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अजीत कुमार तिवारी
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<noinclude><pagequality level="4" user="ममता साव9" />{{rh|६|भाव-विलास|}}</noinclude>
{{larger|'''भावार्थ'''}}—जिस रस के अनुसार जो भाव सर्व प्रथम हृदय में उत्पन्न होता है उसे कवि लोग उसका स्थायी भाव कहते हैं। नव रसो में नौ ही स्थायी भाव हैं और फिर उनके भी अनेक भेद हैं। इनमे जो रति स्थायी भाव है; उससे शृङ्गार रस की उत्पत्ति हुई है।
{{c|{{x-larger |'''रति-लक्षण'''}}<br>
{{larger|'''दोहा'''}}}}
{{block center|<poem>नेक जु प्रियजन देखि सुनि, आन भाव चित होइ।
अति कोविद पति कविन के, सुमति कहत रति सोइ॥</poem>}}
{{larger|'''शब्दार्थ'''}}—नेक—थोड़ा भी। आन भाव—अन्य प्रकार का भाव। अतिकोविद—दिग्गज पंडित। पति कविन के—कवियों के सिरताज। सुमति—विद्वान। सोइ—उसे।
{{larger|'''भावार्थ'''}}—अपने प्रियजन को देखकर अथवा उसके विषय में सुनकर जो एक तरह का भाव (अर्थात् गुदगुदी या उमंग) हृदय में उत्पन्न होता है, उसे कवि, पंडित तथा बुद्धिमान लोग रति कहते हैं।
{{c|{{x-larger|'''उदाहरण पहला—(प्रियदर्शन से)'''}}<br>
{{larger|'''कवित्त'''}}}}
{{block center|<poem>संग ना सहेली केली करति अकेली,
::::एक कोमल नवेली वर बेली जैसी हेम की।
लालच भरे से लखि लाल चलि आये सोचि,
::::लोचन लचाय रही रासि कुल नेम की॥</poem>}}<noinclude></noinclude>
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ममता साव9
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{{larger|'''दोहा'''}}}}
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अति कोविद पति कविन के, सुमति कहत रति सोइ॥</poem>}}
{{larger|'''शब्दार्थ'''}}—नेक—थोड़ा भी। आन भाव—अन्य प्रकार का भाव। अतिकोविद—दिग्गज पंडित। पति कविन के—कवियों के सिरताज। सुमति—विद्वान। सोइ—उसे।
{{larger|'''भावार्थ'''}}—अपने प्रियजन को देखकर अथवा उसके विषय में सुनकर जो एक तरह का भाव (अर्थात् गुदगुदी या उमंग) हृदय में उत्पन्न होता है, उसे कवि, पंडित तथा बुद्धिमान लोग रति कहते हैं।
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::::एक कोमल नवेली वर बेली जैसी हेम की।
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ममता साव9
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<noinclude><pagequality level="4" user="ममता साव9" />{{rh||रति-लक्षण|७}}</noinclude><poem>{{block center|'देव' मुरझाय उरमाल उरझाय कह्यो,
{{gap}}{{gap}}दीजो सुरझाय बात पूछी छल छेम की।
भायक सुभाय भोरें स्याम के समीप आय,
{{gap}}{{gap}}गांठि छुटकाइ गांठि पारि गई प्रेम की॥}}</poem>
{{larger|'''शब्दार्थ'''}}—सहेली—सखियाँ। केली—क्रीड़ा। बरबेली जैसी हेमकी—सोने की श्रेष्ठलता के समान। लखि—देखकर। लोचन—आँखें। लचाव—झुकाकर। रासि—समूह। गरमाल—गले की माला। दीजो सुरझाय—सुलझा दो। छुटकाइ—खोलकर। गांठि छुटकाइ—गांठि को छुड़ाकर। गांठि प्रेम की—प्रेम की गाँठि बांध गयी।
<poem>{{c|{{x-larger|'''उदाहरण दूसरा—(प्रिय श्रवण से)'''}}
{{larger|'''सवैया'''}}}}
{{block center|गौने के चार चली दुलही, गुरु लोगन भूषन भेष बनाये।
सील सयान सखीन सिखायो, सबै सुख सासुरेहू के सुनाये॥
बोलिये बोल सदा हँसि कोमल, जे मन-भावन के मन भाये।
यों सुनि ओछे उरोजनि पै, अनुराग के अंकुर से उठि आये॥}}</poem>
