विकिस्रोत hiwikisource https://hi.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%A4:%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A4%AA%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0 MediaWiki 1.39.0-wmf.23 first-letter मीडिया विशेष वार्ता सदस्य सदस्य वार्ता विकिस्रोत विकिस्रोत वार्ता चित्र चित्र वार्ता मीडियाविकि मीडियाविकि वार्ता साँचा साँचा वार्ता सहायता सहायता वार्ता श्रेणी श्रेणी वार्ता लेखक लेखक वार्ता अनुवाद अनुवाद वार्ता पृष्ठ पृष्ठ वार्ता विषयसूची विषयसूची वार्ता TimedText TimedText talk Module Module talk गैजेट गैजेट वार्ता गैजेट परिभाषा गैजेट परिभाषा वार्ता पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/५ 250 62897 517539 311726 2022-08-09T18:09:36Z ममता साव9 2453 /* प्रमाणित */ proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="4" user="ममता साव9" /></noinclude>&nbsp; {{c|{{x-larger|'''भाव-विलास'''}}}} यह देवजी की प्रथम रचना है। हिन्दी भाषा के रीति-ग्रन्थों में यह उच्चकोटि का ग्रन्थ माना जाता है। इन्होंने केवल सोलह वर्ष की अवस्था में इसकी रचना की थी। यह इनकी प्रथम रचना होने पर भी इसके छन्दो में कहीं भी शैथिल्य नहीं है और प्रौढ़ कविता में जो गुण होने चाहिए वे सभी इसमें विद्यमान हैं। इस ग्रन्थ को इन्होंने पहले-पहल बादशाह औरंगज़ब के बड़े पुत्र आजमशाह को सुनाया। आजमशाह हिन्दी के प्रेमी तथा जानकार और गुणज्ञ थे। उन्होंने उक्त ग्रन्थ की बड़ी प्रशंसा की। भाव-विलास के अंत में लिखा है कि :— {{block center|<poem>दिल्लीपति नवरंग के, आज़मसाहि सपूत। सुन्यो, सराह्यो ग्रन्थ यह, अष्टयाम संजूत॥</poem>}} इस ग्रन्थ मे इन्होंने भाव, विभाव, अनुभाव, हाव, नायक, नायिका और अलंकारों का वर्णन किया है। परन्तु अन्य आचार्यों द्वारा वर्णित रसादि के वर्णनों से इन्होने कुछ विशेषता रखी है। {{larger|'''भावविलास की विशेषता'''}}—भरतादि आचार्यों ने संचारी भावों के केवल ३३ भेद माने हैं; परन्तु देवजी ने 'छल' को एक चौतीसवाँ भेद और माना है। रसो के इन्होंने दो भेद माने हैं। लौकिक और अलौकिक। फिर लौकिक के तीन भेद स्वप्न, मनोरथ और उपनायक तथा अलौकिक के शृंगार, हास्य आदि नौ भेद लिखे हैं। अलंकारों में इन्होंने केवल ३९ मुख्य माने हैं और उन्हीं का इस ग्रन्थ में वर्णन किया है। शेष अलंकारों के सम्बन्ध में इनका मत है कि वे इन्हीं के भेद और उपभेद हैं। इस ग्रन्थ का सम्पादन करके मैंने प्रत्येक दोहा, सवैया और कवित्त के आवश्यकतानुसार शब्दार्थ और भावार्थ दे दिये हैं; जिससे ग्रन्थ को समझने में कठिनाई न हो। जहाँ शब्दार्थ अथवा भावार्थ बोधगम्य<noinclude></noinclude> ht3ct6u81bgkp7frdh7xbmh258elbe7 पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/७ 250 62899 517540 340413 2022-08-09T18:25:07Z ममता साव9 2453 /* प्रमाणित */ proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="4" user="ममता