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मृत्यु
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2022-08-24T23:54:40Z
अनुनाद सिंह
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* ''अजराऽमरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थञ्च चिन्तयेत् ।
: ''गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥ (भर्तृहरि)
: (बुद्धिमान मनुष्य अपने को बुढापा और मृत्यु से रहित (अजर, अमर) समझकर विद्या और धन का उपार्जन करे और मृत्यु मानों सिर पर सवार है ऐसा समझकर धर्म का पालन करता रहे।)
* दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य ये है की हम रोज मृत्यु होते हुए देखते हैं फिर भी ऐसे व्यवहार करते हैं की जैसे हमें अनंत काल का जीवन मिला हो। -- युधिष्ठिर
* मैं मृत्यु से क्यों डरूं .?… जब तक मै हूँ मृत्यु नहीं है और जब मृत्यु है मैं नहीं हूँ। मैं मृत्य से क्यों डरूं उसका अस्तित्व तक नहीं है , जब तक मेरा अस्तित्व है। -- ऐपिकुरस
* हर व्यक्ति जिसका जन्म हुआ है वो मरता है परन्तु हर वो व्यक्ति जिसका जन्म हुआ है जी नहीं पाता है। -- एलन सैक्स
* मृत्यु जीवन का विपरीत नहीं बल्कि इसका एक हिस्सा है। -- हारुकी मुराकामी, ब्लाइंड विलो, स्लीपिंग वुमन
* यदि तुम चाहते हो की लोग तुम्हारे मरते ही तुम्हें भूल न जाएँ। तो कुछ ऐसा लिखो जो पठनीय हो या कुछ ऐसा करो जो लिखने योग्य हो। -- फ्रैंकलिन
* जिस तरह से मनुष्य पुराने कपड़े उतार कर नए कपड़े पहनता है, उसी तरह से आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण करती है। (भगवद्गीता)
* <sub>जिंदगी मृत्यु से भी अधिक दर्द देती है। -- अज्ञात</sub>
* जब कैटरपिलर कहता है यह तो मृत्यु है ….ईश्वर कहते हैं नहीं ये तितली का जन्म हुआ है। -- पाउलो कोलियो
* '''मृत्यु ने जिंदगी से पूँछा, "लोग तुमसे प्यार और मुझसे नफरत क्यों करते हैं ?" जिन्दगी ने उत्तर दिया ,"क्योंकि मैं एक खूबसूरत झूठ हूँ और तुम एक दर्दनाक सत्य हो'''। "
* जीवन और मृत्यु एक ही हैं जैसे नदी और सागर। -- खलील जिब्रान
* मृत्यु सबसे बड़ा नुक्सान नहीं है। सबसे बड़ा नुक्सान वो है जो हमारे अन्दर रोज मरता है , जब हम जी रहे होते हैं। -- नोर्मन ब्रदर्स
* आप अपनी मौलिकता के साथ पैदा हुए थे, किसी की नक़ल के साथ मत मरिये। -- जॉन मेसन
* कभी भी बहुत देर नहीं होती। अगर आप को कल मरना है तो आज अपने विचारों के प्रति बिलकुल ईमानदार हो जाओ। और एक दिन के लिए ही सही , ऐसी जिंदगी जिओ जो आप हमेशा से जीना चाहते थे। -- लामा येशे
* जीवित रहने का अर्थ है बार-बार मरने की इच्छा रखना। -- पेमा चोड्रोन
* ऐसे जियो जैसे कल मरना है। और किसी भी चीज को सीखने के लिए ऐसे प्रयास करो जैसे कभी मरना ही न हो। -- महात्मा गाँधी
* मैं नहीं चाहता की मैं जीवन के अन्त पर पहुँच कर इसकी लम्बाई नापूँ , मैं इसकी चौड़ाई नापना चाहता हूँ। -- डायने एकरमैन
* जो व्यक्ति यह जानता है कि जीवन क्या है, वो मृत्यु से घबराता नहीं। उसे सहज भाव से गले लगाता है। -- ओशो
* मृत्यु वो सोने की चाभी है जो अमरत्व के भवन को खोल देती है। -- मिल्टन
* मृत्यु भी धर्मनिष्ठ प्राणी की रक्षा करती है। -- कौटिल्य
* मृत्यु थकावट के सदृश हैं परन्तु सच्चा आनन्द तो अनन्त की गोद में है। -- रविन्द्र नाथ टैगोर
* मृत्यु साथ ही चलती है , साथ ही बैठती है और साथ-साथ ही सुदूरवर्ती यात्रा पर जाती है। -- वाल्मीकि
* परिवर्तन ही सृष्टि है, जीवन है और स्थिर होना मृत्यु। -- जयशंकर प्रसाद
* युधिष्ठिर के पास एक भिखारी आया। उन्होंने उसे अगले दिन आने के लिए कह दिया। इस पर भीम हर्षित हो उठे। उन्होंने सोचा कि उनके भाई ने कल तक के लिए मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली है। -- महाभारत
* कायर मृत्यु से पूर्व अनेकों बार मर चुकता है, जबकि बहादुर को मरने के दिन ही मरना पड़ता है। (शेक्शपीयर)
* जीवन का महत्ता इसलिये है, क्योंकि मृत्यु है। मृत्यु न हो तो ज़िन्दगी बोझ बन जायेगी। इसलिये मृत्यु को दोस्त बनाओ, उसी डरो नहीं।
* भले ही आपका जन्म सामान्य हो, आपकी मृत्यु इतिहास बन सकती है।
* जब आपका जन्म हुआ तो आप रोए और जग हंसा था। अपने जीवन को इस प्रकार से जीएं कि जब आप की मृत्यु हो तो दुनिया रोए और आप हंसें। -- कबीर
* जब आपके पास पैसा आ जाता है तो समस्या सेक्स की हो जाती है, जब आपके पास दोनों चीज़ें हो जाती हैं तो स्वास्थ्य समस्या हो जाती है और जब सारी चीज़ें आपके पास होती हैं, तो आपको मृत्यु भय सताने लगता है। -- जे पी डोनलेवी
* इस धरती पर कर्म करते-करते सौ साल तक जीने की इच्छा रखो, क्योंकि कर्म करने वाला ही जीने का अधिकारी है। जो कर्म-निष्ठा छोड़कर भोग-वृत्ति रखता है, वह मृत्यु का अधिकारी बनता है। -- वेद
* परिवर्तन ही सृष्टि है, जीवन है। स्थिर होना मृत्यु है। -- जयशंकर प्रसाद
* मेरा कहना तो यह है कि प्रमाद मृत्यु है और अप्रमाद अमृत। -- वेदव्यास
* यदि तुम्हें मरने की विधि पता नहीं है तो चिन्ता की कोई बात नहीं है। प्रकृति तुम्हें मृत्यु के स्थान पर ही बता देगी, वो भी पूरी तरह से और पर्याप्प्त रूप में। -- मॉटेग्ने (Montaigne)
* ''मान्धाता च महीपतिः कृतयुगालंकारभूतो गतः
: ''सेतुर्येन महोदधौ विरचितः क्वासौ दशास्यान्तकः ।
: ''अन्ये चापि युधिष्ठिरप्रभृतयो याता दिवं भूपते ।
: ''नैकेनापि समं गता वसुमती नूनं त्वया यास्यति ॥'' (भोजप्रबन्ध ; भोज द्वारा मुञ्ज को लिखे पत्र में)
: अर्थ :सतयुग के अलंकार मान्धाता चले गए। जिन्होने समुद्र पर पुल बांधा, रावण का वध करने वाले वे (राम) कहाँ हैं? हे राजा, युधिष्ठिर आदि दूसरे लोग भी चले गए। किसी के साथ भी यह धरती नहीं गयी। तुम्हारे साथ अवश्य जाएगी।
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अनुनाद सिंह
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* ''अजराऽमरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थञ्च चिन्तयेत् ।
: ''गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥ (भर्तृहरि)
: (बुद्धिमान मनुष्य अपने को बुढापा और मृत्यु से रहित (अजर, अमर) समझकर विद्या और धन का उपार्जन करे और मृत्यु मानों सिर पर सवार है ऐसा समझकर धर्म का पालन करता रहे।)
* दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य ये है की हम रोज मृत्यु होते हुए देखते हैं फिर भी ऐसे व्यवहार करते हैं की जैसे हमें अनंत काल का जीवन मिला हो। -- युधिष्ठिर
* मैं मृत्यु से क्यों डरूं?… जब तक मै हूँ मृत्यु नहीं है और जब मृत्यु है मैं नहीं हूँ। मैं मृत्य से क्यों डरूं उसका अस्तित्व तक नहीं है , जब तक मेरा अस्तित्व है। -- ऐपिकुरस
* हर व्यक्ति जिसका जन्म हुआ है वो मरता है परन्तु हर वो व्यक्ति जिसका जन्म हुआ है जी नहीं पाता है। -- एलन सैक्स
* मृत्यु जीवन का विपरीत नहीं बल्कि इसका एक हिस्सा है। -- हारुकी मुराकामी, ब्लाइंड विलो, स्लीपिंग वुमन
* यदि तुम चाहते हो की लोग तुम्हारे मरते ही तुम्हें भूल न जाएँ। तो कुछ ऐसा लिखो जो पठनीय हो या कुछ ऐसा करो जो लिखने योग्य हो। -- फ्रैंकलिन
* जिस तरह से मनुष्य पुराने कपड़े उतार कर नए कपड़े पहनता है, उसी तरह से आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण करती है। (भगवद्गीता)
* जिंदगी मृत्यु से भी अधिक दर्द देती है। -- अज्ञात
* जब कैटरपिलर कहता है यह तो मृत्यु है ….ईश्वर कहते हैं नहीं ये तितली का जन्म हुआ है। -- पाउलो कोलियो
* मृत्यु ने जिंदगी से पूछा, "लोग तुमसे प्यार और मुझसे नफरत क्यों करते हैं?" जिन्दगी ने उत्तर दिया,"क्योंकि मैं एक खूबसूरत झूठ हूँ और तुम एक दर्दनाक सत्य हो। "
* जीवन और मृत्यु एक ही हैं जैसे नदी और सागर। -- खलील जिब्रान
* मृत्यु सबसे बड़ा नुक्सान नहीं है। सबसे बड़ा नुक्सान वो है जो हमारे अन्दर रोज मरता है , जब हम जी रहे होते हैं। -- नोर्मन ब्रदर्स
* आप अपनी मौलिकता के साथ पैदा हुए थे, किसी की नक़ल के साथ मत मरिये। -- जॉन मेसन
* कभी भी बहुत देर नहीं होती। अगर आप को कल मरना है तो आज अपने विचारों के प्रति बिलकुल ईमानदार हो जाओ। और एक दिन के लिए ही सही , ऐसी जिंदगी जिओ जो आप हमेशा से जीना चाहते थे। -- लामा येशे
* जीवित रहने का अर्थ है बार-बार मरने की इच्छा रखना। -- पेमा चोड्रोन
* ऐसे जियो जैसे कल मरना है। और किसी भी चीज को सीखने के लिए ऐसे प्रयास करो जैसे कभी मरना ही न हो। -- महात्मा गाँधी
* मैं नहीं चाहता की मैं जीवन के अन्त पर पहुँच कर इसकी लम्बाई नापूँ , मैं इसकी चौड़ाई नापना चाहता हूँ। -- डायने एकरमैन
* जो व्यक्ति यह जानता है कि जीवन क्या है, वो मृत्यु से घबराता नहीं। उसे सहज भाव से गले लगाता है। -- ओशो
* मृत्यु वो सोने की चाभी है जो अमरत्व के भवन को खोल देती है। -- मिल्टन
* मृत्यु भी धर्मनिष्ठ प्राणी की रक्षा करती है। -- कौटिल्य
* मृत्यु थकावट के सदृश हैं परन्तु सच्चा आनन्द तो अनन्त की गोद में है। -- रविन्द्र नाथ टैगोर
* मृत्यु साथ ही चलती है , साथ ही बैठती है और साथ-साथ ही सुदूरवर्ती यात्रा पर जाती है। -- वाल्मीकि
* परिवर्तन ही सृष्टि है, जीवन है और स्थिर होना मृत्यु। -- जयशंकर प्रसाद
* युधिष्ठिर के पास एक भिखारी आया। उन्होंने उसे अगले दिन आने के लिए कह दिया। इस पर भीम हर्षित हो उठे। उन्होंने सोचा कि उनके भाई ने कल तक के लिए मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली है। -- महाभारत
* कायर मृत्यु से पूर्व अनेकों बार मर चुकता है, जबकि बहादुर को मरने के दिन ही मरना पड़ता है। (शेक्शपीयर)
* जीवन का महत्ता इसलिये है, क्योंकि मृत्यु है। मृत्यु न हो तो ज़िन्दगी बोझ बन जायेगी। इसलिये मृत्यु को दोस्त बनाओ, उसी डरो नहीं।
* भले ही आपका जन्म सामान्य हो, आपकी मृत्यु इतिहास बन सकती है।
* जब आपका जन्म हुआ तो आप रोए और जग हंसा था। अपने जीवन को इस प्रकार से जीएं कि जब आप की मृत्यु हो तो दुनिया रोए और आप हंसें। -- कबीर
* जब आपके पास पैसा आ जाता है तो समस्या सेक्स की हो जाती है, जब आपके पास दोनों चीज़ें हो जाती हैं तो स्वास्थ्य समस्या हो जाती है और जब सारी चीज़ें आपके पास होती हैं, तो आपको मृत्यु भय सताने लगता है। -- जे पी डोनलेवी
* इस धरती पर कर्म करते-करते सौ साल तक जीने की इच्छा रखो, क्योंकि कर्म करने वाला ही जीने का अधिकारी है। जो कर्म-निष्ठा छोड़कर भोग-वृत्ति रखता है, वह मृत्यु का अधिकारी बनता है। -- वेद
* परिवर्तन ही सृष्टि है, जीवन है। स्थिर होना मृत्यु है। -- जयशंकर प्रसाद
* मेरा कहना तो यह है कि प्रमाद मृत्यु है और अप्रमाद अमृत। -- वेदव्यास
* यदि तुम्हें मरने की विधि पता नहीं है तो चिन्ता की कोई बात नहीं है। प्रकृति तुम्हें मृत्यु के स्थान पर ही बता देगी, वो भी पूरी तरह से और पर्याप्प्त रूप में। -- मॉटेग्ने (Montaigne)
* ''मान्धाता च महीपतिः कृतयुगालंकारभूतो गतः
: ''सेतुर्येन महोदधौ विरचितः क्वासौ दशास्यान्तकः ।
: ''अन्ये चापि युधिष्ठिरप्रभृतयो याता दिवं भूपते ।
: ''नैकेनापि समं गता वसुमती नूनं त्वया यास्यति ॥'' (भोजप्रबन्ध ; भोज द्वारा मुञ्ज को लिखे पत्र में)
: अर्थ :सतयुग के अलंकार मान्धाता चले गए। जिन्होने समुद्र पर पुल बांधा, रावण का वध करने वाले वे (राम) कहाँ हैं? हे राजा, युधिष्ठिर आदि दूसरे लोग भी चले गए। किसी के साथ भी यह धरती नहीं गयी। तुम्हारे साथ अवश्य जाएगी।
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अनुनाद सिंह
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* जातस्य हि धुर्वो मृत्युः। -- भागवत् गीता
: जो जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है।
* ''अजराऽमरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थञ्च चिन्तयेत् ।
: ''गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥ (भर्तृहरि)
: (बुद्धिमान मनुष्य अपने को बुढापा और मृत्यु से रहित (अजर, अमर) समझकर विद्या और धन का उपार्जन करे और मृत्यु मानों सिर पर सवार है ऐसा समझकर धर्म का पालन करता रहे।)
* दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य ये है की हम रोज मृत्यु होते हुए देखते हैं फिर भी ऐसे व्यवहार करते हैं की जैसे हमें अनंत काल का जीवन मिला हो। -- युधिष्ठिर
* मैं मृत्यु से क्यों डरूं?… जब तक मै हूँ मृत्यु नहीं है और जब मृत्यु है मैं नहीं हूँ। मैं मृत्य से क्यों डरूं उसका अस्तित्व तक नहीं है , जब तक मेरा अस्तित्व है। -- ऐपिकुरस
* हर व्यक्ति जिसका जन्म हुआ है वो मरता है परन्तु हर वो व्यक्ति जिसका जन्म हुआ है जी नहीं पाता है। -- एलन सैक्स
* मृत्यु जीवन का विपरीत नहीं बल्कि इसका एक हिस्सा है। -- हारुकी मुराकामी, ब्लाइंड विलो, स्लीपिंग वुमन
* यदि तुम चाहते हो की लोग तुम्हारे मरते ही तुम्हें भूल न जाएँ। तो कुछ ऐसा लिखो जो पठनीय हो या कुछ ऐसा करो जो लिखने योग्य हो। -- फ्रैंकलिन
* जिस तरह से मनुष्य पुराने कपड़े उतार कर नए कपड़े पहनता है, उसी तरह से आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण करती है। (भगवद्गीता)
* जिंदगी मृत्यु से भी अधिक दर्द देती है। -- अज्ञात
* जब कैटरपिलर कहता है यह तो मृत्यु है ….ईश्वर कहते हैं नहीं ये तितली का जन्म हुआ है। -- पाउलो कोलियो
* मृत्यु ने जिंदगी से पूछा, "लोग तुमसे प्यार और मुझसे नफरत क्यों करते हैं?" जिन्दगी ने उत्तर दिया,"क्योंकि मैं एक खूबसूरत झूठ हूँ और तुम एक दर्दनाक सत्य हो। "
* जीवन और मृत्यु एक ही हैं जैसे नदी और सागर। -- खलील जिब्रान
* मृत्यु सबसे बड़ा नुक्सान नहीं है। सबसे बड़ा नुक्सान वो है जो हमारे अन्दर रोज मरता है , जब हम जी रहे होते हैं। -- नोर्मन ब्रदर्स
* आप अपनी मौलिकता के साथ पैदा हुए थे, किसी की नक़ल के साथ मत मरिये। -- जॉन मेसन
* कभी भी बहुत देर नहीं होती। अगर आप को कल मरना है तो आज अपने विचारों के प्रति बिलकुल ईमानदार हो जाओ। और एक दिन के लिए ही सही , ऐसी जिंदगी जिओ जो आप हमेशा से जीना चाहते थे। -- लामा येशे
* जीवित रहने का अर्थ है बार-बार मरने की इच्छा रखना। -- पेमा चोड्रोन
* ऐसे जियो जैसे कल मरना है। और किसी भी चीज को सीखने के लिए ऐसे प्रयास करो जैसे कभी मरना ही न हो। -- महात्मा गाँधी
* मैं नहीं चाहता की मैं जीवन के अन्त पर पहुँच कर इसकी लम्बाई नापूँ , मैं इसकी चौड़ाई नापना चाहता हूँ। -- डायने एकरमैन
* जो व्यक्ति यह जानता है कि जीवन क्या है, वो मृत्यु से घबराता नहीं। उसे सहज भाव से गले लगाता है। -- ओशो
* मृत्यु वो सोने की चाभी है जो अमरत्व के भवन को खोल देती है। -- मिल्टन
* मृत्यु भी धर्मनिष्ठ प्राणी की रक्षा करती है। -- कौटिल्य
* मृत्यु थकावट के सदृश हैं परन्तु सच्चा आनन्द तो अनन्त की गोद में है। -- रविन्द्र नाथ टैगोर
* मृत्यु साथ ही चलती है , साथ ही बैठती है और साथ-साथ ही सुदूरवर्ती यात्रा पर जाती है। -- वाल्मीकि
* परिवर्तन ही सृष्टि है, जीवन है और स्थिर होना मृत्यु। -- जयशंकर प्रसाद
* युधिष्ठिर के पास एक भिखारी आया। उन्होंने उसे अगले दिन आने के लिए कह दिया। इस पर भीम हर्षित हो उठे। उन्होंने सोचा कि उनके भाई ने कल तक के लिए मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली है। -- महाभारत
* कायर मृत्यु से पूर्व अनेकों बार मर चुकता है, जबकि बहादुर को मरने के दिन ही मरना पड़ता है। (शेक्शपीयर)
* जीवन का महत्ता इसलिये है, क्योंकि मृत्यु है। मृत्यु न हो तो ज़िन्दगी बोझ बन जायेगी। इसलिये मृत्यु को दोस्त बनाओ, उसी डरो नहीं।
* भले ही आपका जन्म सामान्य हो, आपकी मृत्यु इतिहास बन सकती है।
* जब आपका जन्म हुआ तो आप रोए और जग हंसा था। अपने जीवन को इस प्रकार से जीएं कि जब आप की मृत्यु हो तो दुनिया रोए और आप हंसें। -- कबीर
* जब आपके पास पैसा आ जाता है तो समस्या सेक्स की हो जाती है, जब आपके पास दोनों चीज़ें हो जाती हैं तो स्वास्थ्य समस्या हो जाती है और जब सारी चीज़ें आपके पास होती हैं, तो आपको मृत्यु भय सताने लगता है। -- जे पी डोनलेवी
* इस धरती पर कर्म करते-करते सौ साल तक जीने की इच्छा रखो, क्योंकि कर्म करने वाला ही जीने का अधिकारी है। जो कर्म-निष्ठा छोड़कर भोग-वृत्ति रखता है, वह मृत्यु का अधिकारी बनता है। -- वेद
* परिवर्तन ही सृष्टि है, जीवन है। स्थिर होना मृत्यु है। -- जयशंकर प्रसाद
* मेरा कहना तो यह है कि प्रमाद मृत्यु है और अप्रमाद अमृत। -- वेदव्यास
* यदि तुम्हें मरने की विधि पता नहीं है तो चिन्ता की कोई बात नहीं है। प्रकृति तुम्हें मृत्यु के स्थान पर ही बता देगी, वो भी पूरी तरह से और पर्याप्प्त रूप में। -- मॉटेग्ने (Montaigne)
* ''मान्धाता च महीपतिः कृतयुगालंकारभूतो गतः
: ''सेतुर्येन महोदधौ विरचितः क्वासौ दशास्यान्तकः ।
: ''अन्ये चापि युधिष्ठिरप्रभृतयो याता दिवं भूपते ।
: ''नैकेनापि समं गता वसुमती नूनं त्वया यास्यति ॥'' (भोजप्रबन्ध ; भोज द्वारा मुञ्ज को लिखे पत्र में)
: अर्थ :सतयुग के अलंकार मान्धाता चले गए। जिन्होने समुद्र पर पुल बांधा, रावण का वध करने वाले वे (राम) कहाँ हैं? हे राजा, युधिष्ठिर आदि दूसरे लोग भी चले गए। किसी के साथ भी यह धरती नहीं गयी। तुम्हारे साथ अवश्य जाएगी।
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अनुनाद सिंह
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* ''द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
: ''तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥ -- ऋग्वेद १/१६४/२०
: अर्थ : दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, जो साथ-साथ रहने वाले तथा परस्पर सखा हैं, समान वृक्ष पर ही आकर रहते हैं; उनमें से एक (आत्मा) उस वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, दूसरा (परमात्मा) खाता नहीं है, केवल देखता है। (इस मन्त्र में जीव को कर्मफल का भोक्ता और परमेश्वर को प्रत्येक कर्म का द्रष्टा अर्थात् कर्मफल के साथ तनिक भी सम्बन्ध न रखनेवाला बताया गया है।)
* ''एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या'' -- आदि शंकराचार्य
: अर्थ - एक ही ब्रह्म है दूसरा नहीं। ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है।
* बिनु पग चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ विधि नाना।
: आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥ -- तुलसीदास (रामचरितमानस, बालकाण्ड)
