नेताजी सुभाषचन्द्र बोस

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सुभाषचन्द्र बोस
23 जनवरी 1897 – 18 अगस्त 1945 (विवादित)

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस
उपनाम : नेताजी
जन्मस्थल : कटक,भारत
मृत्युस्थल: ताइवान (विवादित)
आन्दोलन: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
प्रमुख संगठन: आज़ाद हिन्द फौज


सुभाषचन्द्र बोस (बांग्ला: সুভাষ চন্দ্র বসু सुभाष चॉन्द्रो बॉसु) (23 जनवरी 1897 - 18 अगस्त, 1945 ????) जो नेताजी नाम से भी जाने जाते हैं, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रेसर नेता थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिये, उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज बनायी थीं। उन्होंने दिया जय हिन्द का नारा, भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया हैं।

1944 में अमरिकी पत्रकार लुई फिशर से बात करते हुए, महात्मा गाँधी ने नेताजी को देशभक्तों का देशभक्त कहा था।

नेताजी का योगदान और प्रभाव इतना बडा था, कि कहा जाता हैं कि अगर उस समय नेताजी भारत में उपस्थित रहते, तो शायद भारत एकसंध राष्ट्र बने रहता और भारत का विभाजन न होता। स्वयं गाँधीजी ने इस बात को स्वीकार किया था।

अनुक्रमणिका

[बदलें] जन्म और कौटुंबिक जीवन

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती था।

जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकिल थे। पहले वे सरकारी वकील रहा करते थे, मगर बाद में उन्होंने स्वयं अपनी वकालत शुरू की थी। उन्होंने कटक की महापालिका में कई काल काम किया था और वे बंगाल विधानसभा के भी सदस्य थे। अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें रायबहाद्दर किताब दिया था।

प्रभावती देवी के पिता का नाम गंगानारायण दत्त था। दत्त परिवार कोलकाता का एक रईस खानदान था।

प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 संताने थी। उनमें 6 बेटीयाँ और 8 बेटे थें। सुभाषचंद्र उनकी नववे संतान और पॉंचवें बेटे थें।

अपनें सभी भाईयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था। शरदबाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थें। सुभाष उन्हें मेजदा कहते थें। शरदबाबू की पत्नी का नाम विभावती था।

[बदलें] पढ़ाई और विद्यार्थी जीवन

बचपन में, सुभाष कटक में रॅवेन्शॉ कॉलिजिएट हायस्कूल नामक पाठशाला में पढतें थें। इस पाठशाला में उनके शिक्षक का नाम वेणीमाधव दास था। वेणीमाधव दास अपने छात्रों में देशभक्ती की चिंगार जगाते थें। उन्होंने सुभाष के अंदर की सुप्त देशभक्ती को जागृत किया।

15 साल की उमर में, सुभाष गुरू की खोज में हिमालय गये थे। यह गुरू की खोज असफल रही। लेकिन बाद में, स्वामी विवेकानंद का साहित्य पढकर, सुभाष उनके शिष्य बन गये थे।

महाविद्यालय में पढ़ाई करते समयही, अन्याय के खिलाफ झगडने की उनकी प्रवृत्ती दिखाई देती थी। कोलकाता के प्रेसिडेंसी महाविद्यालय के अंग्रेज़ प्राध्यापक ओटेन का भारतीय छात्रों के साथ वर्तन ठीक नहीँ रहता था। इसलिए सुभाष ने महाविद्यालय में हडताल पुकारी थी।

1921 में इंग्लैंड जाकर, सुभाष भारतीय नागरी सेवा की परीक्षा में सफल हुए। लेकिन उन्होंने अंग्रेज़ सरकार की सेवा करने से इन्कार किया और इस्तीफा देकर वे वापस भारत आ गये।

[बदलें] स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश और कार्य

कोलकाता के स्वतंत्रता सेनानी, देशबंधू चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर, सुभाष दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से उन्होंने दासबाबू को खत लिखकर, उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की।

