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अजीत कुमार तिवारी
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="1" user="R.DHANYA" /></noinclude>पाश- पाश का वर्णन संक्षिप्त ही है। पाश दस होने चाहिए। पाश की डोरी कपास, मूँज, (मूँज एक प्रकार की घास है), तांत अथवा पेड़ के मज़बूत छाल से बनानी चाहिए। पाश बायें हाथ से लेकर दाहिने हाथ में फेंकना चाहिए। पाश को कुडलाकृत कर मस्तक पर फेंकना चाहिए। चर्मवेष्टित और तूणान्वित मनुष्यों पर इस पाश का प्रयोग करना चाहिए। वल्गित, प्लुत और प्रवजित, ऐसी अवस्था में पाश का प्रयोग करना चाहिए। शत्रु को प्रथम जीत कर बाद में पाश डालना चाहिए।(कहीं कहीं पर श्लोकों का अर्थ स्पष्ट न होने से भाव भी स्पष्ट नहीं हुआ है)।
तलवार- तलवार बाईं ओर बांधनी चाहिए। बाएँ हाथ से म्यान पकड़कर दाहिने हाथ से तलवार निकालनी चाहिए। तलवार ६ अंगुल चौड़ी होनी चाहिए। लंबाई अथवा ऊँचाई ६ हाथ की होनी चाहिए। वर्ण (कवच) लोहे की पतली शृंखला (शलाका) और तारों से गुहकर तैयार करना चाहिए। कवच के भिन्न भिन्न प्रकार हैं।
भाता चमड़े का होना चाहिए। वह मज़बूत और नया होना चाहिए। ऊपर का भाग टेढ़ा ऊपर की ओर झुका होना चाहिए।
सोटों का उपयोग- दाहिने हाथ में लगुड़ (डंडा) लेकर तान कर मारना चाहिए अथवा दोनों हाथों से मारना चाहिए। (उभाम्यामथ हस्ताभ्याम् कुर्यात् तस्य निपातनम्।) बध बहुत ही सफाई से होना चाहिए। [अल्केशेन ततः कुर्वन्वधे सिद्धिः प्रकीर्तिता।]
धनुवेंद- अ० २५२। आयुध, ढाल, तलवार, पाश , शूल, तोमर, गदा, परशु, मुद्गर, भिंदीपाल, लगुड़, पट्टिश, कृपाण, क्षेपणी, धनुष, बाण, चक्र ये आयुध हैं। ढ़ाल तलवार की क्रियाएँ ३२ प्रकार की हैं। इनके नाम ये हैं-भ्रान्त, उद्भ्रान्त, आविद्ध, आसुत, विसुत, सुत, संपात, समुदीश, श्येनपात, आकुल, उद्धूत, अवधूूत, सव्य, दक्षिण, अनालक्षित, विस्फोट, करालेंद्र, महासख, विकराल, निपात, विभीषण, भयानक, प्रत्यालीढ, आलीढ, वराह, लुलित, समग्र, अर्ध, तृतीयांश, पाद, पादार्ध, वारिज इत्यादि।
पाशक्रिया- परावृत, अपावृत, गृृहीत, लघु, ऊर्ध्वक्षिप्त, अधःक्षिप्त, संधारित, श्येनपात, गजपात, ग्राह-ग्राह्य-ये ग्यारह प्रकार पाश धारण के हैं।
पाश फेंकने के प्रकार- ऋजु, आयत, विशाल, तिर्षक और भ्रामित।
चक्र- छेदन, भेदन, पात, भ्रमण, शमन, विकर्तन और कर्तन।
शूल- आस्फोट, क्ष्वेदन, आंदोलिक, भेदत्रास, आघात।
तोमर- ऋजु-घात, भुजा-घात, पार्श्व-घात, दृष्टि-घात।
गदा- आवृत, परावृत, पादोद्धात, हँसमर्द, विमर्द।
मुद्गर- ताड़न, छेदन, चूर्णन, भिंदीपाल, संश्रान्त, विश्रान्त, गोविसर्ग। लगुड़ी (लकड़ी) की क्रियाएँ भी वैसी हैं।
वज्र- अन्त्य, मध्य, परावृत, निदेशान्त।
कृपाण- हरण, छेदन, घात, भेदन, रक्षण, पातन, स्फोटन।
क्षेपणी- त्रासन, रक्षणघात, बलोद्धरण और आयत।
गदायुद्ध में विशेषतः शारीरिक क्रियाओं की आवश्यकता होती है। उनका वर्णन इस भाँति है- सप्तांग, अवदंश, वराह, उर्द्धतक, हस्ताव-हस्तमाली, एकहस्तावहस्तक, विहस्त बहुपाश, कटिरोचित, कोद्गत, उग, ललाट।