साव9" /></noinclude>&nbsp; {{c|{{x-larger|''''निवेदन''''}}}} सन्तोष की बात है कि इधर कई वर्षों से हिन्दी की प्राचीन कविता के पठन-पाठन की ओर हिन्दी-पाठकों की रुचि बढ़ रही है। इसमें सन्देह नहीं कि कुछ साहित्य-प्रेमी अब भी ऐसे हैं, जो प्राचीन कविता पर अश्लीलता इत्यादि् का लाञ्छन लगाकर उसकी ओर से नाक-भौं सिकोडते रहते हैं; परन्तु इनकी संख्या अब दिन पर दिन कम ही होती जाती है। लोग प्राचीन कवियों के काव्यसौन्दर्य और रचना-कौशल को समझने लगे हैं। कहना नहीं होगा कि पहले पहल हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन ने ही अपनी ऊँची साहित्यिक परीक्षाएं प्रचलित कर के प्राचीन साहित्य के अध्ययन की ओर हिन्दी जनता का ध्यान आकर्षित किया; और अब तो भारत के कई सरकारी शिक्षाविभागों और अन्य कई सरकारी तथा और ग़ैर-सरकारी संस्थाओं ने साहित्य की परीक्षाएं प्रचलित की हैं। इन सब संस्थानों के परीक्षार्थियों को इस प्रकार के काव्यशास्त्र के ग्रन्थों के अध्ययन की आवश्यकता पड़ती है। उनकी सुविधा के लिए साहित्यरत्न पंडित लक्ष्मीनिधि चतुर्वेदी का यह प्रयत्न अत्यन्त प्रशंसनीय है। "भावविलास" का कोई भी सुसम्पादित संस्करण अभी तक हमारे देखने में नहीं आया था। चतुर्वेदी जी ने इस ग्रन्थ का सम्पादन करके इस त्रुटि को कई अंशों में दूर कर दिया है। पं॰ लचमीनिधि जी महाकवि देव के ही प्रान्त के निवासी हैं; और माथुर होने के कारण आप की मातृभाषा भी ब्रजभाषा ही है। अतएव ब्रजभाषा से आप का स्वाभाविक प्रेम है, जो आप को मातृस्तन्य के साथ मिला है। ऐसे होनहार साहित्यप्रेमी नवयुवकों की इस ओर सुरुचि होना सचमुच ही अभिनन्दनीय है। हमें विश्वास है कि प्राचीन साहित्य के प्रेमी और प्रचारक सज्जन इस ग्रन्थ का समुचित समादर करके चतुर्वेदी जी का उत्साह बढ़ावेंगे। {{right|{{larger|'''लक्ष्मीधर वाजपेयी'''|1em}}}}<noinclude></noinclude> cndmorln5ajp8zpa4pz0xtrla07ue9r 517541 517540 2022-08-09T18:25:53Z ममता साव9 2453 proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="4" user="ममता साव9" /></noinclude>&nbsp; {{c|{{x-larger|'''''निवेदन'''''}}}} सन्तोष की बात है कि इधर कई वर्षों से हिन्दी की प्राचीन कविता के पठन-पाठन की ओर हिन्दी-पाठकों की रुचि बढ़ रही है। इसमें सन्देह नहीं कि कुछ साहित्य-प्रेमी अब भी ऐसे हैं, जो प्राचीन कविता पर अश्लीलता इत्यादि् का लाञ्छन लगाकर उसकी ओर से नाक-भौं सिकोडते रहते हैं; परन्तु इनकी संख्या अब दिन पर दिन कम ही होती जाती है। लोग प्राचीन कवियों के काव्यसौन्दर्य और रचना-कौशल को समझने लगे हैं। कहना नहीं होगा कि पहले पहल हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन ने ही अपनी ऊँची साहित्यिक परीक्षाएं प्रचलित कर के प्राचीन साहित्य के अध्ययन की ओर हिन्दी जनता का ध्यान आकर्षित किया; और अब तो भारत के कई सरकारी शिक्षाविभागों और अन्य कई सरकारी तथा और ग़ैर-सरकारी संस्थाओं ने साहित्य की