रविंद्रनाथ ठाकूर की सलाह के अनुसार, भारत वापस आने पर वे सर्वप्रथम मुम्बई गये और महात्मा गाँधी से मिले। मुम्बई में गाँधीजी मणिभवन में वास्तव्य करते थे। वहॉं, 20 जुलै, 1921 के दिन, महात्मा गाँधी और सुभाषचंद्र बोस पहली बार एक दुसरे से मिलें।

गाँधीजी ने भी उन्हें कोलकाता जाकर दासबाबू के साथ काम करने की सलाह दी। इसके बाद सुभाषबाबू कोलकाता आ गए और दासबाबू से मिले। दासबाबू उन्हें देखकर बहुत खुष हुए। उन दिनों में गाँधीजी ने अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ असहयोग आंदोलन चलाया था। दासबाबू इस आंदोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहें थें। उनकें साथ में सुभाषबाबू इस आंदोलन में सहभागी हो गए।

1922 में दासबाबू नें कॉंग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अंदर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिए, कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लडकर जीता। स्वयं दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गए। उन्होंने सुभाषबाबू को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाषबाबू ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पुरा ढॉंचा और काम करने का तरिका ही बदल डाला। कोलकाता के रास्तों के अंग्रेज़ नाम बदलकर, उन्हें भारतीय नाम दिए गए। स्वतंत्रता संग्राम में प्राण समर्पण करनेवालों के परिवार के सदस्यों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।

बहुत जल्द ही, सुभाषबाबू देश के एक अग्रेसर युवा नेता बन गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाषबाबू ने कॉंग्रेस के अंतर्गत युवकों की इंडिपेंडन्स लिग शुरू की। 1928 में जब साइमन कमिशन भारत आया, तब काँग्रेस ने उसे काले झँडे दिखाए। कोलकाता में सुभाषबाबू ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमिशन को जवाब देने के लिए, काँग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम आठ सदस्यीय आयोग को सौपा। पंडित मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाषबाबू उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट पेश की।

1928 में कॉंग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाषबाबू ने खाकी गणवेश परिधान करके पंडित मोतीलाल नेहरू को लष्करी तरीके से सलामी दी। गाँधीजी उन दिनों में पूर्ण स्वराज्य की मॉंग से सहमत नहीं थे। इस अधिवेशन में उन्होंने अंग्रेज़ सरकार से वसाहत का स्वराज मॉंगने की ठान ली थी। लेकिन सुभाषबाबू और पंडित जवाहरलाल नेहरू को पूर्ण स्वराज की मॉंग से पिछे हटना मंजूर नहीं था। अंत में यह तय किया गया कि अंग्रेज़ सरकार को वसाहत का स्वराज देने के लिए, एक साल का वक्त दिया जाए। अगर एक साल में अंग्रेज़ सरकार ने यह मॉंग पुरी नहीं की, तो कॉंग्रेस पूर्ण स्वराज की मॉंग करेगी। अंग्रेज़ सरकार ने यह मॉंग पुरी नहीं की। इसलिए 1930 में जब कॉंग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहोर में हुआ, तब ऐसा तय किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतंत्रता दिन के रूप में माना जाएगा।

26 जनवरी, 1931 के दिन कोलकाता में राष्ट्रध्वज फैलाकर सुभाषबाबू एक विशाल मोर्चा का नेतृत्व कर रहे थे। तब पुलिस ने उनपर लाठी चलायी और उन्हे घायल कर दिया। जब सुभाषबाबू जेल में थे, तब गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझोता किया और सब कैदीयों को रिहा किया गया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारकों को रिहा करने से इन्कार कर दिया। भगत सिंह की फॉंसी माफ कराने के लिए, गाँधीजी ने सरकार से बात की। सुभाषबाबू चाहते थे कि इस विषय पर गाँधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझोता तोड दे। लेकिन गाँधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोडने को राजी नहीं थे। अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अडी रही और भगत सिंह और उनके साथियों को फॉंसी दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने पर, सुभाषबाबू गाँधीजी और कॉंग्रेस के तरिकों से बहुत नाराज हो गए।