: (वह ब्रह्म) बिना पैर के चलता है, बिना कान के सुनता है। बिना मुख के ही सभी रसों का भोग करने वाला है और वाणी के बिना भी वक्ता है और बड़ा योगी है। (अर्थात् ब्रह्म निराकार है।)
* ईश्वर हर व्यक्ति में एक निजी दरवाजे से प्रवेश करता है। -- राल्फ वाल्डो एमर्सन
* ईश्वर की कोई परिभाषा नहीं हो सकती। वह तो पूरी डिक्शनरी से भी बहुत बड़ा है। -- टेरी गुलेमेट्स
* ईश्वर को देखा नहीं जा सकता, इसीलिए तो वह हर जगह मौजूद है। -- यासुनारी कावाबात
* मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना है। -- अग्नि पुराण
* ईश्वर निराकार है, मगर उसके गुण-कर्म-स्वभाव अनन्त है। -- दयानन्द सरस्वती
* प्रार्थना तब होती है जब आप परमात्मा से बात करते हैं, ध्यान तब होता है जब आप ईश्वर को सुनते हैं।
* आप देखेंगे की भगवान भी मेहनती लोगों की ही मदद करता है। यह नियम स्पष्ट है। -- A.P.J. Abdul Kalam
* मेरा काम सम्भव की देखभाल करना है, और असम्भव के साथ भगवान पर भरोसा करना है।
* यदि परमेश्वर आपका साथी है, तो अपनी योजनाओं को बड़ा करें।
* बड़ा ही खुबसूरत रिश्ता है, मेरा और मेरे प्रभु के बीच, ज्यादा मैं कभी मांगता नहीं और कम वो कभी देता नहीं।
* ईश्वर को अपना वकील बनाने वाला, अपना मुकदमा मुफ्त में जीतता है।
* ईश्वर एक वृत्तत है जिसका केंद्र हर जगह है, लेकिन परिधि कहीं नहीं।
* मौन प्रार्थनाएँ जल्दी पहुँचती है भगवान तक, क्योंकि वो शब्दों के बोझ से मुक्त होती है।
* भगवान के लिए सबसे स्वीकार्य पूजा एक आभारी और हंसमुख दिल से आती है।
* यदि आप सच की राह पर चल रहे हैं, तो याद रखिये की ईश्वर सदा आपके साथ है।
* अपने बुरे समय में भगवान और समय पर विश्वास रखें, समय कोयले को भी हीरा बना देता है और भगवान रंक को भी राजा।
* प्रार्थना शब्दों से नहीं हृदय से होनी चाहिए, क्योंकि ईश्वर उनकी भी सुनते है जो बोल नहीं सकते।
* भगवान में भरोसा रखें, लेकिन अपनी तैयारी पूरी रखें।
* याद रखिये प्रकृति से प्रेम करना ही ईश्वर से प्रेम करने के सामान है।
* अगर भगवान एक दरवाजा बंद कर देता है, तो वह दूसरा खोल देता है।
* कल्पना हमें ईश्वर की ओर से दिया गया उपहार है और हम में से हर एक इसे अलग तरह से इस्तेमाल करता है। -- Brian Jacques
* मुझे नहीं पता कि भगवान है या नहीं, लेकिन अगर वह नहीं है तो यह उसकी प्रतिष्ठा के लिए बेहतर होगा। -- Jules Renard
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अनुनाद सिंह
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* ''द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
: ''तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥ -- ऋग्वेद १/१६४/२०
: अर्थ : दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, जो साथ-साथ रहने वाले तथा परस्पर सखा हैं, समान वृक्ष पर ही आकर रहते हैं; उनमें से एक (आत्मा) उस वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, दूसरा (परमात्मा) खाता नहीं है, केवल देखता है। (इस मन्त्र में जीव को कर्मफल का भोक्ता और परमेश्वर को प्रत्येक कर्म का द्रष्टा अर्थात् कर्मफल के साथ तनिक भी सम्बन्ध न रखनेवाला बताया गया है।)
* ''एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या'' -- आदि शंकराचार्य
: अर्थ - एक ही ब्रह्म है दूसरा नहीं। ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है।
* बिनु पग चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ विधि नाना।
: आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥ -- तुलसीदास (रामचरितमानस, बालकाण्ड)
: अर्थ : (वह ब्रह्म) बिना पैर के चलता है, बिना कान के सुनता है। बिना मुख के ही सभी रसों का भोग करने वाला है और वाणी के बिना भी वक्ता है और बड़ा योगी है। (अर्थात् ब्रह्म निराकार है।)
* ईश्वर हर व्यक्ति में एक निजी दरवाजे से प्रवेश करता है। -- राल्फ वाल्डो एमर्सन
* ईश्वर की कोई परिभाषा नहीं हो सकती। वह तो पूरी डिक्शनरी से भी बहुत बड़ा है। -- टेरी गुलेमेट्स
* ईश्वर को देखा नहीं जा सकता, इसीलिए तो वह हर जगह मौजूद है। -- यासुनारी कावाबात
* मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना है। -- अग्नि पुराण
* ईश्वर निराकार है, मगर उसके गुण-कर्म-स्वभाव अनन्त है। -- दयानन्द सरस्वती
* प्रार्थना तब होती है जब आप परमात्मा से बात करते हैं, ध्यान तब होता है जब आप ईश्वर को सुनते हैं।
* आप देखेंगे की भगवान भी मेहनती लोगों की ही मदद करता है। यह नियम स्पष्ट है। -- ए पी जे अब्दुल कलाम
* मेरा काम सम्भव की देखभाल करना है, और असम्भव के साथ भगवान पर भरोसा करना है।
* यदि परमेश्वर आपका साथी है, तो अपनी योजनाओं को बड़ा करें।
* बड़ा ही खुबसूरत रिश्ता है, मेरा और मेरे प्रभु के बीच, ज्यादा मैं कभी मांगता नहीं और कम वो कभी देता नहीं।
* ईश्वर को अपना वकील बनाने वाला, अपना मुकदमा मुफ्त में जीतता है।
* ईश्वर एक वृत्तत है जिसका केंद्र हर जगह है, लेकिन परिधि कहीं नहीं।
* मौन प्रार्थनाएँ जल्दी पहुँचती है भगवान तक, क्योंकि वो शब्दों के बोझ से मुक्त होती है।
* भगवान के लिए सबसे स्वीकार्य पूजा एक आभारी और हंसमुख दिल से आती है।
* यदि आप सच की राह पर चल रहे हैं, तो याद रखिये की ईश्वर सदा आपके साथ है।
* अपने बुरे समय में भगवान और समय पर विश्वास रखें, समय कोयले को भी हीरा बना देता है और भगवान रंक को भी राजा।
* प्रार्थना शब्दों से नहीं हृदय से होनी चाहिए, क्योंकि ईश्वर उनकी भी सुनते है जो बोल नहीं सकते।
* भगवान में भरोसा रखें, लेकिन अपनी तैयारी पूरी रखें।
* याद रखिये प्रकृति से प्रेम करना ही ईश्वर से प्रेम करने के सामान है।
* अगर भगवान एक दरवाजा बंद कर देता है, तो वह दूसरा खोल देता है।
* कल्पना हमें ईश्वर की ओर से दिया गया उपहार है और हम में से हर एक इसे अलग तरह से इस्तेमाल करता है। -- Brian Jacques
* मुझे नहीं पता कि भगवान है या नहीं, लेकिन अगर वह नहीं है तो यह उसकी प्रतिष्ठा के लिए बेहतर होगा। -- Jules Renard
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अनुनाद सिंह
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* ''द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
: ''तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥ -- ऋग्वेद १/१६४/२०
: अर्थ : दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, जो साथ-साथ रहने वाले तथा परस्पर सखा हैं, समान वृक्ष पर ही आकर रहते हैं; उनमें से एक (आत्मा) उस वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, दूसरा (परमात्मा) खाता नहीं है, केवल देखता है। (इस मन्त्र में जीव को कर्मफल का भोक्ता और परमेश्वर को प्रत्येक कर्म का द्रष्टा अर्थात् कर्मफल के साथ तनिक भी सम्बन्ध न रखनेवाला बताया गया है।)
* ''न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
: ''तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥'' -- कठोपनिषत् , द्वितीय अध्याय, द्वितीया वल्ली
: अर्थ : वहाँ उस आत्मस्वरूप ब्रह्म में न तो सूर्य प्रकाशमान होता है, न चन्द्रमा और तारे ही प्रकाशित होते हैं। वहाँ यह बिजली भी प्रकाशित नहीं होती, फिर यह अग्नि कहाँ ठहरती है? उसके प्रकाशित होने पर ही यह सब कुछ प्रकाशित होता है। उसका प्रकाश ही सब वस्तुओं को प्रकाशित कर रहा है।
* ''एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या'' -- आदि शंकराचार्य
: अर्थ - एक ही ब्रह्म है दूसरा नहीं। ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है।
* बिनु पग चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ विधि नाना।
: आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥ -- तुलसीदास (रामचरितमानस, बालकाण्ड)
: अर्थ : (वह ब्रह्म) बिना पैर के चलता है, बिना कान के सुनता है। बिना मुख के ही सभी रसों का भोग करने वाला है और वाणी के बिना भी वक्ता है और बड़ा योगी है। (अर्थात् ब्रह्म निराकार है।)
* ईश्वर हर व्यक्ति में एक निजी दरवाजे से प्रवेश करता है। -- राल्फ वाल्डो एमर्सन
* ईश्वर की कोई परिभाषा नहीं हो सकती। वह तो पूरी डिक्शनरी से भी बहुत बड़ा है। -- टेरी गुलेमेट्स
* ईश्वर को देखा नहीं जा सकता, इसीलिए तो वह हर जगह मौजूद है। -- यासुनारी कावाबात
* मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना है। -- अग्नि पुराण
* ईश्वर निराकार है, मगर उसके गुण-कर्म-स्वभाव अनन्त है। -- दयानन्द सरस्वती
* प्रार्थना तब होती है जब आप परमात्मा से बात करते हैं, ध्यान तब होता है जब आप ईश्वर को सुनते हैं।
* आप देखेंगे की भगवान भी मेहनती लोगों की ही मदद करता है। यह नियम स्पष्ट है। -- ए पी जे अब्दुल कलाम
* मेरा काम सम्भव की देखभाल करना है, और असम्भव के साथ भगवान पर भरोसा करना है।
* यदि परमेश्वर आपका साथी है, तो अपनी योजनाओं को बड़ा करें।
* बड़ा ही खुबसूरत रिश्ता है, मेरा और मेरे प्रभु के बीच, ज्यादा मैं कभी मांगता नहीं और कम वो कभी देता नहीं।
* ईश्वर को अपना वकील बनाने वाला, अपना मुकदमा मुफ्त में जीतता है।
* ईश्वर एक वृत्तत है जिसका केंद्र हर जगह है, लेकिन परिधि कहीं नहीं।
* मौन प्रार्थनाएँ जल्दी पहुँचती है भगवान तक, क्योंकि वो शब्दों के बोझ से मुक्त होती है।
* भगवान के लिए सबसे स्वीकार्य पूजा एक आभारी और हंसमुख दिल से आती है।
* यदि आप सच की राह पर चल रहे हैं, तो याद रखिये की ईश्वर सदा आपके साथ है।
* अपने बुरे समय में भगवान और समय पर विश्वास रखें, समय कोयले को भी हीरा बना देता है और भगवान रंक को भी राजा।
* प्रार्थना शब्दों से नहीं हृदय से होनी चाहिए, क्योंकि ईश्वर उनकी भी सुनते है जो बोल नहीं सकते।
* भगवान में भरोसा रखें, लेकिन अपनी तैयारी पूरी रखें।
* याद रखिये प्रकृति से प्रेम करना ही ईश्वर से प्रेम करने के सामान है।
* अगर भगवान एक दरवाजा बंद कर देता है, तो वह दूसरा खोल देता है।
* कल्पना हमें ईश्वर की ओर से दिया गया उपहार है और हम में से हर एक इसे अलग तरह से इस्तेमाल करता है। -- Brian Jacques
* मुझे नहीं पता कि भगवान है या नहीं, लेकिन अगर वह नहीं है तो यह उसकी प्रतिष्ठा के लिए बेहतर होगा। -- Jules Renard
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भारतीय दर्शन
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अनुनाद सिंह
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'''भारतीय दर्शन''' से तात्पर्य भारत चिन्तन-धारा से उपजे विविध दर्शनों से है। इसके अन्तर्गत वैदिक दर्शन से लेकर षट्दर्शन (न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त) सहित जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन और आधुनिक काल के मनीषियों के दर्शन सम्मिलित हैं।
== विभिन्न दर्शनों के उद्धरण ==
* ''प्रमाण प्रमेय संशय प्रयोजन दृष्टान्त सिद्धान्त अवयव तर्क निर्णय वाद जल्प वितण्डा हेत्वाभास च्छल जति निग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निश्श्रेयसाधिगमः ॥'' -- अक्षपाद गौतम, न्यायसूत्र
: प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अयवय, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान के तत्वज्ञान से निःश्रेयस (मोक्ष) प्राप्त होता है।
* ''प्रमाणैर्थपरीक्षणं न्यायः।'' -- न्यायसूत्र के भाष्यकार महर्षि वात्स्यायन
: प्रमाण के द्वारा किसी अर्थ (सिद्धान्त) की परीक्षा करना ही न्याय है।
* ''लक्षणन्त्वसाधारण धर्मवचनम्।''
: असाधारण धर्म का कथन ही 'लक्षण' है।
* ''प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि।'' -- न्यायसूत्र (अक्षपाद गौतम कृत)
: प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द - ये (चार) प्रमाण हैं।
* ''इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानम् अव्यपदेश्यम् अव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्'' -- न्यायसूत्र १।१।४
: प्रत्यक्ष इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्न ज्ञान है जो अव्यपदेश्य, अव्यभिचारी और व्यवसायात्मक होता है।
* ''इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्यं ज्ञानं प्रत्यक्षम्'' -- अन्नंभट्ट, तर्कसङ्ग्रह में
: वस्तु के साथ इंद्रिय-संयोग होने से जो उसका ज्ञान होता है उसी को 'प्रत्यक्ष' कहते हैं।
* ''आत्म शरीरेन्द्रियार्थ बुद्धि मनः प्रवृत्ति दोष प्रेत्यभाव फल दुःखापवर्गाः तु प्रमेयम् ''-- न्यायसूत्र
: आत्मा, शरीर, इन्द्रियाँ, अर्थ , बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दुःख और अपवर्ग -- ये प्रमेय हैं।
* ''नानुपलब्धे न निर्णीतेऽर्थेन्यायः प्रवर्तते किं तर्हि संशयितेऽर्थे'' -- वात्स्यायनकृत न्यायभाष्य
: उपलब्ध अथवा निर्णीत अर्थ में न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है अपितु सन्दिग्ध अर्थ में ही न्यायशास्त्र की प्रवृत्ति होती है।
* ''अविज्ञाततत्तवेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्तवज्ञानार्थमूहस्तर्क: -- (न्याय दर्शन 1.1.42)
: जिस अर्थ का तत्व निर्णीत न हो उसके तत्त्वज्ञान के लिए युक्ति पूर्वक किए जानेवाले "ऊह" ज्ञान का नाम है "तर्क"।
* ''कार्यायोजनधृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः।
: ''वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्ययः॥'' -- उदयनाचार्य, न्यायकुसुमांजलि ५.१
: संसाररूपी कार्य के कर्ता के रूप में, सृष्टि के आरम्भ में दो परमाणुओं को जोड़नेवाले के रूप में, संसार का धारण करनेवाले के रूप में, विभिन्न कलाओं का व्यवहार चलाने वाले के रूप में, अतर्क्य वेद-सिद्धान्तों के प्रवर्तक के रूप में, श्रुति-प्रतिपादित होने के कारण, वाक्यभूत वेदों के रचयिता के रूप में, द्वित्वसंख्या की उत्पादक अपेक्षाबुद्धि को धारण करनेवाले के रूप में, तथा अदृष्ट ( धर्माधर्म ) के व्यवस्थापक के रूप में विश्ववेत्ता अव्यय ईश्वर की सिद्धि होती है।
* ''तच्चानुमानं परार्थं न्यायसाध्यमिति न्यायस्तदवयवाश्च प्रतिज्ञा हेतूदाहरणोपनय निगमनानि निरूप्यन्ते। -- गंगेशोपाध्याय, तत्तवचिन्तामणि (अनुमान खण्ड) के अवयवप्रकरण में
: और वह अनुमान पदार्थ न्यायसाध्य है, और उसके अवयव ये हैं- प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन।
* ''प्रमाणतर्कसाधनोपलम्भः सिद्धान्त-अविरुद्धः पञ्चवयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः। -- न्यायसूत्र
* ''यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ।'' -- वैशेषिकसूत्र-१।१।२
: जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति होती है, वही धर्म है।
* ''धर्मविशेष प्रसूतात् द्रव्यगुणकर्मसामान्य विशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम् ।'' -- वैशेषिकसूत्र-१।१।४
: धर्म विशेष से उत्पन्न हुए ‘द्रव्य’, ‘गुण’, ‘कर्म’, ‘सामान्य’, ‘विशेष’ और ‘समवाय’ इन छः पदार्थों के तत्त्वज्ञान अर्थात् स्वरूपज्ञान से ‘निःश्रेयसम्’(= मोक्ष) को प्राप्त होता है।
* ''असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् ।
: ''शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥ -- ईश्वरकृष्ण, सांख्यकारिका में
: अर्थ : असदकरण से (असदकारणात् = असत् + अकरणात् ) , उपादानग्रहण से ( उपादानग्रहणात् ), सर्वसम्भवाभाव से ( सर्वसम्भवाभावात् = सर्वसम्भव अभावात्) , शक्त के शक्यकरण से (शक्तस्य शक्यकरणात् ), कारणभाव से (कारणभावत् ) -- कार्य ‘सत्’ है, अर्थात् कार्य अपने कारण में सदा विद्यमान है।
* ''उपक्रमोपसंहारावभ्यासोऽपूर्वता फलम्।
: ''अर्थवादोपपत्ती च लिङ्गं तात्पर्यनिर्णये॥'' -- बृहत्संहिता
: अर्थात् किसी ग्रन्थ या प्रकरण के तात्पर्यनिर्णय के लिये छह बातों पर ध्यान देना चाहिए— '''उपक्रम''' (आरम्भ) और '''उपसंहार''' (अन्त), '''अभ्यास''' (बार-बार कथन), '''अपूर्वता''' (नवीनता), '''फल''' (ग्रन्थ का परिणाम वा लाभ जो बताया गया हो), '''अर्थवाद''' (किसी बात को जी में जमाने के लिये दृष्टान्त, उपमा, गुणकथन आदि के रूप में जो कुछ कहा जाय और जो मुख्य बात के रूप में न हो), और '''उपपत्ति''' (साधक प्रमाणों द्वारा सिद्धि)। [मीमांसकों का यह श्लोक सामान्यतः तात्पर्यनिर्णय के लिये प्रसिद्ध है। मीमांसक ऐसे ही नियमों के द्वारा वेद के वचनों का तात्पर्य निकालते हैं।]
* ''इति खो, कालामा, यं तं अवोचुंह एथ तुम्हे, कालामा, मा अनुस्सवेन, मा परम्पराय, मा इतिकिराय, मा पिटकसम्पदानेन, मा तक्कहेतु, मा नयहेतु, मा आकार परिवितक्केन , मा दिट्ठिनिज्झानक्खन्तिया, मा भब्बरूपताय, मा समणो नो गरूति। यदा तुम्हे, कालामा, अत्तनाव जानेय्याथ – इमे धम्मा कुसला, इमे धम्मा सावज्जा, इमे धम्मा विञ्ञुगरहिता, इमे धम्मा समत्ता समादिन्ना अहिताय दुक्खाय संवत्तन्तीsति, अथ तुम्हें, कालामा, पजहेय्याथ।'' -- केसमुत्ति सुत्त, त्रिपिटक
: अर्थ : हे कालामाओ ! ये सब मैंने तुमको बताया है, किन्तु तुम इसे स्वीकार करो, इसलिए नहीं कि वह एक अनुविवरण है, इसलिए नहीं कि एक परम्परा है, इसलिए नहीं कि पहले ऐसे कहा गया है, इसलिए नहीं कि यह धर्मग्रन्थ में है। यह विवाद के लिए नहीं, एक विशेष प्रणाली के लिए नहीं, सावधानी से सोचविचार के लिए नहीं, असत्य धारणाओं को सहन करने के लिए नहीं, इसलिए नहीं कि वह अनुकूल मालूम होता है, इसलिए नहीं कि तुम्हारा गुरु एक प्रमाण है, किन्तु तुम स्वयं यदि यह समझते हो कि ये धर्म (धारणाएँ) शुभ हैं, निर्दोष हैं, बुद्धिमान लोग इन धर्मों की प्रशंसा करते हैं, इन धर्मों को ग्रहण करने पर यह कल्याण और सुख देंगे, तब तुम्हें इन्हें स्वीकर करना चाहिए।
* ''ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ।'' -- अद्वैत वेदान्त दर्शन
: ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है। जीव ही ब्रह्म है और दूसरा कोई नहीं।
* ''क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः। -- पतञ्जलि, योगसूत्र में
: क्लेष, कर्म, विपाक और आशय से अछूता (अप्रभावित) वह विशेष पुरुष है। (हिन्दु धर्म में यह ईश्वर की एक मान्य परिभाषा है।)
* ''यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।'' -- चार्वाक दर्शन
: मनुष्य जब तक जीवित रहे तब तक सुखपूर्वक जिये, ऋण करके (भी) घी पिये । भला जो शरीर (मृत्यु पश्चात्) भष्मीभूत हो गयी (जलकर राख बन गयी), उसके पुनः आने का प्रश्न कहाँ उठता है?