{{larger|'''शब्दार्थ'''}}—गौने—द्विरागमन। सील—शील, सम्मान करने का स्वभाव, लज्जा। सखीन—सखियों ने। सिखायो—सिखा दिया। सासुरे—ससुराल। मनभावन—पति। बोलिये—बोलना। मनभाये—मन को अच्छे लगनेवाले। ओछे—छोटे। उरोजनि—कुचद्वय। अनुराग—प्रेम।
{{dhr|2em}}
{{rule|4em}}<noinclude></noinclude>
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अनुश्री साव
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" /></noinclude>गुनाहगार हूँ, कहीं ऐसा न हो यम आप को सचमुच गुनाहगार समझकर नरक में धकेल दें। हाँ, यह तो बताओ उस समय भी आप यही कहेंगी, मैं गुनाहगार हूँ, मैं गुनाहगार हूँ।"
उसकी माँ पाँच वक्त बे-नागा नमाज़ पढ़ती थी, नियाज देती थी।
मतलब यह कि वह सभी बात मानती थी, जो एक गुनाहगार को माननी चाहिएँ ...।
सैय्यद अधिक समय तक सोच-विचार मे डूब कर इस परिणाम पर पहुँचा; क्योंकि मेरी माँ नमाज़ पढ़ना और रोजे रखना पसन्द करती है, इसी कारण वह अपने आपको गुनाहगार समझती है और अब
नमाज-रोज़े पढ़ने की आदि बन गई है, इस लिए हर समय गुनाह का
विचार भी इसकी आदत में घुस चुका है।
सैय्यद गुनाह और शबाब के चक्कर में अपने मस्तिष्क को फँसाने
ही वाला था कि उसे राजो का विचार आया, जो अभी-अभी इसके
कमरे से बाहर गई थी...दो बातें हो सकती हैं, या तो वह सौदागरों
की नौकरी छोड़ कर हमारे यहाँ चली आई है और मेरी माँ ने जवानियों में एक और जवानी की वृद्धि करने के लिये उसे अपने पास रख लिया है, या फिर सौदागरों के ही पास है और वैसे ही इधर आ निकली है। जैसा कि इसकी आदत है, शीशे का गिलास उठा कर ले गई है, जो तिपाई पर व्यर्थ पड़ा इधर-उधर झांक रहा था; किन्तु रात वाली घटना .? उसने राजो के मुख पर जो इस घटना के बुझे हुए चिह्न देखने की चेष्टा की थी; परन्तु वह कोरी स्लेट के समान साफ़ थी।
एक दम सैय्यद का हृदय बिना किसी बात के घृणामय विचारों से लीन हो उठा? उसे राजो से घृणा थी, वह अपने मस्तिष्क की तख्ती पर सदा राजो की तस्वीर बनाया करता था। हमेशा इन मैले<noinclude>{{rh|४२]||हवा के घोड़े}}</noinclude>
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अनुश्री साव
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" /></noinclude>रंगों से जो इस राजो के जीवन में दीख पड़ते थे। इसके कोमल
हृदय को धक्का सा लगता, जब वह राजो को या सौदागर भाइयों
को राजो के साथ बँधा हुआ देखता, गोश्त और छेछड़ों के रूप में।
इससे पूर्व भी वह कई बार इस फैसले पर पहुँचता कि राजो से उसे
घृपया है...वास्तव में यह चीज़ सैय्यद को वहुत ही दुःखमय कर देती
कि "राजो" को अपने आप में घृणा नहीं थी। वह अपने आप से
बहुत खुश थी...।
एक बार सैय्यद मे इस प्रकार ग़लती हो गई थी। जो अधमता से भी अधिक बुरी थी किन्तु जब इसके मस्तिष्क ने इसको फटकारा तो वह कई दिनों नहीं, कई महीनों तक अपने आप से पृथक रहा। इसका विचार था कि जिस प्रकार लोग बुरे कामों पर एक दूसरे को बुरी निगाहों से देखते हैं या वैसा बुरा उनसे व्यवहार करते हैं। इसी प्रकार ऐसे मौकों पर वह अपने आप से ऐसा बर्ताव करते हैं; किन्तु राजो या तो अपने आप से बेखवर थी या इमके अन्दर वह मस्तिष्क न था, जो तराजू का काम दे सके।