[बदलें] कारावास

अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाषबाबू को कुल ग्यारह बार कारावास हुआ। सबसे पहले उन्हें 1921 में छे महिनों का कारावास हुआ।

1925 में गोपिनाथ साहा नामक एक क्रांतिकारी कोलकाता के पुलिस अधिक्षक चार्लस टेगार्ट को मारना चाहता था। उसने गलती से अर्नेस्ट डे नामक एक व्यापारी को मार डाला। इसके लिए उसे फॉंसी की सजा दी गयी। गोपिनाथ को फॉंसी होने के बाद सुभाषबाबू जोर से रोये। उन्होने गोपिनाथ का शव मॉंगकर उसका अंत्यसंस्कार किया। इससे अंग्रेज़ सरकार ने यह निष्कर्ष किया कि सुभाषबाबू ज्वलंत क्रांतिकारकों से न ही संबंध रखते हैं, बल्कि वे ही उन क्रांतिकारकों का स्फूर्तीस्थान हैं। इसी बहाने अंग्रेज़ सरकार ने सुभाषबाबू को गिरफतार किया और बिना कोई मुकदमा चलाए, उन्हें अनिश्चित कालखंड के लिए म्यानमार के मंडाले कारागृह में बंदी बनाया।

5 नवम्बर, 1925 के दिन, देशबंधू चित्तरंजन दास कोलकाता में चल बसें। सुभाषबाबू ने उनकी मृत्यू की खबर मंडाले कारागृह में रेडियो पर सुनी।

मंडाले कारागृह में रहते समय सुभाषबाबू की तबियत बहुत खराब हो गयी। उन्हें टी.बी. हो गया। परंतू अंग्रेज़ सरकार ने फिर भी उन्हें रिहा करने से इन्कार कर दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी की वे इलाज के लिए युरोप चले जाए। लेकिन सरकार ने यह तो स्पष्ट नहीं किया था कि इलाज के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाषबाबू ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। आखिर में परिस्थिती इतनी कठिन हो गयी की शायद वे कारावास में ही मर जायेंगे। अंग्रेज़ सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी, कि सुभाषबाबू की कारागृह में मृत्यू हो जाए। इसलिए सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। फिर सुभाषबाबू इलाज के लिए डलहौजी चले गए।

1930 में सुभाषबाबू कारावास में थे। तब उन्हे कोलकाता के महापौर चुना गया। इसलिए सरकार उन्हे रिहा करने पर मजबूर हो गयी।

1932 में सुभाषबाबू को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हे अलमोडा जेल में रखा गया। अलमोडा जेल में उनकी तबियत फिर से नादुरूस्त हो गयी। वैद्यकीय सलाह पर सुभाषबाबू इस बार इलाज के लिए युरोप जाने को राजी हो गए।

[बदलें] युरोप में वास्तव्य

[बदलें] हरीपुरा कॉंग्रेस का अध्यक्षपद

 नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, महात्मा गाँधी के साथ हरिपुरा मे सन 1938
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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, महात्मा गाँधी के साथ हरिपुरा मे सन 1938

1938 में कॉंग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में होने का तय हुआ था। इस अधिवेशन से पहले गाँधीजी ने कॉंग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना। यह कॉंग्रेस का ५१वा अधिवेशन था। इसलिए कॉंग्रेस अध्यक्ष सुभाषबाबू का स्वागत ५१ बैलों ने खींचे हुए रथ में किया गया।

इस अधिवेशन में सुभाषबाबू का अध्यक्षीय भाषण बहूत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजकीय व्यक्ती ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी किया हो।

अपने अध्यक्षपद के कार्यकाल में सुभाषबाबू ने योजना आयोग की स्थापना की। पंडित जवाहरलाल नेहरू इस के अध्यक्ष थे। सुभाषबाबू ने बेंगलोर में मशहूर वैज्ञानिक सर विश्वेश्वरैय्या की अध्यक्षता में एक विज्ञान परिषद भी ली।