* ''जड़भूतविकारेषु चैतन्यं यत्तु दृश्यते।
: ''ताम्बूलपुंग चूर्णानां योगात्राग इवोत्थितम्॥'' -- (चार्वाक दर्शन)
: जड़-भूतों से चैतन्य उसी प्रकार उत्पन्न होता है जिस प्रकार पान-पत्र, सुपारी, चूने और कत्थे के संयोग से लाल रंग उत्पन्न होता है।
* ''किण्वादिभ्यो मदशक्तिवद् चैतन्यमुपजायते'' -- (चार्वाक दर्शन)
: जैसे चावल आदि अन्न के संगठन से मादक द्रव्य उत्पन्न होता है, वैसे ही जड़ से चेतन उत्पन्न होता है।
* ''साधारणं भवेत्तन्त्रं परार्थे त्वप्रयोजकः ।
: ''एवमेव प्रसङ्गः स्याद्विद्यमाने स्वके विधौ ॥ -- मीमांसा
* ''भावनैव हि वाक्यार्थः सर्वत्राख्यातवत्तया।
: ''अनेक गुण जात्यादि कारकार्थानुराजिता॥'' -- मीमांसा
* ''विषयो विशयश्चैव पूर्वपक्षस्थथोत्तरम् ।
: ''प्रयोजनं सङ्गतिश्च शास्त्रेऽधिकरणं स्मृतम् ॥ -- मीमांसासूत्रभाष्य
: विषय, विशय (संशय/शंका), पूर्वपक्ष, उत्तरपक्ष, प्रयोजन और संगति - ये शास्त्र में अधिकरण कहे जाते हैं।
: विशेष : किसी भी शास्त्र का अध्ययन कई अधिकरणों में बंटा रहता है। इन अधिकरणों की एक निश्चित विधा है जिसमें पाँच अवयव रहते हैं। जिस पर आधारित होकर कोई विचार प्रवृत्त होता है, उसे 'विषय' कहते हैं। विषय का उल्लेख करने के अनन्तर संशय ( Doubt ) का स्थान है जिसमें दो या दो से अधिक पक्षों की संभावना पर विचार होता है। ये दोनों पक्ष कहीं तो भावरूप ( Affirmative ) होते हैं-यह स्थाणु है या पुरुष ? कहीं पर भाव और अभाव दोनों रूपों में रहते हैं—यहाँ पुरुष है या नहीं ? वादी के द्वारा प्रतिपादित वस्तु को पूर्वपक्ष ( Opposition ) कहते हैं जिसमें प्रस्तुत वस्तु के विरोध में तर्क का उपन्यास होता है। निर्णय करना, सिद्धान्त ( Reply ) है। संगति ( Reconciliation ) तीन हैं- शास्त्रसंगति, अध्यायसंगति तथा पादसंगति। कोई विचार किस शास्त्र में, किस अध्याय में और किस पाद में करना ठीक है, यही संगति है। उसी प्रकार पूर्वाधिकरण और उत्तराधिकरण में पारस्परिक अवान्तरसंगति भी ठीक की जाती है। कुमारिल भट्ट के अनुयायी लोग संगति को अधिकरण के अंग के रूप में स्वीकार नहीं करते। वे लोग 'उत्तर' को अधिकरण मानते हैं। वादियों के मत का खण्डन करनेवाला वाक्य ही उत्तर है। उसके बाद निर्णय का स्थान है। चूंकि खण्डन गलत उत्तर देकर भी हो सकता है अत: निर्णय को पृथक् रखा गया है। भाट्टों का यह कहना है-
:: ''विषयो विशयश्चैव पूर्वपक्षस्तथोत्तरम् ।
:: ''निर्णयश्चेति पञ्चाङ्ग शास्त्रेऽधिकरणं स्मृतम् ॥
* ''शब्दाधिक्यात् अर्थाधिक्यम् ।'' -- (कारिका?)<ref>[https://books.google.co.in/books?id=V552bAz5xFAC&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false Legal and Constitutional History of India] By Rama Jois</ref>
: जितने ही अधिक शब्द प्रयुक्त होते हैं, उतने ही अधिक अर्थ निकलते हैं।
* ''सकृदुच्चरितः शब्दः सकृदेवार्थं गमयति।'' -- पूर्वमीमांसा
: एक ही शब्द यदि अलग-अलग स्थानों पर प्रयुक्त किया जाय तो सभी स्थानों पर उसका एक ही अर्थ होना चाहिये।
* ''शब्दार्थयोः संबन्धः नित्यः।'' -- ?
: शब्द और अर्थ का सम्बन्ध नित्य (अपरिवर्तनीय) है।
* ''उपक्रमोपसंहारौ अभ्यासोऽपूर्वताफलम् ।
: ''अर्थवादोपपत्ति च लिङ्ग तात्पर्यनिर्णये ॥
: अर्थात् किसी ग्रंथ या प्रकरण के तात्पर्यनिर्णय के लिये सात बातों पर ध्यान देना चाहिए— उपक्रम (आरम्भ), उपसंहार (अन्त), अभ्यास (बार-बार कथन), अपूर्वता (नवीनता), फल (ग्रन्थ का परिणाम वा लाभ जो बताया गया हो), अर्थवाद (किसी बात को जी में जमाने के लिये दृष्टान्त, उपमा, गुणकथन आदि के रूप में जो कुछ कहा जाय और जो मुख्य बात के रूप में न हो), और उपपत्ति (साधक प्रमाणों द्वारा सिद्धि)। मीमांसकों का यह श्लोक सामान्यतः तात्पर्यनिर्णय के लिये प्रसिद्ध है। मीमांसक ऐसे ही नियमों के द्वारा वेद के वचनों का तात्पर्य निकालते हैं।
* '' ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ।'' -- आदि शंकराचार्य, विवेकचूडामणि में
: ब्रह्म सत्य है, जीवन मिथ्या है, जीव ब्रह्म है दूसरा नहीं (जीव और ब्रह्म में कोई भिन्नता नहीं है)।
* ''प्रत्यक्षमनुमानं हि प्रमाणं द्विलक्षणम् ।
: ''प्रमेयं तत्प्रयोगार्थं न प्रमाणान्तरं भवेत ॥ -- दिङ्नाग, प्रमाणसमुच्चय में
: भावार्थ - प्रत्यक्ष और अनुमान - ये दो प्रमाण हैं। इनके अलावा कोई प्रमाण नहीं होता।
* ''श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते ।
: ''तत्र श्रौतं प्रमाणं तु तयोर्द्वैधे स्मृतिर्वरा ॥ -- व्यास
: जहां कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहां वेद की बात ही मान्य होगी। जहाँ स्मृति और पुराण में द्वैध (विरोध) दिखता हो वहाँ स्मृति की बात मान्य होगी।
== भारतीय दर्शन पर मनीषियों के विचार ==
* भारतवर्ष के तत्त्ववेत्ताओं ने अपनी प्रतिभ चक्षु के द्वारा जिन सूक्ष्म तत्त्वों का साक्षात्कार किया है और अपनी कुशाग्र बुद्धि के द्वारा जिन सिद्धान्तों का विश्लेषण किया है, वे दर्शन के इतिहास में नितान्त महत्त्वशाली हैं। यही विचारशात्र भारतीय धर्म तथा संस्कृति का मेरुदण्ड है। मानसिक दासता के पङ्क में लिप्त रहनेवाले आजकल के भारतीय पश्चिमी सभ्यता के चाकचिक्य के सामने इन अनुपम ज्ञानराश्रियों की अवहेलना भले ही करें, परन्तु उन्हें स्मरण रखना चाहिये कि यदि भारतवर्ष अतीत में गौरवझाली था तो इन्हीं के कारण; यदि वर्तमानकाल में वह ख्यातनामा है तो इन्हीं के हेतु और यदि भविष्य में इस देश की चिन्तन-जगत् में स्वतन्त्र सत्ता बनी रहेगी, तो पुण्यात्मा महर्षियों के द्वारा साक्षात्कृत इन्हीं दार्शनिक सिद्धान्तों के बल पर। तत्त्वज्ञान तो भारतीय संस्कृति और धर्म की मूल प्रतिष्ठा है जिसके उदय और अभ्युदय से परिचित होना प्रत्येक शिक्षित भारतीय का परम पावन कर्तव्य है। -- आचार्य बलदेव उपाध्याय, 'भारतीय दर्शन' के अपने 'व्यक्तव्य' में
* भारतीय संस्कृति में ही हम यह विचार पाते हैं कि 'कुछ नहीं' भी कुछ हो सकता है। ग्रीक दर्शन उन्हें इस तरह का विचार आने से रोकता है। -- '''John D. Barrow''' ; The Book of Nothing (2009) chapter nought, "Nothingology—Flying to Nowhere"
* बीसवीं शताब्दी के दो आधारभूत सिद्धान्त, क्वाण्टम सिद्धान्त तथा आपेक्षिकता का सिद्धान्त, दोनों हमको इस बात के लिये बाध्य करते हैं कि हम संसार को हिन्दू-बौद्ध दृष्टि से देखें। -- '''Fritjof Capra''' ; source: The Tao of Physics, Fritjof Capra.Quoted from Gewali, Salil (2013). Great Minds on India. New Delhi: Penguin Random House.
* दर्शन का सम्पूर्ण इतिहास भारत के पास संक्षिप्त रूप में विद्यमान है। -- '''Victor Cousin''' quoted in Londhe, S. (2008). A tribute to Hinduism: Thoughts and wisdom spanning continents and time about India and her culture. New Delhi: Pragun Publication.
* अट्ठारहवीं शताब्दी के एक राजपूत चित्रकला में हमें भारतीय "दर्शन स्कूल" के दर्शन होते हैं। इस चित्र में गुरु वृक्ष के नीचे एक चटाई पर बैठे हैं और शिष्य उनके पास घास पर बैठे हैं। ऐसे दृष्य सर्वत्र देखने को मिलते थे क्योंकि भारत में दर्शन के शिक्षक इतनी अधिक संख्या में थे जितने कि बेबिलोनिया में व्यापारी। किसी दूसरे देश में इतने अधिक वैचारिक पन्थ नहीं हुए। बुद्ध के एक उपदेश में हमे देखने को मिलता है कि उस समय के दार्शनिकों में आत्मा के बारे में बासठ भिन्न-भिन्न सिद्धान्त थे। काउण्ट किसर्लिंग कहते हैं कि "उत्कृष्टता के भी पार पहुँचे हुए इस देश" के पास संस्कृत में दार्शनिक और धार्मिक विचारों को अभिव्यक्त करने वाले जितने शब्द हैं उतने ग्रीक, लैटिन, और जर्मन तीनों को मिलाकर भी नहीं हैं। -- '''विल डुरण्ट''', Our Oriental Heritage : India and Her Neighbors.
* मुसलमानी आक्रमणों ने हिन्दू दर्शन के महान युग का अन्त कर दिया। पहले मुसलमानों के आक्रमण तथा बाद में ईसाइयों के आक्रमण के कारण से बचने के लिये हिन्दू धर्म ने एक भयभीत एकता का रूप धारण कर लिया। अब शास्त्रार्थ को राजद्रोह समझा जाने लगा और रचनात्मक मतभिन्नता दबकर विचार की स्थिर एकरूपता में बदल गयी। बारहवीं शताब्दी आते आते रामानुज (1050 ई) जैसे सन्तों ने वेदान्त की प्रणाली की पुनर्व्याख्या करते हुए इसे विष्णु, राम और कृष्ण की रूढ़िवादी पूजा का रूप दे दिया जबकि शंकराचार्य ने वेदान्त को एक ऐसा धर्म बनाने की कोशिश की थी जो दार्शनिकों के लिए हो।
* हमारे न्यूटन के चिरजीवी सम्मान को कम करने का मेरा बिल्कुल इरादा नहीं है, किन्तु मैं इस बात की पुष्टि करने का साहस कर सकता हूँ कि उनका पूरा धर्मशास्त्र (थियोलोजी), और उनके दर्शन का कुछ भाग वेदों में पाया जा सकता है और यहाँ तक कि सूफियों की कृतियों में भी पाया जा सकता है। सबसे सूक्ष्म आत्मा, जिसके बारे में उन्हें संदेह था कि वे प्राकृतिक शरीरों में व्याप्त हैं, और उनमें छिपे हुए हैं, जो आकर्षण और विकर्षण का कारण बनते हैं; प्रकाश का उत्सर्जन, परावर्तन और अपवर्तन; विद्युत, तन्तु (calefaction), संवेदना और पेशीय गति को हिन्दुओं ने 'पंचम तत्व' के रूप में वर्णित किया है, जो उन्हीं शक्तियों से सम्पन्न है। और सार्वभौमिक आकर्षक शक्ति के संकेत तो वेदों में भरे पड़े हैं, वेद इसका स्रोत मुख्य रूप से सूर्य को बताते हैं, इसलिए सूर्य को 'आदित्य', या आकर्षित करने वाला कहा जाता है। -- '''सर [[विलियम जोन्स]]''', कलकता में एशियाटिक सोसायटी के सामने अपने संभाषण में (२० फरव्री, १७९४)
* छः दार्शनिक सम्प्रदायों के दर्शनशास्त्र में पुरानी अकादमी (old Academy), स्टोआ (Stoa), लिसेयुम (Lyceum) की सभी तत्वमीमांसा विद्यमान है। इसी प्रकार वेदान्त या इसके अनेकों सुन्दर भाष्यों को पढ़ने के बाद यह विश्वास किए बिना नहीं रह सकते कि पाइथागोरस और प्लेटो ने भारत के ऋषि-मुनियों के साथ समान स्रोत से अपने उदात्त सिद्धान्त (sublime theories) प्राप्त किए थे। -- '''विलियम जोन्स''' ; स्रोत: The Philomathic Journal, The Philomathic institution. Quoted from Gewali, Salil (2013). Great Minds on India. New Delhi: Penguin Random House.
* भारतीय दार्शनिकों की सूक्ष्मताएँ (इतनी श्रेष्ठ हैं कि उनके सामने) अधिकांश महान यूरोपीय दार्शनिक स्कूली बच्चों जैसे लगते हैं। मैने दो वर्ष तक चार्ल्स लैनमैन के अधीन संस्कृत का अध्ययन किया, फिर एक वर्ष तक जेम्स वुड्स के मार्गदर्शन में पतंजलि की तत्वमीमांसा का अध्ययन किया , इसके बाद मैं प्रबुद्ध रहस्य (enlightened mystification) की स्थिति में आ गया। -- '''टी एस इलिअट''' ; स्रोत : After Strange Gods, T.S. Eliot. Quoted from Gewali, Salil (2013). Great Minds on India. New Delhi: Penguin Random House.
* जापानी विचारों का अध्ययन, भारतीय विचारों का (ही) अध्ययन है। -- '''D.T. Suzuki''', quoted in "Western Admirers of Ramakrishna and His Disciples" by Gopal Stavig, पृष्ठ 834
* पश्चिमी जगत में, भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों के बारे में हमारी समझ हमारे अपने इतिहास के रंग में रंगी हुई है। इन सम्प्रदायों के बीच सम्बन्धों के लिए डिफ़ॉल्ट मॉडल अक्सर अनजाने में पश्चिमी धार्मिक इतिहास से प्राप्त मॉडल पर आधारित होता है (जो ये हैं): तीनों धर्मों के बीच शत्रुता, ईसाइयों के विभिन्न संप्रदायों के आधुनिक सम्बन्ध, या यहाँ तक कि प्रारंभिक ईसाई-धर्म के रूढ़िवादी (ऑर्थोडोक्स) और विधर्मी (हेटेरोडोक्स) संप्रदायों के बीच संबंध। -- '''एंड्रयू निकोलसन''', राजीव मल्होत्रा: इंद्र का नेट, पृष्ठ 169, पहला संस्करण में में उद्धृत।
* इस नई भौतिकी और धर्म के बीच के सम्बन्ध को हाइजेनबर्ग और श्रोडिंगर (दोनों भौतिकी में नोबेल पुरस्कार विजेता) ने क्वांटम यांत्रिकी की खोज के बाद उल्लेख किया है। इन दोनों अग्रदूतों ने कहा है कि, जहाँ तक उनकी जानकारी है, उपनिषद एकमात्र स्रोत है जो क्वांटम यांत्रिकी के अनुसार 'वास्तविकता की विरोधाभासी प्रकृति' के अनुरूप हैं। -- '''राजीव मल्होत्रा''', इंद्राज नेट, पृ. 252, पहला संस्करण।
* मैं यह सोचता हूँ कि कोई यह पता लगाएगा कि भारत का गहनतम चिन्तन ने किस प्रकार ग्रीस और वहां से हमारे वर्तमान दर्शन तक की यात्रा की। -- '''जॉन व्हीलर''' ; स्रोत: इंडियन कॉन्क्वेस्ट्स ऑफ द माइंड, सैबल गुप्ता। गवली, सलिल (2013) से उद्धरित। भारत पर महान विचार। नई दिल्ली: पेंगुइन रैंडम हाउस।
* यह (भारतीय) दर्शन के साथ मेरी पहली मुलाकात थी। इसने मेरी अस्पष्ट अटकलों की पुष्टि की और एक बार में ही यह तर्कपूर्ण और असीम प्रतीत हो रहा था। -- '''विलियम बटलर यीट्स''' ; स्रोत: भारत और विश्व सभ्यता, डी.पी. सिंघल ने गवली, सलिल (2013) से उद्धरित किया। भारत पर महान विचार। नई दिल्ली: पेंगुइन रैंडम हाउस।
* वेदान्त दर्शन को अन्य सभी दर्शनों से जो अलग करता है वह यह है कि यह धर्म और दर्शन दोनों है। -- '''मैक्स मुलर''' ; स्रोत: वेदांत दर्शन पर तीन व्याख्यान, मैक्स मूलर गवली, सलिल (2013) से उद्धृत। भारत पर महान विचार। नई दिल्ली: पेंगुइन रैंडम हाउस।
* प्लेटो भी मुझे सभी मुख्य बातों में केवल किसी ब्राह्मण का एक अच्छा शिष्य लगता है। -- '''फ्रेडरिक नीत्शे''' ; Letter to Peter Gast, May 31, 1888. KSA 14.420. Quoted from Elst, Koenraad. Manu as a weapon against egalitarianism: Nietzsche and Hindu political philosophy in : Siemens & Vasti Roodt, eds.: Nietzsche, Power and Politics (Walter de Gruyter, Berlin 2008).
