आयुर्वेद

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आयुर्वेद के प्रणेता ब्रह्मा  जिन्होंने ब्रह्मसंहिता की रचना की
आयुर्वेद के प्रणेता ब्रह्मा जिन्होंने ब्रह्मसंहिता की रचना की

आयुर्वेद आयुर्विज्ञान की प्राचीन भारतीय पद्धति है। यह आयु का वेद अर्थात आयु का ज्ञान है। जिस शास्त्र के द्वारा आयु का ज्ञान कराया जाय उसका नाम आयुर्वेद है। शरीर, इन्द्रिय सत्व, और आत्मा के संयोग का नाम आयु है। आधुनिक शब्दों में यही जीवन है। प्राण से युक्त शरीर को जीवित कहते है। आयु और शरीर का संबंध शाश्वत है। आयुर्वेद में इस सम्बन्ध में विचार किया जाता है। फलस्वरुप वह भी शाश्वत है। जिस विद्या के द्वारा आयु के सम्बन्ध में सर्वप्रकार के ज्ञातव्य तथ्यों का ज्ञान हो सके या जिस का अनुसरण करते हुए दीर्घ आशुष्य की प्राप्ति हो सके उस तंत्र को आयुर्वेद कहते हैं, आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है।

यह मनुष्य के जीवित रहने की विधि तथा उसके पूर्ण विकास के उपाय बतलाता है, इसलिए आयुर्वेद अन्य चिकित्सा पद्धतियों की तरह एक चिकित्सा पद्धति मात्र नही है, अपितु सम्पूर्ण आयु का ज्ञान है। आयुर्वेद में आयु के हित (पथ्य, आहार, विहार), अहित (हानिकर, आहार, विहार), रोग का निदान और व्याधियों की चिकित्सा कही गई है। हित आहार, सेवन एवं अहित आहार त्याग करने से मनुष्य पूर्ण रुप से स्वस्थ रह सकता है। आयुर्वेद के अनुसार स्वस्थ व्यक्ति ही जीवन के चरम लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। पुरुषार्थ चतुष्टयं की प्राप्ति का मुख्य साधन शरीर है अतः उसकी सुरक्षा पर विशेष बल देते हुए आयुर्वेद कहता है कि धर्म अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति का मुख्य साधन शरीर है। सम्पूर्ण कार्यों विशेष रुप से शरीर की रक्षा करना चाहिए। [तथ्य चाहिए]भाव प्रकाश, आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ, मे कहा गया है कि जिस शास्‍त्र के द्वारा आयु का ज्ञान, हित और अहित आहार विहार का ज्ञान, व्‍याधि निदान तथा शमन का ज्ञान प्राप्ति किया जाता है, उस शास्‍त्र का नाम आयुर्वेद है। Template:भाव प्रकाश

अनुक्रमणिका

[बदलें] आयुर्वेद का प्रारम्भ और विकास

नागार्जुन, आयुर्वेद के भिषज्
नागार्जुन, आयुर्वेद के भिषज्

आयुर्वेद के इतिहास पर यदि अवलोकन किया जाय तो इसकी उत्‍पत्ति महर्षि देवता ब्रह्मा जी द्वारा माना गया है, जिन्होंने ब्रह्मसंहिता की रचना की थी। कहा जाता है कि ब्रह्मसंहिता में दस लाख श्‍लोक तथा एक हजार अघ्‍याय थे, लेकिन आधुनिक काल में यह ग्रंथ उपलब्‍ध नहीं है।

आयुर्वेद के ज्ञान के आदि श्रोत वेद मानें जाते हैं। यद्यपि आयुर्वेद का वर्णन सभी चारों वेदों में किया गया है, लेकिन अथर्ववेद से अधिक साम्‍यता होंनें के कारण महर्षि सुश्रुत नें उपांग और महर्षि वाग्‍भट्ट नें उपवेद बताया है। महर्षि चरक नें भी अथर्ववेद से सबसे अधिक नजदीकी विवरण मिलनें के कारण आयुर्वेद को इसी वेद से जोडा है।[तथ्य चाहिए]