1937 में जापान ने चीन पर आक्रमण किया। सुभाषबाबू की अध्यक्षता में कॉंग्रेस ने चिनी जनता की सहायता के लिए, डॉ द्वारकानाथ कोटणीस के नेतृत्व में वैद्यकीय पथक भेजने का निर्णय लिया गया। आगे चलकर जब सुभाषबाबू ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जापान से सहयोग किया, तब कई लोग उन्हे जापान के हस्तक और फॅसिस्ट कहने लगे। मगर इस घटना से यह सिद्ध होता हैं कि सुभाषबाबू न ही तो जापान के हस्तक थे, न ही वे फॅसिस्ट विचारधारा से सहमत थे।

[बदलें] कॉंग्रेस के अध्यक्षपद से इस्तिफा

1938 में गाँधीजी ने कॉंग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, मगर गाँधीजी को सुभाषबाबू की कार्यपद्धती पसंद नहीं आयी। इसी दौरान युरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। उन्होने अपने अध्यक्षपद की कारर्कीद में इस तरफ कदम उठाना भी शुरू कर दिया था। गाँधीजी इस विचारधारा से सहमत नहीं थे।

1939 में जब नया कॉंग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसी व्यक्ती अध्यक्ष बन जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। ऐसी कोई दुसरी व्यक्ती सामने न आने पर, सुभाषबाबू ने खुद कॉंग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। लेकिन गाँधीजी अब उन्हे अध्यक्षपद से हटाना चाहते थे। गाँधीजी ने अध्यक्षपद के लिए पट्टाभी सितारमैय्या को चुना। कविवर्य रविंद्रनाथ ठाकूर ने गाँधीजी को खत लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने की विनंती की। प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझोता न हो पाने पर, बहुत सालो के बाद, कॉंग्रेस अध्यक्षपद के लिए चुनाव लडा गया।

सब समझते थे कि जब महात्मा गाँधी ने पट्टाभी सितारमैय्या का साथ दिया हैं, तब वे चुनाव आसानी से जीत जाएंगे। लेकिन वास्तव में, सुभाषबाबू को चुनाव में 1580 मत मिल गए और पट्टाभी सितारमैय्या को 1377 मत मिलें। गाँधीजी के विरोध के बावजूद सुभाषबाबू 203 मतों से यह चुनाव जीत गए।

मगर चुनाव के निकाल के साथ बात खत्म नहीं हुई। गाँधीजी ने पट्टाभी सितारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर, अपने साथीयों से कह दिया कि अगर वें सुभाषबाबू के तरिकों से सहमत नहीं हैं, तो वें कॉंग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कॉंग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू तटस्थ रहें और अकेले शरदबाबू सुभाषबाबू के साथ बनें रहें।

1939 का वार्षिक कॉंग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। इस अधिवेशन के समय सुभाषबाबू तेज बुखार से इतने बीमार पड गए थे, कि उन्हे स्ट्रेचर पर लेटकर अधिवेशन में आना पडा। गाँधीजी इस अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहे। गाँधीजी के साथीयों ने सुभाषबाबू से बिल्कुल सहकार्य नहीं दिया।

अधिवेशन के बाद सुभाषबाबू ने समझोते के लिए बहुत कोशिश की। लेकिन गाँधीजी और उनके साथीयों ने उनकी एक न मानी। परिस्थिती ऐसी बन गयी कि सुभाषबाबू कुछ काम ही न कर पाए। आखिर में तंग आकर, 29 अप्रैल, 1939 को सुभाषबाबू ने कॉंग्रेस अध्यक्षपद से इस्तीफा दे दिया।

[बदलें] फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना

3 मै, 1939 के दिन, सुभाषबाबू नें कॉंग्रेस के अंतर्गत फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद, सुभाषबाबू को कॉंग्रेस से निकाला गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गयी।

द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही, फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र करने के लिए, जनजागृती शुरू की। इसलिए अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओ को कैद कर दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाषबाबू जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हे रिहा करने पर मजबूर करने के लिए सुभाषबाबू ने जेल में आमरण उपोषण शुरू कर दिया। तब सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। मगर अंग्रेज सरकार यह नहीं चाहती थी, कि सुभाषबाबू युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिए सरकार ने उन्हे उनके ही घर में नजरकैद कर के रखा।