* मीमांसा दर्शन, हिन्दू चिन्तन परम्परा के सबसे उत्कृष्ट रूपों में से एक है। इसके तुल्य विश्व में दूसरा दर्शन नहीं है। -- फ्रांसिस क्लूनी (Francis Clooney), हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्राध्यापक, जिन्होंने हिन्दू धर्म में विशेषज्ञता प्राप्त की है।
==इन्हें भी देखें==
* [[दर्शन]]
* [[भारतीय संस्कृति]]
==सन्दर्भ==
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ब्रह्म
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अनुनाद सिंह
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अनुनाद सिंह
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[[भगवान]] को अनुप्रेषित
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#पुनर्प्रेषित [[भगवान]]
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पृथ्वी
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अनुनाद सिंह
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' * ''माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः '' -- अथर्ववेद, भूमिसूक्त : अर्थ : पृथ्वी मेरी माता है और मैंं उसका पुत्र हूँ। * ''सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धार...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
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* ''माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः '' -- अथर्ववेद, भूमिसूक्त
: अर्थ : पृथ्वी मेरी माता है और मैंं उसका पुत्र हूँ।
* ''सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति ।
: ''सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्न्युरुं लोकं पृथिवी नः कृणोतु ॥ '' -- अथर्ववेद, भूमिसूक्त
: अर्थात - महान् सत्य, कठोर नैतिक आचरण, शुभ कार्य करने का दृढ़ संकल्प, तपस्या, वैदिक स्वाध्याय अथवा ब्रह्मज्ञान और सर्वलोकहित के लिये समर्पित जीवन पृथ्वी को धारण करते हैं। इस पृथ्वी ने भूत काल में जीवों का पालन किया था और भविष्य काल में भी जीवों का पालन करेगी। इस प्रकार की पृथ्वी हमें निवास के लिए विशाल स्थान प्रदान करे।
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संस्कृत की सूक्तियाँ (हिन्दी अर्थ सहित) ०२
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अनुनाद सिंह
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'{|class='wikitable' |- ! सूक्ति !! हिन्दी अर्थ |- | अतिथि देवो भव || अतिथि देव स्वरूप होता है। |- | अतिस्नेहः पापशंकी। || अत्यधिक प्रेम पाप की आशंका उत्पंन करता है। |- | अत्यादरः शङ्कनीयः। || अत...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
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| अतिथि देवो भव || अतिथि देव स्वरूप होता है।
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| अतिस्नेहः पापशंकी। || अत्यधिक प्रेम पाप की आशंका उत्पंन करता है।
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| अत्यादरः शङ्कनीयः। || अत्यधिक आदर किया जाना शङ्कनीय है।
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| अनतिक्रमणीयो हि विधिः। || भाग्य का उल्लड़्घन नहीं किया जा सकता।
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| अनार्यः परदारव्यवहारः। || परस्त्री के विषय में बात करना अशिष्टता है।
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| अर्थो हि कन्या परकीय एव। || कन्या वस्तुतः पराई वस्तु है।
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| आचार परमो धर्मः। || आचार ही परम धर्म है।
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| ईशावास्यमिदं सर्वं || संपूर्ण जगत् के कण-कण में ईश्वर व्याप्त है।
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| अकारणपक्षपातिनं भवन्तं द्रष्ट्म् इच्छति में हृदयम्। || केयूरक महाश्वेता का संदेश चंद्रापीड को देते हुए कहता है कि आपके प्रति मेरा स्नेह स्वार्थ रहित है फिर भी आपसे मिलने की उत्कण्ठा हो रही है।
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| अकुलीनोअपि शास्त्रज्ञो दैवतेरपि पूज्यते (हितोपदेश) || नीच कुल वाला भी शास्त्र जानता हो तो देवताओं द्वारा भी पूजा जाता हैं।
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| अक्षरशून्यो हि अन्धो भवति (ज्ञान/विद्या पर सूक्ति) || निरक्षर (मूर्ख) अँधा होता हैं।
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| अगाधजलसंचारी रोहितः नैव गर्वितः || अगाध जल में तैरने वाली रोहू मछली घमंड नहीं करती
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| अंगारः शतधौतेन मलिंत्व न मुन्चति || कोयला सैंकड़ों बार धोने पर भी मलिनता नहीं छोड़ता।
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| अंगीकृत सुकृतिनः परिपालयन्ति || पुण्यात्मा जिस बात को स्वीकार करते है, उसे निभाते हैं।
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| अङ्गुलिप्रवेशात् बाहुप्रवेशः । || अंगुली प्रवेश होने के बाद हाथ प्रवेश किया जता है ।
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| अजा सिंहप्रसादेन वने चरति निर्भयम्. || शेर की कृपा से बकरी जंगल मे बिना भय के चरती है ।
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| अजीर्ण हि अमृतं वारि, जीर्ण वारि बलप्रदम || अजीर्ण में जल अमृत के समान होता हैं और भोजन के पचने पर बल देता हैं।
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| अजीर्णे भोजनं विषम् । || अपाचन हुआ हो तब भोजन विष समान है ।
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| अज्ञता कस्य नामेह नोपहासायजायते || मुर्खता पर किसे हंसी नहीं आती
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| अज्ञातकुलशीलस्य वासो न देयः || जिस का कुल और शील मालूम नहीं हो उसके घर नहीं टिकना चाहिए।
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| अति तृष्णा विनाशाय. || अधिक लालच नाश कराती है ।
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| अति सर्वत्र वर्जयेत् । || अति ( को करने ) से सब जगह बचना चाहिये ।
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| अतिभक्ति चोरलक्षणम्. || अति-भक्ति चोर का लक्षण है ।
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| अतीत्य हि गुणान् सर्वान् स्वभावो मूर्ध्नि वर्तते । || सब गुण के उस पार जानेवाला “स्वभाव हि श्रेष्ठ है (अर्थात् गुण सहज हो जाना चाहिए) ।
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| अनतिक्रमणीया नियतिरिति। || नियति अतिक्रमणीय होती है अर्थात् होनी नहीं टाला जा सकता।
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| अनभ्यासे विषं शास्त्रम् || अभ्यास न करने पर शास्त्र विष के तुल्य हैं।
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| अनुपयुक्तभूषणोsयं जनः। || दोनों सखियां शकुंतला को आभूषण धारण कराते हुए कहती हैं हम दोनों आभूषणों के उपयोग से अनभिज्ञ हैं अतः चित्रावली को देखकर आभूषण पहनाती हैं।
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| अनुलड़्घनीयः सदाचारः || सदाचार का उल्लड़्घन नहीं करना चाहिए।
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| अन्तो नास्ति पिपासायाः । || तृष्णा का अन्त नहीं है ।
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| अपसृतपाण्डुपत्रा मुञ्चन्त्यश्रूणीव लताः। || शकुन्तला के पतिगृह गमन के समय आश्रम में पशु-पक्षी और तरु तलायें भी वियोग पीड़ित हैं। लताओं से पीले पते टूट कर गिर रहे हैं मानो वे आंसू बहा रहे हैं।
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| अपुत्राणां न सन्ति लोकाशुभाः। || जिन दंपतियों को पुत्र की प्राप्ति नहीं होती है उन्हें लोक शुभ नहीं होते।
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| अपेयेषु तडागेषु बहुतरं उदकं भवति । || जिस तालाब का पानी पीने योग्य नहीं होता , उसमें बहुत जल भरा होता है ।
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| अप्रार्थितानुकूलः मन्मथः प्रकटीकरिष्यति। || बिना प्रार्थना किये ही मेरे प्रति अनुकूल हो जाने वाला कामदेव शीघ्र ही उसे प्रकट कर देगा। ऐसा कादंबरी के अनुराग के कारणों के विषय में चंद्रापीड कहता है।
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| अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः || अप्रिय किंतु परिणाम में हितकर हो ऐसी बात कहने और सुनने वाले दुर्लभ होते हैं।
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| अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः । || अप्रिय हितकर वचन बोलनेवाला और सुननेवाला दुर्लभ है
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| अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम ।। || वृद्धों की नित्य सेवा करने वाले तथा उनका अभिवादन करने वाले के आयु, विद्या, यश और बल ये चारों बढ़ते हैं।
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| अभ्यावहति कल्याणं विविधं वाक् सुभाषिता । || अच्छी तरह बोली गई वाणी अलग अलग प्रकार से मानव का कल्याण करती है ।
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| अभ्याससारिणी विद्या || विद्या अभ्यास से आती हैं।
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| अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम, उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् || यह मेरा हैं यह तुम्हारा हैं. ऐसा चिन्तन तो संकीर्ण बुद्धि वालों का हैं. उदार चरित वालों के लिए तो पूरी पृथ्वी ही परिवार की तरह हैं।
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| अयोग्यः पुरुषः नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः । || कोई भी पुरुष अयोग्य नहीं, पर उसे योग्य काम में जोडनेवाला पुरुष दुर्लभ है
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| अर्द्धो घटो घोषमुपैति नूनम् || घड़ा आधा भरा हो तो अवश्य छलकता हैं।
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| अल्पविद्या भयङ्करी || अल्पविद्या भयंकर होती है ।
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| अल्पानामपि वस्तूनां संहतिः कार्यसाधिका || छोटे लोगों का एकजुट होना भी काम साध लेता हैं।
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| अविद्याजीवनं शून्यम् || बिना विद्या के जीवन शून्य हैं।
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| अवेहि मां कामुधां प्रसन्नाम्। || नन्दिनी गाय राजा से बोली– मैं प्रसन्न हूं वरदान मांगो! मुझे केवल दूध देने वाली गाय न समझो बल्कि प्रसन्न होने पर मुझे अभिलाषाओं को पूरी करने वाली समझो।
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| अशांतस्य कुतः सुखम्। || अशांत (शांति रहित) व्यक्ति को सुख कैसे मिल सकता है?
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| असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय। || मुझे असत् से सत् की ओर ले जायें, अंधकार से प्रकार की ओर ले जायें।
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| असाधुं साधुना जयेत् || असाधु को साधुता दिखलाकर अपने वंश में करें, दुष्ट को सज्जनता से जीते
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| अस्यामहं त्वयि च सम्प्रति वीतचिन्तः। || कण्व कहते हैं– अब मैं इस वनज्योत्स्ना और तुम्हारे विषय में निश्चिंत हो गया हूं।
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| अहिंसा परमो धर्मः || अहिंसा सबसे श्रेष्ठ धर्म हैं।
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| अहो दुरन्ता बलवद्विरोधिता । || बलवान के साथ विरोध करनेका परिणाम दुःखदायी होता है ।
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| अहो मानुषीषु पक्षपातः प्रजापतेः। || कादंबरी पत्रलेखा के सौन्दर्य को देखकर कहती है कि ब्रह्मा ने पत्रलेखा के प्रति पक्षपात किया है और उसे गन्धर्वों से भी अधिक सौन्दर्य प्रदान किया है।
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| आचारपूतं पवनः सिषेवे। || आचारों से पवित्र राजा दिलीप की सेवा में झरनों के कणों से सिञ्चित हवायें संलग्न थीं।
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| आज्ञा गुरुणामविचारणीया। || बड़ों की आज्ञा विचारणीय नहीं होती।
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| आत्मदुर्व्यवहारस्य फलं भवति दुःखदम, तस्मात् सदव्यवहर्तव्य मानवेन सुखैषीणा || अपने दुर्व्यवहार का फल भी दुखदायी होता हैं. अतः सुख प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को हमेशा अच्छा व्यवहार करना चाहिए।
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| आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् || जो अपने प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के प्रति न करें।
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| आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः || जो अपनी तरह सब प्राणियों में देखता है, वही पंडिता हैं।
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| आपदि मित्र परीक्षा । || आपत्ति में मित्र की परीक्षा होती है ।
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| आर्जवं हि कुटिलेषु न नीतिः। || कुटिल जनों के प्रति सरलता नीति नहीं होती।
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| आलस्यं हि मनुष्याणा शरीरस्थो महान रिपुः || शरीर में स्थित आलस्य ही मनुष्यों का सबसे बड़ा शत्रु हैं।
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| आलाने गृह्यते हस्ती वाजी वल्गासु गृह्यते। हृदये गृह्यते नारी यदीदं नास्ति गम्यताम्।। || हाथी खंभे से रोका जाता है। घोड़ा लगाम से रोका जाता है, स्त्री हृदय से प्रेम करने से ही वश में की जाती है यदि ऐसा नहीं है तो सीधे अपनी राह नापिये।
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| आहारो हि मनुष्याणां जन्मना सह जायते || आहार मनुष्यों के जन्म के साथ ही पैदा हो जाता हैं।
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| उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत || हे मनुष्य! उठो, जागो और श्रेष्ठ महापुरुषों को पाकर उनके द्वारा परब्रह्म परमेश्वर को जान लो।
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| उत्सवप्रियाः खलुः मनुष्याः || मनुष्य उत्सव प्रिय होते हैं।
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| उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः, न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः || काम करने से ही कार्यों की सिद्धि होती हैं। केवल मनोरथ से नहीं, सोते हुए सिंह के मुख में कोई मृग प्रवेश नहीं करता है।
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| ऋद्धं हि राज्यं पदमैन्द्रमाहुः। || समृद्धशाली राज्य इंद्र के पद स्वर्ग के समान होता है।
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| एको रसः करुण एव निमित्तभेदात्। || एक करुण रस ही कारण भेद से भिन्न होकर अलग-अलग परिणामों को प्राप्त होता है।
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| एको हि दोषों गुणसन्निपाते निमज्जतीदोः किरणेष्विवाकः || गुणों के समूह में एक दोष उसी प्रकार छिप जाता है जैसे चन्द्रमा की किरणों में उसका कलंक
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| ओदकान्तं स्निग्धो जनोऽनुगन्तव्यः। || शार्ड़्गरव कहता है– भगवन्! प्रिय व्यक्ति का जल के किनारे तक अनुगमन करना चाहिए, ऐसी श्रुति है।
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| कः कं शक्तो रक्षितुं मृत्युकाले। || मृत्यु समीप आ जाने पर कौन किसकी रक्षा कर सकता है।
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| कदन्नता चोष्णतया विराजते । ||
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| कर्मणो गहना गतिः || काम की गति कठिन हैं।
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| कलौ वेदान्तिनो भांति फाल्गुने बालकाः इव || फाल्गुन में बालको के समान कलि युग में वेदांती सुशोभित होते हैं।
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| कष्टाद्पि कष्टतरं परगृहवासः परानं च || कष्ट से भी बड़ा कष्ट दुसरे के घर में निवास करने एवं दूसरे का अन्न खाना हैं।
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| कायः कस्य न वल्लभः । || अपना शरीर किसको प्रिय नहीं है ?
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| कालस्य कुटिला गतिः || काल की गति टेडी होती हैं।
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| काले खलु समारब्धाः फलं बध्नन्ति नीतयः। || समय पर आरंभ की गयी नीतियां सफल होती हैं।
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| कालो न यातो वयमेव याताः (समय पर सूक्ति) || समय नहीं बीता, हम ही बीत गये
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| काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम, व्यसनेन च मूर्खाणा निद्रया कलहेन वा || बुद्धिमान लोगों का समय काव्यशास्त्र की बातों में गुजरता हैं. जबकि मुर्ख व्यक्तियों का समय व्यसन, निद्रा या कलह में गुजरता हैं।
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| किं करिष्यन्ति वक्तारो श्रोता यत्र न बुध्द्यते । || जहाँ श्रोता समजदार नहीं है वहाँ वक्ता (भाषण देकर) भी क्या करेगा ?
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| किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् || सुन्दर आकृतियों के लिए क्या वस्तु अलंकार नहीं होती है।
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| कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति || कुपुत्र हो सकता हैं, लेकिन कुमाता कहीं पर भी नहीं होती
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| कुभोज्येन दिनं नष्टम् । || बुरे भोजन से पूरा दिन बिगडता है ।
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| कुरूपता शीलयुता विराजते । || कुरुप व्यक्ति भी शीलवान हो तो शोभारुप बनती है
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| कुलं शीलेन रक्ष्यते । || शील से कुल की रक्षा होती है
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| कुवस्त्रता शुभ्रतया विराजते । || खराब वस्त्र भी स्वच्छ हो तो अच्छा दिखता है ।
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| को नामोष्णोदकेन नवमालिकां सिञ्चति। || प्रियंवदा कहती है नवमालिका को गर्म जल से कौन सींचना चाहेगा।
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| कोअतिभारः समर्थानाम || समर्थ जनों के लिए क्या अधिक भार हैं।
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| क्रोधः पापस्य कारणम् || क्रोध पाप का कारण होता हैं।
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| क्रोधो हि शत्रुः प्रथमो नराणाम || मनुष्यों का प्रथम शत्रु क्रोध ही हैं।
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| क्लिश्यन्ते लोभमोहिताः । || लोभ की वजह से मोहित हुए हैं वे दुःखी होते हैं ।
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| क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः। || जो प्रत्येक क्षण नवीनता को धारण करता है वही रमणीयता का स्वरूप है।
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| क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः। || महर्षि वशिष्ठ के प्रभाव से मेरे ऊपर यमराज भी आक्रमण करने में समर्थ नहीं है तो सांसारिक हिंसक पशुओं का तो कहना ही क्या?
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| क्षमा तुल्यं तपो नास्ति || क्षमा के बराबर तप नहीं हैं।
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| क्षारं पिबति पयोधेर्वर्षत्यम्भोधरो मधुरम्बुः || बादल समुद्र का खारा पानी पीते हैं पर मीठा पानी बरसाते हैं।
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| क्षीणा नरा निष्करुणा भवन्ति || कमजोर व्यक्ति ही दयाहीन होते हैं।
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| गतानुगतिको लोको न लोकः पारमार्थिकः || लोग अंधपरम्परा पर चलने वाले होते हैं असलियत पर नहीं जाते
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| गतेअपि वयसे ग्राहा विद्या सर्वात्मना बुधैः || बूढा हो जाने पर भी विद्या सब भांति उपार्जना करता रहे।
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| गरीयषी गुरोः आज्ञा। || गुरुजनों (बड़ों) की आज्ञा महान् होती है अतः प्रत्येक मनुष्य को उसका पालन करना चाहिए।
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| गुणः खलु अनुरागस्य कारणं , न बलात्कारः । || केवल गुण ही प्रेम होने का कारण है , बल प्रयोग नहीं
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| गुणवते कन्यका प्रतिपादनीया। || गुणवान् (सुयोग्य) व्यक्ति को कन्या देनी चाहिए। यह माता-पिता का मुख्य विचार होता है।
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| गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति। || गुणों को जानने वालों के लिए ही गुण गुण होते हैं।
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| गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिंग न च वयः || गुणियों में गुण ही पूजा का कारण है न कि लिंग या आयु
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| गुणा सर्वत्र पूज्यते। || गुणों की सभी जगह पूजा होती हैं।
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| गुणेष्वेव हि कर्तव्यं प्रयत्नः पुरुषैः सदा || मनुष्य को हमेशा गुणों में ही प्रयत्न करना चाहिए।
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| गुरुणामेव सर्वेषां माता गुरुतरा स्मृता । || सब गुरु में माता को सर्वश्रेष्ठ गुरु माना गया है
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| गुर्वपि विरह दुःखमाशाबन्धः साहयति। || अनसूया शकुन्तला से कहती है– आशा का बन्धन विरह के कठोर दुःख को भी सहन करा देता है।
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| चक्रवत परिवर्तन्ते दुखानि च सुखानि च || सुख और दुःख चक्र के समान परिवर्तनशील हैं।
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| चक्रारपंक्तिरिव गच्छति भाग्यपंक्तिः । || चक्र के आरे की तरह भाग्यकी पंक्ति उपर-नीचे हो सकती है
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| चराति चरतो भगः । || चलेनेवाले का भाग्य चलता है ।
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| चारित्र्येण विहीन आढ्योपि च दुगर्तो भवति। || चरित्रहीन धनवान् भी दुर्दशा को प्राप्त होता है।
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| चित्रार्पितारम्भ इवावतस्थे। || चित्र में लिखे हुए बाण निकालने के उद्योग में लगे हुए की भांति हो गया।
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| चौराणामनृतं बलम || चौरों के लिए झूठ ही बल हैं।
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| चौरे गते न किंमु सावधानम? || चोर जब चोरी कर चले गये तो फिर सावधानी से क्या?
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| छायेव तां भूपतिरन्वगच्छत्। || राजा दिलीप ने नन्दिनी को छाया की भांति अनुसरण किया।
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| छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्। || छाया के समान दुर्जनों और सज्जनों की मित्रता होती है।
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| छिद्रेष्वनर्थाः बहुली भवन्ति || छेदों में अनेक अनर्थ होते हैं।
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| जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसि || माता और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं।
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| जपतो नास्ति पातकम || जप करते हुए को पाप नहीं लगता।
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| जमाता दसवां ग्रहः || दामाद दसवां ग्रह हैं।
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| जातस्य हि धुर्वो मृत्युः || जो पैदा हुआ हैं अवश्य मरेगा
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| जिता सभा वस्त्रवता । || अच्छे वस्त्र पहननेवाले सभा जित लेते हैं (उन्हें सभा में मानपूर्वक बिठाया जाता है) ।
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| जीवेम शरदः शतम्। || हम सौ वर्ष तक देखने वाले और जीवित रहने वाले हों।
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| जीवो जीवस्य भोजनम् || जीव, जीव का भोजन हैं।
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| ज्ञानं भारः क्रियां विना || क्रिया के बिना ज्ञान भारस्वरूप हैं।
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| ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समानाः || ज्ञान से रहित पशुओं के समान हैं।
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| तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते श्रुतेन शीलेन कुलेन कर्मणा || आदमी चार बातों से परखा जाता हैं विद्या, शील, कुल और काम से
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| तद् रूपं यत्र गुणाः । || जिस रुप में गुण है वही उत्तम रुप है ।
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| तमसो मा ज्योतिर्गमय। || अंधकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमृत की ओर ले जायें।
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| तस्करस्य कुतो धर्मः || चोर का धर्म क्या?
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| तस्मात् प्रियं हि वक्तव्यं वचने का दरिद्रता || हमेशा प्रिय ही बोलना चाहिए, बोलने में किस बात की गरीबी
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| तीर्थोदकंक च वह्निश्च नान्यतः शुद्धिमर्हतः। || तीर्थ जल और अग्नि से अन्य पदार्थ से शुद्धि के योग्य नहीं होते हैं।
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| तृणाल्लघुतरं तूलं तूलादपि च याचकः । || तिन्के से रुई हलका है, और याचक रुई से भी हलका है ।
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| तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः || तृष्णा बूढी नहीं होती, हम ही बूढ़े होते हैं।
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| तेजसां हि न वयः समीक्ष्यते। || तेजस्वी पुरुषों की आयु नहीं देखी जाती है।
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| त्यजेत क्रोधमुखी भार्याम || क्रोधी पत्नी का त्याग करना चाहिए।
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| त्रयः उपस्तम्भाः । आहारः स्वप्नो ब्रह्मचर्यं च सति । || शरीररुपी मकान को धारण करनेवाले तीन स्तंभ हैं; आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य (गृहस्थाश्रम में सम्यक् कामभोग) ।
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| दंतभंगो हि नागानां श्लाघ्यो गिरिविदारणे || पहाड़ के तोड़ने में हाथी के दांत का टूट जाना भी तारीफ़ की बात हैं।
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| दरिद्रता धीरतया विराज्रते || दरिद्रता धीरता से शोभित होती हैं।
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| दिनक्षपामध्यगतेव संध्या। || वह नन्दिनी दिन और रात्रि के मध्य संध्या के समान सुशोभित हुई।
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| दीर्घसूत्री विनश्यति। || प्रत्येक कार्य में अनावश्यक विलंब करने वाला नष्ट होता है।
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| दुःखं न्यासस्य रक्षणम्। || किसी के न्यास अर्थात् धरोहर की रक्षा करना दुःखपूर्ण (दुष्कर) है।
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| दुःखशीले तपस्विजने कोsभ्यर्थ्यताम्? || कष्ट सहन करने वाले तपस्वियों में से किससे प्रार्थना करें।
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| दुर्बलस्य बलं राजा || दुर्बल का बल राजा होता हैं।
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| दुष्टजनं दूरतः प्रणमेत || दुष्ट आदमी को दूर से ही प्रणाम करना चाहिए।
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| दैवमविद्वांसः प्रमाणयन्ति। || मूर्ख व्यक्ति भाग्य को ही प्रमाण मानते हैं।
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| दैवस्य विचित्रा गतिः || भाग की गति विचित्र हैं।
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| द्वितीयाद्वै भयं भवति । || दूसरा हो वहाँ भय उत्पन्न होता है ।
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| धनधान्यप्रयोगेषु विद्यायाः संग्रहेषु च, आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत् || धन धान्य के प्रयोग में विद्या के संग्रह में भोजन में तथा व्यवहार में लज्जा से दूर रहने वाला व्यक्ति हमेशा सुखी रहता हैं।
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| धर्मो रक्षति रक्षितः || बचाया हुआ धर्म ही रक्षा करता हैं।
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| धिक् कलत्रम अपुत्रकम || ऐसी भार्या किस काम की जो बाँझ हो।
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| धूमाकुलितदृष्टेरपि यजमानस्य पावके एवाहुतिः पपिता। || सौभाग्य से धुएं से व्याकुल दृष्टि वाले यजमान की भी आहुति ठीक अग्नि में ही पड़ी।
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| धैर्यधना हि साधवः। || सज्जन लोगों का धैर्य ही धन होता है।
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| न कूपखननं युक्तं प्रदीप्ते वाहीना गृहे || घर में जब आग लग गई तब कुआ खोदना कैसा?