गदायुद्ध की हस्तक्रिया के सामान्य लक्षण- करोभ्दूत, विमान, पादाहति, विपादिक, गात्रसंश्र्लेषण, शांत, गात्रविपर्यय, ऊर्ध्व प्रहार, घात, गोमूत्र, पादक, तारक, दंड, कवरी बंध, तिर्यक्बंध, अपामरी, भीमवेग, सुदर्शन, सिंहक्रांत, गजाक्रांत, गर्दबाक्रांत। इसमें बहुत सा भाग दुर्बोध और पारिभाषिक शब्दों से भरा हुआ है। प्रायः ये अब लुप्त हो चुके हैं।
नियुद्ध- बाहुयुद्ध, आकर्षण, विकर्ष, ग्रोवा- विपरिचर्त, पर्यासत, विपर्यासत, पशुमार, अजीविक, पादप्रहार, आस्फोट, कटिराचित, गात्र-श्र्लेष, स्कन्धगत, महीज्याजन, उरुललाटघात, विस्पष्टकरण, उद्धत, अवधूत, तिर्यङ्मार्गगत। इसमें विशेषणों अर्थ लगाने योग्य है।
गजयुद्ध- गजारोही, गजस्कंध, अवक्षेप, अपरांगमुख, देवमार्ग, अधोमार्ग, अमार्ग, गमनाकुल, यष्टिधात, अवक्षेप, जानुबंध, भुजाबंध, गात्रबंध, पिपृष्ट, सोदक, शुभ्र भुजावेलित। यह हाथी पर के योद्धाओं की युद्धक्रिया है।
हाथी के संरक्षणार्थ दो अंकुश धारण करने वाले, एक गर्दन पर बैठने वाला, दो स्कंधों पर बैठे हुए धनुर्धारी अथवा ढाल तलवारधारी होने चाहिए।
प्रत्येक रथ और घुड़सवार के रक्षणार्थ तीन<noinclude>[[category:ज्ञान कोश भाग १]]</noinclude>
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अजीत कुमार तिवारी
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<noinclude><pagequality level="4" user="अजीत कुमार तिवारी" />{{c|(२)}}</noinclude>उनकी प्रखर प्रतिभा का पक्का प्रमाण है। परन्तु इतने प्रतिभा-सम्पन्न होने पर भी, हिन्दी के अन्य कवियों की तरह, इन्हें किसी राजा अथवा महाराजा द्वारा विशेष सम्मान नहीं मिला। {{SIC|इन्होंने|इन्हो ने}} स्वयं लिखा है कि
{{block center|<poem>आजु लगि केते नर-नाहन की 'नाहीं' सुनि,
{{gap|3em}}नेह सो निहारि हारि बदन निहारतो।</poem>}}
हाँ, भोगीलाल नामक एक गुणज्ञ राजा ने इनका अवश्य सम्मान किया। {{SIC|इन्होंने|इन्हो ने}} भी अपना 'रसविलास' नामक ग्रन्थ इन्हीं गुणज्ञ राजा के लिए बनाया तथा अन्य कई स्थलों पर भी इनकी बड़ी प्रशंसा की है।
पर इन गुणज्ञ राजा के यहाँ भी ये बहुत दिनों तक नहीं रहे। यह इनके ग्रन्थों से विदित होता है। इसके दो कारण हो सकते हैं। या तो भोगीलाल का देहान्त हो गया हो अथवा ये ही किसी कारणवश वहाँ से चले आए हो।
जो हो, देवजी प्रतिभासम्पन्न महाकवि थे, इसमें कोई सन्देह नहीं। इनके बनाए हुए ५२ ग्रन्थ कहे जाते हैं। कोई कोई इन्हे ७२ ग्रन्थों का रचयिता भी मानते हैं। इनके बनाये हुए दो एक ग्रन्थ खोज में मिले हैं और अन्य ग्रन्थों के मिलने की भी आशा है। अतः अभी निश्चय-पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इन्होंने कितने ग्रन्थ लिखे। अब तक इनके लिखे हुए २५ ग्रन्थों का पता चल चुका है:—
१—भाव-विलास २-—अष्टयाम ३—भवानी-विलास ४—सुंदरी-सिंदूर ५—सुजान-विनोद ६—प्रेमतरंग ७—रागरत्नाकर ८—कुशल-विलास ९—देवचरित्र १०—प्रेमचंद्रिका ११—जातिविलास १२—रसविलास १३—काव्यरसायन १४—सुखसागरतरंग १५—देवमाया-प्रपंच-नाटक १६—वृक्षविलास १७—पावसविलास १८—देवशतक १९—प्रेमदर्शन २०—रसानंदलहरी २१—प्रेमदीपिका २२—सुमिलविनोद