इसी कडी में, ऋग्वेद में आयुर्वेद को उपवेद की संज्ञा दी गयी है। महाभारत में भी आयुर्वेद को उपवेद कहा गया है[तथ्य चाहिए]पुराणों में भी वर्णन प्राप्‍त है[तथ्य चाहिए]ब्रह्मवैवर्तपुराण में आयुर्वेद को पांचवां वेद कहा गया है[तथ्य चाहिए]। वास्‍तव में किसी भी वैदिक साहित्‍य में आयुर्वेद शब्‍द का वर्णन नहीं मिलता, फिर भी महर्षि पाणिनि द्वारा रचित ग्रंथ अष्‍टाध्‍यायी में आयुर्वेद शब्‍द प्राप्‍त होता है[तथ्य चाहिए]

आयुर्वेद का सम्‍पूर्ण वर्णन प्रमुख रूप से चरक संहिता और सुश्रुत संहिता में किया गया है। अन्‍य संहिताओं यथा काश्‍यप संहिता, हरीत संहिता, में इसका वर्णन किया गया है, लेकिन ये सम्‍पूर्ण नहीं हैं। अष्टाङ्ग संग्रह, अष्टाङ्ग हृदय, भाव प्रकाश, माधव निदान इत्‍यादि ग्रंथों का सृजन चरक और सुश्रुत को आधार बनाकर रचित की गयीं हैं। समय के परिवर्तन के साथ साथ निदानात्‍मक और चिकित्‍सकीय अनुभवों को लेखकों नें अपने अपने दृष्टिकोणों और विचारों को अनुकूल समझ कर संस्‍कृत भाषा में लिपिबद्ध किया।

[बदलें] आयुर्वेद का उद्देश्य

संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो दुःखी होना चाहता हो। सुख की चाह प्रत्येक व्यक्ति की होती है, परन्तु सुखी जीवन उत्तम स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। स्वस्थ और सुखी रहने के लिए यह आवश्यक है कि शरीर में कोई विकार न हो और यदि विकार हो जाए तो उसे शीघ्र दूर कर दिया जाये। आयुर्वेद का मुख्य लक्ष्य व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना एवं रोगी हो जाने पर उसके विकार का प्रशमन करना है। ऋषि जानते थे कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति स्वस्थ जीवन से है इसीलिए उन्होंने आत्मा के शुद्धिकरण के साथ शरीर की शुद्धि व स्वास्थ्य पर भी विशेष बल दिया है।

आयुर्वेद के विकास क्रम और विकास के इतिहास पर दृष्टिपात करनें से ऐसा समझा जाता है कि आदिम काल के पूर्वजों नें रोंगों से मुक्ति पानें के लिये जिन जंगली जड़ी बूटियों, रहन, सहन और अन्‍य पदार्थों को रोगानुसार आरोग्‍यार्थ स्‍वरूप में स्‍वीकार किया, वे यह सारा ज्ञान अपनें बाद की पीढियों को देते चले गये। यह सारा ज्ञान श्रुति और स्‍मृति पर आधारित रहा। कालान्‍तर में यह ज्ञान एक स्‍थान पर एकत्र होता गया। जब गुरूकुलों की स्‍थापना हुयी तो धर्म, कर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इत्‍यादि की प्राप्ति के लिये यह कहा गया कि जब तक तन और मन स्‍वस्‍थ्य नहीं होंगे, ऐसा उद्देश्‍य प्राप्‍त करना कठिन है, इसलिये पहली आवश्‍यकता शरीर को स्‍वस्‍थ्‍य बनाये रखना है।

जब तक लिपि का आविष्‍कार नहीं हुआ था तब तक यह ज्ञान स्‍मृति और श्रुति के सहारे जीवित रहा। जब लिपियों का आविष्‍कार हुआ तब यह ज्ञान पत्‍थरों से लेकर भोजपत्र में संचित करके रखा गया।

[बदलें] आयुर्वेद अवतरण

आयुर्वेद के अवतरण की कई गाथायें हैं :

चरक संहिता के अनुसार ब्रह्मा जी नें आयुर्वेद का ज्ञान दक्ष प्रजापति को दिया, दक्ष प्रजापति नें यह ज्ञान दोनों अश्विनी कुमार को दिया, अश्‍वनी कुमारों नें यह ज्ञान इन्‍द्र को दिया, इन्‍द्र नें यह ज्ञान भारद्वाज को दिया, भारद्वाज नें यह ज्ञान आत्रेय पुनर्वसु को दिया, आत्रेय पुनर्वसु नें यह ज्ञान अग्निवेश, जतूकर्ण, भेल, पराशर, हरीत, क्षारपाणि को दिया /