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| न खलु धीमतां कश्चिद्विषयों नाम। || शार्ड़्गरव कहता है– विद्वानों के लिए वस्तुतः कोई चीज अज्ञात नहीं होती है।
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| न खलु वयः तेजसो हेतुः । || वय तेजस्विता का कारण नहीं है ।
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| न च ज्ञानात परं चक्षुः || ज्ञान से बढ़कर कोई नेत्र नहीं हैं।
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| न च धर्मों दयापर || दया से बढ़कर धर्म नहीं।
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| न च विद्यासमो बन्धुः || विद्या के समान बन्धु नहीं।
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| न ज्ञानेन विना मोक्षं || ज्ञान के बिना मोक्ष नहीं
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| न तेनवृध्दो भवति येनाऽस्य पलितं शिरः । || बाल श्वेत होने से हि मानव वृद्ध नहीं कहलाता ।
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| न धर्मवृद्धेषु वयः समीक्ष्यते। || कम उम्र वाले व्यक्ति भी तप के कारण आदरणीय होते हैं।
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| न धर्मात परं मित्रम् || धर्म के समान मित्र नहीं
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| न निश्चितार्थद विरमन्ति धीराः || धैर्यशील व्यक्ति अपने प्रयोजन से दूर नहीं होते
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| न बन्धुमध्ये धनहीनजीवनम् । || बन्धुओं के बीच धनहीन जीवन अच्छा नहीं ।
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| न भूतो न भविष्यति || न हुआ न होगा।
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| न मातुः परदैवतम् । || माँ से बढकर कोई देव नहीं है
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| न रत्नमन्विष्यति मृगयते हि तत् || रत्न ढूंढता नहीं खोजा जाता हैं।
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| न राज्यं न च राजासीत् , न दण्डो न च दाण्डिकः । स्वयमेव प्रजाः सर्वा , रक्षन्ति स्म परस्परम् ॥ || न राज्य था और ना राजा था , न दण्ड था और न दण्ड देने वाला । स्वयं सारी प्रजा ही एक-दूसरे की रक्षा करती थी ॥
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| न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य। || मनुष्य कभी धन से तृत्प नहीं हो सकता।
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| न स क्रोधसमो रिपुः || क्रोध के समान शत्रु नहीं हैं।
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| न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः || वह सभी नहीं जहाँ वृद्धजन न हो
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| न हि ज्ञानेन सद्रश पवित्रमिह वर्तते || इस संसार में ज्ञान से ज्यादा पवित्र कुछ नहीं हैं।
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| न हि प्रियं प्रवक्तुमिच्छन्ति मृषा हितैषिणः। || कल्याण चाहने वाले लोग झूठा प्रिय वचन बोलने की इच्छा नहीं करते हैं।
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| न हि सत्यात् परो धर्मः || सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं हैं।
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| न हि सर्वः सर्वं जानाति। || सभी लोग सब कुछ नहीं जानते हैं।
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| नमन्ति फलिनो वृक्षाः नमन्ति गुणिनोंः जनाः, शुष्कवृक्षाश्च मुर्खाश्च न नमन्ति कदाचन । || फलों वाले वृक्ष ही झुकते हैं तथा गुणों से युक्त व्यक्ति ही झुकते हैं, सूखे पेड़ और मुर्ख व्यक्ति कभी नहीं झुकते।
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| नराणाम नापितो धूर्तः || मनुष्यों में नाई धूर्त होता हैं।
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| नहि दुष्करमस्तीहं किंचिदध्यवसार्यिनाम || प्रयत्न करने वाले के लिए कोई बात दुष्कर नहीं हैं।
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| नास्ति भार्यासमो बन्धु नास्ति भार्यासमा गतिः । || भार्या समान कोई बन्धु नहीं है, भार्या समान कोई गति नहीं है ।
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| नास्ति मातृसमो गुरु। || भीष्म कहते हैं– माता के समान कोई गुरु नहीं।
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| नास्ति विद्या समं चक्षु। || संसार में ब्रह्मविद्या के समान कोई नेत्र नहीं है।
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| नास्तिको धर्मनिंदकः || धर्म की निंदा करने वाला नास्तिक होता हैं।
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| नास्तिको वेदनिंदक || वेदों की निंदा करने वाला नास्तिक हैं।
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| निर्धनता प्रकारमपरं षष्टं महापातकम् । || गरीबी दूसरे प्रकार से छठा महापातक है ।
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| नीचैर्गच्छतयुपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण || मनुष्य के जीवन की दशा वैसी ही ऊँची नीची हुआ करती है जैसा रथ का पहिया कभी ऊँचा कभी नीचा होता रहता हैं।
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| नूनं सुभाषितरसोऽन्यरसातिशायी । || सचमुच ! सुभाषित रस बाकी सब रस से बढकर है ।
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| पदं हि सर्वत्र गुणैर्निधीयते। || गुण ही सर्वत्र शत्रु-मित्रादिकों में पैर को स्थापित करते हैं।
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| पयः पानं भुजंगाना केवलं विषवर्धनम || सापों को दूध पिलाना, जहर बढ़ाना ही हैं।
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| पयोधरीभूत चतुःसमुद्रां, जुगोप गोरूपधरामिवोर्वीम्। || राजा दिलीप ने समुद्र के समान चार थनों वाली नन्दिनी गाय की रक्षा इस प्रकार की जैसे चार थनों के समान चार समुद्रों वाली पृथ्वी ही गाय के रूप में हो।
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| परदुः खेनापि दुखिताः विरलाः || जो दूसरे के दुःख से दुखी होते है ऐसे विरले ही होते हैं।
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| पराभवोsप्युत्सव एव मानिनाम्। || मनस्वी पुरुषों के लिए पराभव भी उत्सव के ही समान है।
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| परित्यक्तः कुलकन्यकानां क्रमः। || कादंबरी चंद्रापीड को अपना हृदय समर्पित करके कहती है– कुल कन्याओं की परम्परा रही है कि गुरुजनों की सहमति से ही वे योग्य वर का चुनाव करती हैं। मैंने यह परम्परा तोड़ दी है। यह लज्जा का विषय है।
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| परोपकारः पुण्याय पापाय परपीड़नम || परोपकार पुण्य तथा परपीड़न पाप देने वाला होता हैं।
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| परोपकाराय सतां विभूतयः। || सज्जनों की विभूति (ऐश्वर्य) परोपकार के लिए है।
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| परोपकारार्थमिदं शरीरम || यह शरीर दूसरे के उपकार के लिए हैं।
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| पात्रत्वात धनमाप्नोति || योग्यता से ही धन की प्राप्ति होती हैं।
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| पिण्डेष्वनास्था खलु भौतिकेषु। || विवेकी लोगों की आस्था नष्ट होने वाले इन भौतिक शरीरों से नहीं है, बल्कि यश रूपी शरीर की रक्षा करने में है।
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| पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्वदेवताः । || पिता प्रसन्न हो तो सब देव प्रसन्न होते हैं
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| पितु र्हि वचनं कुर्वन् न कश्र्चिन्नाम हीयते । || पिता के वचन का पालन करनेवाला दीन-हीन नहीं होता ।
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| पुण्येः यशो लभते || पुण्यों से ही यश की प्राप्ति होती हैं।
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| पुत्रोत्सवे माद्यति को न हर्षात || पुत्र के जन्मोत्सव में कौन आनन्द में मतवाला नहीं होता।
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| पुराणमित्येव न साधु सर्वम || कोई बात पुरानी मात्र होने से सही नहीं होती
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| पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् । || इस पृथ्वी पर तीन रत्न हैं; जल, अन्न और सुभाषित ।
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| प्रतिबदध्नाति हि श्रेयः पूज्यपूजाव्यतिक्रमः। || वसिष्ठ कहते हैं– पूजनीय की पूजा का उल्लड़्घन कल्याण को रोकता है।
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| प्रतिभातश्च पश्यन्ति सर्वं प्रज्ञावंतः धिया || बुद्धिमान अपनी सूक्ष्मबुद्धि के बल से सब बाते देख लेते हैं।
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| प्रमाणम परमं श्रुतिः || वेद सबसे बढकर प्रमाण हैं।
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| प्रयोजनमनुद्रिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते । || मूढ मानव भी बिना प्रयोजन कोई काम नहीं करता ।
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| प्रसादचिह्नानि पुरःफलानि। || पहले प्रसन्नतासूचक चिन्ह दिखाई पड़ते हैं तदन्तर फल की प्राप्ति होती है।
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| प्राणव्ययेनापि कृतोपकाराः खलाः परं वैरमिवोद्वहन्ति || खल के साथ कितना भी उपकार करो यहाँ तक कि उसके लिए अपना प्राण तक दे डालो तब भी वैर ही करेगा।
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| प्राणेभ्योपि हि वीराणां प्रिया शत्रुप्रतिक्रिया || वीरों को प्रण से अधिक प्यार शत्रु से बदला चुकाना हैं।
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| प्राणैरुपक्रोशमलीमसैर्वा। || राजा दिलीप को जब लगा कि नन्दिनी को सिंह से नहीं छुड़ा पायेंगे तो उन्होंने कहा-तब तो मेरा क्षत्रियत्व ही नष्ट हो जायेगा क्योंकि क्षत्रियत्व से विपरीत वृत्ति वाले व्यक्ति का राज्य से या निन्दा युक्त मलिन प्राणों से क्या लाभ?
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| प्राप्तकालो न जीवति || जिसका समय आ पंहुचा है वह नहीं जीता
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| प्राप्ते तु षोडशे वर्षे गर्द्भ्यूप्यप्सरायते || 16 वर्ष के होने पर तो गधी भी अपने आप को अप्सरा समझती हैं।
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| प्रायो गच्छति यत्र भाग्यरहितस्तत्रैव यान्त्यापदः || बहुधा भाग्यहीन जहाँ आते हैं, विपत्तियाँ भी वहां आ जाती हैं।
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| प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः। || नीचे लोग विघ्नों के भय से कार्य प्रारंभ ही नहीं करते।
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| प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता || प्रिय व्यक्ति को सुंदर लगना सौभाग्य का फल हैं।
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| फलं भाग्यानुसारतः || फल भाग्य के अनुसार मिलता हैं।
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| बलं मूर्खस्य मौनत्वम || चुप रहना मुर्ख के लिए बल हैं।
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| बलवता सह को विरोधः। || बलशाली के साथा क्या विरोध?
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| बलवती हि भवितव्यता। || होनहार बलवान् है, जो होना है वह होकर ही रहता है उसे टाला नहीं जा सकता।
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| बलवन्तो हि अनियमाः नियमा दुर्बलीयसाम् । || बलवान को कोई नियम नहीं होते, नियम तो दुर्बल को होते हैं ।
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| बलवान् जननीस्नेहः। || माता का स्नेह बलवान् होता है।
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| बहुभाषिणः न श्रद्दधाति लोकः। || अधिक बोलने वाले पर लोग श्रद्धा नहीं रखते।
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| बहुरत्ना वसुंधरा || यह पृथ्वी अनेक रत्नों से युक्त हैं।
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| बह्वाश्र्चर्या हि मेदनी । || पृथ्वी अनेक आश्र्चर्यों से भरी हुई है ।
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| बुद्धिः कर्मानुसारिणी || बुद्धि कर्म के अनुसार होती हैं जैसा कर्म करोगे वैसी ही बुद्धि होगी।
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| बुद्धिर्यस्य बलं तस्य, निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम || जिसके पास बुद्धि हैं, उसके के पास बल हैं. बुद्धिहीन के लिए तो कोई बल नहीं।
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| बुभुक्षितः किम न करोति पापम || भूखा मरता हुआ कौन सा पाप नहीं करता
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| भये सर्वे हि बिभ्यति । || भय का कारण उपस्थिति हो तब सब भयभीत होते हैं ।
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| भवितव्यता बलवती || होनहार बलवान हैं।
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| भाग्यं फ़लति सर्वत्र न विद्या न च पौरुषम् । || भाग्य हि फ़ल देता है, विद्या या पौरुष नहीं ।
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| भार्या दैवकृतः सखा । || भार्या दैव से किया हुआ साथी है ।
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| भार्या मित्रं गृहेषु च । || गृहस्थ के लिए उसकी पत्नी उसका मित्र है ।
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| भिन्नरूचि र्हि लोकः । || मानव अलग अलग रूचि के होते हैं ।
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| भुजंग एव जानाति भुजंग चरणौ सखे || सांप के पाँव को सांप ही जानता हैं।
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| भोगीव मन्त्रोषधिरुद्धवीर्यः || हाथ के रुक जाने से बढ़े हुए क्रोध वाले, राजा दिलीप, मंत्र और औषधि से बांध दिया गया है पराक्रम जिसका, ऐसे सांप की भांति समीप में (स्थित) अपराधी को नहीं स्पर्श करते हुए अपने तेज से भीतर जलने लगे।
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| भोजनस्यादरो रसः । || भोजन का रस “आदर है ।
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| मद्यपाः किं न जल्पन्ति || शराबी क्या नहीं बकते
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| मधुरापि हि मुर्छ्यते विषवृक्षसमाश्रिता वल्ली || विष के पेड़ पर चढ़ी लता भी मूर्छित करने वाली हो जाती हैं।
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| मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । || मन हि मानव के बंधन और मोक्ष का कारण है ।
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| मनः शीघ्रतरं बातात् । || मन वायु से भी अधिक गतिशील है
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| मनसि व्याकुले चक्षुः पश्यन्नपि न पश्यति । || मन व्याकुल हो तब आँख देखने के बावजूद देख नहीं सकती ।
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| मनस्वी कार्यार्थी न गण्यति दुःख न सुखम || मनस्वी और जो अपना काम साधना चाहते है वे दुःख सुख को कुछ नहीं गिनते
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| मनोअनुवृत्ति प्रभोः कुर्यात् || मालिक के मन के अनुसार चले
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| महाजनो येन गतः स पन्थाः || जिस मार्ग से बड़े लोग चले, वो ही अच्छा मार्ग हैं।
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| महीयांसः प्रकृत्या मितभाषिणः । || बडे लोग स्वभाव से हि मितभाषी होते हैं ।
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| मा कश्चिद् दुख भागभवेत || कोई दुःखी न हो।
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| मा गृधः कस्यस्विद्धनम् || किसी के भी धन का लोभ मत करो।
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| मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत्। || माता पिता की भली प्रकार से सेवा करनी चाहिये।
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| मित्रेण कलहं कृत्वा न कदापि सुखी जनः || मित्र के साथ कलह करके कोई व्यक्ति कभी भी सुखी नहीं हो सकता।
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| मूर्खों हि शोभते तावद् यावत् किंचिन्न भाषते || मूर्ख तभी तक सुशोभित होता है, जब तक कि वह कुछ नहीं बोलता
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| मृजया रक्ष्यते रूपम् । || स्वच्छता से रूप की रक्षा होती है
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| मौनं सम्मतिलक्षणम् । || मौन सम्मति का लक्षण है ।
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| मौनं सर्वार्थसाधनम् । || मौन यह सर्व कार्य का साधक है ।
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| मौनिनः कलहो नास्ति । || मौनी मानव का किसी से भी कलह नहीं होता ।
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| यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः || जहाँ नारियो की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं।
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| यदभावि न तदभावी भावि चेन्न तदन्यथा । || जो नहीं होना है वो नहीं होगा, जो होना है उसे कोई टाल नहीं सकता
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| यद् धात्रा लिखितं ललाटफ़लके तन्मार्जितुं कः क्षमः । || विधाता ने जो ललाट पर लिखा है उसे कौन मिथ्या कर सकता है ?
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| यशोधनानां हि यशो गरीयः । || यशरूपी धनवाले को यश हि सबसे महान वस्तु है ।
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| यशोवधः प्राणवधात् गरीयान् । || यशोवध प्राणवध से भी बडा है ।
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| याचको याचकं दृष्टा श्र्वानवद् घुर्घुरायते । || याचक को देखकर याचक, कुत्ते की तरह घुर्राता है ।
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| युक्तियुक्तमुपादेयं वचनं बालकादपि । || युक्तियुक्त वचन बालक के पास से भी ग्रहण करना चाहिए ।
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| योगः कर्मसु कौशलम् || समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात् कर्मबंधन से छूटने का उपाय है।
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| रत्नं रत्नेन संगच्छते । || रत्न , रत्न के साथ जाता है
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| राजा कालस्य कारणम् । || राजा काल का कारण है ।
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| रिक्तः सर्वों भवति हि लघुः पूर्णता गौरवाय || रिक्त व्यक्ति लघु होता हैं, पूर्णता गौरव के लिए होती हैं।
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| रूपेण किं गुणपराक्रमवर्जितेन । || जिस रूप में गुण या पराक्रम न हो उस रूप का क्या उपयोग ?
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| लुब्धस्य प्रणश्यति यशः || लोभी की कीर्ति नष्ट हो जाती हैं।
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| लुब्धानां याचको रिपुः । || लोभी मानव को याचक शत्रु जैसा लगता है ।
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| लोकरझ्जनमेवात्र राज्ञां धर्मः सनातनः । || प्रजा को सुखी रखना यही राजा का सनातन धर्म है ।
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| लोभः पापस्य कारणम् || (लालच) लोभ पाप का कारण है।
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| लोभः प्रज्ञानमाहन्ति । || लोभ विवेक का नाश करता है ।
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| लोभं हित्वा सुखी भलेत् । || लोभ का त्याग करने से मानवी सुखी होता है ।
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| लोभमूलानि पापानि । || सभी पाप का मूल लोभ है ।
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| लोभात् प्रमादात् विश्रम्भात् त्रिभिर्नाशो भवेन्नृणाम् । || लोभ, प्रमाद और विश्र्वास – इन तीन कारणों से मनुष्य का नाश होता है ।
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| वपुराख्याति भोजनम् । || मानव कैसा भोजन लेता है उसका ध्यान उसके शरीर पर से आता है ।
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| वरं मौनं कार्यं न च वचनमुक्तं यदनृतम् । || असत्य वचन बोलने से मौन धारण करना अच्छा है ।
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| वसुधैव कुटुंबकम || सम्पूर्ण पृथ्वी एक परिवार है।
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| वस्त्रेण किं स्यादिति नैव वाच्यम् । वस्त्रं सभायामुपकारहेतुः ॥ || अच्छे या बुरे वस्त्र से क्या फ़र्क पडता है एसा न बोलो, क्योंकि सभा में तो वस्त्र बहुत उपयोगी बनता है !
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| वाक्शल्यस्तु न निर्हर्तु शक्यो ह्रदिशयो हि सः । || दुर्वचन रुपी बाण को बाहर नहीं निकाल सकते क्यों कि वह ह्रदय में घुस गया होता है ।
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| वाक्संयमी हि सुदुसःकरतमो मतः । || वाणी पर संयम रखना अत्यंत कठिन है ।
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| वाग्भूषणं भूषणम्। || वाणी रूपी भूषण (अलड़्कार) ही सदा बना रहता है, कभी नष्ट नहीं होता।
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| वाणिज्ये वसते लक्ष्मीः । || वाणिज्य में लक्ष्मी निवास करती है ।
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| वाण्येका समलंकरोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते । || संस्कृत अर्थात् संस्कारयुक्त वाणी हि मानव को सुशोभित करती है ।
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| विद्याधनं सर्वधनप्रधानम || विद्याधन सभी धनों में श्रेष्ठ धन हैं।
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| विद्याविहीनः पशुः || विद्या से विहीन व्यक्ति पशु ही होता हैं।
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| विना गोरसं को रसो भोजनानाम् । || बिना गोरस भोजन का स्वाद कहाँ ?
