खंड-६

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रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 10 From Hindi Literature Jump to: navigation, search कवि: रामधारी सिंह "दिनकर"

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'छल से पाना मान जगत् में किल्विष है, मल ही तो है,

ऊँचा बना आपके आगे, सचमुच यह छल ही तो है।

पाता था सम्मान आज तक दानी, व्रती, बली होकर,

अब जाऊँगा कहाँ स्वयं गुरु के सामने छली होकर?



'करें भस्म ही मुझे देव! सम्मुख है मस्तक नत मेरा,

एक कसक रह गयी, नहीं पूरा जीवन का व्रत मेरा।

गुरु की कृपा! शाप से जलकर अभी भस्म हो जाऊँगा,

पर, मदान्ध अर्जुन का मस्तक देव! कहाँ मैं पाऊँगा?



'यह तृष्णा, यह विजय-कामना, मुझे छोड़ क्या पायेगी?

प्रभु, अतृप्त वासना मरे पर भी मुझे को भरमायेगी।

दुर्योधन की हार देवता! कैसे सहन करूँगा मैं?

अभय देख अर्जुन को मरकर भी तो रोज मरूँगा मैं?



'परशुराम का शिष्य कर्ण, पर, जीवन-दान न माँगेगा,

बड़ी शान्ति के साथ चरण को पकड़ प्राण निज त्यागेगा।

प्रस्तुत हूँ, दें शाप, किन्तु अन्तिम सुख तो यह पाने दें,

इन्हीं पाद-पद्‌मों के ऊपर मुझको प्राण गँवाने दें।'



लिपट गया गुरु के चरणों से विकल कर्ण इतना कहकर,

दो कणिकाएँ गिरीं अश्रु की गुरु की आँखों से बह कर।

बोले- 'हाय, कर्ण तू ही प्रतिभट अर्जुन का नामी है?

निश्चल सखा धार्तराष्ट्रों का, विश्व-विजय का कामी है?



'अब समझा, किसलिए रात-दिन तू वैसा श्रम करता था,

मेरे शब्द-शब्द को मन में क्यों सीपी-सा धरता था।

देखें अगणित शिष्य, द्रोण को भी करतब कुछ सिखलाया,

पर तुझ-सा जिज्ञासु आज तक कभी नहीं मैंने पाया।

रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 11 From Hindi Literature Jump to: navigation, search कवि: रामधारी सिंह "दिनकर"

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'तू ने जीत लिया था मुझको निज पवित्रता के बल से,

क्या था पता, लूटने आया है कोई मुझको छल से?

किसी और पर नहीं किया, वैसा सनेह मैं करता था,

सोने पर भी धनुर्वेद का, ज्ञान कान में भरता था।



'नहीं किया कार्पण्य, दिया जो कुछ था मेरे पास रतन,

तुझमें निज को सौंप शान्त हो, अभी-अभी प्रमुदित था मन।

पापी, बोल अभी भी मुख से, तू न सूत, रथचालक है,

परशुराम का शिष्य विक्रमी, विप्रवंश का बालक है।



'सूत-वंश में मिला सूर्य-सा कैसे तेज प्रबल तुझको?

किसने लाकर दिये, कहाँ से कवच और कुण्डल तुझको?

सुत-सा रखा जिसे, उसको कैसे कठोर हो मारूँ मैं?

जलते हुए क्रोध की ज्वाला, लेकिन कहाँ उतारूँ मैं?'



पद पर बोला कर्ण, 'दिया था जिसको आँखों का पानी,

करना होगा ग्रहण उसी को अनल आज हे गुरु ज्ञानी।

बरसाइये अनल आँखों से, सिर पर उसे सँभालूँगा,

दण्ड भोग जलकर मुनिसत्तम! छल का पाप छुड़ा लूँगा।'



परशुराम ने कहा-'कर्ण! तू बेध नहीं मुझको ऐसे,

तुझे पता क्या सता रहा है मुझको असमञ्जस कैसे?

पर, तूने छल किया, दण्ड उसका, अवश्य ही पायेगा,

परशुराम का क्रोध भयानक निष्फल कभी न जायेगा।



'मान लिया था पुत्र, इसी से, प्राण-दान तो देता हूँ,

पर, अपनी विद्या का अन्तिम चरम तेज हर लेता हूँ।

सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आयेगा,

है यह मेरा शाप, समय पर उसे भूल तू जायेगा।

रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 12 From Hindi Literature Jump to: navigation, search कवि: रामधारी सिंह "दिनकर"

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कर्ण विकल हो खड़ा हुआ कह, 'हाय! किया यह क्या गुरुवर?

दिया शाप अत्यन्त निदारुण, लिया नहीं जीवन क्यों हर?

वर्षों की साधना, साथ ही प्राण नहीं क्यों लेते हैं?

अब किस सुख के लिए मुझे धरती पर जीने देते हैं?'



परशुराम ने कहा- 'कर्ण! यह शाप अटल है, सहन करो,

जो कुछ मैंने कहा, उसे सिर पर ले सादर वहन करो।

इस महेन्द्र-गिरि पर तुमने कुछ थोड़ा नहीं कमाया है,

मेरा संचित निखिल ज्ञान तूने मझसे ही पाया है।



'रहा नहीं ब्रह्मास्त्र एक, इससे क्या आता-जाता है?

एक शस्त्र-बल से न वीर, कोई सब दिन कहलाता है।

नयी कला, नूतन रचनाएँ, नयी सूझ नूतन साधन,

नये भाव, नूतन उमंग से , वीर बने रहते नूतन।



'तुम तो स्वयं दीप्त पौरुष हो, कवच और कुण्डल-धारी,

इनके रहते तुम्हें जीत पायेगा कौन सुभट भारी।

अच्छा लो वर भी कि विश्व में तुम महान् कहलाओगे,

भारत का इतिहास कीर्ति से और धवल कर जाओगे।



'अब जाओ, लो विदा वत्स, कुछ कड़ा करो अपने मन को,

रहने देते नहीं यहाँ पर हम अभिशप्त किसी जन को।

हाय छीनना पड़ा मुझी को, दिया हुआ अपना ही धन,

सोच-सोच यह बहुत विकल हो रहा, नहीं जानें क्यों मन?



'व्रत का, पर निर्वाह कभी ऐसे भी करना होता है।

इस कर से जो दिया उसे उस कर से हरना होता है।

अब जाओ तुम कर्ण! कृपा करके मुझको निःसंग करो।

देखो मत यों सजल दृष्टि से, व्रत मेरा मत भंग करो।