रामेश्वरम्

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रामेश्वरम् हिंदुओं का पवित्र तीर्थ है। उत्तर मे काशी की जो मानता है, वही दक्षिण में रामेश्वरम् की है। धार्मिक हिंदुओं के लिए वहां की यात्रा उतना की महत्व रखती है, जितना कि काशी को ।

रामेश्वरम् मद्रास से कोई सवा चार सौ मील दक्षिण-पूरब में है। मद्रास से रेल-गाड़ी यात्रियों को करीब बाईस घंटे में रामेश्वरम् पहुंचा देती है। रास्ते में पामबन स्टेशन पर गाड़ी बदलनी पड़ती है।

रामेश्वरम् एक सुन्दर टापू है। हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी इसको चारों ओर से घेरे हुए है। इस हरे-भरे टापू की शकल शंख जैसी है। कहते हैं, पुराने जमाने में यह टापू भारत के साथ जुड़ा हुआ था, परन्तु बाद में सागर की लहरों ने इस मिलाने वाली कड़ी को काट डाला, जिससे वह चारों और पानी से घिरकर टापू बन गया।

जिस स्थान पर वह जुडा हुआ था, वहां इससमस ढाई मील चौड़ी एक खाड़ी है। शुरू में इस खाड़ी को नावों से पार किया जाता था। बाद में आज से लगभग चार सौ बरसय पहले कृष्णप्पनायकन नाम के एक छोटे से राजा ने उसे पर पत्थर का बहुत बड़ा पुल बनवाया।

अंग्रेजो के आने के बाद उसपुल की जगह पर रेल का पुल बनाने का विचार हुआ। उस समय तक पुराना पत्थर का पुल लहरों की टक्कर से हिलकर टूट चूका था। एक जर्मन इंजीनियर की मदद से उस टूटे पुल का रेल का एक सुंदर पुल बनवाया गया। इस समय यही पुल रामेश्वरम् को भारत से जोड़ता है।

इस स्थान पर दक्षिण से उत्तर की और हिंद महासागर का पानी बहता दिखाई देता है। समुद्र में लहरे बहुत कम होती है। शांत बहाव को देखकर यात्रियों को ऐसा लगता है, मानो वह किसी बड़ी नदी को पार कर रहे हों।

रामेश्वरम् शहर और रामनाथजी का मशहूर मंदिर इस टापू के उत्तर के छोर पर है। टापू के दक्षिणी कोने में धनुषकोटि नामक तीर्थ है, जहां हिंद महासागर से बंगाल की खाड़ी मिलती है। इसी स्थान को सेतुबंध कहते है। लोगों का विश्वास है कि श्रीराम ने लंका पर चढाई करने के लिए समुद्र पर जो पुल या सेतु बांधा था, वह इसी स्थान से आरंभ हुआ। इस कारण धनुष-कोटि का धार्मिक महत्व बहुत है। यही से कोलम्बो को जहाज जाते थे। अब यह स्थान बहकर समाप्त हो गया है।

रामेश्वरम् शहर से करीब डेढ़ मील उत्तर-पूरब में गंधमादन पर्वत नाम की एक छोटी-सी पहाड़ी है। कहते है, हनुमानजी ने इसी पर्वत से समुद्र को लांघने के लिए छलांग मारी थी। बाद में राम ने लंका पर चढ़ाई करने के लिए यहीं पर विशाल सेना संगठित की थी। इस पर्वत पर एक सुंदर मंदिर बना हुआ है, जहां श्रीराम के चरण-चिन्हों की पूजा की जाती है।

रामेश्वरम् की यात्रा करनेवालों को हर जगह राम-कहानी की गूंज सुनाई देती है। रामेश्वरम् के विशाल टापू को चप्पा-चप्पा भूमि राम की कहानी से जुड़ी हुई है। अमुक जगह पर राम ने सीता जी की प्यास बुझाने के लिए धनुष की नोंक से कुआं खोदा था। अमुक जगह पर उन्होनें सेनानायकों से सलाह की थी। अमुक जगह पर सीताजी ने अग्नि-प्रवेश किया था। किसी अन्य स्थान पर श्रीराम ने जटाओं से छुट्टी ली थी। ऐसी सैकड़ों कहानियां प्रचलित है।