सुश्रुत संहिता के अनुसार ब्रम्‍हा जी नें आयुर्वेद का ज्ञान दक्षप्रजापति को दिया, दक्ष प्रजापति नें यह ज्ञान अश्‍वनीं कुमार को दिया, अश्‍वनी कुमार से यह ज्ञान धन्‍वन्‍तरि को दिया, धन्‍वन्‍तरि नें यह ज्ञान औपधेनव और वैतरण और औरभ और पौष्‍कलावत और करवीर्य और गोपुर रक्षित और सुश्रुत को दिया ।

काश्‍यप संहिता के अनुसार ब्रम्‍हा जी नें आयुर्वेद का ज्ञान अश्‍वनी कुमार को दिया और अश्‍वनीं कुमार नें यह ज्ञान इन्‍द्र को दिया और इन्‍द्र ने यह ज्ञान कश्‍यप और वशिष्‍ठ और अत्रि और भृगु आदि को दिया । इनमें से एक शिष्‍य अत्रि नें यह ज्ञान अपनें पुत्र और अन्‍य शिष्‍यों को दिया ।

सृष्टि के प्रणेता ब्रह्मा द्वारा एक लाख सूत्रों में आयुर्वेद का वर्णन किया गया और इस ज्ञान को दक्ष प्रजापति द्वारा ग्रहण किया गया तत्पश्चात् दक्ष प्रजापति से यह ज्ञान सूर्यपुत्र अश्विन कुमारों को और अश्विन कुमारों से स्वर्गाधिपति इन्द्र को प्राप्त हुआ। आयुर्वेद के इतिहास से यह ज्ञात होता है कि इन्द्र के द्वारा यह ज्ञान पुनर्वसु आत्रेय को यह प्राप्त हुआ। शल्य शास्त्र के रुप में यह ज्ञान आदि धन्वन्तरि को प्राप्त हुआ। और स्त्री एवं बाल चिकित्सा के रुप में यह ज्ञान इन्द्र से महर्षि कश्यप को दिया गया। उपरोक्त वर्णन से यह ज्ञात होता है कि भारत में प्रारंभ से ही चिकित्सा ज्ञान, काय चिकित्सा, शल्यचिकित्सा, स्त्री एवं बालरोग चिकित्सा रुप में विख्यात हुआ था। उपरोक्त इस विशेष कथन से यह बात भी प्रमाणित होती है कि चिकित्सा कार्य को करने के लिए आज की राज आज्ञा के अनुरुप चिकित्सा कार्य करने के लिए स्वर्गाधिपति इन्द्र से अनुमति प्राप्त करनी आवश्यक होती थी।

चरक संहिता को काश्‍मीर राज्‍य के आयुर्वेदज्ञ दृढ़बल नें पुर्नसंगृहित किया। इस समय के प्रसिद्ध आयुर्वेदज्ञों में मत्‍त, मान्‍डव्‍य, भास्‍कर, सुरसेन, रत्‍नकोष, शम्‍भू, सात्विक, गोमुख, नरवाहन, इन्‍द्रद, काम्‍बली, व्‍याडि आदि रहे हैं।

महात्‍मा बुद्ध के समय में आयुर्वेद विज्ञान नें सबसे अधिक प्रगति रस चिकित्‍सा विज्ञान और रस विद्या में किया है। इसी कारण बौद्ध युग को रस शास्‍त्र का स्‍वर्ण युग कहा जाता है।

रस विद्या तीन भागों 1- धातु विद्या 2- रस चिकित्‍सा 3- क्षेम विद्या, में विभाजित हुयी ।

[बदलें] शल्‍य चिकित्‍सा पर प्रतिबन्‍ध

कलिंग विजय के पश्‍चात सम्राट अशोक नें भगवान बुद्ध के उपदेशों से प्रभावित होकर अपनें राज्‍य में रक्‍तपात और रक्‍तपात से संबंधित समस्‍त कार्यकलापों पर पूर्णत: प्रतिबन्‍ध लागू कर दिया। इससें कालान्‍तर में शनै: शनै: आयुर्वेद में प्रचिलित शल्‍य चिकित्‍सा का अभ्‍यास प्रभावित हुआ और अन्‍तत: एक प्रकार से शल्‍यचिकित्‍सा का लोप होता चला गया। लेकिन दूसरी तरफ रस चिकित्‍सा में अदभुत रूप से प्रगति हुयी। केवल रसौषधियों के बल पर साध्‍य, कष्‍ट साध्‍य और असाध्‍य रोंगों की चिकित्‍सा विधियों की खोज की गयी।