[बदलें] नजरकैद से पलायन

नजरकैद से निकलने के लिए सुभाषबाबू ने एक योजना बनायी। 16 जनवरी, 1941 को वे पठाण का वेश परिधान किये हुए, महमद झियाउद्दीन के नाम से, पुलिस को चकमा देकर, अपने घर से भाग निकले। शरदबाबू के बडे बेटे शिशिर ने उन्हे अपनी गाडी से कोलकाता से दूर, गोमोह तक पहुँचाया। गोमोह रेल्वे स्थानक से फ्रंटियर मेल पकडकर वे पेशावर पहुँचे। पेशावर में उन्हे फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी, मिया अकबर शहा मिले। मिया अकबर शहा ने उनकी मुलाकात, कीर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से कर दी। भगतराम तलवार के साथ में, सुभाषबाबू पेशावर से अफ़्ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल की तरफ निकल पडे। इस सफर में भगतराम तलवार, रहमतखान नाम के पठाण बने थे और सुभाषबाबू उनके गुँगे-बहरे चाचा बने थे। पहाडियों में पैदल चलते हुए उन्होने यह सफर पुरा किया।

काबुल में सुभाषबाबू दो महिनो तक उत्तमचंद मल्होत्रा नामक एक भारतीय व्यापारी के घर में रहे। वहाँ उन्होने पहले रूसी वकालात में प्रवेश पाना चाहा। इस में नाकामयाब रहने पर, उन्होने जर्मन और इटालियन वकालातों में प्रवेश पाने की कोशिश की। इटालियन वकालात में उनकी कोशिश सफल रही। जर्मन और इटालियन वकालातों ने उनकी सहायता की। आखिर में ओर्लांदो मात्सुता नामक इटालियन व्यक्ती बनकर, सुभाषबाबू काबुल से रेल्वे से निकलकर रूस की राजधानी मॉस्को होकर जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँचे।

[बदलें] नाझी जर्मनी में वास्तव्य और हिटलर से मुलाकात

बर्लिन में सुभाषबाबू सर्वप्रथम रिबेनट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओ से मिले। उन्होने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी दौरान सुभाषबाबू, नेताजी नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मंत्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए।

आखिर 29 मार्च, 1942 के दिन, सुभाषबाबू जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रूची नहीं थी। उन्होने सुभाषबाबू को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया।

कई साल पहले हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था। इस किताब में उन्होने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने हिटलर से अपनी नाराजी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर माँफी माँगी और माईन काम्फ की अगली आवृत्ती से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।

अंत में, सुभाषबाबू को पता चला कि हिटलर और जर्मनी से उन्हे कुछ और नहीं मिलनेवाला हैं। इसलिए 8 मार्च, 1943 के दिन, जर्मनी के कील बंदर में, वे अपने साथी अबिद हसन सफरानी के साथ, एक जर्मन पनदुब्बी में बैठकर, पूर्व आशिया की तरफ निकल गए। यह जर्मन पनदुब्बी उन्हे हिंदी महासागर में मादागास्कर के किनारे तक लेकर आई। वहाँ वे दोनो खूँखार समुद्र में से तैरकर जापानी पनदुब्बी तक पहुँच गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में, किसी भी दो देशों की नौसेनाओ की पनदुब्बीयों के दौरान, नागरी लोगों की यह एकमात्र बदली हुई थी। यह जापानी पनदुब्बी उन्हे इंडोनेशिया के पादांग बंदर तक लेकर आई।

[बदलें] पूर्व आशिया में वास्तव्य

स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार
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स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार

पूर्व आशिया पहुँचकर सुभाषबाबू ने सर्वप्रथम, वयोवृद्ध क्रांतिकारी राषबिहारी बोस से भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के फरेर पार्क में राषबिहारी बोस ने भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सुभाषबाबू को सौंप दिया।