रामेश्वरम् के विख्यात मंदिर की स्थापना के बारें में यह रोचक कहानी कही जाती है। सीताजी को छुड़ाने के लिए राम ने लंका पर चढ़ाई की थी। उन्होने लड़ाई के बिना सीताजी को छुड़वाने का बहुत प्रयत्न किया, पर जबराम झरोखा सफलता न मिली तो विवश होकर उन्होने युद्ध किया। इस युद्ध में रावण और उसके सब साथी राक्षस मारे गये। रावण मारा तो गया ; लेकिन उसका भी प्रभाव कम नहीं था।वह पुलस्त्य महर्षि का नाती था। चारों वेदों का जाननेवाला था और था शिवजी का बड़ा भक्त। इस कारण राम को उसे मारने के बाद बड़ा खेद हुआ । ब्रह्मा-हत्या का पाप उन्हें लग गया। इस पाप को धोने के लिए उन्होने रामेश्वरम् में शिवलिंग की स्थापना करने का निश्चय किया।यह निश्चय करने के बाद श्रीराम ने हनुमान को आज्ञा दी कि काशी जाकर वहां से एक शिवलिंग ले आओ। हनुमान पवन-सुत थे। बड़े वेग से आकाश मार्ग से चल पड़े। लेकिन शिवलिंग की स्थापना की नियत घड़ी पास आ गई। हनुमान का कहीं पता न था। जब सीताजी ने देखा कि हनुमान के लौटने मे देर हो रही है, तो उन्होने समुद्र के किनारे के रेत को मुट्ठी में बांधकर एक शिवलिंग बना दिया। यह देखकर राम बहुत प्रसन्न हुए और नियम समय पर इसी शिवलिंग की स्थापना कर दी। छोटे आकार का सही शिवलिंग रामनाथ कहलाता है। बाद में हनुमान के आने पर पहले छोटे प्रतिष्ठित छोटे शिवलिंग के पास ही राम ने काले पत्थर के उस बड़े शिवलिंग को स्थापित कर दिया।

रामेश्वर के मंदिर में जिस प्रकार शिवजी की दो मूर्तियां है, उसी प्रकार देवी पार्वती की भी मूर्तिया अलग-अलग स्थापित की गई है। देवी की एक मूर्ति पर्वतवर्द्धिनी कहलाती है, दूसरी विशालाक्षी। मंदिर के पूर्व द्वार के बाहर हनुमान की एक विशाल मूर्ति अलग मंदिर में स्थापित है।

रामेश्वरम् का मंदिर है तो शिवजी का, परन्तु उसके अंदर कई अन्य मंदिर भी है। सेतुमाधव का कहलानेवाले भगवान विष्णु का मंदिर इनमें प्रमुख है

रामनाथ के मंदिर के अंदर और बाहर अनेक पवित्र तीर्थ है। इनमें प्रधान तीर्थो की संख्यां बाईस बताई जाती है। ये वास्तव में मीठे जल के अलग-अलग कुंए है। ‘कोटि तीर्थ’ जैसे एक दो तालाब भी है। इन तीर्थो में स्नान करना बड़ा फलदायक पाप-निवारक समझा जाता है। वैज्ञानिक का कहना है कि इन तीर्थो में अलग-अलग धातुएं मिली हुई है। इस कारण उनमें नहाने से शरीर के रोग दूर हो जाते है और नई ताकत आ जाती है।

रामेश्वरम् के मंदिर के बाहर भी दूर-दूर तक कई तीर्थ है। प्रत्येक तीर्थ के बारें में अलग-अलग कथाएं है। ऐसे तीर्थो में ‘विल्लूरणि तीर्थ’ नामक कुआं दर्शनीय है।