बौद्ध युग के सिद्ध आयुर्वेदज्ञों में भगवान बुद्ध के शिष्‍य नागार्जुन तृतीय ने रस विद्या के उत्‍थान के लिये बहुत योगदान दिया। भगवान बुद्ध के शिष्‍यों में लगभग आठ नागार्जुन हुये हैं। ऐसा समझा जाता है कि आयुर्वेद रस-चिकित्‍सा विज्ञान के उत्‍थान और शोध में सभी नागार्जुनों का अमूल्‍य योगदान रहा है।

[बदलें] आयुर्वेद के मूल सिद्धान्त

आयुर्वेद, के विद्वान मनीषियों नें चिकित्‍सा-विधि को ज्ञान एवं तर्क युक्‍त बनानें के लिये बहुत से मूल सिद्धान्तों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते हुये संरचनायें की हैं. ये इस प्रकार रचित की गयीं हैं -


[बदलें] त्रिदोष

मुख्य लेख: त्रिदोष

मुख्यतः यह तीन होते हैं जिन्‍हें वात, पित्‍त और कफ कहते हैं (ये एकल दोष कहे जाते हैं)।

जब वात और पित्‍त अथवा पित्‍त और कफ अथवा वात और कफ ये दो दोष मिल जाते हैं , तब इस मिश्रण को द्विदोषज कहते हैं।

जब वात, पित्‍त और कफ ये तीनों दोष एक साथ मिल जाते हैं , तब इस मिश्रण को त्रिदोषज या सन्निपातज कहते हैं।

[बदलें] त्रिदोष के पांच भेद

मुख्य लेख: त्रिदोष के प्रत्‍येक के पांच भेद

हरेक दोष के पांच भेद आयुर्वेद के मनीषियों नें निर्धारित किये हैं /

वात दोष के पांच भेद (1) समान वात (2) व्‍यान वात (3) उदान वात (4) प्राण वात (5) अपान वात हैं। वात दोष को ‘’ वायु दोष ‘’ भी कहते हैं।

पित्‍त दोष के पांच भेद होते हैं: 1- पाचक पित्‍त 2- रंजक पित्‍त 3- भ्राजक पित्‍त 4- लोचक पित्‍त 5- साधक पित्‍त

इसी प्रकार कफ दोष के पांच भेद होते हैं: 1- श्‍लेष्‍मन कफ 2- स्‍नेहन कफ 3- रसन कफ 4- अवलम्‍बन कफ 5- क्‍लेदन कफ

आधुनिक आयुर्वेदज्ञ वातादि दोषों के भेदों को फिजियोलांजिकल बेसिस आंफ डिसीजेज के समकक्ष मानते हें। कुछ अन्‍य विदृवान इसे असामान्‍य एनाबालिजम की तरह से समझते हैं।

[बदलें] सप्‍त धातु

मुख्य लेख: सप्‍त धातु

आयुर्वेद के मौलिक सिदधान्‍तों में सप्‍त धातुओं का बहुत महत्‍व है| इनसे शरीर का धारण होता है, इसी कारण से धातु कहा जाता है। ये संख्‍या में सात होती है -

  1. रस धातु
  2. रक्‍त धातु
  3. मांस धातु
  4. मेद धातु
  5. अस्थि धातु
  6. मज्‍जा धातु
  7. शुक्र धातु

सप्‍त धातुयें वातादि दोषों से कुपित होंतीं हैं| जिस दोष की कमी या अधिकता होती है, सप्‍त धातुयें तदनुसार रोग अथवा शारीरिक विकृति उत्‍पन्‍न करती हैं|

आधुनिक आयुर्वेदज्ञ सप्‍त धातुओं को पैथोलांजिकल बेसिस‍ आंफ डिसीजेज के समतुल्‍य मानते हैं|