इस युवती के विषय में सैय्यद ने इतना अधिक सोचा कि अब केवल विचार पर ही गुस्सा आने लगा। वह इसके विषय में सोचना नही चाहता था, इसलिए कि इसमें कोई आकर्षण शक्ति न थी, पर कुछ विचार किया जा सकता। वह अधम थी, सैय्यद उठ खड़ा हुआ, इस ढंग से राजो को अपने मस्तिष्क से झटका--"जैसे किसी घोड़े ने अपने शरीर से एक ही झर-झरी में सारी मक्खियाँ उड़ा दी हो, इसने सारी रात जागते हुए भी स्वयं को स्वयं अनुभव किया हो।"
भास्कर अपनी किरणें फैलाता हुआ, खिड़कियों, दरवाज़ों में फेंस-फेंस कर कमरे में पहुंचा और प्रकाश कर रहा था। जो बनावटी प्रतीत होता था। उसने खिड़कियाँ नहीं खोली और तिपाई के समीप जिस<noinclude>{{rh|हवा के घोड़े||[४३}}</noinclude>
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अनुश्री साव
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<noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" /></noinclude>आराम कुर्सी पर बैठ गया। अभी वह कुर्सी पर पूर्णतया गव न फैला
पाया था कि राजो ने कमरे में प्रवेश किया। बिना कहे या सुने, उसने
एक-एक करके सभी खिड़कियां खोली और झाड़ पोंछ कर दी। सैय्यद
इसके नटखटपन को ध्यान पूर्वक देखता रहा। राजो के मोटे-मोटे हाथों की मोटी-मोटी कलाइयों में जरा भी आकर्षण शक्ति न थी... शीशे के फूलदान को ऐसे ढंग से इस अदा से साफ किया, जिस तरह
लोहे के कलमदान को साफ किया जाता है। झाड़न द्वारा इसने तस्वीरें
जिन पर गर्द ने अपना पूर्ण अधिकार जमा रखा था, साफ की, कानस पर रखी सभी वस्तुओ को एक-एक करके उस ने साफ किया, इम दंग से जिसमें आहट न हो। जब वह बातें करती तो ऐसा प्रतीत होता कि इसकी आवाज़ रूई के नरम-नरम गालों में लिपटी हुई हो। कान के पर्दे इसकी आवाज़ से न टकरा पाते थे; केवल बाहर ही छूकर वापस आ जाती थी। इसकी प्रत्येक आवाज़ और अन्दाज ने रबड सोल जूते पहन रखे थे। सैय्यद इसे देखता रहा..नहीं उसे सुनने की चेष्टा करता रहा।
राजो ने नीलगगन के समान रंग का ऊनी कमीज पहन रखा था, जो कुहनियों पर से फटा हुआ था। यह कमीज़ शायद सौदागरों के सब से बड़े बच्चे ने दिया हो। इसके ऊपर गरम स्वेटर पहन रखा था, जिस पर जगह-जगह मैल के गोल-गोल निशान दीख रहे थे। खादी की सलवार अधिक प्रयोग के कारण सल्वार के रूप में नहीं दीख पड़ती थीं, यह प्रतीत होता था कि इसने अपने टाँगों में चादर लिपटा रखी हो। अधिक समय तक ध्यान-पूर्वक देखने के पश्चात इस सलवार के पहुँचे दीख पड़ते थे, जो इतने खुले थे कि पाँव बिल्कुल छुप जाने के कारण नहीं दीख पाते थे।
सैय्यद इसके पहुँचों की ओर देखता रहा कि राजो मुड़ी, यह<noinclude>{{rh|४४]||हवा के घोड़े}}</noinclude>
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अनुश्री साव
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" /></noinclude>कह कर अपने काम में लग गई--"आपकी चाय तैयार है, माँ जी आपकी राह देख रही हैं।"
सैय्यद का मन नहीं चाहता था कि इस से बात भी की जाये; किन्तु जाने क्यों उसने पूछ लिया--"चायबनाने के लिये, इससे किसने कहा था?"
राजो ने पलट कर आश्चर्य-जनक दृष्टि से उसकी ओर देखा आपने...अभी-अभी तो आपने कहा था कि हाँ! तैयार की जाये...
सैय्यद कुर्सी पर से उठ खड़ा हुआ, वगैर किसी झकझक के, उसने कभी ऐसा नहीं कहा था। प्रातः की चाय साढ़े बारह बजे कौन पीता है? अब नाश्ता करूँगा तो दोपहर का खाना शाम को खाऊँगा. और रात का खाना...राजो हंस पड़ी--"रात का खाना..प्रातः को।"
सैय्यद एक दम संजीदा हो गया और बोला--"इसमें हँसने की कौन-सी बात है? जाओ माँ जी से कह दो, मैं चाय नहीं पीऊँगा, भोजन करूँगा...भोजन तैयार है क्या?"