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| विभूषणं मौनमपण्डितानाम् || मूर्खों का मौन रहना उनके लिए भूषण (अलड़्ंकार) है।
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| वीरभोग्या वसुन्धरा । || पृथ्वी का उपभोग वीर पुरुष हि कर सकते है ।
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| वृतं यत्नेन संरक्षेद वितमेति च याति च, अक्षीणो वित्तः क्षीणों वृत्ततस्तु हतोहतः ।। || प्रयास करके अपने आचरण की रक्षा करनी चाहिए. धन तो आता हैं एवं चला जाता है. धन चले जाने पर तो कुछ भी नष्ट नहीं होता. आचरण से हीन व्यक्ति वास्तव में मर ही जाता हैं।
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| वृध्दा न ते ये न वदन्ति धर्मम् । || जो धर्म की बात नहीं करते वे वृद्ध नहीं हैं
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| व्यवहारेण मित्राणि जायन्ते रिपवस्तथा || व्यवहार से ही मित्र और शत्रु बनते हैं।
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| शठे शाठ्यं समाचरेत्। || शठ (धूर्त) के साथ शठता करनी चाहिये।
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| शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् || ब्रह्मचारी शास्त्रोक्तविधिपूर्वक की गई पूजा को स्वीकार करके पार्वती से बोले– शरीर धर्म का मुख्य साधन है।
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| शवः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्ने चापराहिणकम || कल के कार्य को आज करे तथा शाम के कार्य को सुबह करें।
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| शीलं परं भूषणम्। || यह शील बड़ा भारी आभूषण है।
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| शीलं भूषयते कुलम् । || शील कुल को विभूषित करता है
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| शुचिर्दक्षोऽनुरक्तश्र्च भृत्यः खलु सुदुर्लभः । || इमानदार, दक्ष और अनुरागी भृत्य (सेवक) दुर्लभ होते हैं ।
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| श्रध्दा ज्ञानं ददाति । नम्रता मानं ददाति । (किन्तु) योग्यता स्थानं ददाति । || श्रद्धा ज्ञान देती है, नम्रता मान देती है और योग्यता स्थान देती है ।
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| श्रोतव्यं खलु वृध्दानामिति शास्त्रनिदर्शनम् । || वृद्धों की बात सुननी चाहिए एसा शास्त्रों का कथन है ।
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| संघे शक्तिः कलौ युगे || कलियुग में संघ में ही शक्ति हैं।
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| सत्यं बुर्यात प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यमप्रियम् || सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए. कभी भी अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए।
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| सत्यमेव जयते नानृतम || सत्य की ही जीत होती हैं, झूठ की नहीं।
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| सत्यानृतं तु वाणिज्यम् । || सच और जूठ एसे दो प्रकार के वाणिज्य हैं ।
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| सत्येन धार्यते पृथ्वी सत्येन तपते रविः, सत्येन वाति वायुश्च सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितं || सत्य से ही पृथ्वी धारण करती हैं, सत्य से ही सूर्य तपता हैं, सत्य से ही वायु बहती हैं, सब कुछ सत्य में ही प्रतिष्ठित हैं।
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| सत्संगतिः हि कथय किम न करोति पुंसाम || सत्संगति से मनुष्यों का क्या काम नहीं हो सकता।
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| सन्तः समसज्जनदुर्जनानां वचः श्रुत्वा मधुरसूक्तरसं सर्जन्ति। || सज्जन और दुर्जनों की समयवाणी को सुनकर संत व्यक्ति मधुर सूक्तियों का सृजन करते हैं।
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| संपतौ च विपतौ च महतामेकरूपता || बड़े लोग सम्पति और विपत्ति दोनों में समान रहते हैं।
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| सरस्वती श्रुति महती महीयताम् || ज्ञान-गरिष्ठ कवियों की वाणी का पूर्ण सत्कार हो।
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| सर्वस्य लोचनं शास्त्रम् । || शास्त्र सबकी आँख है ।
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| सर्वार्थसम्भवो देहः । || देह् सभी अर्थ की प्राप्र्ति का साधन है ।
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| सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ति || सारे गुण धन को आश्रित करके ही होते हैं।
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| सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद दुःखभाग्भवेत || सभी सुखी होवें, सभी निरोगी होवें तथा सभी का कल्याण हो, किसी को भी दुःख की प्राप्ति नहीं हो।
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| सर्वे मित्राणि समृध्दिकाले । || समृद्धि काल में सब मित्र बनते हैं ।
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| संसर्गजाः दोषगुणाः भवन्ति || संसर्ग से ही दोष और गुण उत्पन्न होते हैं।
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| सहसा विदधीत न क्रियाम्। || शत्रुओं के प्रति क्रोध से व्याकुल भीम को शांत करने के लिए युधिष्ठिर ने कहा– कार्य को एकाएक बिना विचार विमर्श किये नहीं प्रारम्भ करना चाहिए।
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| सहायास्तादृशा एव यादृशी भवितव्यता । || जैसी भवितव्यता हो एसे हि सहायक मिल जाते हैं
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| साक्षरा विपरीताश्र्चेत् राक्षसा एव केवलम् । || साक्षर अगर विपरीत बने तो राक्षस बनता है ।
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| साहसे श्री प्रतिवसति। || शर्विलक का कथन है? साहस में लक्ष्मी निवास करती हैं।
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| साहित्य- संगीत- कलाविहीनः, साक्षातपशुः पुच्छविषाणहीनः || साहित्य, संगीत और कला से रहित व्यक्ति, पूंछ और सींगो से हीन साक्षात पशु होता हैं।
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| स्त्रियां रोचमानायां सर्वं तद रोचते कुलम। || स्त्री की सुन्दरता ही परिवार की सुन्दरता हैं।
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| स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते || राजा अपने देश में ही पूजा जाता हैं, जबकि विद्वान् सभी जगह पूजा जाता हैं।
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| स्वभावो दुरतिक्रमः । || स्वभाव बदलना मुश्किल है ।
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| स्वस्वामिना बलवता भृत्यो भवति गर्वितः । || जिस भृत्य का स्वामी बलवान है वह भृत्य गर्विष्ट बनता है ।
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| हस्तस्य भूषणम् दानं सत्यं कण्ठस्य भूषणम्, श्रोत्रस्य भूषणम् शास्त्रं भूषणैः कि प्रयोजनम् || हाथ का आभूषण दान हैं, कंठ का आभूषण सत्य बोलना हैं तथा कानों का आभूषण शास्त्र हैं, अन्य आभूषणों से क्या?
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| हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः || हितकारी एवं मनोहारी वचन काफी दुर्लभ हैं।
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2022-08-25T02:08:24Z
अनुनाद सिंह
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wikitext
text/x-wiki
{|class='wikitable'
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! सूक्ति !! हिन्दी अर्थ
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| अतिथि देवो भव || अतिथि देव स्वरूप होता है।
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| अतिस्नेहः पापशंकी। || अत्यधिक प्रेम पाप की आशंका उत्पन्न करता है।
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| अत्यादरः शङ्कनीयः। || अत्यधिक आदर किया जाना शङ्कनीय है।
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| अनतिक्रमणीयो हि विधिः। || भाग्य का उल्लङ्घन नहीं किया जा सकता।
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| अनार्यः परदारव्यवहारः। || परस्त्री के विषय में बात करना अशिष्टता है।
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| अर्थो हि कन्या परकीय एव। || कन्या वस्तुतः पराई वस्तु है।
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| आचार परमो धर्मः। || आचार ही परम धर्म है।
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| ईशावास्यमिदं सर्वं || संपूर्ण जगत् के कण-कण में ईश्वर व्याप्त है।
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| अकारणपक्षपातिनं भवन्तं द्रष्ट्म् इच्छति में हृदयम्। || केयूरक महाश्वेता का संदेश चंद्रापीड को देते हुए कहता है कि आपके प्रति मेरा स्नेह स्वार्थ रहित है फिर भी आपसे मिलने की उत्कण्ठा हो रही है।
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| अकुलीनोअपि शास्त्रज्ञो दैवतेरपि पूज्यते (हितोपदेश) || नीच कुल वाला भी शास्त्र जानता हो तो देवताओं द्वारा भी पूजा जाता हैं।
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| अक्षरशून्यो हि अन्धो भवति (ज्ञान/विद्या पर सूक्ति) || निरक्षर (मूर्ख) अँधा होता हैं।
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| अगाधजलसंचारी रोहितः नैव गर्वितः || अगाध जल में तैरने वाली रोहू मछली घमंड नहीं करती
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| अंगारः शतधौतेन मलिंत्व न मुन्चति || कोयला सैंकड़ों बार धोने पर भी मलिनता नहीं छोड़ता।
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| अंगीकृत सुकृतिनः परिपालयन्ति || पुण्यात्मा जिस बात को स्वीकार करते है, उसे निभाते हैं।
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| अङ्गुलिप्रवेशात् बाहुप्रवेशः । || अंगुली प्रवेश होने के बाद हाथ प्रवेश किया जता है ।
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| अजा सिंहप्रसादेन वने चरति निर्भयम्. || शेर की कृपा से बकरी जंगल मे बिना भय के चरती है ।
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| अजीर्ण हि अमृतं वारि, जीर्ण वारि बलप्रदम || अजीर्ण में जल अमृत के समान होता हैं और भोजन के पचने पर बल देता हैं।
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| अजीर्णे भोजनं विषम् । || अपाचन हुआ हो तब भोजन विष समान है ।
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| अज्ञता कस्य नामेह नोपहासायजायते || मुर्खता पर किसे हंसी नहीं आती
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| अज्ञातकुलशीलस्य वासो न देयः || जिस का कुल और शील मालूम नहीं हो उसके घर नहीं टिकना चाहिए।
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| अति तृष्णा विनाशाय. || अधिक लालच नाश कराती है ।
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| अति सर्वत्र वर्जयेत् । || अति ( को करने ) से सब जगह बचना चाहिये ।
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| अतिभक्ति चोरलक्षणम्. || अति-भक्ति चोर का लक्षण है ।
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| अतीत्य हि गुणान् सर्वान् स्वभावो मूर्ध्नि वर्तते । || सब गुणों के पार जानेवाला 'स्वभाव' ही श्रेष्ठ है (अर्थात् गुण सहज हो जाना चाहिए) ।
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| अनतिक्रमणीया नियतिरिति। || नियति अतिक्रमणीय होती है अर्थात् होनी नहीं टाला जा सकता।
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| अनभ्यासे विषं शास्त्रम् || अभ्यास न करने पर शास्त्र विष के तुल्य हैं।
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| अनुपयुक्तभूषणोऽयं जनः। || दोनों सखियां शकुंतला को आभूषण धारण कराते हुए कहती हैं हम दोनों आभूषणों के उपयोग से अनभिज्ञ हैं अतः चित्रावली को देखकर आभूषण पहनाती हैं।
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| अनुलङ्घनीयः सदाचारः || सदाचार का उल्लड़्घन नहीं करना चाहिए।
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| अन्तो नास्ति पिपासायाः । || तृष्णा का अन्त नहीं है ।
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| अपसृतपाण्डुपत्रा मुञ्चन्त्यश्रूणीव लताः। || शकुन्तला के पतिगृह गमन के समय आश्रम में पशु-पक्षी और तरु तलायें भी वियोग पीड़ित हैं। लताओं से पीले पते टूट कर गिर रहे हैं मानो वे आंसू बहा रहे हैं।
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| अपुत्राणां न सन्ति लोकाशुभाः। || जिन दंपतियों को पुत्र की प्राप्ति नहीं होती है उन्हें लोक शुभ नहीं होते।
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| अपेयेषु तडागेषु बहुतरं उदकं भवति । || जिस तालाब का पानी पीने योग्य नहीं होता , उसमें बहुत जल भरा होता है ।
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| अप्रार्थितानुकूलः मन्मथः प्रकटीकरिष्यति। || बिना प्रार्थना किये ही मेरे प्रति अनुकूल हो जाने वाला कामदेव शीघ्र ही उसे प्रकट कर देगा। ऐसा कादंबरी के अनुराग के कारणों के विषय में चंद्रापीड कहता है।
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| अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः || अप्रिय किंतु परिणाम में हितकर हो ऐसी बात कहने और सुनने वाले दुर्लभ होते हैं।
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| अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः । || अप्रिय हितकर वचन बोलनेवाला और सुननेवाला दुर्लभ है
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| अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम ।। || वृद्धों की नित्य सेवा करने वाले तथा उनका अभिवादन करने वाले के आयु, विद्या, यश और बल ये चारों बढ़ते हैं।
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| अभ्यावहति कल्याणं विविधं वाक् सुभाषिता । || अच्छी तरह बोली गई वाणी अलग अलग प्रकार से मानव का कल्याण करती है ।
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| अभ्याससारिणी विद्या || विद्या अभ्यास से आती हैं।
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| अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम, उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् || यह मेरा हैं यह तुम्हारा हैं. ऐसा चिन्तन तो संकीर्ण बुद्धि वालों का हैं. उदार चरित वालों के लिए तो पूरी पृथ्वी ही परिवार की तरह हैं।
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| अयोग्यः पुरुषः नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः । || कोई भी पुरुष अयोग्य नहीं, पर उसे योग्य काम में जोडनेवाला पुरुष दुर्लभ है
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| अर्द्धो घटो घोषमुपैति नूनम् || घड़ा आधा भरा हो तो अवश्य छलकता हैं।
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| अल्पविद्या भयङ्करी || अल्पविद्या भयंकर होती है ।
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| अल्पानामपि वस्तूनां संहतिः कार्यसाधिका || छोटे लोगों का एकजुट होना भी काम साध लेता हैं।
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| अविद्याजीवनं शून्यम् || बिना विद्या के जीवन शून्य हैं।
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| अवेहि मां कामुधां प्रसन्नाम्। || नन्दिनी गाय राजा से बोली– मैं प्रसन्न हूं वरदान मांगो! मुझे केवल दूध देने वाली गाय न समझो बल्कि प्रसन्न होने पर मुझे अभिलाषाओं को पूरी करने वाली समझो।
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| अशांतस्य कुतः सुखम्। || अशांत (शांति रहित) व्यक्ति को सुख कैसे मिल सकता है?
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| असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय। || मुझे असत् से सत् की ओर ले जायें, अंधकार से प्रकार की ओर ले जायें।
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| असाधुं साधुना जयेत् || असाधु को साधुता दिखलाकर अपने वंश में करें, दुष्ट को सज्जनता से जीते
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| अस्यामहं त्वयि च सम्प्रति वीतचिन्तः। || कण्व कहते हैं– अब मैं इस वनज्योत्स्ना और तुम्हारे विषय में निश्चिन्त हो गया हूं।
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| अहिंसा परमो धर्मः || अहिंसा सबसे श्रेष्ठ धर्म हैं।
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| अहो दुरन्ता बलवद्विरोधिता । || बलवान के साथ विरोध करनेका परिणाम दुःखदायी होता है ।
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| अहो मानुषीषु पक्षपातः प्रजापतेः। || कादंबरी पत्रलेखा के सौन्दर्य को देखकर कहती है कि ब्रह्मा ने पत्रलेखा के प्रति पक्षपात किया है और उसे गन्धर्वों से भी अधिक सौन्दर्य प्रदान किया है।
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| आचारपूतं पवनः सिषेवे। || आचारों से पवित्र राजा दिलीप की सेवा में झरनों के कणों से सिञ्चित हवायें संलग्न थीं।
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| आज्ञा गुरुणामविचारणीया। || बड़ों की आज्ञा विचारणीय नहीं होती।
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| आत्मदुर्व्यवहारस्य फलं भवति दुःखदम, तस्मात् सदव्यवहर्तव्य मानवेन सुखैषीणा || अपने दुर्व्यवहार का फल भी दुखदायी होता हैं. अतः सुख प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को हमेशा अच्छा व्यवहार करना चाहिए।
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| आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् || जो अपने प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के प्रति न करें।
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| आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः || जो अपनी तरह सब प्राणियों में देखता है, वही पंडिता हैं।
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| आपदि मित्र परीक्षा । || आपत्ति में मित्र की परीक्षा होती है ।
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| आर्जवं हि कुटिलेषु न नीतिः। || कुटिल जनों के प्रति सरलता नीति नहीं होती।
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| आलस्यं हि मनुष्याणा शरीरस्थो महान रिपुः || शरीर में स्थित आलस्य ही मनुष्यों का सबसे बड़ा शत्रु हैं।
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| आलाने गृह्यते हस्ती वाजी वल्गासु गृह्यते। हृदये गृह्यते नारी यदीदं नास्ति गम्यताम्।। || हाथी खंभे से रोका जाता है। घोड़ा लगाम से रोका जाता है, स्त्री हृदय से प्रेम करने से ही वश में की जाती है यदि ऐसा नहीं है तो सीधे अपनी राह नापिये।
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| आहारो हि मनुष्याणां जन्मना सह जायते || आहार मनुष्यों के जन्म के साथ ही पैदा हो जाता हैं।
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| उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत || हे मनुष्य! उठो, जागो और श्रेष्ठ महापुरुषों को पाकर उनके द्वारा परब्रह्म परमेश्वर को जान लो।
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| उत्सवप्रियाः खलुः मनुष्याः || मनुष्य उत्सव प्रिय होते हैं।
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| उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः, न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः || काम करने से ही कार्यों की सिद्धि होती हैं। केवल मनोरथ से नहीं, सोते हुए सिंह के मुख में कोई मृग प्रवेश नहीं करता है।
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| ऋद्धं हि राज्यं पदमैन्द्रमाहुः। || समृद्धशाली राज्य इंद्र के पद स्वर्ग के समान होता है।
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| एको रसः करुण एव निमित्तभेदात्। || एक करुण रस ही कारण भेद से भिन्न होकर अलग-अलग परिणामों को प्राप्त होता है।
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| एको हि दोषों गुणसन्निपाते निमज्जतीदोः किरणेष्विवाकः || गुणों के समूह में एक दोष उसी प्रकार छिप जाता है जैसे चन्द्रमा की किरणों में उसका कलंक
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| ओदकान्तं स्निग्धो जनोऽनुगन्तव्यः। || शार्ड़्गरव कहता है– भगवन्! प्रिय व्यक्ति का जल के किनारे तक अनुगमन करना चाहिए, ऐसी श्रुति है।
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| कः कं शक्तो रक्षितुं मृत्युकाले। || मृत्यु समीप आ जाने पर कौन किसकी रक्षा कर सकता है।
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| कदन्नता चोष्णतया विराजते । ||
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| कर्मणो गहना गतिः || काम की गति कठिन हैं।
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| कलौ वेदान्तिनो भांति फाल्गुने बालकाः इव || फाल्गुन में बालको के समान कलि युग में वेदांती सुशोभित होते हैं।
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| कष्टाद्पि कष्टतरं परगृहवासः परानं च || कष्ट से भी बड़ा कष्ट दुसरे के घर में निवास करने एवं दूसरे का अन्न खाना हैं।
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| कायः कस्य न वल्लभः । || अपना शरीर किसको प्रिय नहीं है ?
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| कालस्य कुटिला गतिः || काल की गति टेडी होती हैं।
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| काले खलु समारब्धाः फलं बध्नन्ति नीतयः। || समय पर आरंभ की गयी नीतियां सफल होती हैं।
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| कालो न यातो वयमेव याताः (समय पर सूक्ति) || समय नहीं बीता, हम ही बीत गये
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| काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम, व्यसनेन च मूर्खाणा निद्रया कलहेन वा || बुद्धिमान लोगों का समय काव्यशास्त्र की बातों में गुजरता हैं. जबकि मुर्ख व्यक्तियों का समय व्यसन, निद्रा या कलह में गुजरता हैं।
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| किं करिष्यन्ति वक्तारो श्रोता यत्र न बुध्द्यते । || जहाँ श्रोता समजदार नहीं है वहाँ वक्ता (भाषण देकर) भी क्या करेगा ?
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| किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् || सुन्दर आकृतियों के लिए क्या वस्तु अलंकार नहीं होती है।
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| कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति || कुपुत्र हो सकता हैं, लेकिन कुमाता कहीं पर भी नहीं होती
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| कुभोज्येन दिनं नष्टम् । || बुरे भोजन से पूरा दिन बिगडता है ।
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| कुरूपता शीलयुता विराजते । || कुरुप व्यक्ति भी शीलवान हो तो शोभारुप बनती है
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| कुलं शीलेन रक्ष्यते । || शील से कुल की रक्षा होती है
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| कुवस्त्रता शुभ्रतया विराजते । || खराब वस्त्र भी स्वच्छ हो तो अच्छा दिखता है ।
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| को नामोष्णोदकेन नवमालिकां सिञ्चति। || प्रियंवदा कहती है नवमालिका को गर्म जल से कौन सींचना चाहेगा।
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| कोअतिभारः समर्थानाम || समर्थ जनों के लिए क्या अधिक भार हैं।
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| क्रोधः पापस्य कारणम् || क्रोध पाप का कारण होता हैं।
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| क्रोधो हि शत्रुः प्रथमो नराणाम || मनुष्यों का प्रथम शत्रु क्रोध ही हैं।
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| क्लिश्यन्ते लोभमोहिताः । || लोभ की वजह से मोहित हुए हैं वे दुःखी होते हैं ।
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| क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः। || जो प्रत्येक क्षण नवीनता को धारण करता है वही रमणीयता का स्वरूप है।
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| क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः। || महर्षि वशिष्ठ के प्रभाव से मेरे ऊपर यमराज भी आक्रमण करने में समर्थ नहीं है तो सांसारिक हिंसक पशुओं का तो कहना ही क्या?
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| क्षमा तुल्यं तपो नास्ति || क्षमा के बराबर तप नहीं हैं।
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| क्षारं पिबति पयोधेर्वर्षत्यम्भोधरो मधुरम्बुः || बादल समुद्र का खारा पानी पीते हैं पर मीठा पानी बरसाते हैं।
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| क्षीणा नरा निष्करुणा भवन्ति || कमजोर व्यक्ति ही दयाहीन होते हैं।
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| गतानुगतिको लोको न लोकः पारमार्थिकः || लोग अंधपरम्परा पर चलने वाले होते हैं असलियत पर नहीं जाते
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| गतेअपि वयसे ग्राहा विद्या सर्वात्मना बुधैः || बूढा हो जाने पर भी विद्या सब भांति उपार्जना करता रहे।
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| गरीयषी गुरोः आज्ञा। || गुरुजनों (बड़ों) की आज्ञा महान् होती है अतः प्रत्येक मनुष्य को उसका पालन करना चाहिए।
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| गुणः खलु अनुरागस्य कारणं , न बलात्कारः । || केवल गुण ही प्रेम होने का कारण है , बल प्रयोग नहीं
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| गुणवते कन्यका प्रतिपादनीया। || गुणवान् (सुयोग्य) व्यक्ति को कन्या देनी चाहिए। यह माता-पिता का मुख्य विचार होता है।
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| गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति। || गुणों को जानने वालों के लिए ही गुण गुण होते हैं।
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| गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिंग न च वयः || गुणियों में गुण ही पूजा का कारण है न कि लिंग या आयु
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| गुणा सर्वत्र पूज्यते। || गुणों की सभी जगह पूजा होती हैं।
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| गुणेष्वेव हि कर्तव्यं प्रयत्नः पुरुषैः सदा || मनुष्य को हमेशा गुणों में ही प्रयत्न करना चाहिए।
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| गुरुणामेव सर्वेषां माता गुरुतरा स्मृता । || सब गुरु में माता को सर्वश्रेष्ठ गुरु माना गया है
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| गुर्वपि विरह दुःखमाशाबन्धः साहयति। || अनसूया शकुन्तला से कहती है– आशा का बन्धन विरह के कठोर दुःख को भी सहन करा देता है।
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| चक्रवत परिवर्तन्ते दुखानि च सुखानि च || सुख और दुःख चक्र के समान परिवर्तनशील हैं।
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| चक्रारपंक्तिरिव गच्छति भाग्यपंक्तिः । || चक्र के आरे की तरह भाग्यकी पंक्ति उपर-नीचे हो सकती है
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| चराति चरतो भगः । || चलेनेवाले का भाग्य चलता है ।
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| चारित्र्येण विहीन आढ्योपि च दुगर्तो भवति। || चरित्रहीन धनवान् भी दुर्दशा को प्राप्त होता है।
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| चित्रार्पितारम्भ इवावतस्थे। || चित्र में लिखे हुए बाण निकालने के उद्योग में लगे हुए की भांति हो गया।
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| चौराणामनृतं बलम || चौरों के लिए झूठ ही बल हैं।
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| चौरे गते न किंमु सावधानम? || चोर जब चोरी कर चले गये तो फिर सावधानी से क्या?