[बदलें] मल-आयुर्वेद

मुख्य लेख: मल-आयुर्वेद

मल तीन प्रकार के होतें हैं

  1. पुरीष
  2. मूत्र
  3. स्‍वेद

[बदलें] आयुर्वेद के आठ अङ्ग : अष्टाङ्ग आयुर्वेद

चिकित्‍सा के दृष्टिकोण से आयुर्वेद को आठ अंगों में वर्गीकृत किया गया है । इसे "अष्टाङ्ग आयुर्वेद" कहते हैं ।

[बदलें] आयुर्वेद में नयी खोजें

आयुर्वेद लगभग, 5000 वर्ष पुराना चिकित्‍सा विज्ञान है. इसे भारतवर्ष के विद्वानों नें भारत की जलवायु, भौगालिक परिस्थितियों,भारतीय दर्शन, भारतीय ज्ञान-विज्ञान के द्ष्टकोण को घ्‍यान में रखते हुये विकसित किया.

वतर्मान में स्‍वतंत्रता के पश्‍चात आयुर्वेद चिकित्‍सा विज्ञान नें बहुत प्रगति की है. भारत सरकार द्वारा स्‍थापित संस्‍था ‘’केन्द्रीय आयुर्वेद एवं सिद्ध अनुसं‍धान परिषद’’,[Central council for research in Ayurveda and Siddha, CCRAS]नई दिल्‍ली, भारत, आयुर्वेद में किये जा रहे अनुसन्‍धान कार्यों को समस्‍त देश में फैले हुये शोध सन्‍स्‍थानों में सम्‍पन्‍न कराता है। बहुत से एन0जी0ओ0 और प्राइवेट सन्‍स्‍‍थान तथा अस्‍पताल और व्‍यतिगत आयुर्वेदिक चिकित्‍सक शोध कार्यों में लगे हुये है।


[बदलें] त्रिफला पर शोध

आयुर्वेद की इस प्रसिद्ध औषधि पर विश्‍व के कई वैज्ञानिक सास्‍थाओं में शोध कार्य किये गये हैं। भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर , ट्राम्‍बे,गुरू नानक देव विश्‍वविद्यालय, अमृतसर और जवाहर लाल नेहरू विश्‍वविद्यालय में त्रिफला पर रिसर्च करनें के पश्‍चात यह निष्‍कर्ष निकाला गया कि त्रिफला कैंसर के सेलों को बढ़नें से रोकता है।

[बदलें] अश्‍वगंधा पर शोध

ब्रिटेन के चिकित्‍सा विज्ञानियों नें जानवरों पर भारतीय जड़ी-बूटी अश्‍वगंधा का अध्‍ययन करनें के पश्‍चात यह निष्‍कर्ष निकाला है कि इससे अल्‍झाइमर रोग पर नियंत्रण होता है।

[बदलें] क्षार सूत्र चिकित्‍साका बवासीर और भगन्‍दर में उपयोग

शास्‍त्रोक्‍त क्षार सूत्र चिकित्‍सा से बवासीर और भगन्‍दर जैसे रोग जड़ से आरोग्‍य होते हैं, इस तथ्‍य की सत्‍यता पर अमेरिकी चिकित्‍सा विज्ञानियो नें मुहर लगा दी है।

[बदलें] पंचकर्म में प्रयुक्‍त स्वचालित मशीन

आई0आई0टी0 Indian Institute of Technology IIT, नयी दिल्‍ली और के0आ0सि0अ0प0 CCRAS, नई दिल्‍ली ने संयुक्‍त प्रयास करके आयुर्वेद के पंचकर्म को आधुनिक रूप देनें के लिये आटोमेटिक मशीन का र्निमाण किया है। यह मशीन केन्‍द्रीय आयुर्वेद अनुसन्‍धान संस्‍थान, रोड नम्‍बर 66, पंजाबी बाग –वेस्‍ट-, नई दिल्‍ली, भारत मे प्रयोग की जा रही है।

[बदलें] प्रयोगशाला विधि से आयुर्वेदिक औषधियों का निदान

  • एक आयुर्वेदिक चिकित्‍सक नें मरीजों के रक्‍त से आयुर्वेदिक औषधि निदान करनें की विधि विकसित की है । इसे ‘’ब्‍लड सिरम फ्लाकुलेशन टेस्‍ट’’[Blood serum flocculation test] का नाम दिया गया है।
  • बीमार व्‍यक्तियों का रक्‍त लेकर आयुर्वेदिक दवाओं का निदान करने की एक विधि केन्‍द्रीय आयुर्वेद अनुसन्‍धान संस्‍थान Central Research Institute of Ayurveda-CRIA, नई दिल्‍ली में विकसित की गयी है, इस विधि पर परीक्षण कार्य किये जा रहे हैं।