रामेश्वरम् से करीब तीन मील पूरब में एक गांव है, जिसका नाम तंगचिमडम है। यह गांव रेल के किनारे हो बसा है। वहां स्टेशन के पास समुद्र में एक तीर्थकुंड है, जो विल्लूरणि तीर्थ कहलाता है। समुद्र के खारे पानी बीच में से मीठा जल निकलता है, यह बड़े ही अचंभे की बात है। कहा जाता है कि एक बार सीताजी को बड़ी प्यास लगी। पास में समुद्र को छोड़केर और कहीं पानी न था, इसलिए राम ने अपने धनुष की नोक से कुंड खोदा था।

तंगचिडम स्टेशन के पास एक जीर्ण मंदिर है। उसे ‘एकांत’ राम का मंदिर कहते है। इस मंदिर का अब बहुत बुरा हाल है। रामनवमी के पर्व पर यहां कुछ रौनक रहती है। बाकी दिनों में बिलकुल सूना रहता है। मंदिर के अंदर श्रीराम, लक्ष्मण, हनुमान और सीता की बहुत ही सुंदर मूर्तिया है। धुर्नधारी राम की एक मूर्ति ऐसी बनाई गई है, मानो वह हाथ मिलाते हुए कोई गंभीर बात कर रहे हो। दूसरी मूर्ति में राम सीताजी की ओर देखकर मंद मुस्कान के साथ कुछ कह रहे है। ये दोनों मूर्तियां बड़ी मनोरम है।

रामेश्वरम् के टापू के दक्षिण भाग में, समुद्र के किनारे, एक और दर्शनीय मंदिर है। रमानाथ के मंदिर से करीब पांच मील दूर पर यह मंदिर बना है। यह कोदंड ‘स्वामी को मंदिर’ कहलाता है। कहा जाता है कि विभीषण ने यहीं पर राम की शरण ली थी। रावण-वध के बाद राम ने इसी स्थान पर विभीषण का राजतिलक कराया था। इस मंदिर में राम, सीता औरलक्ष्मण की मूर्तियां देखने योग्य है। विभीषण की भी मूर्ति अलग स्थापित है।

रामेश्वरम् को घेरे हुए समुद्र में भी कई विषेश स्थान ऐसे बताये जाते है, जहां स्नान करना पाप-मोचक माना जाता है। रामनाथजी के मंदिर के पूर्वी द्वार के सामने बना हुआ सीताकुंड इनमें मुख्य है। कहा जाता है कि यही वह स्थान है, जहां सीताजी ने अपना सतीत्व सिद्व करने के लिए आग में प्रवेश किया था। सीताजी के ऐसा करते ही आग बुझ गई और अग्नि-कुंड से जल उमड़ आया। वही स्थान अब ‘सीताकुंड’ कहलाता है। यहां पर समुद्र का किनारा आधा गोलाकार है । सागर एकदम शांत है। उसमें लहरें बहुत कम उठती है। इस कारण देखने में वह एक तालाब-सा लगता है। यहां पर बिना किसी खतरें के स्नान किया जा सकता है।

रामेश्वरम् से दक्षिण में कन्याकुमारी नामक प्रसिद्ध तीर्थ है। रत्नाकर कहलानेवाली बंगाल की खाडी यहीं पर हिंद महासागर से मिलती है। रामेश्वरम् और सेतु बहुत प्राचीन है। परंतु रामनाथ का मंदिर उतना पुराना नहीं है। दक्षिण के कुछ और मंदिर डेढ़-दो हजार साल पहले के बने है, जबकि रामनाथ के मंदिर को बने अभी कुलआठ सौ वर्ष से भी कम हुए है । इस मंदिर के बहुत से हिस्से पचास-साठ साल पहले के है।

रामनाथ के मंदिर में जो ताम्रपट है, उनसे पता चलता है कि ११७३ ईस्वी में लंका के राजा पराक्रमबाहु ने रामेश्वरम् मे शिवजी का एक मंदिर बनवाया था। उस मंदिर में अकेले शिवलिंग की स्थापना की गई थी। देवी की मूर्ति नहीं रक्खी गई थी, इस कारण वह नि:संगेश्वर का मंदिर कहलाया। यही मंदिर आगे चलकर वर्तमान दशा को पहुंचा है।

