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डार्विन् का प्राक्रतिक् वरण वाद:
जीवॊ की उत्पत्ती
उन्नीसवी सदी कॆ उत्तरार्ध मॆ चार्ल्स डार्विन का ऒरिजिन् ऒफ् स्पॆषशीज् नामक् ग्रन्थ् प्रकाशित् हॊनॆ नॆ दुनिया
मॆ हलचल मचा दी. विशॆषत: इस सिद्धान्त् नॆ धर्मॊ की जडॊ पर् चॊट लगाई. सभी धर्म गुरु छटपटा उठॆ.
उनहोने संग मत होकर विज्ञान के खिलाफ मोर्चा खोल लिया.वह समझ गये कि अब धर्म पर से लोगों
का विश्वास उठने वाला है.विज्ञान ने इससे पहले भी धर्म वा धार्मिक मान्यताओ को चुनौती दी थी,
उन्हे गलत साबित किया था, परन्तु उसका इतना प्रभाव नहीं हुआ था क्योकि डार्विन का रिसर्च वर्क
सीधा सीधा जीवन से जुडा हुआ था.गेलिलियो ने धर्म की इस मान्यता को गलत साबित किया था कि
प्रथ्वी स्थिर है एवं सूर्य उसके आस पास चक्कर लगा रहा है.यह और अन्य अनेक वैज्ञानिकों ने भी धर्म
पर प्रहार किया, परंतु डार्विन का प्रभाव मामला जीवन से जुडा होने के कारण बहुत अधिक हुआ.
आज भी धर्म गुरु व धार्मिक हिन्दुवादी, इस्लामी अथवा ईसाइयों के पादरियों का यह प्रयास रहता है कि लोगों
को डार्विन की थ्योरी से दूर रखें, उन्हे विज्ञान से दूर रखें, उन्हे अन्धविश्वासी बना कर रखें.
वह लोग विभिन्न प्रकार के साधनों का प्रयोग कर के डार्विन के वैज्ञानिक रिसर्च वर्क के प्रति भ्रातिंयाँ
फैलाने मे लगे रहते हैं.अब यह बात पूर्णतः साबित हो गयी है कि मानव को किसी अल्लाह भगवान, खुदा
ने नहीं बनाया, उसका क्रमिक विकास हुआ है.आज भी मानव व अन्य जीवों का विकास भी
हो रहा है, नये जीवों की उतपत्ति भी हो रही है, और पुराने नष्ट भी हो रहे हैं.हम यहां पर साधारण भाषा
में डार्विन के सिदधान्त को समझाने का प्रयास करेंगे.डार्विन का वाद प्राक्रतिक वरण (natural selection)
का वाद भी कहा जाता है.इसका मुख्य तत्व जीवन के लिये संघर्ष है, इसीलिये
कम्युनिस्टों ने नारा दिया है कि
"जीना है तो लडना होगा-
जीने के लिये लडना होगा."
डार्विन के सिद्धान्त की प्रमुख बातेः-
(1)- अति उत्पत़्ति (2) जीवों मे विविधता (3)प्राक्रतिक वरण (4) जीवन के लिये संघर्ष(5) योग्यतम का जीवित रहना
अति उत्पत्तिः-
सभी जीवों में संतानोत्पत्ती की अभूतपूर्व क्षमता होती .वह कुछ ही पीढियों मे एक जोडे से हजारों की
तादाद बढ़ा लेते हैं. उदाहरण के लिये एक जोड़ा घरेलू मक्खीसे पैदा होने वाली संतान यदी सारी
की सारी जीवित रहे एवं संतानोत्पत्ती करे तो केवल एक वर्ष मे इतनी मक्खियां हो जावेंगी कि सारी
प्रथ्वी देढ फिट उची मक्खियों की परत से ढक जावेगी. इसी प्रकार सभी जीवों मे
गजब की संतन उत्पत्ती की क्षमता भी होती है, एवं इच्छा भी.सभी जीवों में प्राक्रतिक रूप से यह
भावना पायी जाती है कि वह ज्यादा से ज्यादाअपना वंश बढ़ाएंकेवल 75 वर्ष मे एक जोडा मानव
स्त्री पुरुष, यदी सभी जीवित रहें व संतान उत्पत्ति करें तो यदि वह अपनी पूरी ताकत से बच्चे पैदा
करे तो लगभग दो हजार हो जावेगे.केवल एक जोडा बकरा बकरी 10 साल मे ही दो हजार हो जाते हैं.
एक जोड़ा खरगोश लगभग 18माह मे दो हजार हो जाते हैंएक जोड़ा मुर्गा मुर्गी लगभग एक वर्ष
मे दो हजार होते हैं.इतनी अधिक प्रजनन क्षमता के बावजूद भी जीवो की संख्या लगभग स्थिर
रहती है, इसका कारण है प्राक्रतिक वरण,जीवन के लिये सन्घर्ष एवंयोगयतम का जीवित रहना.