[बदलें] शंखद्राव आधारित औषधियां

आयुर्वेद के ग्रंथ ‘’रसतरन्गणी’’ मे वर्णित शंखद्राव औषधि को आधार बनाकर आयुर्वेद के एक चिकित्‍सक नें धातुओं और जडी-बूटिओं और जीव जन्‍तुओं के सार भाग से फास्‍फेट, सल्‍फेट,म्‍यूरियेट,नाइट्रेट,नाइट्रोम्‍यूरियेट तैयार किये हैं। ‘’शंखद्राव आधारित आयुर्वेदिक औषधियां’’ इस शोध कार्य की सराहना नेशनल इनोवेशन फाउन्‍डेशन, अहमदाबाद, भारत द्वारा की जा चुकी है। इस विधि से सर्पगन्‍धा नाइट्रेट, सर्पगन्‍धा म्‍यूरियेट, सर्पगन्‍धा सल्‍फेट, सर्पगन्‍धा फास्‍फेट, सर्पगन्‍धा नाइट्रोम्‍यूरियेट के अलावा लगभग 70 से अधिक औषधियो का र्निमाण तथा परीक्षण किये जा चुके हैं।

[बदलें] विदेशों में आयुर्वेद पर शोध कार्य

भारत के अलावा अन्‍य देशों में यथा अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, जापान, नेपाल,म्‍यानमार, श्री लंका आदि देशों में आयुर्वेद की औषधियों पर शोध कार्य किये जा रहे हैं।

[बदलें] इलेक्‍ट्रोत्रिदोषग्राम (ई.टी.जी.)-नाडी-विज्ञान का आधुनिक स्‍वरूप-आयुर्वेद के सिद्धान्तों की साक्ष्‍य आधारित प्रस्‍तुति Evidence based presentation

सम्‍पूर्ण आयुर्वेद त्रिदोष के सिद्धान्तों पर आधरित है. त्रिदोष सिद़धान्‍त यथा वात,पित्‍त, कफ तीन दोष शरीर में रोग पैदा करते हैं. इन दोषों का ज्ञान करनें का एकमात्र उपाय नाडी परीक्षण है, जिसे प्राप्‍त करना बहुत आसान कार्य नही है / नाडी परीक्षण के परिणामों को देखा नहीं जा सकता है कि शरीर में प्रत्‍येक दोष का कितना असर है और ये दोष कितनीं मात्रा मे उपस्थित हैं। केवल मात्र नाडी परीक्षण अनुमान पर आधारित है। वात, पित्‍त, कफ दोष का ‘’स्‍टेटस क्‍वान्‍टीफाइ’’ करना कठिन काम अवश्‍य है। इससे अधिक कठिन काम वातादि दोषों के पांच पांच यानी पंद्रह भेंदों को इनकी उपस्थिति के अनुसार ज्ञान कर लेना। इसके पश्‍चात ‘’सप्‍त धातुओं’’ का उपस्थिति आंकलन करना भी आसान काम नहीं है। तीन प्रकार के मल, ओज, सम्‍पूर्ण ओज का आंकलन करना दुरूह कार्य अवश्‍य है।

एक भारतीय, कानपुर शहर, उत्‍तर प्रदेश राज्‍य निवासी, आयुर्वेदिक चिकित्‍सक डा0 देश बन्‍धु बाजपेयी ने ऐसी तकनीक का विकास किया है , जिससे आयुर्वेद के मौलिक सिद़धांतों का शरीर में कितना प्रभाव और असर है, यह सब ज्ञात किया जा सकता है.इस तकनीक को ‘’इलेक्‍ट्रो-त्रिदोष-ग्राम/ग्राफ/ग्राफी’’ अथवा संक्षिप्‍त में ‘’ई0टी0जी0’’ के नाम से जाना जाता है।

ई0टी0जी0 तकनीक से आयुर्वेद के निदानात्‍मक दृष्टिकोणों को निम्‍न स्‍वरूपों में प्राप्‍त करते हैं.

