ब्रह्मबान्धव उपाध्याय

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ब्रह्मबान्धव उपाध्याय (बांग्ला: ব্রহ্মবান্ধব উপাধ্যায় ब्रॉह्मोबान्धॉब् उपाद्धैय) (1861-1907) बंगाली राष्ट्रवादी, धर्मसुधारक, पत्रकार, कैथोलिक सन्यासी। ईसाई एवं हिन्दू सम्वाद के प्रणेता एवं पूर्ण स्वराज का आह्वान करने वाले प्रारम्भिक नेताओं में से एक।

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[संपादित करें] आरम्भिक जीवन

ब्रह्मबान्धव उपाध्याय (वास्तविक नाम: भवानीचरण बंधोपाध्याय, बांग्ला: ভবানীচরণ বন্ধোপাধ্যায় भोबानिचोरॉण् बॉन्धोपाद्धैय) ने 11 फरवरी को बंगाल के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया। उनके पिता ब्रिटिश पुलिस अधिकारी थे तथा चाचा रेवरंड कालीचरण बैनर्जी मसीही धर्मप्रचारक तथा राष्ट्रवादी नेता थे। आरंभ में वे अपने चाचा के धर्मपरिवर्तन से रुष्ट थे परंतु जब उन्होंने देखा कि ईसाई बन जाने के बावजूद उनका रहन-सहन, खान-पान, पहनावा इत्यादि एक ठेठ बंगाली का सा था तो उन्होंने ईसाई धर्म तथा पश्चिमी संस्कृति में अंतर को समझ लिया। अपने चाचा के प्रारंभिक प्रभाव के बाद उन पर सबसे अधिक प्रभाव केशब चंद्र सेन का था जिन्हें उन्होंने सबसे महान् भारतीय कहकर भी संबोधित किया है। 1887 में वे केशब के नब बिधान संगठन के सदस्य बने। इसी बीच वे कैथोलिक एवं एंग्लीकन मिशनरियों के सम्पर्क में भी आए। 1888 में ब्रह्मो मिशनरी के रूप में वे सिंध पहुंचे। उन दिनों इनके पिता की नियुक्ति सिंध में ही थी जो संयोगवश बीमार चल रहे थे। उनकी सेवा करते हुए उन्होंने फा डी ब्रूनो की पुस्तक कैथोलिक बिलीफ़ का अध्ययन किया। फरवरी 1889 में एक एंग्लीकन पादरी ने उन्हें बपतिस्मा दिया परंतु भवानी ने साफ़ कर दिया कि हालांकि यह कदम यीशु मसीह में उनके विश्वास को दर्शाता है परंतु इससे वे एंग्लीकन चर्च के सदस्य नहीं बन जाएंगे। कुछ लोगों का मानना है कि इसकी एक राष्ट्रवादी वजह थी। वे हाकिमों की कलीसिया का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे। उसी वर्ष सितंबर में वे कैथोलिक कलीसिया के सदस्य बने।

[संपादित करें] कैथोलिक सन्यासी

जनवरी 1894 में उन्होंने एक पर्चा सोफ़िया प्रकाशित करना शुरू किया। एक हिन्दू सन्यासी के समान भगवे वस्त्र पहने तथा अपना नया नाम ब्रह्मबान्धव उपाध्याय धारण किया।

[संपादित करें] संदर्भ

[संपादित करें] टीका-टिप्पणी

[संपादित करें] ग्रन्थसूची

[संपादित करें] बाहरी कड़ियाँ

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