रमई काका
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हिन्दी जगत में हास्यकवि काका हाथरसी के नाम से सभी परिचित हैं किन्तु एक और काका थे जिनसे बहुत से लोग परिचित नहीं हैं। ये थे रमई काका जिनका असली नाम था चन्द्रभूषण त्रिवेदी। आप बैसवाड़ी अवधी के उत्तम हास्य कवि (किन्तु केवल हास्य नहीं) थे। इनका जन्म सन् १९१५ में उत्तरप्रदेश के उन्नाव ज़िले के रावतपुर नामक गाँव में हुआ था। आपने आकाशवाणी लखनऊ-इलाहाबाद में सन् १९४० से १९७५ तक काम किया था। मेरे बचपन में इनका देहाती प्रोग्राम आता था जिसको गाँव के लोग बड़े चाव से रेडियो को घेर कर सुना करते थे। इस प्रोग्राम में कभी कभी एक प्रहसन आटा था जिसमें रमई काका 'बहिरे बाबा' का रोल अदा करते थे।
इनकी प्रकाशित पुस्तकों के नाम हैं:
बौछार, भिनसार, नेताजी, फुहार, हरपति तरवार, गुलछर्रे और हास्य के छींटे।
इनमें से मैं केवल बौछार और फुहार से परिचित हूँ। स्मृति से कुछ कविताओं के अंश आपको सुना रहा हूँ।
१। या छीछाल्यादरि द्याखौ तो
लरिकउना बी ए पास किहिसि
पुतऊ का बैरु ककहरा ते
या...
लरिकऊ चले अस्नान करैं तब
साबुन का उन सोप कहा
बहुरेवा लैकै सूप चली
या...
दिन राति बिलइती बोली माँ
उइ गिटपिट बोलि रहे
बहुरेवा सुनि सुनि सिटपिटाति
या...
२. बुढ़ऊ का बिवाह
जब पचपन के घरघाट भएन
तब देखुआ आये बड़े बड़े
हम शादी ते इनकार कीन
सब का लौटारा खड़े खड़े
सुखदीन दुबे, चिथरू चौबे
तिरबेनी आये धुन्नर जी
जिन बड़ेन बड़ेन का मात किहिन
बड़कए अवस्थी खुन्नर जी
(किसी तरीके से बुढ़ऊ को शादी के लिये तैयार किया जाता है। बारात जाती है किन्तु रतौंधी सारा मज़ा किरकिरा कर देती है। जब वर देवता खाने पर बैठते हैं तो दिखाई न देने के कारण दीवार की तरफ मुँह करके बैठते हैं। तब सासु जी आके कहती हैं, सुनिएः)
बच्चा आगे तन टाठी है
हम कहा कि हमरेव आँखी हैं
.... है बड़ी सफेद पोताई या
ताते देवार तन हेरि रहेन
(बिल्ली आके वर की थाली से खाना खाने लगती है। जब कोई आके बताता है तो वर देवता कहते हैं:)
घरहू माँ सदा बिलारिन का
हम साथै दूध पियावा है
(थोड़ी देर बाद वर को लगता है कि बिल्ली फिर से आगई है।)
हम जाना आई फिर बिलारि
मूँड़े माँ पाटा दै मारा
(लेकिन वे सासू जी थीं। फिर क्या हुआ?)
सब भेदु रतौंधिन का खुलिगा
चालाकी सारी खोई है।
३। ध्वाखा
हम गएन याक दिन लखनउऐ
कक्कू संजोग अइस परिगा
पहिलेहे पहिल हम सहरु दीख
तो कतौं कतौं ध्वाखा होइगा
.... हम गएन अमीनाबादै जब
कपड़ा लेंय बजाजा माँ
माटी कै सुघर मेहरिया एकु
तहँ खड़ी रहै दरवाजा माँ
हम जाना दुकान कै मलकिन
तो भाव ताव पूछैं लागेन
..
हम कहा बड़ा ध्वाखा होइगा। ...
तहमत पहिने अंडी ओढ़े
बाबू जी याकैं रहैं खड़े
हम कहा मेम साहेब सलाम
उइ झिझकि भखुरि खौख्याय उठे
मैं मेम नहीं हूँ, साहब हूँ
हम कहा बड़ा ध्वाखा होइगा।
४। कजरी तीज
सखि बरै जाय अस बरतु कि जस
लछमीना कजरी तीज रहीं
जिभिया है चलति कतन्नी असि
दिन राति कीन करतीं टंटा
लरिकन का धरि धरि खाती हैं
दुलहा का कहती हैं बंटा
मुलु आजु अमरु अहिबातु लेंय
सिव का चरनन माँ रीझि रहीं
लछमीना... ... उठि परीं तड़क्के गजरदम्ब
फिरि ख्वावा सकर सुहारी लै
बिनु भूखै धाँसेनि पेटे माँ
जइसे बन्दूक अनारी कै
.... बाई ऊपर का चढ़ैं लागि
औ आवैं लाग घुमरि चक्कर
... छोटकई बिटेवा रोय कहै
अम्मा भूखी हौ चलौ खाव
वा लोनु जरे माँ लगाय रही
लछमीना...
... (अब ओझा को बुलाया जाता है जो कहता हैः)
पकरे जिन्नात बड़ा भारी
पूजा का जल्दी जतनु करौ
नहिं यो लछमीना का मारी
(लछमीना कहती हैं:)
बाबा, अब तो जिउ अच्छा है
है लाग न भूथ परेतु कोऊ
हम ख्वावा सक्करु भच्छा है।
५। बैठे गड़गप्प मतोले हैं
बड़ बूढ़न के पाँव छुऐं ना
छुवैं लँबरि कै मत्था
अतरु भूलिगे सब के कपरन
बइठे चुपरैं कत्था
अरे ई लोटन भाँग ढकोले हैं
बइठे...
६। ई आहीं पक्के लखनउआ
कहैं चीज के दूने दाम
बात बात माँ करैं सलाम
चीकट तकिया चटक लिहाफ
घर माँ गन्दे बाहेर साफ
बड़ा तकल्लुफ करि कै खाँय
एक कौर का सत्तरि दाँय
तितुर लड़ावैं कबौं बटेर
कबौं कबुतरन के हैं फेर
तिथि त्यौहार उड़ैं कनकउआ
जान लेहेव पक्का लखनउआ।
७। अरे भइ यहु तो काम नकारा है
दुसरे का उपदेसु देंय तो भाखैं पूरा बेद
साँझ सबेरा सिलबट्टा तर तूरैं नसा निषेध
अरे यहु दिया तरे अँधियारा है
अरे भइ...
८। जानि लेहेव पक्का ठगु आय
औषधि ब्याँचै साँप देखाय
लिल्लामी माँ खुब चिल्लाय
जानि...
बानगी के लिये इतना पर्याप्त है। चूँकि मेरे पास पुस्तकें नहीं है, अशुद्धियाँ हो सकती हैं। सहृदय पाठकों से निवेदन है कि इन अशुद्धियों को दूर करें और काका की अन्य कविताओं को अन्तरजाल तक पहुचाएँ।
...लक्ष्मीनारायण गुप्त ...१९ दिसम्बर २००६ http://kavyakala.blogspot.com/2006/12/blog-post_19.html