विकिस्रोत hiwikisource https://hi.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%A4:%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A4%AA%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0 MediaWiki 1.39.0-wmf.23 first-letter मीडिया विशेष वार्ता सदस्य सदस्य वार्ता विकिस्रोत विकिस्रोत वार्ता चित्र चित्र वार्ता मीडियाविकि मीडियाविकि वार्ता साँचा साँचा वार्ता सहायता सहायता वार्ता श्रेणी श्रेणी वार्ता लेखक लेखक वार्ता अनुवाद अनुवाद वार्ता पृष्ठ पृष्ठ वार्ता विषयसूची विषयसूची वार्ता TimedText TimedText talk Module Module talk गैजेट गैजेट वार्ता गैजेट परिभाषा गैजेट परिभाषा वार्ता पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/५७ 250 14595 517549 489983 2022-08-14T08:00:00Z शिखर तिवारी 633 /* शोधित */ proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="3" user="शिखर तिवारी" />{{rh|'''६०'''|'''प्रेमाश्रम'''}}</noinclude>ओर मनोहर था और दूसरी ओर जरा हट कर उनका हलवाहा रंगी चमार बैठा हुआ या। बिलसी ने जौ की मोटी-मोटी रोटियाँ, बथुआ का शाक और अरहर की दाल तीन थालियों में परोस दी। तब एक फूल के कटौरे में दूध ला कर बलराज के सामने रख दिया। बलराज—क्या और दूध नहीं है? बिलसी—दूध कहाँ है, बेगार में नहीं चला गया? बलराज—अच्छा, यह कटोरा रंगी के सामने रख दो। बिलसी—तुम खा लो, रंगी एक दिन दूध न खायेगा तो दुबला न हो जायेगा। बलराज बेगार का हाल सुनकर क्रोध में आग हो रहा था। कटोरे को उठा कर आँगन की ओर ज़ोर से फेंक दिया। वह तुलसी के चबूतरे से टकरा कर टूट गया। बिलसी ने दौड़ कर कटोरा उठा लिया और पछताते हुए बोली, तुम्हें क्या हो गया है? राम, राम ऐसा सुंदर कटोरा चूर कर दिया। कहीं सनक तो नहीं गये हो? बलराज—हाँ, सनक ही गया हूँ। बिलसी—किस बात पर कटोरे को पटक दिया? बलराज—इसी लिए की जो हमसे अधिक काम करता है उसे हमसे अधिक खाना चाहिए। हमने तुमसे बार-बार कह दिया है कि रसोई में जो कुछ थोड़ा-बहूत हो, वह सबके सामने आना चाहिए। अच्छा खायें, बुरा खायें तो सब खायें; लेकिन तुम्हें न जाने क्यों यह बात भूल जाती है? अब याद रहेगी। रंगी कोई बेगार का आदमी नहीं हैं, घर का आदमी है। वह मुँह से चाहे ने कहे, पर मन में अवश्य कहता होगा कि छाती फाड़ कर काम मैं करूँ और मूँछों पर ताव देकर खायें यह लोग। ऐसे दूध-भी खाने पर लानत है। रंगी ने कहा—भैया नित तो दूध खाता हूँ, एक दिन न सही। तुम हक़-नाहक इनसे ख़फ़ा हो गए। इसके बाद तीनों आदमी चुपचाप खाने लगे। खा-पी कर बलराज और रंगी अन्न की रखवाली करने नादिया की तरफ़ चले। वहाँ बलराज ने चरस निकाली और दोनों ने ख़ूब दम लगाए। जब दोनों अन्न के छिलके के बिछावन पर कम्बल ओढ़ कर लेटे तो रंगी बोला, काहे भैया, आज तुमसे