जापान के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो ने, नेताजी के व्यक्तिमत्व से प्रभावित होकर, उन्हे सहकार्य करने का आश्वासन दिया। कई दिन पश्चात, नेताजी ने जापान की संसद डायट के सामने भाषण किया।

21 अक्तूबर, 1943 के दिन, नेताजी ने सिंगापुर में अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए।

आज़ाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकडे हुए भारतीय फौजीयों को भरती किया गया। आज़ाद हिन्द फौज में औरतो के लिए झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी।

पूर्व आशिया में नेताजी ने अनेक भाषण करके वहाँ स्थायिक भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भरती होने का और उसे आर्थिक मदद करने का आवाहन किया। उन्होने अपने आवाहन में संदेश दिया तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूँगा

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिए नेताजी ने चलो दिल्ली का नारा दिया। दोनो फौजो ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिए। यह द्वीप अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद के अनुशासन में रहें। नेताजी ने इन द्वीपों का शहीद और स्वराज द्वीप ऐसा नामकरण किया। दोनो फौजो ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पगडा भारी पडा और दोनो फौजो को पिछे हटना पडा।

जब आज़ाद हिन्द फौज पिछे हट रही थी, तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। परंतु नेताजी ने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लडकियों के साथ सैकडो मिल चलते जाना पसंद किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श ही बनाकर रखा।

6 जुलै, 1944 को आजाद हिंद रेडिओ पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्दिष्ट के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान, नेताजी ने गाँधीजी को राष्ट्रपिता बुलाकर अपनी जंग के लिए उनका आशिर्वाद माँगा। इस प्रकार, नेताजी ने गाँधीजी को सर्वप्रथम राष्ट्रपिता बुलाया।

[बदलें] लापता होना और मृत्यु की खबर

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था।

18 अगस्त, 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गए। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिये।

23 अगस्त, 1945 को जापान की दोमेई खबर संस्था ने दुनिया को खबर दी, कि 18 अगस्त के दिन, नेताजी का हवाई जहाज ताइवान की भूमि पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और इस दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होकर नेताजी ने अस्पताल में अंतिम साँस ले ली थी।

दुर्घटनाग्रस्त हवाई जहाज में नेताजी के साथ उनके सहकारी कर्नल हबिबूर रहमान थे। उन्होने नेताजी को बचाने की शर्थ की, लेकिन के कामयाब नहीं रहे। फिर नेताजी की अस्थियाँ जापान की राजधानी तोकियो में रेनकोजी नामक बौद्ध मंदिर में रखी गयी।

स्वतंत्रता के पश्चात, भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए, 1956 और 1977 में दो बार एक आयोग को नियुक्त किया। दोनो बार यह नतिजा निकला की नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये थे। लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी, उस ताइवान देश की सरकार से तो, इन दोनो आयोगो ने बात ही नहीं की।

1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की, जिस में उन्होने कहा, कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।

18 अगस्त, 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गए और उनका आगे क्या हुआ, यह भारत के इतिहास का सबसे बडा अनुत्तरीत रहस्य बन गया हैं।


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भारतीय नेता: मंगल पाण्डेय - रानी लक्ष्मीबाई - बाल गंगाधर तिलक - गोपाल क्र्ष्ण गोखले - लाला लाजपत राय - बिपिन चन्द्र पाल - महात्मा गांधी - सरदार वल्लभ भाई पटेल - नेताजी सुभाषचंद्र बोस - बादशाह खान - जवाहरलाल नेहरू - मौलाना अबुल कलाम आज़ाद - चन्द्र शेखर आजाद - चक्रवर्ती राजगोपालाचारी - भगत सिंह - सरोजिनी नायडु - पुरूषोत्तम दास टंडन - तंगतुरी प्रकाशम
ब्रितानी राज: राबर्ट क्लाईव - जेम्स औटरम - डलहौजी - ईरविन - विक्टर होप - माउन्ट्बेटन
स्वतन्त्रता: १९४६ का मंत्रिमण्डल - १९४७ का भारतीय स्वतन्त्रता कानून - भारत का विभाजन - भारत का राजनैतिक एकीकरण - भारतीय संविधान