२३—रधिका-विलास २४—नखशिख २५-दुर्गाष्टक।<noinclude></noinclude>
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अजीत कुमार तिवारी
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<noinclude><pagequality level="4" user="अजीत कुमार तिवारी" />{{c|(२)}}</noinclude>उनकी प्रखर प्रतिभा का पक्का प्रमाण है। परन्तु इतने प्रतिभा-सम्पन्न होने पर भी, हिन्दी के अन्य कवियों की तरह, इन्हें किसी राजा अथवा महाराजा द्वारा विशेष सम्मान नहीं मिला। {{SIC|इन्होंने|इन्हो ने}} स्वयं लिखा है कि
{{block center|<poem>आजु लगि केते नर-नाहन की 'नाहीं' सुनि,
{{gap|4em}}नेह सो निहारि हारि बदन निहारतो।</poem>}}
हाँ, भोगीलाल नामक एक गुणज्ञ राजा ने इनका अवश्य सम्मान किया। {{SIC|इन्होंने|इन्हो ने}} भी अपना 'रसविलास' नामक ग्रन्थ इन्हीं गुणज्ञ राजा के लिए बनाया तथा अन्य कई स्थलों पर भी इनकी बड़ी प्रशंसा की है।
पर इन गुणज्ञ राजा के यहाँ भी ये बहुत दिनों तक नहीं रहे। यह इनके ग्रन्थों से विदित होता है। इसके दो कारण हो सकते हैं। या तो भोगीलाल का देहान्त हो गया हो अथवा ये ही किसी कारणवश वहाँ से चले आए हो।
जो हो, देवजी प्रतिभासम्पन्न महाकवि थे, इसमें कोई सन्देह नहीं। इनके बनाए हुए ५२ ग्रन्थ कहे जाते हैं। कोई कोई इन्हे ७२ ग्रन्थों का रचयिता भी मानते हैं। इनके बनाये हुए दो एक ग्रन्थ खोज में मिले हैं और अन्य ग्रन्थों के मिलने की भी आशा है। अतः अभी निश्चय-पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इन्होंने कितने ग्रन्थ लिखे। अब तक इनके लिखे हुए २५ ग्रन्थों का पता चल चुका है:—
१—भाव-विलास २-—अष्टयाम ३—भवानी-विलास ४—सुंदरी-सिंदूर ५—सुजान-विनोद ६—प्रेमतरंग ७—रागरत्नाकर ८—कुशल-विलास ९—देवचरित्र १०—प्रेमचंद्रिका ११—जातिविलास १२—रसविलास १३—काव्यरसायन १४—सुखसागरतरंग १५—देवमाया-प्रपंच-नाटक १६—वृक्षविलास १७—पावसविलास १८—देवशतक १९—प्रेमदर्शन २०—रसानंदलहरी २१—प्रेमदीपिका २२—सुमिलविनोद
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पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/६
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ममता साव9
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<noinclude><pagequality level="4" user="ममता साव9" />{{c|(४)}}</noinclude>सरल प्रतीत हुआ वहां शब्दार्थ अथवा भावार्थ नहीं दिया गया। प्रत्येक 'विलास' के आदि मे उसमें वर्णित विषय की एक तालिका भी दे दी गयी है। इससे उस विलास में वर्णित विषय और भी स्पष्ट हो जाता है।
प्राचीन कविता के विद्यार्थियो और प्रेमियों ने यदि इस ग्रन्थ का कुछ भी आदर किया तो मैं अपने परिश्रम को सफल समझूंगा।
{|
| दारागंज, प्रयाग
| rowspan=2|{{brace2|4|r}}{{gap|7em}}'''लक्ष्मीनिधि चतुर्वेदी'''
|-
| विजयादशमी, १९९१
|}<noinclude></noinclude>