इस प्रकार प्रक्रति हजारों मे से कुछ को चुनती है,एवं जिसे प्रक्रति चुने वह योग्यतम होता है.
शेष सभी प्राणी जो प्रक्रति की विषम परिस्थितियाँ सहन करने में असमर्थ रहते है, वे जीवन के
लिये संघर्ष में फैल हो जाते हैं एवं म्रत्यु को प्राप्त हो जाते हैं.जीवों मे विविधताः-प्रत्येक प्राणी अपने
माता पिता से एवं अपने भाई बहनों से अनेक अर्थों मे समान होता है, परन्तु उनमे भिन्नताओ
की भी कमी नही.प्रत्येक प्राणी अपने जाती बंधुवों से समान भी होता है, परन्तु असमान भी. तात्पर्य, प्रत्येक
प्राणी अद्वितीय भी होता है.यह भिन्नता अनेक मामलोंमे वंशगत होती है एवं पीढ़ी दर पीढ़ी यह गुण
स्थानान्तरित होता रहता है.कई पीढ़ियों के बाद जब यह गुण इतना अधिक बढ़ जाता है कि उसे एक स्पेशीज मानना
असंभव हो जाता है, तो नई स्पेशीज की उत्पत्ति हो जाती है.यही भिन्नता प्राक्रतिक वरण का कारण बनती है.
यदि यह भिन्नता प्रक्रति व वातावरण के अनुकूल होती है तो प्राणी जीवित बच जाता है, यदि प्रतिकूल
हो तो नष्ट हो जाता है.उदाहरण के लिये मनुष्य ने सबसे पहले जिस जानवर को पालतु बनाया
वह कुत्ता था.प्रारंभ मे कुत्ते की केवल एक ही जाति थी, मनुष्य नेअपनी आवश्यक्ता व रुचि के
अनुसार चयन करके इनकी हजारोंनस्लें तैयार कर ली हैं.यहाँ प्रक्रति का काम मानव ने किया है.
गायों मे भी इसी प्रकार मानव ने अधिक दूध देने वाली गायों का चयन कर कर के उम्दा नस्लें तैयार
की है.इसी प्रकार मानव ने उम्दा नस्ल के घोड़े तैयार किये हैं.डार्विन ने अपने जीवन का बहुत
समय जीव जन्तुओं के अध्ययन मे लगायाउसने सारी दुनिया के जीव जन्तुओं का बारीक मुआयना
किया.इसके लिये उसने दुनिया की सैर की. गेलोपेगस टापू पर उसे जीव विविधताओं की प्रयोगशाला
मिल गयी.वहाँ फिंच जाति की छोटी चिड़या की चोंचतो लम्बी थी, परंतु जबान छोटी होने के कारण
उसे पेड़ की छाल के नीचे से कीड़े निकाल कर खाने मे परेशानी होती थी, इसका समाधान उसने ऐसे किया
कि वह अपनीचोच मे बबूल का कांटा दबा कर उससे कीड़ा निकाल कर खाती थी.इस प्रकार उसने अपने
आप को बचाया एवं प्राक्रतिक वरण मे जीवन के लिये संघर्ष मे जीत हासिल की व अपना अस्तित्व
बचाया.
प्राक्रतिक वरणः-
इतनि अधिक तादाद मे वंश व्रद्धी के बावजूद भीजीवों की संख्या लगभग स्थिर रहती है, इसका
कारण यह है कि जीवों की संख्या तो तेज बढ़तीहै, किन्तु उस मान से साधन नही बढ़ते.