राजो अपने मुख पर से हँसी के उन चिह्नों को मिटाने की चेष्टा करते हुए भी न मिटा सकी। इसकी मुखाकृति इस प्रकार की थी, मानो
ठंडे पानी में रंग घोल कर ऊनी वस्त्रों पर चढ़ाया जाये और वह न
चढ़े। इसने धीरे से उत्तर दिया--"जी भोजन तैयार है...मैं अभी-अभी माँ जी से कहे देती हूँ कि आप चाय नहीं, भोजन करेंगे ।" यह कह कर वह जल्दी से दरवाज़े की ओर बढ़ी।
"देखो"--सैय्यद ने उसे टोक कर कहा--"मां जी से कहना कि... मैं चाय नहीं पीऊँगा, भोजन करूँगा..."मैं सारी रात जागता रहा हूँ। समझ में नहीं आता मेरी नींद को क्या हो गया था? मुहल्ले में शोर हो तो मुझे बिल्कुल भी नींद नहीं आती, रात बाहर, खुदा ही<noinclude>{{rh|हवा के घोड़े||[४५}}</noinclude>
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अनुश्री साव
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" /></noinclude>जानता है क्या गड़बड़ हो रही थी?...हाँ तो मै और कुछ न लेकर
केवल एक कप चाय ही लूँगा और उसके बाद भोजन करूँगा, अर्थात्
नियम-पूर्वक समय पर ..माँ जी कहाँ है? मैं स्वयं पता कर लूँगा..
किन्तु तुम .तुम यह क्या कर रही हो, मेरा आशय है कि मेरे कमरे
की सफाई करने को किसने कहा है, यानी तुम यहाँ कैसे आई हो?...तुम तो सौदागरों के यहाँ थीं।"
एक ही सांस में सैय्यद सारी बातें कह गया और चोर नज़रों में
उसके मुख की ओर निहारता रहा। लाली की रेखा का मध्यम सा उसे
दीख पड़ा था। जब बाहर गली में गड़बड़ की ओर संकेत किया था;
परन्तु इसके पश्चात्त इसके मुख-मंडल में कोई परिवर्तन न देख सका,
किन्तु हँसी ने इसके मुख पर जो फैलाव पैदा कर दिया था, वह अभी तक इसके साथ घटी घटनाएँ देख रहा था।
राजो ने कोई उत्तर न दिया और कमरे से बाहर चली गई, जैसे
इससे कुछ पूछा ही न हो। इस पर सैय्यद को बहुत गुस्सा आया, इसमें सन्देह नहीं कि मैंने कुछ पूछने के लिए इससे बातें नहीं की, किन्तु बिना विचार के वैसे ही कहता चला गया, जिनका कोई सम्बन्ध नहीं था? परन्तु मेरी इच्छा थी, इच्छा क्या मुझे पूर्णतया विश्वास था कि वह घबरायेगी और रात की घटना उसके मुख से फूट निकलेगी; परन्तु वह स्त्री है या ..या क्या है?
सैय्यद इसकी वाबत विचार नहीं करना चाहता था; किन्तु कोई न कोई बात ऐसे आकर सामने खड़ी हो जाती कि इसे फिर सोच विचार करना पड़ जाता था। यह स्त्री उसके जीवन में ख्वाम-खाह दाखिल होती चली आ रही थी। यह दाखिला सैय्यद को अच्छा न लगा, चुनांचे इसने निश्चय कर लिया कि वह इसे अपने घर में न रहने देगा।
जब वह अपनी माता से रसोई-घर में मिला, तब वह राजो के<noinclude>{{rh|४६]||हवा के घोड़े}}</noinclude>
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अनुश्री साव
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" /></noinclude>विषय में कुछ चाहता हुआ भी न पूछ सका। उसकी माँ ने जो उसे
बहुत ही प्यार करती थी चाय का प्याला बना कर कहा--"बेटा रात
तेरे दुश्मनों को क्यों नींद नहीं आई? मुझे राजो ने अभी कहा है कि
गली में कुछ गड़-बड़ थी। इस कारण तू सो न सका ..मैने तो कुछ
भी नहीं मुना.. मैं कहती हूँ! यदि तुम मेरे वाले कमरे में सोया करो
तो क्या हर्ज है? मेरी भी घबराहट दूर हो जायी"--"ले बाबा मैं कुछ नही कहती, जहाँ चाहे सो जाया कर अल्लाह तेरी देख-भाल करेगा . ले चाय पी...मैं तुझ से कुछ नहीं कहती .।"
