स्वामी रामतीर्थ
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विलक्षण प्रतिभा के धनी स्वामी रामतीर्थ का जन्म पंजाब के मुरलीवाला गाँव में 1873 ई. में हुआ था। इनके बचपन का नाम तीर्थराम था। विद्यार्थी जीवन में इन्होंने अनेक कष्टों का सामना किया। भूख और आर्थिक बदहाली को इन्होंने अध्ययन में रोड़ा नहीं बनने दिया। फलस्वरूप पढ़ाई में वे हमेशा अव्वल रहे। बीए में प्रथम आने पर इनको साठ रुपये मासिक छात्रवृत्ति मिलने लगी। एमए करने के बाद वे उसी कालेज में गणित के प्रोफेसर हो गये।
देवभूमि हिमालय पर प्राचीन काल से ही अनेक श्रेष्ठ पुरुष, सन्तजन आध्यात्म की साधना के लिए आये। इसी परम्परा में युग सन्त स्वामी रामतीर्थ का नाम भी जुड़ा हुआ है। 22 अक्तूबर, 1873 की कार्तिक अमावस्या (दीपावली) के पुनीत अवसर पर पंजाब (अविभाजित) के गुजरांवाला जिले के मुरारीवाला गांव में उनका जन्म हुआ, नाम रखा गया तीर्थराम गोस्वामी। परिवार में आर्थिक तंगी के कारण शिक्षा पाना कठिन था। किन्तु शिक्षा के प्रति तीव्र रुचि ने अभावों में भी माध्यमिक पूर्ण कर बालक के मन को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। परिवारजनों का आग्रह था कि वे नौकरी करें तथा घर में सहयोग करें। पिता ने बाल्यावस्था में ही उनका विवाह भी कर दिया।
इन सब परिस्थितियों से मार्ग निकालकर तीर्थराम शिक्षा हेतु लिए लाहौर चले गये। यहां उन्होंने मेधावी छात्र के रूप में ख्याति अर्जित की। राज्य सरकार से उन्हें छात्रवृत्ति भी मिली। गणित विषय में श्रेष्ठ अंकों से एम.ए. उत्तीर्ण कर वे अध्यापक नियुक्त हुए। स्वभाव से आध्याÎत्मक प्रवृत्ति का होने के कारण वे धन-सम्पत्ति के प्रति कभी आकर्षित नहीं रहे। वेतन के रूप में जो भी प्राप्त होता उसका एक बड़ा हिस्सा निर्धन छात्रों के अध्ययन के लिये दे देते थे। फलस्वरूप उनका महीने भर का गुजारा जैसे-तैसे ही चलता था। लाहौर में ही प्रो. तीर्थराम को स्वामी विवेकानन्द के प्रवचन सुनने तथा सान्निध्य का संयोग मिला। उस समय तीर्थराम पंजाब की सनातन धर्म सभा से जुड़े हुए थे तथा कृष्णभक्ति में लीन रहते थे। उनकी इस आध्याÎत्मक रुचि को जगाने का कार्य एक साधारण ठठेरे धन्ना भगत ने किया, जिन्हें वे ईश्वर का रूप में मानते थे।
वर्ष 1901 में प्रो. तीर्थराम लाहौर से अन्तिम विदा लेकर परिजनों सहित हिमालय की ओर चल दिये। अलकनन्दा व भागीरथी के पवित्र संगम पर पहुंचकर उन्होंने पैदल मार्ग से गंगोत्री जाने का मन बनाया। टिहरी के समीप पहुंचकर नगर में प्रवेश करने की बजाय वे कोटी ग्राम में शाल्माली वृक्ष के नीचे ठहर गये। ग्रीष्मकाल होने के कारण उन्हें यह स्थान सुविधाजनक लगा। मध्यरात्रि में प्रो. तीर्थराम को आत्म-साक्षात्कार हुआ। उनके मन के सभी भ्रम और संशय मिट गये। उन्होंने स्वयं को ईश्वरीय कार्य के लिए समर्पित कर दिया और वह प्रो. तीर्थराम से रामतीर्थ हो गये। दूसरे दिन प्रात:काल साथ आये सभी परिजनों को लेकर वे भागीरथी के तट पर स्नान करने गये। भागीरथी के जल का स्पर्श होते ही उनके मन में वैराग्य की भावना और तीव्र हो उठी। उन्होंने परिजनों से कहा कि अपने पास रुपया-पैसा जो कुछ भी है वह भागीरथी को समर्पित कर दें, यही ईश्वरीय आदेश है। उनके इस निर्देश पर सबने रुपए पैसे, गहने आदि सब कुछ नदी को अर्पित कर दिये। धनाभाव के कारण यात्रा कैसे हो, यह प्रश्न अब सामने था। इस समस्या का समाधान भी ईश्वरादेश से हो गया। बाबा काली कमली क्षेत्र के व्यवस्थापक स्वामी रामनाथ ने सम्पूर्ण टोली की पूरी व्यवस्था कराई। टिहरी में ही रहते हुए निकट के पडियार ग्राम स्थित मुरलीधर की कुटिया में उन्होंने साधना की तथा द्वारिका पीठ के शंकराचार्य के निर्देशानुसार केश व मूंछ आदि का त्यागकर संन्यास ले लिया तथा अपनी पत्नी व साथियों को वहां से वापस लौटा दिया।
स्वामी रामतीर्थ ने सभी बन्धनों से मुक्त होकर एक संन्यासी के रूप में घोर तपस्या की। प्रवास करते समय उनकी भेंट टिहरी रियासत के तत्कालीन नरेश कीर्तिशाह से हुई। टिहरी नरेश अनीश्वरवादी थे। स्वामी रामतीर्थ के सम्पर्क में आकर वे आस्तिक हो गये। महाराजा कीर्तिशाह ने स्वामी रामतीर्थ के जापान में होने वाले विश्व धर्म सम्मेलन में जाने की व्यवस्था की। वे जापान से अमरीका तथा मिस्त्र भी गये। विदेश यात्रा में उन्होंने भारतीय संस्कृति का उद्घोष किया तथा विदेश से लौटकर अनेक स्थानों पर उन्होंने प्रवचन दिए। उनके व्यावहारिक वेदान्त पर विद्वानों ने सर्वत्र चर्चा की।
टिहरी (गढ़वाल) से उन्हें अगाध स्नेह था। वे पुन: यहां लौटकर आए। टिहरी उनकी आध्याÎत्मक प्रेरणास्थली थी और यही उनकी मोक्षस्थली भी बनी। 1906 की दीपावली के दिन उन्होंने मृत्यु के नाम एक संदेश लिखकर गोलकोठी सिमलासू से नीचे भिलंगना नदी में जलसमाधि ले ली।
स्वामी रामतीर्थ अपने जीवन के अन्तिम दिनों में हिमालय पर एक स्वावलम्बी वेदान्त आश्रम खोलना चाहते थे ताकि देशवासियों को त्याग, शांति तथा सांस्कृतिक वैभव की परिपूर्ण शिक्षा दे सकें।
कृतियां
नकद धर्म