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पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/८
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ममता साव9
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<noinclude><pagequality level="4" user="ममता साव9" /></noinclude>
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|+{{x-larger|'''विषय-सूची'''}}
|-
|{{larger|'''विषय'''}}
|-
|१—प्रथम विलास||
|-
|{{gap}}वंदना||३
|-
|{{gap}}ग्रन्थपरिचय||४
|-
|{{gap}}स्थायी भाव||४
|-
|{{gap}}विभाव||८
|-
|{{gap}}अनुभाव|| १४
|-
|२—द्वितीय विलास||
|-
|{{gap}}सात्विक भाव||२०
|-
|{{gap}}संचारी भाव ||२८
|-
|३—तृतीय विलास||
|-
|{{gap}}रस||६५
|-
|{{gap}}हाव||७०
|-
|४—चतुर्थ विलास||
|-
|{{gap}}नायक||९७
|-
|{{gap}}नर्म सचिव|| १००
|-
|{{gap}} नायिका सखी||१०३
|-
|{{gap}}दूती|| १३५
|-
|५—पंचम विलास||१३६
|-
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ममता साव9
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<noinclude><pagequality level="4" user="ममता साव9" /></noinclude>
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|-
|{{larger|'''विषय'''}}
|-
|१—प्रथम विलास||
|-
|{{gap}}वंदना||३
|-
|{{gap}}ग्रन्थपरिचय||४
|-
|{{gap}}स्थायी भाव||४
|-
|{{gap}}विभाव||८
|-
|{{gap}}अनुभाव|| १४
|-
|२—द्वितीय विलास||
|-
|{{gap}}सात्विक भाव||२०
|-
|{{gap}}संचारी भाव ||२८
|-
|३—तृतीय विलास||
|-
|{{gap}}रस||६५
|-
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|-
|४—चतुर्थ विलास||
|-
|{{gap}}नायक||९७
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|{{gap}}नर्म सचिव|| १००
|-
|{{gap}} नायिका ||१०३
|-
|सखी||१३५
|-
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|-
|५—पंचम विलास||
|-
|{{gap}}अलंकार||१४२
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ममता साव9
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|२—द्वितीय विलास||
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पृष्ठ:मध्यकालीन भारतीय संस्कृति.djvu/१२५
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="1" user="ममता साव" />{{c|( ७४ )}}</noinclude>२-प्राकृत भाषा का सर्व साधारण में प्रचार था। यही बोल-
चाल की भापा थी। इसका भी साहित्य बहुत उन्नत था ।
३-दक्षिण भारत की तरफ यद्यपि पंडितों में संस्थान का प्रचार
था, तथापि वहाँ की बोलचाल की भापा द्राविड़ो थी, जिसमें तामिल,
तेलगू, मलयालम, कनाड़ी अादि भापायों का समावेश होता है।
इनका साहित्य भी हमारे समय में उन्नत हुआ। अब हम क्रमशः
इन तीनों आपाओं के साहित्य पर विचार करते हैं।
{{rule|5em}}
{{c|'''ललित साहित्य'''}}
साहित्य की दृष्टि से हमारा निर्दिष्ट समय बहुत उन्नत
है। हमारे समय से बहुत पूर्व संस्कृत साहित्य का विकास हो
चुका था पर इसकी वृद्धि हमारे समय में भी
संस्कृत साहित्य के
जारी रही। हम इस समय अन्य भापायों
