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पृष्ठ:हवा के घोड़े.djvu/२४
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Manisha yadav12
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<noinclude><pagequality level="1" user="अनुश्री साव" /></noinclude>करता, तो स्पष्ट है कि संसार की सभी गाएँ और सूअर मुहल्ले में डेरा लगा लेते। हिन्दू मुस्लिम फसाद से सैय्यद को घृणा थी। इसलिये नहीं कि एक दूसरे का सर फोड़ देते और खून के छीटे उड़ाते, नहीं इसलिए कि सिर बड़े भद्दे ढ़ग से बखेरे जाते थे।
राजकुमारी जो उन दोनो मे छोटी थी। वह उसको पसन्द थी उसके अधर स्वॉस की कमी के कारगा थोडे़ से खुले रहते थे, जो उसे बहुत पसन्द थे। इनको देखकर इसे हमेशा यही विचार आता कि एक चुम्बन इनको छूकर आगे निकल गया है। एक बार उसने राजकुमारी को जो अभी चोदहवी मंजिल को पार कर रही थी। अपने घर की तीसरी छत के गुसलखाने में स्नान करते सैय्यद ने अपने घर के झरोखों से जब उसकी ओर देखा तो उसे ऐसा अनुभव हुआ कि इसके गन्दे विचार दिमाग से निकल कर सामने आ खड़े होगे। सूर्य की मोटी-मोटी किरणे जिन में से अनगिनत सोने-चाँदी की तारे छिड़काव सा करती हुई उसके नग्न शरीर पर फिसल रही थी। इन किरणो ने उसके गोरे-बदन पर सोने-चाँदी के मानो पतरे चढ़ा दिये हो। बाल्टी मे से जब उसने गड़वा निकाला और खड़ी होकर अपने शरीर पर पानी डाला तो वह सैय्यद को सोने की पुतली-सी जान पड़ी। पानी की मोटी-मोटी बूँदे उसके शरीर से लुढक कर गिर रही थी। जैसे सोना पिघल कर गिर रहा हो।
राजकुमारी, पुष्पा और कमलेश से चतुर थी। इसकी पतली-पतली उँगलियाँ इस ढ़ग से हिलती रहती कि वह कोई बड़ी भारी फिलासफर हो। उसे बहुत पसन्द थी। इन उँगलियो में खिचाव था। इस खिचाव का प्रमाण करोशिया और सूई के काम से मिलता था, जिसे वह कई बार देख चुका था।
हवा के घोड़े
[२३<noinclude></noinclude>
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Manisha yadav12
2489
/* शोधित */
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Manisha yadav12" /></noinclude>करता, तो स्पष्ट है कि संसार की सभी गाएँ और सूअर मुहल्ले में डेरा लगा लेते। हिन्दू मुस्लिम फसाद से सैय्यद को घृणा थी। इसलिये नहीं कि एक दूसरे का सर फोड़ देते और खून के छीटे उड़ाते, नहीं इसलिए कि सिर बड़े भद्दे ढ़ग से बखेरे जाते थे।
राजकुमारी जो उन दोनो मे छोटी थी। वह उसको पसन्द थी उसके अधर स्वॉस की कमी के कारगा थोडे़ से खुले रहते थे, जो उसे बहुत पसन्द थे। इनको देखकर इसे हमेशा यही विचार आता कि एक चुम्बन इनको छूकर आगे निकल गया है। एक बार उसने राजकुमारी को जो अभी चोदहवी मंजिल को पार कर रही थी। अपने घर की तीसरी छत के गुसलखाने में स्नान करते सैय्यद ने अपने घर के झरोखों से जब उसकी ओर देखा तो उसे ऐसा अनुभव हुआ कि इसके गन्दे विचार दिमाग से निकल कर सामने आ खड़े होगे। सूर्य की मोटी-मोटी किरणे जिन में से अनगिनत सोने-चाँदी की तारे छिड़काव सा करती हुई उसके नग्न शरीर पर फिसल रही थी। इन किरणो ने उसके गोरे-बदन पर सोने-चाँदी के मानो पतरे चढ़ा दिये हो। बाल्टी मे से जब उसने गड़वा निकाला और खड़ी होकर अपने शरीर पर पानी डाला तो वह सैय्यद को सोने की पुतली-सी जान पड़ी। पानी की मोटी-मोटी बूँदे उसके शरीर से लुढक कर गिर रही थी। जैसे सोना पिघल कर गिर रहा हो।
राजकुमारी, पुष्पा और कमलेश से चतुर थी। इसकी पतली-पतली उँगलियाँ इस ढ़ग से हिलती रहती कि वह कोई बड़ी भारी फिलासफर हो। उसे बहुत पसन्द थी। इन उँगलियो में खिचाव था। इस खिचाव का प्रमाण करोशिया और सूई के काम से मिलता था, जिसे वह कई बार देख चुका था।
{{left|'''हवा के घोड़े'''}}
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