इसके अलावा सभी जीव जीवित भी नहीं रहते.जीवन संघर्ष व प्राक्रतिक वरण द्वारा यह संख्या
स्थिर रहती है.जो जीव प्रक्रति की कठिनाइयों को झेलने मे समर्थ होते हैं, वही जीवित होते हैं शेष
सभी म्रत हो जाते हैं, उनकी जाति विलुप्त हो जाती है.इसके अलावा प्रक्रति की परिस्थितियां भी सदैव
एक सी नहीं रहती, बदलती रहती हैं.जो जीव स्वयं को बदली परिस्थितियों के
अनुकूल ढाल लेते हैं वही जीवित बचते हैं.भयंकर गर्मी, सर्दी बरसात आदि द्वारा
प्रक्रति परीक्षा लेती है, कठिन परीक्षा.उदाहरण के लिये, पहले जमीन पर
विशाल काय डायनासौर विचरण किया करते थे. कालान्तर मे प्रथ्वी
के वन आच्छादित होने से वातावरण कातापमान गिरने से यह विशाल काय
डायनासौर नये ठण्डे वातावरण मे स्वयंको ढाल पाने मे असमर्थ रहे एवं विलुप्त
हो गये.वातावरण मे कई बार बिना बाल वाली बिल्लियाँ पैदा हो जाती हैं परन्तु
जाड़ों मे सर्दी सहन न कर पाने के कारणवह मर जाती हैं.जंगल में हिरण, बकरी
इत्यादि मे से केवल वही जीवित बचते है जिनमे तेज दौड़कर स्वयं को शिकारी
जानवरों मसलनशेर कुत्ता आदि से बचाने की क्षमता होती है.जिनमे यह क्षमता नहीं होती,
वे इनका शिकारबन जाते हैं.मनुष्य ने प्रक्रति पर विजय पायी है, वह अपने
लिये जीवन के क्रत्रिम साधन बना लेता है.कपड़े उसे प्रक्रति की कठिन परिस्थितियों से
बचाते हैं.वह ठण्ड से बचाव हेतु पंखे कूलरआदि बना लेता है,घर बनाता है.वह अपने
लाभ व उपयोगिता के अनुसार चयन करके व प्रजनन करवा कर जानवरों की नयी नयी
नस्लों का निर्माण कर रहा है.कभी यह काम प्रक्रतिने किया था.मेढक व अन्य शीत रक्त वाले
प्राणी ठण्ड व गर्मी में स्वयं को कीचड़ में धसा कर ठण्ड व गर्मी सेअपना बचाव करते हैं.
जीवन के लिये संघर्षः योग्यतम का जीवित रहना
जीवों मे जीवन के लिये कठिन संघर्ष होता है.इस गला काट प्रतियोगिता को सुविधा की द्रष्टि
से दो प्रकारों में बांटा जा सकता है.1)जाति के भीतर एवं 2) जाति के बाहर1)जीवन के लिये संघर्ष की
शुरुआत जाति के भीतर से ही होती है, नजदीकी जाति भाइयों केहित, साधन आदि समान होने के कारण
संघर्ष का प्रारंभ यहीं से होता है.2) जाति के बाहर संघर्ष दो जातियों के बीच जीवन के लिये संघर्ष है.यह
संघर्ष अपने पूरेचरम पर व पूरी ताकत से चलता है.इस जीवन संघर्ष में जो योगयतम है, वह
जीवित रहता है, शेष सभी अयोग्य म्रत्यु कोप्राप्त होते हैं.यह क्रम निरन्तर चलता रहता है,
एवं अगली पीढ़ी अपने पूर्वजो से श्रेष्ठ होती जातीहै. जब यह भिन्नता कई पीढ़ियों के बाद बहुत
बढ़ जाती हैं तो नई जाति की उत्पती होती है.प्राक्रतिक रूप से प्राणी प्रणय के लिये अपने
जैसों ही को पसन्द करते हैं.इस सम्बन्ध मे डार्विन का काले खेत वाला प्रयोग उल्लेखनीय है.प्राक्रतिक
रूप मे डार्विन ने अलग अलग रंगों के घोड़े खेत मे छोड़े. घास का खेत इतना बड़ा था एवं सभी
रंगों के पर्याप्तघोड़े थे कि प्रक्रतिक व प्रणय हेतु चयन संभव था.दो तीन दिन बाद एक
आश्चर्यजनक घतना सामनेआयी, सभी लाल घोड़ों ने अपना एक अलग समूह
बना लिया, सभी काले घोड़ों ने अपना एक समूह बना लिया एवं सभी सफेद घोडों ने
अपना अलग समूहबना लिया. वह सभी बड़े घास के खेत में अलग अलग
समूह बना कर घास चरते पाये गये.इस प्रयोग केपरिणामों को यदि मानव पर लागू किया जवे तो
यह निष्कर्ष निकलता है कि मानव मे भी दोस्तीप्रेम आदि अपने समान मानव स्त्री पुरुषों मे ही
होती है.इस प्रकार प्रेम विवाह मे रोड़े लगाना प्रक्रति के विरुद्ध कार्य है.भारत मे विडंबना यह है कि
यहाँ जाति वाद अपने चरम पर है. शायद दुनिया मे और कहीं भी एसानालायकी भरा सिस्टम नहीं
मिलेगा.मानव मे जातियाँ नहीं होतीं.सारी मानव जाति एक ही जाति है. क्योंकि
यदि मानव मे जातियाँ होतीं तो दो अलग अलग जातियों के स्त्री पुरुषों में परस्पर आकर्षण, प्रेम,
प्रणय व संतानोत्पत्ति नहीं होती.