्रेषित [[भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/सामान्य भाषा और काव्यभाषा: संबंध और अंतर]] 1iuj200p5iq79k5cqfuop4vsgddhyqr