विकास की प्रगति
के विकास की तरह संस्कृत में भापा-नियम
संबंधी या शब्दों के रूप-संबंधी परिवर्तन नहीं पाते। इसका एक
कारण है। इस समय से बहुत पूर्व-६०० ई० पूर्व के आसपास-
आचार्य पाणिनि ने अपने व्याकरण के जटिल नियमों द्वारा संस्कृत
को जकड़ दिया। पाणिनि के इन नियमों को तोड़ने का साहस
संस्कृत के किसी कवि ने नहीं किया, क्योंकि हमारे पूर्वज पाणिनि
को एक महर्षि समझते थे और उसमें उनकी अगाध भक्ति थी।
उसके नियमों को तोड़ना वे पाप समझते थे। यह प्रवृत्ति हम
लोगों में बहुत प्राचीन काल से चली आती है, तभी तो गहाभाष्यकार
ने पाणिनि के सूत्रों में कुछ स्थलों पर त्रुटियाँ दिखाते हुए भी अपने
को पाणिनि के रहस्यों को समझ सकने में असमर्थ कहकर उसका
आदर किया है
इस समय संस्कृत में लालित्य लाने की बहुत
कोशिश की गई। इसका शब्द-भांडार बहुत बढ़ा। संस्कृत की
.<noinclude></noinclude>
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="1" user="ममता साव" />{{c|( ७४ )}}</noinclude>२-प्राकृत भाषा का सर्व साधारण में प्रचार था। यही बोल-
चाल की भापा थी। इसका भी साहित्य बहुत उन्नत था ।
३-दक्षिण भारत की तरफ यद्यपि पंडितों में संस्थान का प्रचार
था, तथापि वहाँ की बोलचाल की भापा द्राविड़ो थी, जिसमें तामिल,
तेलगू, मलयालम, कनाड़ी अादि भापायों का समावेश होता है।
इनका साहित्य भी हमारे समय में उन्नत हुआ। अब हम क्रमशः
इन तीनों आपाओं के साहित्य पर विचार करते हैं।
{{rule|5em}}
{{c|'''ललित साहित्य'''}}
साहित्य की दृष्टि से हमारा निर्दिष्ट समय बहुत उन्नत
है। हमारे समय से बहुत पूर्व संस्कृत साहित्य का विकास हो
{{float left|संस्कृत साहित्य के<br>विकास की प्रगति}}
चुका था पर इसकी वृद्धि हमारे समय में भी
जारी रही। हम इस समय अन्य भापायों
के विकास की तरह संस्कृत में भापा-नियम
संबंधी या शब्दों के रूप-संबंधी परिवर्तन नहीं पाते। इसका एक
कारण है। इस समय से बहुत पूर्व-६०० ई० पूर्व के आसपास-
आचार्य पाणिनि ने अपने व्याकरण के जटिल नियमों द्वारा संस्कृत
को जकड़ दिया। पाणिनि के इन नियमों को तोड़ने का साहस
संस्कृत के किसी कवि ने नहीं किया, क्योंकि हमारे पूर्वज पाणिनि
को एक महर्षि समझते थे और उसमें उनकी अगाध भक्ति थी।
उसके नियमों को तोड़ना वे पाप समझते थे। यह प्रवृत्ति हम
लोगों में बहुत प्राचीन काल से चली आती है, तभी तो गहाभाष्यकार
ने पाणिनि के सूत्रों में कुछ स्थलों पर त्रुटियाँ दिखाते हुए भी अपने
को पाणिनि के रहस्यों को समझ सकने में असमर्थ कहकर उसका
आदर किया है
इस समय संस्कृत में लालित्य लाने की बहुत
कोशिश की गई। इसका शब्द-भांडार बहुत बढ़ा। संस्कृत की
.<noinclude></noinclude>
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="1" user="ममता साव" />{{c|( ७४ )}}</noinclude>२-प्राकृत भाषा का सर्व साधारण में प्रचार था। यही बोल-
चाल की भापा थी। इसका भी साहित्य बहुत उन्नत था ।
३-दक्षिण भारत की तरफ यद्यपि पंडितों में संस्थान का प्रचार
