सूरदास

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[बदलें] जीवन परिचय

हिन्ढी साहित्य में कृष्ण-भक्ति की अजस्र धारा को प्रवाहित करने वाले भक्त कवियों में महाकवि सूरदास का नाम अग्रणी है। उनका जन्म १४७८ ईस्वी में मथुरा आगरा मार्ग के किनारे स्थित रुनकता नामक गांव में हुआ। सूरदास के पिता रामदास गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषया में मतभेद है। प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। अष्टछाप कवियों में एक । सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में १५८० ईस्वी में हुई।

[बदलें] रचनाएं

सूर के नाम से कई रचनाएं कही जाती हैं, किंतु उन की प्रामाणिक रचनाएं तीन मानी जाती हैं-

  • सूरसागर
  • सूरसारावली और
  • सहित्यलहरी।

[बदलें] साहित्यिक विशेषताएं

  • सूरसागर का मुख्य वर्ण्य विषय श्री कृष्ण की लीलाओं का गान रहा है।
  • सूरसारावली में कवि ने क्रिष्ण विषयक जिन कथात्मक और सेवा परक पदो का गान किया उन्ही के सार रूप मैं उन्होने सारावली की रचना की।
  • सहित्यलहरी मैं सूर के दृष्टिकूट पद संकलित हैं।

[बदलें] सूरदास जी के कुछ पद

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे।

जैसे उड़ि जहाज की पंछि, फिरि जहाज पर आवै॥

कमल-नैन को छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै।

परम गंग को छाँड़ि पियसो, दुरमति कूप खनावै॥

जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल खावै।

'सूरदास' प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै॥


चरन कमल बंदौ हरिराई ।

जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे,अंधे को सब कछु दरसाई ॥१॥

बहरो सुने मूक पुनि बोले,रंक चले सिर छत्र धराई ।

‘सूरदास’ स्वामी करुणामय, बारबार बंदौ तिहिं पाई ॥२॥


तिहारो दरस मोहे भावे श्री यमुना जी ।

श्री गोकुल के निकट बहत हो, लहरन की छवि आवे ॥१॥

सुख देनी दुख हरणी श्री यमुना जी, जो जन प्रात उठ न्हावे ।

मदन मोहन जू की खरी प्यारी, पटरानी जू कहावें ॥२॥

वृन्दावन में रास रच्यो हे, मोहन मुरली बजावे ।

सूरदास प्रभु तिहारे मिलन को, वेद विमल जस गावें ॥३॥


दृढ इन चरण कैरो भरोसो, दृढ इन चरणन कैरो ।

श्री वल्लभ नख चंद्र छ्टा बिन, सब जग माही अंधेरो ॥

साधन और नही या कलि में, जासों होत निवेरो ॥

सूर कहा कहे, विविध आंधरो, बिना मोल को चेरो ॥


मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ।
मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ?
कहा करौं इहि के मारें खेलन हौं नहि जात।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता, को है तेरौ तात?
गोरे नन्द जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात।
चुटकी दै-दै ग्वाल नचावत हँसत-सबै मुसकात।
तू मोहीं को मारन सीखी दाउहिं कबहुँ न खीझै।
मोहन मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै।
सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत।
सूर स्याम मौहिं गोधन की सौं, हौं माता तो पूत॥

[बदलें] यह भी देखें

भक्ति काल,
भक्त कवियों की सूची
हिंदी साहित्य


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