वास्तव में सैय्यद राजो के विषय में कुछ कहना चाहता था, किन्तु इसकी माँ ने समझा कि वह यही कहेगा, माँ जी आप तो वैसे ही घबराया करती हैं। मैं अकेली ही सोने का आदि हूँ। किन्तु वह चुप हो रहा। उधर उराकी माँ ने उसकी हठ पर अधिक वाद-विवाद न किया। राजो चूल्हे के समीप शान्त चित बैठी सब कुछ...देखती रही।<noinclude>{{rh|हवा के घोड़े||[४७}}</noinclude>
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अनुश्री साव
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="अनुश्री साव" /></noinclude>{{x-larger|{{right|'''४'''}}}}
{{right|'''***'''}}
सैय्यद के घर राजो को नौकरी करते एक महीना बीत गया; परन्तु इस एक महीने के लम्बे समय में भी वह माँ से कुछ कह न सका, जो कहना चाहता था कि राजो को निकाल दो। अब साल के दूसरे महीने का प्रारम्भ था। सर्दी धीरे-धीरे ताप में ढल कर, निराला रूप धारण कर रही थी। दिन और रात बसन्त की प्रभात, मीठे-मीठे गीत, मीठी-मीठी सौगात, मन को मोह लेती है। पंजाब में यह महीना
बहुत ही अच्छा माना जाता है। सवेरे जब वह सैर को जाता, तो
हल्की-फुल्की खुश्क वायु का सेवन काफी देर तक करता रहता--उसे प्रत्येक वस्तु सुन्दर दीख पड़ती..।
इन्हीं दिनों की बात है कि एक दिन वह कम्पनी बाग़ से सवेरे सैर से वापिस घर आया, तो उसे अपना शरीर गर्म-सा महसूस हुआ। बिस्तर पर लेटते ही ज्वर हो गया। उसके पुराने मित्र ने भी अपना<noinclude>{{rh|४८]||हवा के घोड़े}}</noinclude>
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पृष्ठ:हवा के घोड़े.djvu/५०
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Manisha yadav12
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text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Manisha yadav12" /></noinclude>करिश्मा दिखाया, यानी जुकाम भी बड़े जोर में हो गया और उसका नाक बेजान-सी हो गई। दूसरे दिन खाँसी भी आ गई और तीसरे दिन छाती में दर्द और धीरे-धीरे बुखार १०५ दरजे तक पहुँच गया। उसकी माँ ने पहले दिन ही डाक्टर को बुलाया था; परन्तु उसकी दवाई से कुछ लाभ न हुआ।
आश्चर्यजनक बात है, जब सैय्यद को बुखार अधिक चढ़ जाता, तो उसका दिमाग़ थोड़ा तेज हो जाता। ऐसी-ऐसी बातें उसके दिमाग में आतीं, जो वह वैसे कभी न सोच पाता था। विचार की शक्ति उतनी तेज हो जाती कि शरीर में बेचैनी पैदा कर देती कि वह घबड़ा उठता, उसके हृदय पर नये-चक्कर की रेखाएँ अङ्कित हो जातीं, जब उसे अधिक बुखार चढ़ता, जिनका विचार वह मामूली अवस्था से न कर पाता था। वह अनुभव करता कि उसके सभी विचार सान पर लगा कर नोकीले और तेज़ हो गए हैं ..।
बुखार की अवस्था में वह संसार की सभी समस्याओं पर विचार करता, एक नई रोशनी में नए अनोखे अन्दाज़ में वह संसार की बुरी से बुरी वस्तु पर विचार करता, चिट्ठियों को उठाकर नील गगन पर नन्हें-नन्हें इन चमकते हुए सितारों के साथ चिपटा देता ओर उन सितारों को तोड़ पृथ्वी पर फेंक देता।
बुखार १०५ डिग्री मे कुछ बढ़ा, तब सैय्यद के दिमाग का इतिहासपृष्ठ उलटने लगा। क्षण भर में सैकड़ों नहीं, हज़ारों पृष्ट उल्टे और प्रसिद्ध-प्रसिद्ध घटनाएँ ऊपर-तले खट-खट करते, उसके दिमाग में से होते हुए निकल गए। बुखार कुछ और बढ़ा, तो पानीपत का युद्ध, ताजमहल के श्वेत भवन में लोप हो गया, तब कुतुब साहब की लाठ कटी हुई भुजा के समान बन गई और धीरे-धीरे चारों ओर धुन्धलाहट ही धुन्धलाहट छा गई।<noinclude>{{rh|हवा के घोड़े||[४९}}</noinclude>
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