था, तथापि वहाँ की बोलचाल की भापा द्राविड़ो थी, जिसमें तामिल,
तेलगू, मलयालम, कनाड़ी अादि भापायों का समावेश होता है।
इनका साहित्य भी हमारे समय में उन्नत हुआ। अब हम क्रमशः
इन तीनों आपाओं के साहित्य पर विचार करते हैं।
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{{c|'''ललित साहित्य'''}}
साहित्य की दृष्टि से हमारा निर्दिष्ट समय बहुत उन्नत
है। हमारे समय से बहुत पूर्व संस्कृत साहित्य का विकास हो
{{float left|<small>संस्कृत साहित्य के <br>विकास की प्रगति</small>}}
चुका था पर इसकी वृद्धि हमारे समय में भी
जारी रही। हम इस समय अन्य भापायों
के विकास की तरह संस्कृत में भापा-नियम
संबंधी या शब्दों के रूप-संबंधी परिवर्तन नहीं पाते। इसका एक
कारण है। इस समय से बहुत पूर्व-६०० ई० पूर्व के आसपास-
आचार्य पाणिनि ने अपने व्याकरण के जटिल नियमों द्वारा संस्कृत
को जकड़ दिया। पाणिनि के इन नियमों को तोड़ने का साहस
संस्कृत के किसी कवि ने नहीं किया, क्योंकि हमारे पूर्वज पाणिनि
को एक महर्षि समझते थे और उसमें उनकी अगाध भक्ति थी।
उसके नियमों को तोड़ना वे पाप समझते थे। यह प्रवृत्ति हम
लोगों में बहुत प्राचीन काल से चली आती है, तभी तो गहाभाष्यकार
ने पाणिनि के सूत्रों में कुछ स्थलों पर त्रुटियाँ दिखाते हुए भी अपने
को पाणिनि के रहस्यों को समझ सकने में असमर्थ कहकर उसका
आदर किया है
इस समय संस्कृत में लालित्य लाने की बहुत
कोशिश की गई। इसका शब्द-भांडार बहुत बढ़ा। संस्कृत की
.<noinclude></noinclude>
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="1" user="ममता साव" />{{c|( ७४ )}}</noinclude>२-प्राकृत भाषा का सर्व साधारण में प्रचार था। यही बोल-
चाल की भापा थी। इसका भी साहित्य बहुत उन्नत था ।
३-दक्षिण भारत की तरफ यद्यपि पंडितों में संस्थान का प्रचार
था, तथापि वहाँ की बोलचाल की भापा द्राविड़ो थी, जिसमें तामिल,
तेलगू, मलयालम, कनाड़ी अादि भापायों का समावेश होता है।
इनका साहित्य भी हमारे समय में उन्नत हुआ। अब हम क्रमशः
इन तीनों आपाओं के साहित्य पर विचार करते हैं।
{{rule|5em}}
{{c|'''ललित साहित्य'''}}
साहित्य की दृष्टि से हमारा निर्दिष्ट समय बहुत उन्नत
है। हमारे समय से बहुत पूर्व संस्कृत साहित्य का विकास हो
{{float left|<small>संस्कृत साहित्य के <br>विकास की प्रगति</small>}}
चुका था पर इसकी वृद्धि हमारे समय में भी
जारी रही। हम इस समय अन्य भापायों
के विकास की तरह संस्कृत में भापा-नियम
संबंधी या शब्दों के रूप-संबंधी परिवर्तन नहीं पाते। इसका एक
कारण है। इस समय से बहुत पूर्व-६०० ई० पूर्व के आसपास-
आचार्य पाणिनि ने अपने व्याकरण के जटिल नियमों द्वारा संस्कृत
को जकड़ दिया। पाणिनि के इन नियमों को तोड़ने का साहस
संस्कृत के किसी कवि ने नहीं किया, क्योंकि हमारे पूर्वज पाणिनि
को एक महर्षि समझते थे और उसमें उनकी अगाध भक्ति थी।
उसके नियमों को तोड़ना वे पाप समझते थे। यह प्रवृत्ति हम
लोगों में बहुत प्राचीन काल से चली आती है, तभी तो गहाभाष्यकार