लश्कर के चपरासियों से कुछ कहा सुनी हो गयी क्या? बलराज—हाँ, हुज्जत हो गयी। दादा ने मना न किया होता तो दोनों को मारता। रंगी—तभी दोनों तुम्हें बुरा भला कहने चले थे। मैं उधर से क्यारी में पानी खोल कर आरा था। मुझे देख कर दोनों चुप हो गए। मैंने इतना सुना, 'अगर यह लौंडा कल सड़क पर गाड़ियाँ पकड़ने में कुछ तकरार करे तो बस चोरी का इल्ज़ाम लगा कर गिरफ़्तार कर लो। एक पचास बेंत पड़ जाएँ तो इनकी शेखी उतर जाय।' बलराज—अच्छा, यह सब यहाँ तक मेरे पीछे पड़े हुए हैं। तुमने अच्छा किया की मुझे चेता दिया, मैं कल सवेरे ही डिप्टी साहेब कि पास जाऊँगा। रंगी—क्या करने जाओगे भैया। अच्छा आदमी नहीं हैं। बड़ी बड़ी सज़ा देता<noinclude>[[श्रेणी:प्रेमाश्रम]]</noinclude> 2g2f43uahr9c45dji9f7bq1xx6dwjid पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/६६ 250 14605 517550 317313 2022-08-14T08:48:18Z शिखर तिवारी 633 /* शोधित */ proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="3" user="शिखर तिवारी" />{{rh||'''प्रेमाश्रम'''|'''६९'''}}</noinclude>के सम्बन्ध में स्मृतिकारों की व्यवस्था का अवलोकन करने लगे। वह अपनी आशा की पुष्टि और शंकाओं का समाधान करना चाहते हैं। कुछ दिनों तक कानून पढ़ा था, कानूनी किताबों का उनके पास अच्छा संग्रह था। पहले मनुस्मृति खोली, सन्तोष न हुआ। मिताक्षरा का विधान देखा, शंका और भी बढ़ी। याज्ञवल्क्य ने भी विषय ने भी कुछ संतोषप्रद स्पष्टीकरण न किया। किसी वकील की सम्मति आवश्यक जान पड़ी। वह उतने उतावले हो रहे थे कि तत्काल कपड़े पहन कर चलने को तैयार गये। कहार से कहा, माया को ले जा, बाजार की सैर करा ला। कमरे से बाहर निकले ही थे की याद आया, तार का जवाब नहीं दिया। फिर कमरे में गये, समवेदना का तार लिखा, इतने में लाला प्रभाकर और दयाशंकर आ पहुँचे, ज्ञानशंकर को इस समय उनका आना जहर-सा लगा। प्रभाशंकर बोले, मैंने तो अभी सुना। सन्नाटे में आ गया। बेचारे रायसाहब को बुढ़ापे में यह बुरा धक्का लगा। घर ही वीरान हो गया है। ज्ञानशंकर—ईश्वर की लीला विचित्र है। प्रभाकर—अभी उम्र ही क्या थी। बिलकुल लड़का था। तुम्हारे विवाह में देखा था, चेहरे में तेज बरसता था। ऐसा प्रतापी लड़का को मैंने नहीं देखा। ज्ञानशंकर—इसी से तो ईश्वर के न्याय विघान पर ने विश्वास उठ जाता है। दयाशंकर—आपकी बड़ी साली के तो कोई लड़की नहीं है न? ज्ञानशंकर ने विरक्त भाव में कहा, नहीं। दयाशंकर—तब तो चाहे माया ही वारिस हो। ज्ञानशंकर ने उन तिरस्कार करते हुए कहा, कैसी बात करते हो? कहाँ कौन-सी बात, कहाँ कौन-सी बात, ऐसी बातों का यह ममय नहीं है। दयाशंकर लज्जिन हो गये। ज्ञानशंकर को अब यह विलम्ब असह्य होने लगा। पैरगाड़ी उठाई और दोनों आदमियों को बरामदे में ही छोड़ कर डाक्टर इरफानअली के