परीक्षाएं प्रचलित की हैं। इन सब संस्थानों के परीक्षार्थियों को इस प्रकार के काव्यशास्त्र के ग्रन्थों के अध्ययन की आवश्यकता पड़ती है। उनकी सुविधा के लिए साहित्यरत्न पंडित लक्ष्मीनिधि चतुर्वेदी का यह प्रयत्न अत्यन्त प्रशंसनीय है। "भावविलास" का कोई भी सुसम्पादित संस्करण अभी तक हमारे देखने में नहीं आया था। चतुर्वेदी जी ने इस ग्रन्थ का सम्पादन करके इस त्रुटि को कई अंशों में दूर कर दिया है। पं॰ लचमीनिधि जी महाकवि देव के ही प्रान्त के निवासी हैं; और माथुर होने के कारण आप की मातृभाषा भी ब्रजभाषा ही है। अतएव ब्रजभाषा से आप का स्वाभाविक प्रेम है, जो आप को मातृस्तन्य के साथ मिला है। ऐसे होनहार साहित्यप्रेमी नवयुवकों की इस ओर सुरुचि होना सचमुच ही अभिनन्दनीय है। हमें विश्वास है कि प्राचीन साहित्य के प्रेमी और प्रचारक सज्जन इस ग्रन्थ का समुचित समादर करके चतुर्वेदी जी का उत्साह बढ़ावेंगे। {{right|{{larger|'''लक्ष्मीधर वाजपेयी'''|1em}}}}<noinclude></noinclude> tllfj01m51vtxg4flkgfk9da38p9ybb पृष्ठ:हवा के घोड़े.djvu/२३ 250 83807 517542 347266 2022-08-10T04:58:34Z Manisha yadav12 2489 /* शोधित */ proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="3" user="Manisha yadav12" /></noinclude>रहती थीं। पुष्पा के विषय में विचार ही करना व्यर्थ था। क्योंकि उसका विवाह एक बजाज से होने वाला था, जिसका नाम इतना ही बदसूरत था, जितना पुष्पा का सुन्दर। वह कभी-कभी उसे छेड़ा भी करता था और खिड़की में खड़े होकर अपनी काली अचकन दिखा कर कहा करता था-"पुष्पा बताओ तो मेरी इस अचकन का रंग कैसा है?" पुष्पा के कपोलों पर क्षण भर के लिये गुलाब की पत्तियाँ सी थरथरा जातीं और वह बहादुरी से उत्तर देती "नीला"। उसके होने वाले पति का नाम कालूमल था। लाहौल-बि-ललाह "किस प्रकार का यह भद्दा सा नाम" उसका नाम रखते हुए उसके माता-पिता ने कुछ भी नहीं सोचा। जब वह पुष्पा और कालू के विषय में सोचता, तो अपने हृदय में कहा करता। यदि इनका विवाह किसी भी कारण से नहीं रुक सकता, तो केवल इसी कारण से विवाह रोक देना चाहिये कि उसके बनने वाले पति का नाम बेहूदा है।...कालूमल...एक कालू और इस पर "मल" धिक्कार है...इसका क्या तात्पर्य है? किन्तु वह सोचता यदि पुष्पा का विवाह कालूमल से न हुआ तो किसी घसीटाराम हलवाई, या किसी करोड़ीमल सर्राफ़ से हो जायेगा। वह उस दशा में उससे प्यार नहीं कर सकता था। यदि वह करता तो उसे हिन्दू मुस्लिम दंगे का डर था। मुसलमान और एक हिन्दू लड़की से प्यार करे..प्रथम तो प्यार करना वैसे ही अपराध है और फिर मुसलमान और हिन्दू लड़की को प्यार करे..."एक करेला दूसरा नीम चढ़ा" वाली बात। नगर में कई बार हिन्दू मुस्लिम फ़साद हो चुके थे, किन्तु जिस मुहल्ले में सैय्यद रहता था, न मालूम किस वजह से बचा हुआ था। यदि वह पुष्पा, कमलेश और राजकुमारी से प्यार करने का विचार {{left|२२ ]}} {{right|हवा के घोड़े}}<noinclude></noinclude> jq28sq09gr3vzg959y8gnh0vz5l0274