ने पाणिनि के सूत्रों में कुछ स्थलों पर त्रुटियाँ दिखाते हुए भी अपने
को पाणिनि के रहस्यों को समझ सकने में असमर्थ कहकर उसका
आदर किया है
इस समय संस्कृत में लालित्य लाने की बहुत
कोशिश की गई। इसका शब्द-भांडार बहुत बढ़ा। संस्कृत की
.<noinclude></noinclude>
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2022-08-01T00:35:12Z
Kwamikagami
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proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="1" user="ममता साव" />{{c|( ७४ )}}</noinclude>२-प्राकृत भाषा का सर्व साधारण में प्रचार था। यही बोल-
चाल की भापा थी। इसका भी साहित्य बहुत उन्नत था ।
३-दक्षिण भारत की तरफ यद्यपि पंडितों में संस्थान का प्रचार
था, तथापि वहाँ की बोलचाल की भापा द्राविड़ो थी, जिसमें तामिल,
तेलगू, मलयालम, कनाड़ी अादि भापायों का समावेश होता है।
इनका साहित्य भी हमारे समय में उन्नत हुआ। अब हम क्रमशः
इन तीनों आपाओं के साहित्य पर विचार करते हैं।
{{rule|5em}}
{{c|'''ललित साहित्य'''}}
साहित्य की दृष्टि से हमारा निर्दिष्ट समय बहुत उन्नत
है। हमारे समय से बहुत पूर्व संस्कृत साहित्य का विकास हो
{{float left|<small>संस्कृत साहित्य के<br>विकास की प्रगति</small>|2em|2em}}
चुका था पर इसकी वृद्धि हमारे समय में भी
जारी रही। हम इस समय अन्य भापायों
के विकास की तरह संस्कृत में भापा-नियम
संबंधी या शब्दों के रूप-संबंधी परिवर्तन नहीं पाते। इसका एक
कारण है। इस समय से बहुत पूर्व-६०० ई० पूर्व के आसपास-
आचार्य पाणिनि ने अपने व्याकरण के जटिल नियमों द्वारा संस्कृत
को जकड़ दिया। पाणिनि के इन नियमों को तोड़ने का साहस
संस्कृत के किसी कवि ने नहीं किया, क्योंकि हमारे पूर्वज पाणिनि
को एक महर्षि समझते थे और उसमें उनकी अगाध भक्ति थी।
उसके नियमों को तोड़ना वे पाप समझते थे। यह प्रवृत्ति हम
लोगों में बहुत प्राचीन काल से चली आती है, तभी तो गहाभाष्यकार
ने पाणिनि के सूत्रों में कुछ स्थलों पर त्रुटियाँ दिखाते हुए भी अपने
को पाणिनि के रहस्यों को समझ सकने में असमर्थ कहकर उसका
आदर किया है
इस समय संस्कृत में लालित्य लाने की बहुत
कोशिश की गई। इसका शब्द-भांडार बहुत बढ़ा। संस्कृत की
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Kwamikagami
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="1" user="ममता साव" />{{c|( ७४ )}}</noinclude>२-प्राकृत भाषा का सर्व साधारण में प्रचार था। यही बोल-
चाल की भापा थी। इसका भी साहित्य बहुत उन्नत था ।
३-दक्षिण भारत की तरफ यद्यपि पंडितों में संस्थान का प्रचार
था, तथापि वहाँ की बोलचाल की भापा द्राविड़ो थी, जिसमें तामिल,
तेलगू, मलयालम, कनाड़ी अादि भापायों का समावेश होता है।
इनका साहित्य भी हमारे समय में उन्नत हुआ। अब हम क्रमशः
इन तीनों आपाओं के साहित्य पर विचार करते हैं।
{{rule|5em}}
{{c|'''ललित साहित्य'''}}
साहित्य की दृष्टि से हमारा निर्दिष्ट समय बहुत उन्नत
है। हमारे समय से बहुत पूर्व संस्कृत साहित्य का विकास हो