बंगले की ओर चल दिये, जो नामी बैरिस्टर थे। बैरिस्टर साहब का बंगला खूब सजा हुआ था। शाम हो गयी थी, वह हवा खाने जा रहे थे। मोटर तैयार थी, लेकिन मुवक्किलों से जान न छूटती थी, वह इस समय अपने ऑफिस में आराम कुर्सी पर लेते हुआ सिगार पी रहे थे। मुवक्किल लोग दूसरे कमरे में बैठे थे। वह बारी-बारी से डॉक्टर साहब के पास आकर अपना वृतांत कहते जाते थे। ज्ञानशंकर को बैठे-बैठे आठ बज गए। तब जाकर उनकी बारी आई। उन्होंने ऑफिस में जाकर अपना मामला सुनाना शुरू किया। क्लर्क ने सब बातें उनकी नोट कर लीं। इनकी फीस 5 रुपए हुई। डॉक्टर साहब सम्मति के लिए दूसरे दिन बुलाया। उसकी फीस 500 रुपए थी। यदि उस सम्मति पर कुछ शंकाएं हों तो उसके समाधान के लिए प्रति घंटा 200 रुपये देने पड़ेंगे। ज्ञानशंकर को मालूम नहीं था कि डॉक्टर साहब के समय का मूल्य इतना अधिक है। मन में पछताएं कि नाहक इस झमले में फंसा। क्लर्क की<noinclude>[[श्रेणी:प्रेमाश्रम]]</noinclude> bum4jfto991afd84om4jm08tj8vfgb1 पृष्ठ:हवा के घोड़े.djvu/२७ 250 83822 517548 347282 2022-08-14T03:14:13Z Manisha yadav12 2489 /* शोधित */ proofread-page text/x-wiki <noinclude><pagequality level="3" user="Manisha yadav12" /></noinclude>देगा, जिसके ऊपर यह लिखा होगा। {{c|'हाय! इस ज़दो पशेमां का पशेमा होना'}} या कोई कवि दूसरा गीत लिख देगा। एक ज़माने तक तमाशबीन, जिसे कोठों पर तबले की थाप के साथ सुनते रहेंगे। यह गीत इस दंगा के होंगे-- {{c|मेरी लहद पे कोई पर्दा पोश आता है}} {{c|चिराग़े गोरे-गरेबाँ सुबा बुझा देना।}} इस प्रकार के गीत जब वह किसी गद्य में देखता, तो इस नतीजे पर पहुँचता कि प्रेम गौर-कंकन है, जो हर समय कंधे पर कुदाल रखे, प्रेमियों के लिये कब्रें खोदने के लिये, हर समय तैयार रहता है। इस प्रेम से वह उस प्रेम की तुलना करता, जिसकी कल्पना उसके दिमाग़ में थी; परन्तु जब उनमें धरती और आकाश-सा अन्तर पाता तो वह विचार करता कि या तो उसका दिमाग खराब है या वह नजाम ही खराब है; जिसमें वह स्वांस ले रहा है। सँय्यद यदि कभी दुकान खोलता, तो उसे ऐसा अनुभव होता कि वह किसी कसाई की दुकान में दाखिल हो गया हो। प्रत्येक गीत की पंक्ति इसे बगैर खाल का बकरा दीख पड़ती; जिसका गोश्त चरबी के समेत बू पैदा कर रहा हो। प्रत्येक बात उसकी जबान पर एक खासमजा उत्पन्न होने का अनुभव करती, जब वह कोई गीत पढ़ता, तो उसकी जबान को वही अनुभव होता जो कुर्बानी का गोश्त खाते समय अनुभव होता था। वह सोचा करता कि जिस प्रान्त में जनसंख्या का चौथा भाग कवि है, वह इस प्रकार के ही गीत लिखते है। प्यार सदा वहाँ पर गोश्ता के लोथड़ों के नीचे फँसा रहेगा। उस प्रकार की उदासी एक दो दिन {{right|हवा के घोड़े}} {{left|२६]}}<noinclude></noinclude> sc3voncjlzh1xtqvyc4b6vl3icsm23h