रामनाथ के मंदिर के साथ सेतुमाधव का जो मंदिर है, वह आज से पांव सो वर्ष पहले रामनाथपुरम् के राजा उडैयान सेतुपति और एक धनी वैश्य ने मिलकर बनवाया था। रामनाथजी के मंदिर का पश्चिमी गोपुर-द्वार भी इन्हीं दोनों महानुभावों ने १४५० ईस्वीं में बनवाया था। मंदिर का तीसरा प्राकार, पूर्वी द्वार और अन्य भाग, बहुत समय बादबने।

रामेश्वरम् का मंदिर भारतीय निर्माण-कला और शिल्पकला का एक सुंदर नमूना है। प्रवेश-द्वार पर ही चालीस-चालीस फुट ऊंचे दो पत्थरों पर चालीस फुट पत्थर को इस खूबी के साथ लगाया गया है कि देखने वाले दंग रह जाते है। प्राकार में और मंदिर के अंदर सैकड़ौ विशाल खंभें है, जो देखने में एक-जैसे लगते है ; परंतु पास जाकर जरा बारीकी से देखा जाय तो मालूम होगा कि बेल-बूटै को कारीगरी हर खंभे पर अलग-अलग है।

रामनाथ की मूर्ति के चारों और परिक्रमा करने के लिए तीन प्राकार बने हुए है। इनमें तीसरा प्राकार सौ साल पहले पूरा हुआ। इस प्राकार की लंबाई चार सौ फुट से अधिक है। दोनों और पांच फुट ऊंचा और करीब आठ फुट चौड़ा चबूतरा बना हुआ है। चबूतरों के एक ओर पत्थर के बड़े-बड़े खंभो की लम्बी कतारे खड़ी है। प्राकार के एक सिरे पर खडे होकर देखने पर ऐसा लगता है मारो सैकड़ौ तोरण-द्वार का स्वागत करने के लिए दंग बनाए गये है। इन खंभों की अद्भुत कारीगरी देखकर विदेशी भी दंग रह जाते है।

रामनाथ के मंदिर के चारों और दूर तक कोई पहाड़ नहीं है, जहां से पत्थर आसानी से लाये जा सकें। गंधमादन पर्वत तो नाममात्र का है। वास्तव में एक टीला और उसमें से एक विशाल मंदिर के लिए जरूरी पत्थर नहीं निकल सकते। रामेश्वरम् के मंदिर में जो कई लाख टन के पत्थर लगे है, वे सब बहुत दूर-दूर से नावों में लादकर लाये गये है। रामनाथ जी के मंदिर के भीतरी भग में एक तरह का चिकना काला पत्थर लगा है। कहते है, ये सब पत्थर लंका से लाये गये थे।

रामेश्वरम् के विशाल मंदिर को बनवाने और उसकी रक्षा करने में रामनाथपुरम् नामक छोटी रियासत के राजाओं का बड़ा हाथ रहा। अब तो यह रियासत मद्रास राज्य में शामिल हो गई। रामनाथपुरम् के राजभवन में एक पुराना काला पत्थर रक्खा हुआ है। कहा जाता है, यह पत्थर राम ने केवटराज को राजतिलक के समय उसके चिह्न के रूप में दिया था। रामेश्वरम् की यात्रा करने वाले लोग इस काले पत्थर को देखने के लिए रामनाथपुरम् जाते है। रामनाथपुरम् रामेश्वरम् से लगभग तैंतीस मील दूर है।

रामेश्वरम् से सात मील दक्षिण में एण्क स्थान है, जिसे ‘दर्भशयनम्’ कहते है ; पर यही राम ने पहले समुद्र में सेतु बांधना शुरू किया था। इस कारण यह स्थान आदि सेतु भी कहलाता है।

रामेश्वरम् के समुद्र में तरह-तरह की कोड़ियां, शंख और सीपें मिलती है। कहीं-कहीं सफेद रंग का बड़ियास मूंगा भी मिलता है। रामेश्वरम् केवल धार्मिक महत्व का तीर्थ ही नहीं, प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टि से भी दर्शनीय है।