{{float left|<small>संस्कृत साहित्य के<br>विकास की प्रगति</small>|1em|1em}}
चुका था पर इसकी वृद्धि हमारे समय में भी
जारी रही। हम इस समय अन्य भापायों
के विकास की तरह संस्कृत में भापा-नियम
संबंधी या शब्दों के रूप-संबंधी परिवर्तन नहीं पाते। इसका एक
कारण है। इस समय से बहुत पूर्व-६०० ई० पूर्व के आसपास-
आचार्य पाणिनि ने अपने व्याकरण के जटिल नियमों द्वारा संस्कृत
को जकड़ दिया। पाणिनि के इन नियमों को तोड़ने का साहस
संस्कृत के किसी कवि ने नहीं किया, क्योंकि हमारे पूर्वज पाणिनि
को एक महर्षि समझते थे और उसमें उनकी अगाध भक्ति थी।
उसके नियमों को तोड़ना वे पाप समझते थे। यह प्रवृत्ति हम
लोगों में बहुत प्राचीन काल से चली आती है, तभी तो गहाभाष्यकार
ने पाणिनि के सूत्रों में कुछ स्थलों पर त्रुटियाँ दिखाते हुए भी अपने
को पाणिनि के रहस्यों को समझ सकने में असमर्थ कहकर उसका
आदर किया है
इस समय संस्कृत में लालित्य लाने की बहुत
कोशिश की गई। इसका शब्द-भांडार बहुत बढ़ा। संस्कृत की
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विकिस्रोत:निर्वाचित पुस्तक/अगस्त २०२२
4
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2022-08-01T03:29:57Z
अनिरुद्ध कुमार
25
2021 अगस्त की निर्वाचित पुस्तक
wikitext
text/x-wiki
<!--Using the format below, enter the text chosen text between the comment bars
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-->{{featured download|धर्म के नाम पर}}<!--
-->'''[[धर्म के नाम पर]]''' [[लेखक:आचार्य चतुरसेन शास्त्री|आचार्य चतुरसेन शास्त्री]] द्वारा रचित पुस्तक है। इसका प्रकाशन '''इन्द्रप्रस्थ पुस्तक भण्डार''', देहली द्वारा सम्वत् १९९० वि॰ में किया गया था।
{{rule}}
"धर्म ने हज़ारों वर्ष से मनुष्य जाति को नाको चने चबाऐ हैं। करोड़ों नर नाहरों का गर्म रक्त इसने पिया है, हज़ारों कुल बालाओं को इसने जिन्दा भस्म किया है, असंख्य पुरुषों को इसने ज़िन्दा से मुर्दा बना दिया है। यह धर्म पृथ्वी की मानव जाति का नाश करेगा कि उद्धार—आज इस बात पर विचारने का समय आगया है।</br>
धर्म के कारण ही धर्म के पुत्र युधिष्ठिर ने जुआ खेला, राज्य हारा, भाइयों और स्त्री को दाव पर लगा कर गुलाम बनाया, धर्म ही के कारण द्रौपदी को पांच आदमियों की पत्नी बनना पड़ा। धर्म ही के कारण अर्जुन और भीम के सामने द्रौपदी पर अत्याचार किये गये और वे योद्धा मुर्दे की भांति बैठे देखते रहे। धर्म ही के कारण भीष्मपितामह और गुरुद्रोण ने पांडवों के साथ कौरवों के पक्ष में युद्ध किया, धर्म ही के कारण अर्जुन ने भाइयों और सम्बन्धियों के खून से धरती को रङ्गा, धर्म ही के कारण भीष्म आजन्म कुंवारे रहे, धर्म ही के कारण कुरुओं की पत्नियो ने पति से भिन्न पुरुषों से सहवास करके सन्तान उत्पन्न कीं।"...([[धर्म के नाम पर|'''पूरा पढ़ें''']])
<noinclude>[[श्रेणी:निर्वाचित पुस्तक]]</noinclude>
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