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| छायेव तां भूपतिरन्वगच्छत्। || राजा दिलीप ने नन्दिनी को छाया की भांति अनुसरण किया।
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| छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्। || छाया के समान दुर्जनों और सज्जनों की मित्रता होती है।
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| छिद्रेष्वनर्थाः बहुली भवन्ति || छेदों में अनेक अनर्थ होते हैं।
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| जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसि || माता और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं।
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| जपतो नास्ति पातकम || जप करते हुए को पाप नहीं लगता।
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| जमाता दसवां ग्रहः || दामाद दसवां ग्रह हैं।
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| जातस्य हि धुर्वो मृत्युः || जो पैदा हुआ हैं अवश्य मरेगा।
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| जिता सभा वस्त्रवता । || अच्छे वस्त्र पहननेवाले सभा जित लेते हैं (उन्हें सभा में मानपूर्वक बिठाया जाता है) ।
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| जीवेम शरदः शतम्। || हम सौ वर्ष तक देखने वाले और जीवित रहने वाले हों।
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| जीवो जीवस्य भोजनम् || जीव, जीव का भोजन हैं।
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| ज्ञानं भारः क्रियां विना || क्रिया के बिना ज्ञान भारस्वरूप हैं।
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| ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समानाः || ज्ञान से रहित पशुओं के समान हैं।
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| तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते श्रुतेन शीलेन कुलेन कर्मणा || आदमी चार बातों से परखा जाता हैं विद्या, शील, कुल और काम से
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| तद् रूपं यत्र गुणाः । || जिस रुप में गुण है वही उत्तम रुप है ।
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| तमसो मा ज्योतिर्गमय। || अंधकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमृत की ओर ले जायें।
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| तस्करस्य कुतो धर्मः || चोर का धर्म क्या?
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| तस्मात् प्रियं हि वक्तव्यं वचने का दरिद्रता || हमेशा प्रिय ही बोलना चाहिए, बोलने में किस बात की गरीबी
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| तीर्थोदकंक च वह्निश्च नान्यतः शुद्धिमर्हतः। || तीर्थ जल और अग्नि से अन्य पदार्थ से शुद्धि के योग्य नहीं होते हैं।
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| तृणाल्लघुतरं तूलं तूलादपि च याचकः । || तिन्के से रुई हलका है, और याचक रुई से भी हलका है ।
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| तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः || तृष्णा बूढी नहीं होती, हम ही बूढ़े होते हैं।
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| तेजसां हि न वयः समीक्ष्यते। || तेजस्वी पुरुषों की आयु नहीं देखी जाती है।
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| त्यजेत क्रोधमुखी भार्याम || क्रोधी पत्नी का त्याग करना चाहिए।
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| त्रयः उपस्तम्भाः । आहारः स्वप्नो ब्रह्मचर्यं च सति । || शरीररुपी मकान को धारण करनेवाले तीन स्तंभ हैं; आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य (गृहस्थाश्रम में सम्यक् कामभोग) ।
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| दंतभंगो हि नागानां श्लाघ्यो गिरिविदारणे || पहाड़ के तोड़ने में हाथी के दांत का टूट जाना भी तारीफ़ की बात हैं।
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| दरिद्रता धीरतया विराज्रते || दरिद्रता धीरता से शोभित होती हैं।
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| दिनक्षपामध्यगतेव संध्या। || वह नन्दिनी दिन और रात्रि के मध्य संध्या के समान सुशोभित हुई।
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| दीर्घसूत्री विनश्यति। || प्रत्येक कार्य में अनावश्यक विलंब करने वाला नष्ट होता है।
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| दुःखं न्यासस्य रक्षणम्। || किसी के न्यास अर्थात् धरोहर की रक्षा करना दुःखपूर्ण (दुष्कर) है।
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| दुःखशीले तपस्विजने कोsभ्यर्थ्यताम्? || कष्ट सहन करने वाले तपस्वियों में से किससे प्रार्थना करें।
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| दुर्बलस्य बलं राजा || दुर्बल का बल राजा होता हैं।
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| दुष्टजनं दूरतः प्रणमेत || दुष्ट आदमी को दूर से ही प्रणाम करना चाहिए।
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| दैवमविद्वांसः प्रमाणयन्ति। || मूर्ख व्यक्ति भाग्य को ही प्रमाण मानते हैं।
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| दैवस्य विचित्रा गतिः || भाग की गति विचित्र हैं।
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| द्वितीयाद्वै भयं भवति । || दूसरा हो वहाँ भय उत्पन्न होता है ।
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| धनधान्यप्रयोगेषु विद्यायाः संग्रहेषु च, आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत् || धन धान्य के प्रयोग में विद्या के संग्रह में भोजन में तथा व्यवहार में लज्जा से दूर रहने वाला व्यक्ति हमेशा सुखी रहता हैं।
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| धर्मो रक्षति रक्षितः || बचाया हुआ धर्म ही रक्षा करता हैं।
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| धिक् कलत्रम अपुत्रकम || ऐसी भार्या किस काम की जो बाँझ हो।
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| धूमाकुलितदृष्टेरपि यजमानस्य पावके एवाहुतिः पपिता। || सौभाग्य से धुएं से व्याकुल दृष्टि वाले यजमान की भी आहुति ठीक अग्नि में ही पड़ी।
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| धैर्यधना हि साधवः। || सज्जन लोगों का धैर्य ही धन होता है।
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| न कूपखननं युक्तं प्रदीप्ते वाहीना गृहे || घर में जब आग लग गई तब कुआ खोदना कैसा?
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| न खलु धीमतां कश्चिद्विषयों नाम। || शार्ड़्गरव कहता है– विद्वानों के लिए वस्तुतः कोई चीज अज्ञात नहीं होती है।
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| न खलु वयः तेजसो हेतुः । || वय तेजस्विता का कारण नहीं है ।
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| न च ज्ञानात परं चक्षुः || ज्ञान से बढ़कर कोई नेत्र नहीं हैं।
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| न च धर्मों दयापर || दया से बढ़कर धर्म नहीं।
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| न च विद्यासमो बन्धुः || विद्या के समान बन्धु नहीं।
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| न ज्ञानेन विना मोक्षं || ज्ञान के बिना मोक्ष नहीं
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| न तेनवृध्दो भवति येनाऽस्य पलितं शिरः । || बाल श्वेत होने से हि मानव वृद्ध नहीं कहलाता ।
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| न धर्मवृद्धेषु वयः समीक्ष्यते। || कम उम्र वाले व्यक्ति भी तप के कारण आदरणीय होते हैं।
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| न धर्मात परं मित्रम् || धर्म के समान मित्र नहीं
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| न निश्चितार्थद विरमन्ति धीराः || धैर्यशील व्यक्ति अपने प्रयोजन से दूर नहीं होते
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| न बन्धुमध्ये धनहीनजीवनम् । || बन्धुओं के बीच धनहीन जीवन अच्छा नहीं ।
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| न भूतो न भविष्यति || न हुआ न होगा।
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| न मातुः परदैवतम् । || माँ से बढकर कोई देव नहीं है
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| न रत्नमन्विष्यति मृगयते हि तत् || रत्न ढूंढता नहीं खोजा जाता हैं।
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| न राज्यं न च राजासीत् , न दण्डो न च दाण्डिकः । स्वयमेव प्रजाः सर्वा , रक्षन्ति स्म परस्परम् ॥ || न राज्य था और ना राजा था , न दण्ड था और न दण्ड देने वाला । स्वयं सारी प्रजा ही एक-दूसरे की रक्षा करती थी ॥
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| न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य। || मनुष्य कभी धन से तृत्प नहीं हो सकता।
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| न स क्रोधसमो रिपुः || क्रोध के समान शत्रु नहीं हैं।
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| न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः || वह सभी नहीं जहाँ वृद्धजन न हो
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| न हि ज्ञानेन सद्रश पवित्रमिह वर्तते || इस संसार में ज्ञान से ज्यादा पवित्र कुछ नहीं हैं।
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| न हि प्रियं प्रवक्तुमिच्छन्ति मृषा हितैषिणः। || कल्याण चाहने वाले लोग झूठा प्रिय वचन बोलने की इच्छा नहीं करते हैं।
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| न हि सत्यात् परो धर्मः || सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं हैं।
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| न हि सर्वः सर्वं जानाति। || सभी लोग सब कुछ नहीं जानते हैं।
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| नमन्ति फलिनो वृक्षाः नमन्ति गुणिनोंः जनाः, शुष्कवृक्षाश्च मुर्खाश्च न नमन्ति कदाचन । || फलों वाले वृक्ष ही झुकते हैं तथा गुणों से युक्त व्यक्ति ही झुकते हैं, सूखे पेड़ और मुर्ख व्यक्ति कभी नहीं झुकते।
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| नराणाम नापितो धूर्तः || मनुष्यों में नाई धूर्त होता हैं।
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| नहि दुष्करमस्तीहं किंचिदध्यवसार्यिनाम || प्रयत्न करने वाले के लिए कोई बात दुष्कर नहीं हैं।
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| नास्ति भार्यासमो बन्धु नास्ति भार्यासमा गतिः । || भार्या समान कोई बन्धु नहीं है, भार्या समान कोई गति नहीं है ।
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| नास्ति मातृसमो गुरु। || भीष्म कहते हैं– माता के समान कोई गुरु नहीं।
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| नास्ति विद्या समं चक्षु। || संसार में ब्रह्मविद्या के समान कोई नेत्र नहीं है।
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| नास्तिको धर्मनिंदकः || धर्म की निंदा करने वाला नास्तिक होता हैं।
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| नास्तिको वेदनिंदक || वेदों की निंदा करने वाला नास्तिक हैं।
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| निर्धनता प्रकारमपरं षष्टं महापातकम् । || गरीबी दूसरे प्रकार से छठा महापातक है ।
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| नीचैर्गच्छतयुपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण || मनुष्य के जीवन की दशा वैसी ही ऊँची नीची हुआ करती है जैसा रथ का पहिया कभी ऊँचा कभी नीचा होता रहता हैं।
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| नूनं सुभाषितरसोऽन्यरसातिशायी । || सचमुच ! सुभाषित रस बाकी सब रस से बढकर है ।
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| पदं हि सर्वत्र गुणैर्निधीयते। || गुण ही सर्वत्र शत्रु-मित्रादिकों में पैर को स्थापित करते हैं।
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| पयः पानं भुजंगाना केवलं विषवर्धनम || सापों को दूध पिलाना, जहर बढ़ाना ही हैं।
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| पयोधरीभूत चतुःसमुद्रां, जुगोप गोरूपधरामिवोर्वीम्। || राजा दिलीप ने समुद्र के समान चार थनों वाली नन्दिनी गाय की रक्षा इस प्रकार की जैसे चार थनों के समान चार समुद्रों वाली पृथ्वी ही गाय के रूप में हो।
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| परदुः खेनापि दुखिताः विरलाः || जो दूसरे के दुःख से दुखी होते है ऐसे विरले ही होते हैं।
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| पराभवोsप्युत्सव एव मानिनाम्। || मनस्वी पुरुषों के लिए पराभव भी उत्सव के ही समान है।
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| परित्यक्तः कुलकन्यकानां क्रमः। || कादंबरी चंद्रापीड को अपना हृदय समर्पित करके कहती है– कुल कन्याओं की परम्परा रही है कि गुरुजनों की सहमति से ही वे योग्य वर का चुनाव करती हैं। मैंने यह परम्परा तोड़ दी है। यह लज्जा का विषय है।
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| परोपकारः पुण्याय पापाय परपीड़नम || परोपकार पुण्य तथा परपीड़न पाप देने वाला होता हैं।
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| परोपकाराय सतां विभूतयः। || सज्जनों की विभूति (ऐश्वर्य) परोपकार के लिए है।
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| परोपकारार्थमिदं शरीरम || यह शरीर दूसरे के उपकार के लिए हैं।
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| पात्रत्वात धनमाप्नोति || योग्यता से ही धन की प्राप्ति होती हैं।
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| पिण्डेष्वनास्था खलु भौतिकेषु। || विवेकी लोगों की आस्था नष्ट होने वाले इन भौतिक शरीरों से नहीं है, बल्कि यश रूपी शरीर की रक्षा करने में है।
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| पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्वदेवताः । || पिता प्रसन्न हो तो सब देव प्रसन्न होते हैं
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| पितु र्हि वचनं कुर्वन् न कश्र्चिन्नाम हीयते । || पिता के वचन का पालन करनेवाला दीन-हीन नहीं होता ।
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| पुण्येः यशो लभते || पुण्यों से ही यश की प्राप्ति होती हैं।
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| पुत्रोत्सवे माद्यति को न हर्षात || पुत्र के जन्मोत्सव में कौन आनन्द में मतवाला नहीं होता।
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| पुराणमित्येव न साधु सर्वम || कोई बात पुरानी मात्र होने से सही नहीं होती
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| पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् । || इस पृथ्वी पर तीन रत्न हैं; जल, अन्न और सुभाषित ।
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| प्रतिबदध्नाति हि श्रेयः पूज्यपूजाव्यतिक्रमः। || वसिष्ठ कहते हैं– पूजनीय की पूजा का उल्लड़्घन कल्याण को रोकता है।
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| प्रतिभातश्च पश्यन्ति सर्वं प्रज्ञावंतः धिया || बुद्धिमान अपनी सूक्ष्मबुद्धि के बल से सब बाते देख लेते हैं।
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| प्रमाणम परमं श्रुतिः || वेद सबसे बढकर प्रमाण हैं।
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| प्रयोजनमनुद्रिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते । || मूढ मानव भी बिना प्रयोजन कोई काम नहीं करता ।
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| प्रसादचिह्नानि पुरःफलानि। || पहले प्रसन्नतासूचक चिन्ह दिखाई पड़ते हैं तदन्तर फल की प्राप्ति होती है।
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| प्राणव्ययेनापि कृतोपकाराः खलाः परं वैरमिवोद्वहन्ति || खल के साथ कितना भी उपकार करो यहाँ तक कि उसके लिए अपना प्राण तक दे डालो तब भी वैर ही करेगा।
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| प्राणेभ्योपि हि वीराणां प्रिया शत्रुप्रतिक्रिया || वीरों को प्रण से अधिक प्यार शत्रु से बदला चुकाना हैं।
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| प्राणैरुपक्रोशमलीमसैर्वा। || राजा दिलीप को जब लगा कि नन्दिनी को सिंह से नहीं छुड़ा पायेंगे तो उन्होंने कहा-तब तो मेरा क्षत्रियत्व ही नष्ट हो जायेगा क्योंकि क्षत्रियत्व से विपरीत वृत्ति वाले व्यक्ति का राज्य से या निन्दा युक्त मलिन प्राणों से क्या लाभ?
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| प्राप्तकालो न जीवति || जिसका समय आ पंहुचा है वह नहीं जीता
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| प्राप्ते तु षोडशे वर्षे गर्द्भ्यूप्यप्सरायते || 16 वर्ष के होने पर तो गधी भी अपने आप को अप्सरा समझती हैं।
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| प्रायो गच्छति यत्र भाग्यरहितस्तत्रैव यान्त्यापदः || बहुधा भाग्यहीन जहाँ आते हैं, विपत्तियाँ भी वहां आ जाती हैं।
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| प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः। || नीचे लोग विघ्नों के भय से कार्य प्रारंभ ही नहीं करते।
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| प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता || प्रिय व्यक्ति को सुंदर लगना सौभाग्य का फल हैं।
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| फलं भाग्यानुसारतः || फल भाग्य के अनुसार मिलता हैं।
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| बलं मूर्खस्य मौनत्वम || चुप रहना मुर्ख के लिए बल हैं।
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| बलवता सह को विरोधः। || बलशाली के साथा क्या विरोध?
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| बलवती हि भवितव्यता। || होनहार बलवान् है, जो होना है वह होकर ही रहता है उसे टाला नहीं जा सकता।
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| बलवन्तो हि अनियमाः नियमा दुर्बलीयसाम् । || बलवान को कोई नियम नहीं होते, नियम तो दुर्बल को होते हैं ।
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| बलवान् जननीस्नेहः। || माता का स्नेह बलवान् होता है।
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| बहुभाषिणः न श्रद्दधाति लोकः। || अधिक बोलने वाले पर लोग श्रद्धा नहीं रखते।
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| बहुरत्ना वसुंधरा || यह पृथ्वी अनेक रत्नों से युक्त हैं।
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| बह्वाश्र्चर्या हि मेदनी । || पृथ्वी अनेक आश्र्चर्यों से भरी हुई है ।
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| बुद्धिः कर्मानुसारिणी || बुद्धि कर्म के अनुसार होती हैं जैसा कर्म करोगे वैसी ही बुद्धि होगी।
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| बुद्धिर्यस्य बलं तस्य, निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम || जिसके पास बुद्धि हैं, उसके के पास बल हैं. बुद्धिहीन के लिए तो कोई बल नहीं।
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| बुभुक्षितः किम न करोति पापम || भूखा मरता हुआ कौन सा पाप नहीं करता
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| भये सर्वे हि बिभ्यति । || भय का कारण उपस्थिति हो तब सब भयभीत होते हैं ।
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| भवितव्यता बलवती || होनहार बलवान हैं।
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| भाग्यं फ़लति सर्वत्र न विद्या न च पौरुषम् । || भाग्य हि फ़ल देता है, विद्या या पौरुष नहीं ।
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| भार्या दैवकृतः सखा । || भार्या दैव से किया हुआ साथी है ।
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| भार्या मित्रं गृहेषु च । || गृहस्थ के लिए उसकी पत्नी उसका मित्र है ।
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| भिन्नरूचि र्हि लोकः । || मानव अलग अलग रूचि के होते हैं ।
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| भुजंग एव जानाति भुजंग चरणौ सखे || सांप के पाँव को सांप ही जानता हैं।
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| भोगीव मन्त्रोषधिरुद्धवीर्यः || हाथ के रुक जाने से बढ़े हुए क्रोध वाले, राजा दिलीप, मंत्र और औषधि से बांध दिया गया है पराक्रम जिसका, ऐसे सांप की भांति समीप में (स्थित) अपराधी को नहीं स्पर्श करते हुए अपने तेज से भीतर जलने लगे।
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| भोजनस्यादरो रसः । || भोजन का रस “आदर है ।
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| मद्यपाः किं न जल्पन्ति || शराबी क्या नहीं बकते
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| मधुरापि हि मुर्छ्यते विषवृक्षसमाश्रिता वल्ली || विष के पेड़ पर चढ़ी लता भी मूर्छित करने वाली हो जाती हैं।
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| मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । || मन हि मानव के बंधन और मोक्ष का कारण है ।
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| मनः शीघ्रतरं बातात् । || मन वायु से भी अधिक गतिशील है
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| मनसि व्याकुले चक्षुः पश्यन्नपि न पश्यति । || मन व्याकुल हो तब आँख देखने के बावजूद देख नहीं सकती ।
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| मनस्वी कार्यार्थी न गण्यति दुःख न सुखम || मनस्वी और जो अपना काम साधना चाहते है वे दुःख सुख को कुछ नहीं गिनते
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| मनोअनुवृत्ति प्रभोः कुर्यात् || मालिक के मन के अनुसार चले
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| महाजनो येन गतः स पन्थाः || जिस मार्ग से बड़े लोग चले, वो ही अच्छा मार्ग हैं।
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| महीयांसः प्रकृत्या मितभाषिणः । || बडे लोग स्वभाव से हि मितभाषी होते हैं ।
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| मा कश्चिद् दुख भागभवेत || कोई दुःखी न हो।
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| मा गृधः कस्यस्विद्धनम् || किसी के भी धन का लोभ मत करो।
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| मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत्। || माता पिता की भली प्रकार से सेवा करनी चाहिये।
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| मित्रेण कलहं कृत्वा न कदापि सुखी जनः || मित्र के साथ कलह करके कोई व्यक्ति कभी भी सुखी नहीं हो सकता।
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| मूर्खों हि शोभते तावद् यावत् किंचिन्न भाषते || मूर्ख तभी तक सुशोभित होता है, जब तक कि वह कुछ नहीं बोलता
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| मृजया रक्ष्यते रूपम् । || स्वच्छता से रूप की रक्षा होती है
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| मौनं सम्मतिलक्षणम् । || मौन सम्मति का लक्षण है ।
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| मौनं सर्वार्थसाधनम् । || मौन यह सर्व कार्य का साधक है ।
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| मौनिनः कलहो नास्ति । || मौनी मानव का किसी से भी कलह नहीं होता ।
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| यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः || जहाँ नारियो की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं।
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| यदभावि न तदभावी भावि चेन्न तदन्यथा । || जो नहीं होना है वो नहीं होगा, जो होना है उसे कोई टाल नहीं सकता
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| यद् धात्रा लिखितं ललाटफ़लके तन्मार्जितुं कः क्षमः । || विधाता ने जो ललाट पर लिखा है उसे कौन मिथ्या कर सकता है ?
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| यशोधनानां हि यशो गरीयः । || यशरूपी धनवाले को यश हि सबसे महान वस्तु है ।
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| यशोवधः प्राणवधात् गरीयान् । || यशोवध प्राणवध से भी बडा है ।
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| याचको याचकं दृष्टा श्र्वानवद् घुर्घुरायते । || याचक को देखकर याचक, कुत्ते की तरह घुर्राता है ।
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| युक्तियुक्तमुपादेयं वचनं बालकादपि । || युक्तियुक्त वचन बालक के पास से भी ग्रहण करना चाहिए ।
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| योगः कर्मसु कौशलम् || समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात् कर्मबंधन से छूटने का उपाय है।
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| रत्नं रत्नेन संगच्छते । || रत्न , रत्न के साथ जाता है
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| राजा कालस्य कारणम् । || राजा काल का कारण है ।
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| रिक्तः सर्वों भवति हि लघुः पूर्णता गौरवाय || रिक्त व्यक्ति लघु होता हैं, पूर्णता गौरव के लिए होती हैं।
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| रूपेण किं गुणपराक्रमवर्जितेन । || जिस रूप में गुण या पराक्रम न हो उस रूप का क्या उपयोग ?