इन मौलिक सिद्धान्‍तों के अलावा ई0 टी0 जी0 तकनीक से आधुनिक चिकित्‍सा विज्ञान के नैदानिक द्रष्टिकोण को ध्‍यान में रखते हुये शरीर में व्‍याप्‍त बीमारियों का निदान सटीक तरीके से किया जा सकता है। चूंकि इस विधि से सम्‍पूर्ण शरीर का परीक्षण करते हैं अत: सम्‍पूर्ण शरीर के समान्‍य अथवा असामान्‍य कार्य करनें वाले अंगों या हिस्‍सों का पता लग जाता है। जिससे इलाज करने मे आसानी हो जाती है !

ई0टी0जी0 मशीन की सहायता से सम्‍पूर्ण शरीर के 21 हिस्‍सों से ट्रेस रिकार्ड करते हैं। यह ट्रेस रिकार्ड ई0टी0जी0 मशीन द्वारा एक कागज की पटटी पर रिकार्ड करते हैं, कम्‍प्‍यूटर साफ़टवेयर की मदद से आयुर्वेद के मौलिक सिदधान्‍तों का आंकलन करते हैं. इस तकनीक की मदद लेकर आयुर्वेद के विकास की असीम सम्‍भावनायें हैं.

वर्तमान में आधुनिक चिकित्‍सा विज्ञान के द्वारा प्राय: शरीर की जांच के लिये सभी परीक्षण किये जा रहे हैं ! आयुर्वेद के 5000 साल के इतिहास में यह पहली साक्ष्‍य आधारित अकेली परीक्षण विधि का आविष्‍कार वर्तमान काल मे हुआ है।

[बदलें] अ-वैज्ञानिक चिकित्‍सा विज्ञान

आधुनिक चिकित्‍सा विज्ञान एलोपैथी के समर्थन करनें वाले चिकित्‍सा विज्ञानियों का मानना है कि आयुर्वेद एक अवैज्ञानिक चिकित्‍सा पद्धति है और इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। जिस प्रकार एलोपैथी में रोगों के कारण बैक्‍टीरिया, इन्‍फेक्‍सन, जेनेटिक आदि होते हैं और औषधियों के परीक्षण जानवरों पर होते हैं और परिणाम प्रप्‍त करनें तक की सारी प्रक्रिया साक्ष्‍य आधारित [Evidence Based] होती है वैसा आयुर्वेद में कुछ भी नहीं है और सब कुछ कपोल कल्‍पना पर आधारित है।

जनरल आंफ पोस्‍ट ग्रेजुएट मेडिसिन में चिकित्‍सा विज्ञानियों नें दावा किया है कि ऐसी तमाम आयुर्वेदिक औषधियां हैं जिनमें एलापैथिक स्‍टेरायड मिले हुये होते हैं।

जनरल आंफ अमेरिकन मेडिकल एसोसियेशन नें एक अध्‍ययन के पश्‍चात यह निष्‍कर्ष निकाला है कि एशिया के बाजारों से प्राप्‍त आयुर्वेदिक दवाओं के सैंपिल जांचनें में हेवी मेटल [Heavy metals] यानी भारी धातुयें जैसे पारा, शीशा और संखिया जैसे जहरीले पदार्थ 20 प्रतिशत नमूनों में मात्रा से अधिक प्राप्‍त हुआ है।

[बदलें] संदर्भ

[बदलें] टीका-टिप्पणी

    [बदलें] ग्रन्थसूची

    • चरक संहिता1
    • सुश्रुत संहिता2
    • वाग्‍भट्ट3
    • भाव प्रकाश, रचनाकार भाव मिश्र4
    • शारंगधर संहिता5
    • आयुर्वेद की नयी खोज, इलेक्‍टरो-त्रिदोष-ग्राम, ई0टी0जी0, दि मांरल साप्‍ताहिक समाचार पत्र, कानपुर, India6
    • पंचकर्म
    • रस चिकित्‍सा – लेखक- डा0 प्रभाकर चटर्जी7
    • भारतीय रसशास्‍त्र: लेखक- डा0 विश्‍वनाथ द्विवेदी8
    • बनौषधि चन्‍द्रोदय : लेखक – भन्‍डारी 9
    • द्रव्‍य गुण विज्ञान : लेखक – प्रियव्रत चौबे10
    • कल्‍याण आरोग्‍य अंक, 2001, मासिक पत्रिका, गोरखपुर, उ0प्र011

    [बदलें] यह भी देखे

    [बदलें] बाहरी कड़ियाँ


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