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| लुब्धस्य प्रणश्यति यशः || लोभी की कीर्ति नष्ट हो जाती हैं।
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| लुब्धानां याचको रिपुः । || लोभी मानव को याचक शत्रु जैसा लगता है ।
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| लोकरझ्जनमेवात्र राज्ञां धर्मः सनातनः । || प्रजा को सुखी रखना यही राजा का सनातन धर्म है ।
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| लोभः पापस्य कारणम् || (लालच) लोभ पाप का कारण है।
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| लोभः प्रज्ञानमाहन्ति । || लोभ विवेक का नाश करता है ।
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| लोभं हित्वा सुखी भलेत् । || लोभ का त्याग करने से मानवी सुखी होता है ।
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| लोभमूलानि पापानि । || सभी पाप का मूल लोभ है ।
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| लोभात् प्रमादात् विश्रम्भात् त्रिभिर्नाशो भवेन्नृणाम् । || लोभ, प्रमाद और विश्र्वास – इन तीन कारणों से मनुष्य का नाश होता है ।
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| वपुराख्याति भोजनम् । || मानव कैसा भोजन लेता है उसका ध्यान उसके शरीर पर से आता है ।
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| वरं मौनं कार्यं न च वचनमुक्तं यदनृतम् । || असत्य वचन बोलने से मौन धारण करना अच्छा है ।
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| वसुधैव कुटुंबकम || सम्पूर्ण पृथ्वी एक परिवार है।
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| वस्त्रेण किं स्यादिति नैव वाच्यम् । वस्त्रं सभायामुपकारहेतुः ॥ || अच्छे या बुरे वस्त्र से क्या फ़र्क पडता है एसा न बोलो, क्योंकि सभा में तो वस्त्र बहुत उपयोगी बनता है !
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| वाक्शल्यस्तु न निर्हर्तु शक्यो ह्रदिशयो हि सः । || दुर्वचन रुपी बाण को बाहर नहीं निकाल सकते क्यों कि वह ह्रदय में घुस गया होता है ।
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| वाक्संयमी हि सुदुसःकरतमो मतः । || वाणी पर संयम रखना अत्यंत कठिन है ।
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| वाग्भूषणं भूषणम्। || वाणी रूपी भूषण (अलड़्कार) ही सदा बना रहता है, कभी नष्ट नहीं होता।
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| वाणिज्ये वसते लक्ष्मीः । || वाणिज्य में लक्ष्मी निवास करती है ।
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| वाण्येका समलंकरोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते । || संस्कृत अर्थात् संस्कारयुक्त वाणी हि मानव को सुशोभित करती है ।
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| विद्याधनं सर्वधनप्रधानम || विद्याधन सभी धनों में श्रेष्ठ धन हैं।
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| विद्याविहीनः पशुः || विद्या से विहीन व्यक्ति पशु ही होता हैं।
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| विना गोरसं को रसो भोजनानाम् । || बिना गोरस भोजन का स्वाद कहाँ ?
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| विभूषणं मौनमपण्डितानाम् || मूर्खों का मौन रहना उनके लिए भूषण (अलड़्ंकार) है।
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| वीरभोग्या वसुन्धरा । || पृथ्वी का उपभोग वीर पुरुष हि कर सकते है ।
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| वृतं यत्नेन संरक्षेद वितमेति च याति च, अक्षीणो वित्तः क्षीणों वृत्ततस्तु हतोहतः ।। || प्रयास करके अपने आचरण की रक्षा करनी चाहिए. धन तो आता हैं एवं चला जाता है. धन चले जाने पर तो कुछ भी नष्ट नहीं होता. आचरण से हीन व्यक्ति वास्तव में मर ही जाता हैं।
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| वृध्दा न ते ये न वदन्ति धर्मम् । || जो धर्म की बात नहीं करते वे वृद्ध नहीं हैं
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| व्यवहारेण मित्राणि जायन्ते रिपवस्तथा || व्यवहार से ही मित्र और शत्रु बनते हैं।
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| शठे शाठ्यं समाचरेत्। || शठ (धूर्त) के साथ शठता करनी चाहिये।
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| शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् || ब्रह्मचारी शास्त्रोक्तविधिपूर्वक की गई पूजा को स्वीकार करके पार्वती से बोले– शरीर धर्म का मुख्य साधन है।
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| शवः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्ने चापराहिणकम || कल के कार्य को आज करे तथा शाम के कार्य को सुबह करें।
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| शीलं परं भूषणम्। || यह शील बड़ा भारी आभूषण है।
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| शीलं भूषयते कुलम् । || शील कुल को विभूषित करता है
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| शुचिर्दक्षोऽनुरक्तश्र्च भृत्यः खलु सुदुर्लभः । || इमानदार, दक्ष और अनुरागी भृत्य (सेवक) दुर्लभ होते हैं ।
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| श्रध्दा ज्ञानं ददाति । नम्रता मानं ददाति । (किन्तु) योग्यता स्थानं ददाति । || श्रद्धा ज्ञान देती है, नम्रता मान देती है और योग्यता स्थान देती है ।
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| श्रोतव्यं खलु वृध्दानामिति शास्त्रनिदर्शनम् । || वृद्धों की बात सुननी चाहिए एसा शास्त्रों का कथन है ।
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| संघे शक्तिः कलौ युगे || कलियुग में संघ में ही शक्ति हैं।
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| सत्यं बुर्यात प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यमप्रियम् || सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए. कभी भी अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए।
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| सत्यमेव जयते नानृतम || सत्य की ही जीत होती हैं, झूठ की नहीं।
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| सत्यानृतं तु वाणिज्यम् । || सच और जूठ एसे दो प्रकार के वाणिज्य हैं ।
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| सत्येन धार्यते पृथ्वी सत्येन तपते रविः, सत्येन वाति वायुश्च सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितं || सत्य से ही पृथ्वी धारण करती हैं, सत्य से ही सूर्य तपता हैं, सत्य से ही वायु बहती हैं, सब कुछ सत्य में ही प्रतिष्ठित हैं।
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| सत्संगतिः हि कथय किम न करोति पुंसाम || सत्संगति से मनुष्यों का क्या काम नहीं हो सकता।
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| सन्तः समसज्जनदुर्जनानां वचः श्रुत्वा मधुरसूक्तरसं सर्जन्ति। || सज्जन और दुर्जनों की समयवाणी को सुनकर संत व्यक्ति मधुर सूक्तियों का सृजन करते हैं।
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| संपतौ च विपतौ च महतामेकरूपता || बड़े लोग सम्पति और विपत्ति दोनों में समान रहते हैं।
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| सरस्वती श्रुति महती महीयताम् || ज्ञान-गरिष्ठ कवियों की वाणी का पूर्ण सत्कार हो।
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| सर्वस्य लोचनं शास्त्रम् । || शास्त्र सबकी आँख है ।
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| सर्वार्थसम्भवो देहः । || देह् सभी अर्थ की प्राप्र्ति का साधन है ।
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| सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ति || सारे गुण धन को आश्रित करके ही होते हैं।
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| सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद दुःखभाग्भवेत || सभी सुखी होवें, सभी निरोगी होवें तथा सभी का कल्याण हो, किसी को भी दुःख की प्राप्ति नहीं हो।
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| सर्वे मित्राणि समृध्दिकाले । || समृद्धि काल में सब मित्र बनते हैं ।
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| संसर्गजाः दोषगुणाः भवन्ति || संसर्ग से ही दोष और गुण उत्पन्न होते हैं।
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| सहसा विदधीत न क्रियाम्। || शत्रुओं के प्रति क्रोध से व्याकुल भीम को शांत करने के लिए युधिष्ठिर ने कहा– कार्य को एकाएक बिना विचार विमर्श किये नहीं प्रारम्भ करना चाहिए।
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| सहायास्तादृशा एव यादृशी भवितव्यता । || जैसी भवितव्यता हो एसे हि सहायक मिल जाते हैं
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| साक्षरा विपरीताश्र्चेत् राक्षसा एव केवलम् । || साक्षर अगर विपरीत बने तो राक्षस बनता है ।
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| साहसे श्री प्रतिवसति। || शर्विलक का कथन है? साहस में लक्ष्मी निवास करती हैं।
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| साहित्य- संगीत- कलाविहीनः, साक्षातपशुः पुच्छविषाणहीनः || साहित्य, संगीत और कला से रहित व्यक्ति, पूंछ और सींगो से हीन साक्षात पशु होता हैं।
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| स्त्रियां रोचमानायां सर्वं तद रोचते कुलम। || स्त्री की सुन्दरता ही परिवार की सुन्दरता हैं।
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| स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते || राजा अपने देश में ही पूजा जाता हैं, जबकि विद्वान् सभी जगह पूजा जाता हैं।
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| स्वभावो दुरतिक्रमः । || स्वभाव बदलना मुश्किल है ।
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| स्वस्वामिना बलवता भृत्यो भवति गर्वितः । || जिस भृत्य का स्वामी बलवान है वह भृत्य गर्विष्ट बनता है ।
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| हस्तस्य भूषणम् दानं सत्यं कण्ठस्य भूषणम्, श्रोत्रस्य भूषणम् शास्त्रं भूषणैः कि प्रयोजनम् || हाथ का आभूषण दान हैं, कंठ का आभूषण सत्य बोलना हैं तथा कानों का आभूषण शास्त्र हैं, अन्य आभूषणों से क्या?
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| हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः || हितकारी एवं मनोहारी वचन काफी दुर्लभ हैं।
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सन्तोष
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अनुनाद सिंह
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' * सन्तोषं परमं सुखम् । -- संस्कृत सूक्ति : सन्तोष ही सबसे बड़ा सुख है। * बिनु सन्तोष न काम नसाहीं, काम अक्षत सुख सपनेहुं नाहीं। -- तुलसीदास : बिना सन्तोष के कामना नष्ट नहीं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
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* सन्तोषं परमं सुखम् । -- संस्कृत सूक्ति
: सन्तोष ही सबसे बड़ा सुख है।
* बिनु सन्तोष न काम नसाहीं, काम अक्षत सुख सपनेहुं नाहीं। -- तुलसीदास
: बिना सन्तोष के कामना नष्ट नहीं होती और कामना के जीवित रहते सपने में भी सुख नहीं मिल सकता।
* सन्तोषं नन्दनं वनम्॥ -- शुक्राचार्य
: सन्तोष नन्दन वन जैसा (सब कुछ प्रदन करने वाला) है।
* शरीर का दुख भी मिट जाता है। मन में संतोष होना स्वर्ग की प्राप्ति से भी बढ़कर है, संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। -- महाभारत
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अनुनाद सिंह
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* सन्तोषं परमं सुखम् । -- संस्कृत सूक्ति
: सन्तोष ही सबसे बड़ा सुख है।
* बिनु सन्तोष न काम नसाहीं, काम अक्षत सुख सपनेहुं नाहीं। -- तुलसीदास
: बिना सन्तोष के कामना नष्ट नहीं होती और कामना के जीवित रहते सपने में भी सुख नहीं मिल सकता।
* सन्तोषं नन्दनं वनम्॥ -- शुक्राचार्य
: सन्तोष नन्दन वन जैसा (सब कुछ प्रदन करने वाला) है।
* ''असंतुष्टा द्विजा नष्टाः संतुष्टाश्च महीभृतः ।
: ''सलज्जागणिकानष्टाः निर्लज्जाश्च कुलाङ्गनाः ॥'' -- चाणक्य नीति
: असन्तुष्ट द्विज नष्ट हो जाते हैं, सन्तुष्ट राजा नष्ट हो जाते हैं। लज्जा करने वाली गणिका नष्ट हो जाती है और लज्जा न करने वाली कुलवधू नष्ट हो जाती है।
* शरीर का दुख भी मिट जाता है। मन में सन्तोष होना स्वर्ग की प्राप्ति से भी बढ़कर है, संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। -- महाभारत
* जो नहीं है उसकी इच्छा करके जो है उसे नष्ट न करिए। -- ऐन ब्रैशेयर्स
* मैं सबसे अच्छे से आसानी से संतुष्ट हो जाता हूँ। -- विंस्टन चर्चिल
* अपने बीते हुए जीवन को संतुष्टि के साथ देख पाना दुबारा जीना है। -- लार्ड ऐक्टन
* बहुत लोगों के पास बहुत ज्यादा है, लेकिन किसी के पास पर्याप्त नहीं है। -- डैनिश प्रोवर्ब
* जब तक एक औरत अपनी बेटी से दस साल छोटी दिख सकती है, वो पूरी तरह संतुष्ट रहती है। -- ऑस्कर वाइल्ड
* कुछ हार जीत से अधिक संतोषजनक होती हैं। -- चन्द्रपाल खसिया
* जब हमारे पास वो ना हो जो हम पसंद करते हैं, तो हमें वो पसंद करना चाहिए जो हमारे पास है। -- फ्रेंच प्रोवर्ब
* जीवन में कभी भी पूर्ण संतुष्टि नहीं होगी, संतुष्टि एक भ्रम है, केवल एक चीज है वीरता। -- अमित कलंत्री
* पर्याप्त पाने के दो तरीके हैं। पहला है कि अधिक से अधिक जमा करते जाओ। दूसरा है कि कम की इच्छा करो। -- जी. के. चेस्टरटन
* वह जो थोड़े से संतुष्ट नहीं होता, किसी से संतुष्ट नहीं होता। -- एपिक्यूरस
* वह जो ये जानता है कि पर्याप्त पर्याप्त है उसके पास हमेशा पर्याप्त होगा। -- लाओ -त्ज़ु
* आपको वो नहीं मिलता जो आप चाहते हैं, आपको वो मिलता है जो आपको मिल सकता है। -- बंगाम्बिकी हैब्यारिमाना
* अगर आप पूर्णता की खोज में हैं तो आप कभी भी संतुष्ट नहीं होगें। -- लियो टॉलस्टॉय
* वह एक बुद्धिमान व्यक्ति है जो उन चीजों के लिए शोक नहीं करता है जो उसके पास नहीं हैं, बल्कि उन चीजों के लिए खुश रहता है जो उसके पास हैं। -- एपिक्टेटस
* मैं सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि जो भी मेरा जीवन और काम रहा है, मैंने किसी से इर्ष्या नहीं की है। और यही मेरी सबसे बड़ी संतुष्टि है। -- रोमन पोलंस्की
* आप मुझे कोई पूरी तरह से संतुष्ट आदमी दिखाइए और मैं आपको एक असफल आदमी दिखा दूंगा। -- थॉमस ए एडिसन
* लोग सोचते हैं कि वे उससे संतुष्ट नहीं हैं जो उनके पास है लेकिन सही मायनों में वे उससे संतुष्ट नहीं हैं जो वे हैं। -- अमित कलंत्री
* अगर आप हमेशा वर्तमान पर ध्यान दे सकें, आप एक सुखी इंसान होंगे। -- पाउलो कोएल्हो
* ख़ुशी एक लक्ष्य नहीं है, यह अच्छी तरह से जिए गए जीवन का एक बाई-प्रोडक्ट है। -- एलेनोर रूजवेल्ट
* आलस्य आकर्षक दिखाई दे सकता है, लेकिन काम संतुष्टि देता है। -- ऐनी फ्रैंक
* कोई भी कभी जहाँ है वहां संतुष्ट नहीं होता, केवल बच्चों को पता होता है कि उनहें क्या चाहिए। -- ऐन्तोय्न डे सेंट–एक्स्जुपरी
* मेरा मानना है कि आप काम करने से कभी नहीं थकते। जब आप काम नहीं करते हैं तो आप थक जाते हैं। जब आप अपना घर साफ करते हैं, तो आप थकते नहीं हैं; यह आपको संतुष्टि देता है। -- नरेंद्र मोदी
* स्वर्ण पदक एक अद्भुत चीज है, लेकिन अगर आप पदक के बिना संतुष्ट नहीं हैं, तो आप इसे पाकर भी संतुष्ट नहीं होगें। -- कूल रनिंग्स मूवी
* मेरे पास पैसा नहीं है लेकिन मेरे पास कुछ है जो पैसा भी नहीं खरीद सकता – संतुष्टि। जो कुछ थोड़ा मेरे पास है मैं उसके साथ संतुष्ट हूँ। -- सरू सिंघल
* संतोष सफलता का अंत है। -- रमन अग्रवाल
* वह समृद्ध है जो संतुष्ट है। -- थॉमस फुलर
* आप कहते हैं, 'अगर मेरे पास थोड़ा और होता, तो मुझे बहुत संतुष्ट होना चाहिए।' आप गलती करते हैं। यदि आपके पास जो है उससे आप संतुष्ट नहीं हैं, यदि आप इसे दोगुना कर देते हैं तो भी आप संतुष्ट नहीं होंगे। -- चार्ल्स स्पर्जन
* जब तक एक महिला अपनी बेटी से दस साल छोटी दिख सकती है, वह पूरी तरह से संतुष्ट है -- ऑस्कर वाइल्ड
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अनुनाद सिंह
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* सन्तोषं परमं सुखम् । -- संस्कृत सूक्ति
: सन्तोष ही सबसे बड़ा सुख है।
* बिनु सन्तोष न काम नसाहीं, काम अक्षत सुख सपनेहुं नाहीं। -- तुलसीदास
: बिना सन्तोष के कामना नष्ट नहीं होती और कामना के जीवित रहते सपने में भी सुख नहीं मिल सकता।
* सन्तोषं नन्दनं वनम्॥ -- शुक्राचार्य
: सन्तोष नन्दन वन जैसा (सब कुछ प्रदन करने वाला) है।
* ''असंतुष्टा द्विजा नष्टाः संतुष्टाश्च महीभृतः ।
: ''सलज्जा गणिका नष्टा निर्लज्जाश्च कुलाङ्गनाः ॥'' -- चाणक्य नीति
: असन्तुष्ट द्विज नष्ट हो जाते हैं, सन्तुष्ट राजा नष्ट हो जाते हैं। लज्जा करने वाली गणिका नष्ट हो जाती है और लज्जा न करने वाली कुलवधू नष्ट हो जाती है।
* शरीर का दुख भी मिट जाता है। मन में सन्तोष होना स्वर्ग की प्राप्ति से भी बढ़कर है, संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। -- महाभारत
* जो नहीं है उसकी इच्छा करके जो है उसे नष्ट न करिए। -- ऐन ब्रैशेयर्स
* मैं सबसे अच्छे से आसानी से संतुष्ट हो जाता हूँ। -- विंस्टन चर्चिल
* अपने बीते हुए जीवन को संतुष्टि के साथ देख पाना दुबारा जीना है। -- लार्ड ऐक्टन
* बहुत लोगों के पास बहुत ज्यादा है, लेकिन किसी के पास पर्याप्त नहीं है। -- डैनिश प्रोवर्ब
* जब तक एक औरत अपनी बेटी से दस साल छोटी दिख सकती है, वो पूरी तरह संतुष्ट रहती है। -- ऑस्कर वाइल्ड
* कुछ हार जीत से अधिक संतोषजनक होती हैं। -- चन्द्रपाल खसिया
* जब हमारे पास वो ना हो जो हम पसंद करते हैं, तो हमें वो पसंद करना चाहिए जो हमारे पास है। -- फ्रेंच प्रोवर्ब
* जीवन में कभी भी पूर्ण संतुष्टि नहीं होगी, संतुष्टि एक भ्रम है, केवल एक चीज है वीरता। -- अमित कलंत्री
* पर्याप्त पाने के दो तरीके हैं। पहला है कि अधिक से अधिक जमा करते जाओ। दूसरा है कि कम की इच्छा करो। -- जी. के. चेस्टरटन
* वह जो थोड़े से संतुष्ट नहीं होता, किसी से संतुष्ट नहीं होता। -- एपिक्यूरस
* वह जो ये जानता है कि पर्याप्त पर्याप्त है उसके पास हमेशा पर्याप्त होगा। -- लाओ -त्ज़ु
* आपको वो नहीं मिलता जो आप चाहते हैं, आपको वो मिलता है जो आपको मिल सकता है। -- बंगाम्बिकी हैब्यारिमाना
* अगर आप पूर्णता की खोज में हैं तो आप कभी भी संतुष्ट नहीं होगें। -- लियो टॉलस्टॉय
* वह एक बुद्धिमान व्यक्ति है जो उन चीजों के लिए शोक नहीं करता है जो उसके पास नहीं हैं, बल्कि उन चीजों के लिए खुश रहता है जो उसके पास हैं। -- एपिक्टेटस
* मैं सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि जो भी मेरा जीवन और काम रहा है, मैंने किसी से इर्ष्या नहीं की है। और यही मेरी सबसे बड़ी संतुष्टि है। -- रोमन पोलंस्की
* आप मुझे कोई पूरी तरह से संतुष्ट आदमी दिखाइए और मैं आपको एक असफल आदमी दिखा दूंगा। -- थॉमस ए एडिसन
* लोग सोचते हैं कि वे उससे संतुष्ट नहीं हैं जो उनके पास है लेकिन सही मायनों में वे उससे संतुष्ट नहीं हैं जो वे हैं। -- अमित कलंत्री
* अगर आप हमेशा वर्तमान पर ध्यान दे सकें, आप एक सुखी इंसान होंगे। -- पाउलो कोएल्हो
* ख़ुशी एक लक्ष्य नहीं है, यह अच्छी तरह से जिए गए जीवन का एक बाई-प्रोडक्ट है। -- एलेनोर रूजवेल्ट
* आलस्य आकर्षक दिखाई दे सकता है, लेकिन काम संतुष्टि देता है। -- ऐनी फ्रैंक
* कोई भी कभी जहाँ है वहां संतुष्ट नहीं होता, केवल बच्चों को पता होता है कि उनहें क्या चाहिए। -- ऐन्तोय्न डे सेंट–एक्स्जुपरी
* मेरा मानना है कि आप काम करने से कभी नहीं थकते। जब आप काम नहीं करते हैं तो आप थक जाते हैं। जब आप अपना घर साफ करते हैं, तो आप थकते नहीं हैं; यह आपको संतुष्टि देता है। -- नरेंद्र मोदी
* स्वर्ण पदक एक अद्भुत चीज है, लेकिन अगर आप पदक के बिना संतुष्ट नहीं हैं, तो आप इसे पाकर भी संतुष्ट नहीं होगें। -- कूल रनिंग्स मूवी
* मेरे पास पैसा नहीं है लेकिन मेरे पास कुछ है जो पैसा भी नहीं खरीद सकता – संतुष्टि। जो कुछ थोड़ा मेरे पास है मैं उसके साथ संतुष्ट हूँ। -- सरू सिंघल
* संतोष सफलता का अंत है। -- रमन अग्रवाल
* वह समृद्ध है जो संतुष्ट है। -- थॉमस फुलर
* आप कहते हैं, 'अगर मेरे पास थोड़ा और होता, तो मुझे बहुत संतुष्ट होना चाहिए।' आप गलती करते हैं। यदि आपके पास जो है उससे आप संतुष्ट नहीं हैं, यदि आप इसे दोगुना कर देते हैं तो भी आप संतुष्ट नहीं होंगे। -- चार्ल्स स्पर्जन
* जब तक एक महिला अपनी बेटी से दस साल छोटी दिख सकती है, वह पूरी तरह से संतुष्ट है -- ऑस्कर वाइल्ड
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